Ancient Indian Education System
गुरुकुल (Gurukul) यानी ‘गुरु का परिवार’. वह स्थान जहां कोई विद्यार्थी अपने परिवार से दूर अपने गुरु के आश्रम में रहकर, उन्हीं के परिवार का हिस्सा बनकर विद्याध्ययन करता था या शिक्षा प्राप्त करता था. भारत के प्राचीन इतिहास में ऐसे कई गुरुकुलों का वर्णन मिलता है, जहां एक साथ 10 हजार विद्यार्थी गुरु आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करते थे. उनके खाने-पीने, रहने आदि की व्यवस्था गुरुकुल की तरफ से ही की जाती थी.
मुनीनां दशसाहस्रं योऽन्नदानादि पोषाणात।
अध्यायपति विप्रर्षिरसौ कुलपति: स्मृत:।
भारत के प्राचीन काल में गुरुकुल ही अध्ययन-अध्यापन के प्रमुख केंद्र हुआ करते थे, जहां दूर-दूर से विद्यार्थी, या सत्यान्वेषी परिव्राजक अपनी शिक्षाओं को पूर्ण करने के लिए आते थे. गुरुकुल छोटे या बड़े सभी प्रकार के होते थे.
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यानी सभी कुल, वर्ण और समाज के बालक-बालिकाओं को 6 से 12 वर्ष की अवस्थाओं में यज्ञ और संस्कारों द्वारा गुरुकुलों में भेजा जाता था, जहां सभी विद्यार्थी उत्तम ब्रह्मचर्य व्रत का पूर्ण पालन करते हुए गुरु के समीप बैठकर शिक्षा प्राप्त करते थे. राज्य गुरुओं और गुरुकुलों के भरण पोषण की व्यवस्था करने को अपना कर्तव्य समझता था.
जैसे- भगवान श्रीराम ने गुरु वशिष्ठ और गुरु विश्वामित्र के आश्रम में, तो श्रीकृष्ण के अवतार में उन्होंने गुरु संदीपन के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की. इसी तरह, कण्व ऋषि का आश्रम और प्रयाग में भारद्वाज मुनि का आश्रम भी प्रसिद्ध गुरुकुल आश्रम थे.
भगवान श्रीराम और उनके मित्र निषादराज एक ही गुरुकुल में पढ़े थे.
रामायण और महाभारत से गुरुकुल के बारे में जानकारी
जहां आज के समय में वन-जंगल का अर्थ भय देने वाली जगह ही है, जहां आमतौर पर मानव प्रवेश दुर्गम और कठिन माना जाता है, वहीं प्राचीन भारत में वन यानी अरण्य को तपोस्थली और गुरु आश्रम का स्थान आदि बताया गया है. प्राचीन भारत के गुरुकुल कैसे होते थे और इनके क्या नियम होते थे, इसका वर्णन रामायण और महाभारत (Ramayana and Mahabharata) में बार-बार मिलता है (अगर इन ग्रंथों को उनके मूल रूप में ही पढ़ने का प्रयास किया जाए तो).
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आज जहां प्राचीन भारत की संस्कृति को लेकर ये मिथ्या बातें फैलाई जाती हैं, कि उस समय शूद्रों को विद्याध्ययन या तप का अधिकार नहीं था, या शूद्रों को अन्य वर्णों के विद्यार्थियों के साथ बैठकर शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था… इस तरह के झूठ का पर्दाफाश तो महाभारत (Mahabharata) के पहले दो श्लोकों से ही हो जाता है. पूरी महाभारत में इस बात का प्रमाण कई बार मिलता है कि सभी वर्णों के लोग विद्या के अधिकारी हैं तथा अपने ज्ञान और तप के आधार पर उन्हें ऋषि और ब्रहर्षि की उपाधि भी प्राप्त होती है.
श्रावयेच्चतुरोवर्णान् (महाभारत शांतिपर्व ३२७.४८)
अर्थात् – ‘चारों वर्णों को वेद पढ़ायें.’
