Bhagavad Gita Adhyay 9 : श्रीमद्भगवद्गीता – नौवाँ अध्याय (राजविद्या राजगुह्य योग)

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महाभारत की ऐतिहासिकता

Bhagavad Gita Adhyay 9 : श्रीमद्भगवद्गीता – नौवाँ अध्याय (राजविद्या राजगुह्य योग)

गीता के सातवें अध्याय के आरम्भ में भगवान् ने विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की थी. उसके अनुसार उस विषय का वर्णन करते हुए‚ अंत में ब्रह्म‚ अध्यात्म‚ कर्म‚ अधिभूत‚ अधिदैव और अधियज्ञ के सहित भगवान् को जानने की एवं अंतकाल के भगवच्चिन्तन की बात कही. इस पर आठवें अध्याय में अर्जुन ने उन तत्त्वों को और अंतकाल की उपासना के विषय को समझने के लिये सात प्रश्न कर दिये.

उनमें से छः प्रश्नों का उत्तर तो भगवान् ने संक्षेप में तीसरे और चौथे श्लोकों में दे दिया‚ किंतु सातवें प्रश्न के उत्तर में उन्होंने जिस उपदेश का आरंभ किया‚ उसमें सारा का सारा आठवां अध्याय पूरा हो गया. इस प्रकार सातवें अध्याय में आरम्भ किये हुए विज्ञान सहित ज्ञान का सांगोंपांग वर्णन न होने के कारण उसी विषय को भली-भाँति समझाने के उद्देश्य से भगवान् इस नवम अध्याय का आरंभ करते हैं तथा सातवें अध्याय में वर्णित उपदेश के साथ इसका घनिष्ठ संबंध दिखलाने के लिये पहले श्लोक में पुनः उसी विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हैं-

भगवद्गीता – नवम अध्याय (Gita 9 Raj Vidya Yog)

(Bhagwat Geeta Adhyay 9 Shlok in Sanskrit)

श्रीभगवानुवाच

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥१॥
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥२॥

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥३॥
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥४॥

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥५॥
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय॥६॥

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥७॥
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥८॥

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥९॥
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥१०॥

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥११॥
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः॥१२॥

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥१३॥
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥१४॥

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥१५॥
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥१६॥

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च॥१७॥
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥१८॥

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥१९॥
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥२०॥

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते॥२१॥
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥२२॥

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥२३॥
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥२४॥

यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥२५॥
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥२६॥

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥२७॥
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥२८॥

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥२९॥
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥३०॥

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥३१॥
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥३२॥

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥३३॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥३४॥


भावार्थ (नौवां अध्याय) (Gita 9 Raj Vidya Yog)

(Bhagwat Geeta Adhyay 9 in Hindi)

भगवान श्रीकृष्ण बोले- तुम्हारे जैसे दोषदृष्टिरहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान को पुनः भली-भाँति कहूँगा, जिसको जानकर तुम दुःखरूप संसार से मुक्त हो जाओगे॥1॥ यह विज्ञान सहित ज्ञान सब विद्याओं का राजा, सब गोपनीयों का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी है॥2॥

हे परंतप (तपस्वी योद्धा)! इस उपयुक्त धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं॥3॥ मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत्‌ (समस्त ब्रह्माण्ड) जल से बर्फ के समान परिपूर्ण है और सब भूत (समस्त प्राणी) मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं, किंतु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ॥4॥ वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं, किंतु मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख कि भूतों का धारण-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरा आत्मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है॥5॥

सबकी स्थिति भगवान् के अधीन है, इसीलिये सब भूतों को भगवान् में स्थित बतलाया गया है. जगत के नाश से भगवान् का नाश नहीं होता तथा जहाँ कोई जगत नहीं है, वहाँ भी भगवान अपनी महिमा में स्थित ही हैं. इसलिए वास्तव में भगवान समस्त प्राणियों में स्थित नहीं हैं, अर्थात् वे अपने-आप में ही नित्य स्थित हैं.

जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरने वाली वायु सदा आकाश में ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने से संपूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं॥6॥ अर्जुन! कल्पों के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ॥7॥ अपनी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के बल से परतंत्र हुए इस संपूर्ण भूत-समुदाय को बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ॥8॥

भिन्न-भिन्न प्राणियों का जो अपने-अपने गुण और कर्मों के अनुसार बना हुआ स्वभाव है‚ वही उनकी प्रकृति है.

