"श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर के इतिहास के बारे में रोचक तथ्य"

विश्वविख्यात देवस्थान, श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर एक ऐतिहासिक मंदिर है जो अपनी प्राचीनता और वैभव के लिए प्रसिद्ध है।  यह मंदिर केरल और द्रविड़ शैली की वास्तुकला का मिश्रण है।

श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर, केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में पूर्वी किले के अंदर स्थित है।  कहते हैं कि श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर सात परशुराम क्षेत्रों में से एक में स्थित है।

यह मन्दिर भगवान पद्मनाभन (भगवान श्रीहरि विष्णु) को समर्पित है।  इस मंदिर में भगवान विष्णु अनन्त नामक एक नाग पर शयनमुद्रा में हैं।

तिरुवनंतपुरम शहर का नाम भगवान श्री पद्मनाभस्वामी के नाम पर है जिन्हें अनंत (जो अनंत नाग पर लेटे हैं) भी कहते है।  तिरुवनंतपुरम शब्द का शाब्दिक अर्थ है - श्री अनंत पद्मनाभस्वामी का नगर।

यह मंदिर भगवान विष्णु के 108 दिव्य वैष्णव स्थानों (सबसे पवित्र मंदिरों) में से एक है, जिसे भारत का दिव्य देशम भी कहते हैं।  भगवान विष्णु के सबसे पवित्र निवास दिव्य देशम का उल्लेख तमिल संतों द्वारा लिखे गए पांडुलिपियों में मिलता है। 

श्री पद्मनाभस्वामी के मंदिर का एक लंबा इतिहास है, जो पुरातनता में समय के साथ खो गया है, इसकी उत्पत्ति अज्ञात है।

किसी भी विश्वसनीय ऐतिहासिक दस्तावेजों या अन्य स्रोतों से यह निर्धारित करना असंभव है कि श्री पद्मनाभस्वामी की मूल मूर्ति को कब और किसके द्वारा प्रतिष्ठित किया गया था।

ब्रम्हाण्ड पुराण, स्कंद पुराण और पद्म पुराण सहित कई महाकाव्यों और पुराणों में इस मंदिर का उल्लेख है।  आराध्य ग्रंथ श्रीमद् भागवत के अनुसार, भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम जी ने इस मंदिर का दर्शन करते हुए पद्मतीर्थम में स्नान किया और पूजा अर्चना की।  इन संदर्भों से पता चलता है कि यह मंदिर बहुत प्राचीन है। 

कुछ प्रसिद्ध विद्वानों, लेखकों, और इतिहासकारों के अनुसार, जिसमें त्रावणकोर के दिवंगत डॉ. एल.ए. रवि वर्मा भी शामिल हैं, इस मंदिर की स्थापना कलियुग के पहले दिन (जो लगभग 5000 साल पहले की बात है) की गई थी। 

मंदिर के प्राचीन ताड़ के पत्तों के अभिलेखों में मिली किंवदंती के साथ-साथ, प्रसिद्ध ग्रंथ "अनंतसयन महात्म्य (Ananthasayana Mahatmya)" में भी उल्लेख है कि इसे दिवाकर मुनि नामक एक तुलु ब्राह्मण साधु द्वारा प्रतिष्ठित किया गया था।

श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर का इतिहास 8वीं सदी से मिलता है।  मूर्ति की पुनः स्थापना कलियुग के 950वें वर्ष में की गई थी।  960वें कलि वर्ष में राजा कोठा मार्तंडन ने अभिश्रवण मंडपम का निर्माण किया।

9वीं शताब्दी के कवि और अलवर परंपरा के 12 वैष्णव संतों में से एक, महान वैष्णव संत नम्मलवार, ने भगवान पद्मनाभ की स्तुति में दस भजनों की रचना की है।  उनकी रचनाएं निस्संदेह साबित करती हैं कि यह मंदिर इस युग की 9वीं शताब्दी में मौजूद था।

वर्ष 1050A.D. (225ME) में, इस मंदिर का पुनर्निर्माण किया गया था।  

1335 ईस्वी और 1384 ईस्वी के बीच की अवधि में, वेनाड के एक शक्तिशाली और बुद्धिमान राजा वीरा मार्तंड वर्मा का मंदिर के प्रबंधन और प्रशासन पर पूरी तरह से अधिकार था।  1375 ईस्वी में, उसके कार्यकाल में मंदिर में अल्पासी उत्सव (अक्टूबर-नवंबर में आयोजित दस दिवसीय उत्सव) आयोजित किया गया था।

1729 में महान शासक मार्तंड वर्मा त्रावणकोर के राजा बने। 1730 में, उन्होंने इस मंदिर का पुनर्निर्माण किया था, जो अब श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर के रूप में हमें दिखता है। इस दौरान गोपुरम, जिसकी नींव 1566 में रखी गई थी, का भी निर्माण किया गया था। इसी समय मुख्य मंदिर के सामने ध्वजारोहण भी किया गया था।

यह दर्ज है कि मंदिर के श्रीबलिपुरा (आयताकार गलियारा) के निर्माण को पूरा करने के लिए 4000 मूर्तिकारों, 6000 मजदूरों और 100 हाथियों ने 6 महीने तक काम किया था।

वर्ष 1750 में, मार्तंड वर्मा ने त्रावणकोर राज्य भगवान पद्मनाभ को समर्पित कर दिया। इस मंदिर में मुरजपम और भद्र दीपम त्यौहारों की शुरुआत मार्तंड वर्मा ने ही की थी।  इस मंदिर में, हर छह साल में मुरजपम, जिसका अर्थ प्रार्थना का मंत्रोच्चार करना होता है, अभी भी किया जाता है।

मार्तंड वर्मा ने यह घोषणा की कि राज परिवार भगवान की ओर से राज्य पर शासन करेगा और वे स्वंय और उनके वंशज राज्य की सेवा पद्मनाभ के दास या सेवक के रूप में करेंगे।  तब से, त्रावणकोर के प्रत्येक राजा को उनके नाम से पहले पद्मनाभ दास पुकारा जाता है। पद्मनाभस्वामी को त्रावणकोर राज्य के दान को त्रिपड़ीदानम कहा जाता है।