धर्मो यज्ञक्रिया तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते।
इत्येते चतुरो वर्णांः येषां ब्राह्मी सरस्वती॥
(महाभारत शान्तिपर्व १८८.१५)
वर्णान्तर प्राप्त जनों के लिए यज्ञक्रिया और धर्मानुष्ठान का निषेध कदापि नहीं है. वेदवाणी चारों वर्ण वालों के लिए है.
चत्वारो वर्णाः यज्ञमिमं वहन्ति
(महाभारत वनपर्व १३४.११)
अर्थात् – ‘चारों वर्ण इस यज्ञ का संपादन कर रहे हैं.’
ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः मध्ये शूद्राश्च भागशः॥
पुरुषैर्यज्ञपुरुषो जबू द्वीपे सदेज्यते॥
(विष्णुपुराण 2.3.9, 21)
जम्बू द्वीप (भारतवर्ष) में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र साथ-साथ निवास करते हैं. उन चारों वर्णों के पुरुषों द्वारा परमात्मा का सदा यज्ञ के द्वारा यजन किया जाता है.
• महाभारत के पहले दो श्लोकों को पढ़ने से ही प्राचीन भारत के वैभव के बारे में, वर्ण व्यवस्था के बारे में, विद्या की परंपरा के बारे में, अरण्यों (वनों) की सुव्यवस्था और समृद्धि के बारे में और ज्ञान के विस्तार के बारे में स्पष्ट जानकारी मिलती है. तो सबसे पहले देखते हैं महाभारत का ये उदाहरण-
महाभारत के आदिपर्व के प्रथम दो श्लोक हैं-
लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सौतिः पौराणिको।
नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेः द्वादशवार्षिके सत्रे।। 1।।
सुखासीनानभ्यगच्छद् ब्रह्मर्षीन् संशितव्रतान्।
विनयावनतो भूत्वा कदाचित् सूतनन्दनः।।2।।
महाभारत के आदिपर्व के पहले और दूसरे श्लोक को पढ़ते हुये मन आश्चर्य से भर जाता है. केवल इन दो श्लोकों से ही अनेक रोमांचकारी तथ्य सामने आ जाते हैं. यहां सबसे पहले यह बताया गया है कि महाभारत की कथा नैमिषारण्य (नैमिष+अरण्य) में हो रही है. उस अरण्य (वन) में 12 सालों तक लगातार चलने वाला एक ज्ञानसत्र चल रहा है.
वहां कई ब्रह्मर्षि स्वाध्याय या वेदाध्ययन के बाद (स्नान, संध्या वंदन, जप और अग्निहोत्र के बाद) सुखपूर्वक बैठे हैं. तभी वहां ऋषि लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा पधारते हैं, जो सूतकुल को आनंदित करने वाले हैं. उनके आते ही सभी तपस्वी उन्हें घेर लेते हैं.
सभी तपस्वी, सूतपुत्र उग्रश्रवा का अभिवादन स्वीकार कर, दिए गए आसन को ग्रहण कर बैठते हैं. फिर कुशलक्षेम के बाद वे सभी उग्रश्रवा से श्री वेदव्यास जी द्वारा रचित महाभारत की कथा सुनाने का आग्रह करते हैं, जिसे सुनने से पाप और भय का नाश होता है.
एक सवाल- महाभारत के द्वारा प्राचीन भारत के इतिहास में जाति प्रथा के प्रचलन का चीख-चीखकर प्रमाण देने वाले आधुनिक विद्वान द्रौपदी की केवल इसी बात पर शोर मचाते रहते हैं कि ‘उन्होंने कर्ण से कहा कि मैं सूतपुत्र का वरण नहीं करूंगी’… उन आधुनिक विद्वानों के लिए उस समय की एक स्त्री के लिए भरी सभा में अपनी पसंद का वर चुनने की स्वतंत्रता का क्या कोई महत्व नहीं?
क्या उन्हीं आधुनिक विद्वानों को उसी महाभारत की बिल्कुल शुरुआत का ये तथ्य नजर नहीं आता कि सभी ब्रह्मर्षि एक सूतपुत्र के आते ही उसका स्वागत-सत्कार करते हैं, उन्हें आदरपूर्वक बैठाते हैं और कुशलक्षेम के बाद उनसे कथा सुनाने का अनुरोध करते हैं.
