वाल्मीकि रामायण का उत्तरकाण्ड – माता सीता का त्याग और शम्बूक का वध…

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Valmiki Ramayan Uttar kand

आज की उपलब्ध वाल्मीकि रामायण का उत्तरकाण्ड
भगवान श्रीराम के चरित्र में दोष निकालने का शौक रखने वालों के लिए यह सबसे प्रिय काण्ड है, जिसमें उन्हें अपनी पसंद के कई प्रसंग मिल जाते हैं. तपस्वी शंबूक की हत्या, श्रीराम द्वारा गर्भवती माता सीता जी का त्याग… ये सब इसी काण्ड में आते हैं.

कुछ खास वर्ग के लोगों के अनुसार, रामायण और महाभारत तो काल्पनिक हैं, लेकिन शम्बूक वध, एकलव्य का अंगूठा काटना, ब्रह्मा जी को श्राप मिलना आदि CCTV कैमरे में कैद घटनाएं हैं. मतलब या तो श्रीराम के अस्तित्व पर उंगली उठानी है या श्रीराम के चरित्र पर. लेकिन उंगली तो उठानी ही है…

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खैर, उत्तर रामायण को ठीक से पढ़ने से स्पष्ट पता चल जाता है कि इस काण्ड के कई सर्ग वाल्मीकि जी द्वारा लिखे हुए ही नहीं हैं. इस बात के सबूत आज कई लोगों ने दिए हैं. ये सबूत केवल इस बात से नहीं हैं कि उत्तरकाण्ड के कई सर्ग पिछले कांडों का समर्थन नहीं करते. दरअसल, अगर ध्यान से पढ़ो तो वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में जगह-जगह वे शब्द और व्याकरण ज्यादा देखने को मिलते हैं, जो आज से लगभग 2000 साल पहले से ही प्रचलन में आए थे.

कई स्पष्ट प्रमाण हैं, जैसे-

(1) वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के बाद फलश्रुति गा दी गई है. फलश्रुति किसी भी ग्रंथ के अंत में ही होती है. श्लोक 107 से 125 तक फलश्रुति गाई गई है. इतने विस्तृत निष्कर्ष के बाद फिर से एक नई कहानी शुरू होने का कोई तुक ही नहीं बनता.

युद्धकांड के अंत में फलश्रुति का होना इस बात का प्रमाण देता है कि वाल्मीकि जी ने रामायण को यहीं तक लिखा था, क्योंकि अगर महर्षि वाल्मीकि जी ने उत्तरकाण्ड लिखा होता तो वे फलश्रुति को युद्धकाण्ड के अंत में देने की बजाय उत्तरकाण्ड के अन्त में देते.

एवमेतत् पुरावृत्तमाख्यानाम् भद्रमस्तु व:।
प्रव्याहरत् विस्त्रब्धम् बलम् विष्णा प्रवर्धताम्।।

“यह कथा संपन्न हुई. इसका गायन करने वाले तथा इसका श्रवण करने वाले सभी का कल्याण हो.”

युद्धकाण्ड के १२८वें सर्ग में वाल्मीकि जी लिखते हैं-

“जो नित्य इस सम्पूर्ण रामायण का श्रवण एवं पाठ करता है, उस पर सनातन विष्णुस्वरूप भगवान्‌ श्रीराम सदा प्रसन्न रहते हैं.”

तो अब जब कथा संपन्न हो गई तो फिर अचानक से उत्तर रामायण कहां से आ गई?

यदि युद्धकाण्ड के बाद भी इतनी लंबी कथा बाकी थी तो युद्धकाण्ड के अंत में ही क्यों बता दिया गया कि श्रीराम ने धरती पर कितने वर्षों तक शासन किया?

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(2) जब हनुमान जी पहली बार लंका जाते हैं, उन्हें रावण के सामने ले जाया जाता है. रावण उन्हें सजा देने पर विचार कर रहा है कि क्या उन्हें मृत्यु दंड दे दिया जाए. तभी विभीषण और सभा के अन्य सदस्य कहते हैं कि इससे पहले इतिहास में कभी किसी संदेशवाहक या दूत को मारा नहीं गया है.

लेकिन उत्तरकांड के सर्ग 13 में बताया गया है कि रावण ऋषियों और देवताओं पर अत्याचार कर रहा था. इस पर कुबेर ने रावण को अपना उत्पात बंद करने की चेतावनी देने के लिए एक दूत भेजा. वह दूत पहले विभीषण से मिला और वे उसे रावण के पास ले गए. रावण ने अपनी तलवार से उस दूत को मार डाला और राक्षसों ने उसकी लाश को अपना आहार बनाया.

अब अगर उत्तरकांड मूल रामायण में होता, तो विभीषण सुंदरकांड में ऐसा क्यों कहते कि “इससे पहले हमने किसी दूत की हत्या के बारे में नहीं सुना है.”

इसी प्रकार, वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के अनुसार, रावण ने निराहार रहकर कठोर तप करके, अपने चित्त को एकाग्र करके पुष्पक विमान पर अपना अधिकार प्राप्त किया था. जबकि उत्तरकाण्ड के अनुसार, रावण ने कुबेर को पराजित करके अपनी विजय चिन्ह के रूप में पुष्पक विमान को हासिल किया था.