अर्जुन! उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते॥9॥ मुझ अधिष्ठाता के सकाश (समीप, पास) से प्रकृति चराचर सहित सर्वजगत को रचती है और इस हेतु से ही यह संसार-चक्र घूम रहा है॥10॥

संपूर्ण जगत की उत्पत्ति‚ पालन और संहार आदि के लिए भगवान् के द्वारा जितने भी कर्म होते हैं‚ उन कर्मोंं में या उनके फल में भगवान् का किसी प्रकार भी आसक्त न होना- ‘आसक्ति रहित रहनाʼ है और केवल अध्यक्षता मात्र से प्रकृति द्वारा प्राणियों के गुण कर्मानुसार उनकी उत्पत्ति आदि के लिये की जाने वाली चेष्टा में कर्तृत्वाभिमान (कर्ता होने के अभिमान) से तथा पक्षपात से रहित होकर निर्लिप्त रहना (लिप्त न होना)- ‘उन कर्मों में उदासीन के समान स्थित रहनाʼ है. इसी कारण वे कर्म भगवान् को नहीं बाँधते.

जिस प्रकार किसान अपनी अध्यक्षता में पृथ्वी के साथ स्वयं बीज का संबंध कर देता है‚ फिर पृथ्वी उन बीजों के अनुसार भिन्न-भिन्न पौधों को उत्पन्न करती है‚ उसी प्रकार भगवान् अपनी अध्यक्षता में चेतना समूह रूप बीच का प्रकृति रूपी भूमि के साथ संबंध कर देते हैं. इस प्रकार जड़-चेतन का संयोग कर दिये जाने पर यह प्रकृति समस्त चराचर जगत को कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों में उत्पन्न कर देती है.

जहाँ भगवान् ने स्वयं को जगत का रचयिता बतलाया है‚ वहाँ पर बात भी समझ लेनी चाहिये कि वस्तुतः भगवान् स्वयं कुछ नहीं करते‚ वे अपनी शक्ति प्रकृति को स्वीकार करके उसी के द्वारा जगत की रचना करते हैं और जहाँ प्रकृति को सृष्टि की रचना आदि कार्य करने वाली कहा गया है‚ वहाँ उसी के यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि भगवान् की अध्यक्षता में उनसे सत्ता स्फूर्ति पाकर ही प्रकृति सब कुछ करती है. जब तक उसे भगवान् का सहारा नहीं मिलता‚ तब तक वह जड़ प्रकृति कुछ नहीं कर सकती.

मेरे परमभाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ संपूर्ण भूतों के महान्‌ ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात्‌ अपनी योग माया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मानते हैं॥11॥ वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान वाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को (जिसको आसुरी संपदा के नाम से विस्तारपूर्वक भगवान ने गीता अध्याय 16 श्लोक 4 तथा श्लोक 7 से 21 तक में कहा है) ही धारण किए रहते हैं॥12॥

गीता के 16वें अध्याय के चौथे तथा 7वें से 20वें श्लोक तक जिनके अलग-अलग लक्षण बतलाये गये हैं‚ ऐसे ही आसुरी सम्पदा वाले मनुष्यों के लिये ‘मूढ़ʼ पद का प्रयोग हुआ है.

राक्षसों की भाँति बिना ही कारण के दूसरों के अनिष्ठ करने का और उन्हें कष्ट पहुँचाने का स्वभाव है‚ उसे ‘राक्षसी प्रकृतिʼ कहते हैं. काम और लोभ के वश होकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये दूसरों को क्लेश पहुँचाने और उनके स्वतहरण करने का जो स्वभाव है‚ उसे ‘आसुरी प्रकृति’ कहते हैं और प्रमाद या मोह के कारण किसी भी प्राणी को दुःख पहुँचाने का जो स्वभाव है‚ उसे ‘मोहिनी प्रकृतिʼ कहते हैं. भगवान् के प्रभाव को न जानने वाले मनुष्य प्रायः ऐसा ही करते हैं. भगवान् के प्रभाव को न जानने वाले आसुर मनुष्य ऐसी निरर्थक आशाएं करते रहते हैं‚ जो कभी पूर्ण नहीं होतीं (गीता 16.10 से 12).

किन्तु अर्जुन! दैवी प्रकृति के (सात्त्विक गुण और आचरण; गीता अध्याय 16 श्लोक 1 से 3 तक में देखना चाहिए) आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं॥13॥ वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं॥14॥ दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्म का ज्ञानयज्ञ द्वारा अभिन्नभाव से पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकार से स्थित मुझ विराट स्वरूप परमेश्वर की पृथक भाव से उपासना करते हैं॥15॥

समस्त विश्‍व की उपासना से भगवान् की उपासना कैसे है? यह स्पष्ट समझाने के लिये अब चार श्लोकों द्वारा भगवान् इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि समस्त जगत् मेरा ही स्वरूप है-