♦ दरअसल, आज ज्यादातर लोगों को सूत, क्षुद्र, शूद्र, अधम आदि शब्दों का अर्थ ही समझ में नहीं आता. इन्हीं शब्दों को बाद में जाति से जोड़कर देखा गया और आजादी के बाद दो शब्दों का और अविष्कार किया गया- दलित और हरिजन. इन दोनों ही शब्दों को जानबूझकर ‘क्षुद्र’ या ‘शूद्र’ शब्द से जोड़कर प्रचारित किया गया. लेकिन ज्यादातर लोगों को जरा भी जानकारी नहीं है, जिसका ही नतीजा है कि लोग जातियों में बंट गए.
खैर, इन्हीं प्रथम दो श्लोकों से प्राचीन भारत के ज्ञान के वैभव का भी अनुमान लगाया जा सकता है.
नैमिष एक अरण्य है जहां 12 सालों से ज्ञानसत्र चल रहा है. इस अरण्य के कुलपति महर्षि शौनक हैं. ऊपर लिखे पहले श्लोक में ही ‘12 वर्षीय सत्र’ की बात कही गई है. इससे पता चलता है कि अरण्य एक ऐसा विशाल परिसर है, जो नगर के पास ही स्थित है और यहां बड़ी संख्या में उत्तम ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करने वाले ऋषि, महर्षि और ब्रहर्षि ज्ञान की साधना करते हैं.
स्पष्टीकरण : भारतवर्ष के गुरुकुल आश्रमों के प्रधान आचार्य को महोपाध्याय या ‘कुलपति’ और आचार्यों को उपाध्याय कहा जाता था. जो विद्वान ऋषि अन्न, दान आदि के द्वारा अकेले ही दस हजार जिज्ञासु व्यक्तियों या विद्यार्थियों का भरण-पोषण करते हैं, उसे कुलपति कहते हैं. स्पष्ट है कि ऐसे हजारों कुलपति उस समय के भारत में रहे होंगे.
वहीं, जो कार्य अनेक व्यक्तियों की सहायता से किया जाए और जिसमें बहुत से लोगों को ज्ञान, सदाचार आदि की शिक्षा और अन्न-वस्त्र आदि वस्तुएं दी जाती हैं, जो उन सभी के लिए तृप्तिकारक और उपयोगी हों, उसे सत्र कहते हैं. ऐसे सत्र चारों वर्णों के सहयोग और सहभागिता से ही चल सकते हैं.
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अब अगर दस हजार विद्यार्थी वहां अध्ययन और अभ्यास आदि कर रहे हैं, तो निश्चय ही कम से कम पांच हजार लोग तो उनके भोजन और आवास आदि की व्यवस्थाओं के लिए भी रहे ही होंगे. यानी लगभग 15 हजार लोग इस सत्र में लगातार 12 सालों से उपस्थित हैं.
“श्री वेदव्यास जी द्वारा रचित महाभारत की कथा सुनाने का आग्रह…” से यह भी पता चलता चलता है कि हमारे देश में कितने प्राचीन काल से ही इतिहास लिखा जा रहा है और इतिहास का कितना ज्यादा महत्व रहा है. हमारे भारत में लेखन की प्राचीनतम परंपरा रही है. इतिहास लेखन की ऐसी प्राचीनतम परंपरा विश्व में और कहीं नहीं मिलती है.
गुरु वशिष्ठ का गुरुकुल आश्रम
गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र जी की कहानी से भी प्राचीन भारत के गुरुकुल की स्पष्ट जानकारी मिलती है. जब राजा विश्वरथ (बाद में विश्वामित्र) एक युद्ध जीतने के बाद गुरु वशिष्ठ के आश्रम में आते हैं, तब वे देखते हैं कि आश्रम के कई पशु-पक्षी तक वेदों के मंत्रों का उच्चारण कर रहे हैं. आश्रम में सब कुछ सुव्यवस्थित है. सभी विद्यार्थी और सेवा कार्य में लगे लोग प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं. ये सब देखकर राजा विश्वरथ अत्यंत आनंदित होते हैं और विस्मय से भर जाते हैं.