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(3) युद्धकांड के अंत में बताया गया है कि श्रीराम ने बिना किसी बीमारी या दुःख के हजारों सालों तक शासन किया. उस समय कोई चोर या डाकू नहीं थे. कोई रोग-शोक नहीं था. कोई व्यक्ति किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं करता था. कोई अपराध भी नहीं करता था. किसी की अपने पिता से पहले असामयिक मृत्यु नहीं हुई. कभी किसी बुजुर्ग को जवान व्यक्ति का अंतिम संस्कार नहीं करना पड़ा.

लेकिन उत्तरकांड के सर्ग 73 से सर्ग 76 में अचानक एक कहानी आती है, जिसमें एक ब्राह्मण का इकलौता पुत्र मर जाता है. वह रोता हुआ श्रीराम के पास आता है और कहता है कि उसने तो आज तक मन में भी कोई पाप नहीं किया, लेकिन इस राज्य में किसी शूद्र के तपस्या करने से उस ब्राह्मण का पुत्र मारा गया. इसके बाद श्रीराम ने पुष्पक विमान पर चढ़कर, उस शम्बूक नाम के शूद्र को ढूंढकर अपनी तलवार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया. और तब देवताओं ने ब्राह्मण के पुत्र को फिर से जीवित कर दिया.

कितनी अजीब कहानी बनाई गई है. अगर देवता इसी प्रकार किसी मरे हुए को जीवित कर सकते थे, तो फिर तो उस समय देवताओं द्वारा युद्ध का तो कोई मतलब ही नहीं रह जाना चाहिए था. और फिर देवताओं को किसी भी राक्षस से डरने की जरूरत ही क्या थी? फिर सारे देवता क्यों भगवान विष्णु जी के पास रावण की शिकायत लेकर पहुंच गए थे?

श्रीराम ने विश्वामित्र के आश्रम में, दंडकारण्य में और लंका के पूरे युद्धभर में तो तलवार का प्रयोग नहीं किया, लेकिन एक शूद्र को मारने के लिए तलवार लेकर पहुंच गए??

किसी व्यक्ति के पुण्य या पाप का फल किसी और को मिलना भी समझ से बाहर है. एक अनजान शूद्र के तपस्या करने से किसी अनजान ब्राह्मण के पुत्र का अपने-आप मर जाना बड़ा अजीब है.

शूद्र के लिए तपस्या वर्जित होना भी सच नहीं लगता, क्योंकि अगर उस समय एक शूद्र के तपस्या करने या वेद-पाठ करने पर इतनी ही सख्त पाबन्दी होती, तो रामायण की ही रचना न हो पाती, क्योंकि रामायण की रचना करने वाले वाल्मीकि भी एक शूद्र थे, जो बाद में ‘महर्षि’ और ‘भगवान’ जैसे सम्बोधनों से सुशोभित हुए.

भगवान श्रीराम और उनके मित्र निषादराज (श्रृंगवेरपुर के राजा) एक ही गुरुकुल में पढ़े थे और दोनों ही वेद-पाठी थे. वाल्मीकि रामायण में साफ लिखा है कि निषादराज भगवान श्रीराम के बालसखा थे.

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अगर राजा इसी तरह तपस्या कर रहे शूद्रों को ढूंढ-ढूंढकर मार रहे होते, तो पिछले काण्डों में महर्षि वाल्मीकि और शबरी जैसे लोग कैसे जीवित रह गए? और इनके तपस्या करने या वेद-पाठ करने से कोई ब्राह्मण-पुत्र क्यों नहीं मरा?

श्रीराम ने तो शबरी को स्वयं ही ब्रह्म ज्ञान दिया था, तो फिर उस समय किसी भी शूद्र के लिए तप करना वर्जित कैसे हो सकता है?

वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में अयोध्या का वर्णन करते हुए लिखा है कि-

“अयोध्या में ऐसा एक भी गृहस्थ नहीं था, जिसका धन आवश्यकता से कम हो, या जिसके पास सुखों के साधन न हों. सभी गृहस्थों के घर गौ (गाय), घोड़े और धन-धान्य से पूर्ण थे. कामी, कृपण, क्रूर, मूर्ख, मांसाहारी और नास्तिक तो ढूंढने पर भी नहीं मिलते थे. चारों वर्गों के लोग देवता और अतिथियों के पूजक, कृतज्ञ, उदार, शूरवीर और पराक्रमी थे.”

इससे पता चलता है कि उस समय चारों वर्णों के लोगों की स्थिति समान थी.

देखने वाली बात है कि जिन श्रीराम ने केवट, निषादराज आदि हरेक व्यक्ति से इतना प्रेम व्यवहार किया, शबरी को ‘माता-माता’ कहते हुए उनके बेर खाए, अपने छोटे भाई लक्ष्मण जी से भी खाने के लिए कहा, उन्हीं श्रीराम द्वारा केवल जाति के नाम पर किसी की इस तरह हत्या करना उनकी छवि के मुताबिक ही नहीं लगता.