क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ॥16॥ इस संपूर्ण जगत्‌ का धाता अर्थात्‌ धारण करने वाला एवं कर्मों का फल देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य, (गीता अध्याय 13 श्लोक 12 से 17 तक में देखना चाहिए) पवित्र ॐकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ॥17॥

प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ का देखने वाला, सबका वासस्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करने वाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान (प्रलयकाल में संपूर्ण भूत सूक्ष्म रूप से जिसमें लय होते हैं उसका नाम ‘निधान’ है) और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ॥18॥

अर्जुन! मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ. मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत्‌-असत्‌ भी मैं ही हूँ॥19॥ तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों (किसी कामना या इच्छा से प्रेरित होकर ही शारीरिक या मानसिक कर्म करना) को करने वाले, सोमरस को पीने वाले, पापरहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फल स्वरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं॥20॥

वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं. इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकामकर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं, अर्थात्‌ पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं॥21॥

जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर का निरंतर चिंतन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम (भगवत्‌स्वरूप की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है और भगवत्‌प्राप्ति के निमित्त किए हुए साधन की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है) मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ॥22॥

अर्जुन! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात्‌ अज्ञानपूर्वक है॥23॥ क्योंकि संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ, परंतु वे मुझ परमेश्वर को तत्त्व से नहीं जानते, इसी से गिरते हैं अर्थात्‌ पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं॥24॥

देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं. इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता (गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में देखना चाहिए)॥25॥

जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ॥26॥ अर्जुन! तुम जो कर्म करते हो, जो खाते हो, जो हवन करते हो, जो दान देते हो और जो तप करते हो, वह सब मुझे अर्पण करो॥27॥

इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान के अर्पण होते हैं- ऐसे संन्यासयोग से युक्त चित्तवाले तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबंधन से मुक्त हो जाओगे और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगे. ॥28॥ मैं सब भूतों में समभाव से व्याप्त हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है, परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ (जो मनुष्य जिस प्रकार भगवान् को भजते हैं, भगवान् भी उनको वैसे ही भजते हैं)॥29॥

अलग-अलग शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार स्वर्ग, नरक, और पशु, पक्षी एवं मनुष्‍यादि लोकों के अंदर नाना प्रकार की योनियों में जन्‍म लेना तथा सुख दुःखों का भोग करना शुभाशुभ फल है, इसी को कर्मबंधन कहते हैं; क्‍योंकि कर्मों का फल भोगना ही कर्मबन्‍धन में पड़ना है. उपर्युक्‍त प्रकार से समस्त कर्म भगवान् के अर्पण कर देने वाला मनुष्‍य कर्म फलस्‍वरूप पुनर्जन्‍म से और सुख दुःखों के भोग से मुक्‍त हो जाता है, यही शुभाशुभ फलरूप कर्मबंधन से मुक्‍त हो जाना है. मरने के बाद भगवान् के परम धाम में पहुँच जाना या इसी जन्‍म में भगवान् को प्रत्‍यक्ष प्राप्‍त कर लेना ही उस कर्मबंधन से मुक्‍त होकर भगवान को प्राप्‍त होना है.

जैसे समभाव से सब जगह प्रकाश देने वाला सूर्य दर्पण आदि स्‍वच्‍छ पदार्थों में प्रतिबिम्बित होता है, काष्‍ठादि में नहीं होता, तथापि उसमें विषमता नहीं है, वैसे ही भगवान् भी भक्‍तों को मिलते हैं, दूसरों को नहीं मिलते- इसमें उनकी विषमता नहीं है, यह तो भक्ति की ही महिमा है.

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है. अर्थात्‌ उसने भली-भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है॥30॥ वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शांति को प्राप्त होता है. हे अर्जुन! तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता॥31॥

प्रायः दुराचारी मनुष्‍यों की विषयों में और पापों में आसक्ति रहने के कारण वे भगवान् में प्रेम करके उनको नहीं भजते, किन्तु किसी पूर्व शुभ संस्‍कार की जागृति, भगवद्रावमय वातावरण, शास्त्र के अध्‍ययन और महात्‍मा पुरुषों के सत्‍संग एवं भगवान् के गुण, प्रभाव, महत्त्व और रहस्‍य आदि का श्रवण करने से यदि कदाचित दुराचारी मनुष्‍य की भगवान् में श्रद्धा भक्ति हो जाए और वह भी भगवान से प्रेम करने लगे तो उसका भी उद्धार हो जाता है.

अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डाल आदि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं॥32॥ फिर इसमें कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण या राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं. इसलिए तुम सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही भजन करो॥33॥ मुझमें मन वाले हो, मेरे भक्त बनो, मेरा पूजन करने वाले हो, मुझको प्रणाम करो. इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तुम मुझको ही प्राप्त होगे॥34॥

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