इसी कहानी में जब राजा विश्वरथ गुरु वशिष्ठ से उनकी नंदिनी गाय मांगते हैं, तब वशिष्ठ कहते हैं कि, “हे राजन! यह गाय मैंने अपनी कठिन तपस्या से प्राप्त की है. मेरे ऊपर आश्रम के 10 हजार विद्यार्थियों का दायित्व है. अगर मैं अपनी ये गाय आपको दे दूंगा, तो अपने आश्रम के 10 हजार विद्यार्थियों का भरण-पोषण कैसे करूंगा.”
गुरुकुल में दी जाती थीं 64 प्रकार की विद्याएं
इसी तरह, भगवान श्रीकृष्ण के बारे में लिखा है कि उन्होंने अपने गुरुकुल में 64 दिनों में ही 64 विद्याओं को ग्रहण कर लिया था. यानी कि उस समय आश्रमों में हर विद्यार्थी को 64 प्रकार की शिक्षाएं दी जाती थीं, जिनमें वेदों के सही अध्ययन, भाषाओं का ज्ञान, व्यवहार-आचरण-सभ्यता, विज्ञान, गणित, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, शास्त्रार्थ आदि से लेकर शस्त्र, युद्धकला आदि शामिल थे.
गुरु दक्षिणा
दक्षिणा के रूप में विद्यार्थी अपने गुरु को या तो अपनी सेवाएं देता, या संपन्न होने की अवस्था में अर्थशुल्क दे देता. लेकिन ऐसी दक्षिणा और उपहार शिक्षा-दीक्षा के बाद ही दक्षिणा स्वरूप दिए जाते. विद्यादान शुरू करने के पहले न तो गुरु अपने आगंतुक विद्यार्थियों से कुछ मांगते और न उनके बिना किसी विद्यार्थी को अपने द्वार से लौटाते थे.
धनी हो या गरीब, किसी भी वर्ण का हो, विनम्रता से शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक और जिज्ञासु विद्यार्थियों के लिए गुरुकुलों के द्वार खुले रहते थे. शिष्य गुरु के पास रहकर उनके व्यक्तित्व और आचरण से सीखता. उनके अंदर का जीवन सादा, भक्तिपरक, श्रद्धापूर्ण और त्यागमय होता था. विद्यार्थी अपने गुरु के निर्देशों का पूरा पालन करते थे. गुरुकुल के बच्चे आश्रम की दिनचर्या के सभी कार्य करते थे, साथ ही वे अपने उपयोग की वस्तुओं का निर्माण भी स्वयं ही कर लेते थे.
मनुस्मृति भी नि:शुल्क शिक्षा की बात करती है (3/156) (ब्राह्मण दक्षिणा में मिले धन का संचय नहीं करते थे, बल्कि उससे निःशुल्क शिक्षा देते थे).
गुरु सभी विद्यार्थियों के मानस और बौद्धिक संस्कारों को पूर्ण करते हुए उन्हें सभी शास्त्रों और उपयोगी विद्याओं की शिक्षा देते और अंत में दीक्षा देकर उन्हें अलग-अलग कर्तव्यों का पालन करने के लिए वापस उनके घर भेज देते. सभी शिष्य अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार गुरु को दक्षिणा देते, लेकिन गरीब विद्यार्थी उससे मुक्त भी कर दिए जाते थे.
यहां “वेदों के सही अध्ययन..” से यह भी पता चलता है कि प्राचीन भारत में जब संस्कृत आम बोलचाल की भाषा थी, तब भी वेदों के श्लोकों और भावों का सही अर्थ किसी सही गुरु की कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता था.
ऋषि आश्रमों में यज्ञ-हवन-मंत्रोचारण आदि चलते रहते थे, क्योंकि वैज्ञानिक दृष्टि से ये स्वास्थ्य और पृथ्वी के वायुमंडल लिए अत्यंत आवश्यक हैं, साथ ही यज्ञ-हवन-मंत्रोचारण से देवताओं की शक्ति यानी सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है. इसीलिए राक्षस या आसुरी प्रवृत्ति के लोग हमेशा से ही ऋषि-मुनियों के आश्रमों में चलने वाले यज्ञ-हवन-मंत्रोचारण में बाधा डालते हुए आए हैं.
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