शम्बूक की यह कहानी युद्धकांड में कही हुई इन बातों के विरुद्ध भी जाती है कि श्रीराम के राज्य में किसी भी व्यक्ति की अपने पिता से पहले असामयिक मृत्यु नहीं हुई.


हालाँकि यह भी आवश्यक नहीं कि शम्बूक वध की कथा झूठ ही है. शम्बूक वास्तव में कौन था और वह क्या कर रहा था और किस उद्देश्य से कर रहा था; यह जानने और समझने का प्रयास आज कोई नहीं करता. बस आज के लोग इस कथा में केवल इतना देखते हैं कि शम्बूक शूद्र था और श्रीराम क्षत्रिय, और बता देते हैं दलितों पर सवर्णों का अत्याचार. सनातन धर्म की कथाओं में जातिवाद खोजने से पहले कुछ लोग इतना भी नहीं सोचते कि चाहे कोई अच्छा व्यक्ति हो या बुरा, वह किसी न किसी जाति का तो होगा ही.

आखिर उस समय शम्बूक का साथ किसी ने क्यों नहीं दिया? पूरी प्रजा श्रीराम के साथ ही क्यों थी? क्यों पूरी प्रजा ने श्रीराम के एक्शन की प्रशंसा की थी? क्या श्रीराम के राज्य में शम्बूक के अतिरिक्त और कोई शूद्र नहीं था? तब से लेकर अंग्रेजों के आने तक किसी भारतीय ने शम्बूक और एकलव्य के प्रति दया क्यों नहीं दिखायी? क्या अंग्रेजों के आने से पहले सारे भारतीय दयाहीन और मूर्ख थे?

उस समय आचरण ही वर्ण का निर्धारण करता था. अतः शम्बूक भी जाति से नहीं, आचरण से ही शूद्र था. शूद्रता थी उसमें. और यदि ऐसे व्यक्ति को कोई सिद्धि प्राप्त हो जाएगी तो वह समाज का अहित ही करेगा. और यदि एक राजा समाज में कोई बड़ी क्षति हो जाने के बाद अपराधी के खिलाफ एक्शन ले, तो वह राजा ही बहुत गलत कहलायेगा.

इसी प्रकार, एकलव्य द्रोण का शिष्य नहीं था. द्रोण से छुपकर उनका “ब्रह्मास्त्र” चुरा रहा था. भारत की कोई बड़ी मिसाइल कोई शत्रु चुरा ले तो भारतीय सेना केवल अँगूठा काटकर छोड़ देगी? सभी असुरों को पाण्डवों की राह से हटाने वाली सूची में भगवान श्रीकृष्ण ने एकलव्य का भी नाम लिया था, लेकिन ये सारी बातें तो तभी पता चलेंगी न, जब आप महाभारत और रामायण को पूरी पढ़ेंगे और उसे समझने का प्रयास करेंगे. और यदि आप ग्रंथों को केवल जातिवाद, अश्लीलता और मांसाहार खोजने के लिए पढ़ते हैं तो उन्हें कहाँ से समझ पाएंगे.


(4) वाल्मीकि रामायण के ही अयोध्याकाण्ड में एक श्लोक में श्रीराम वन में अपनी पत्नी सीता जी से कह रहे हैं कि-

“तुम्हारे साथ तीनों काल स्नान करके, मधुर फल-मूल का आहार करते हुए मैं इतना प्रसन्न हूं कि मुझे वापस राज्य पाने की ही इच्छा नहीं रही.”

क्या यही श्रीराम एक धोबी के कहने पर इतने विवश हो गए कि वे प्राणों से भी प्रिय सीता जी का त्याग ही कर देंगे?? “किसी के द्वारा किसी का त्याग कर देने” और “दो लोगों का अलग-अलग हो जाने” में अंतर होता है.

स्त्रियों के प्रति श्रीराम की सोच कैसी थी, यह तो बालकाण्ड से ही पता चल जाती है. वाल्मीकि रामायण के अनुसार, गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या निर्दोष नहीं थीं. लेकिन श्रीराम ने अहल्या के चरण स्पर्श कर उन्हें समाज के सामने निर्दोष घोषित किया.

अगर उस समय नारी का आदर ही न होता, तो पूरी वानर सेना जिनका श्रीराम और सीता जी से कोई प्रत्यक्ष संबंध ही नहीं था, एक नारी के सम्मान को बचाने के लिए इतने उत्साह से इतना बड़ा युद्ध क्यों लड़ती?

श्रीराम के समय में इंसान तो क्या, पशु (वानरों) पक्षियों (जटायु) तक ने एक नारी के सम्मान को बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी, और फिर भी कुछ लोग ये आरोप लगाते हैं कि उस समय नारी का आदर ही नहीं था.

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(5) महाभारत के ‘वन पर्व’ में जब ऋषि मार्कण्डेय युधिष्ठिर को रामायण सुनाते हैं, तो वे युद्धकांड तक की कहानी ही सुनाते हैं और वहां उत्तरकांड का कोई जिक्र नहीं होता.

(6) भारत के सभी प्राचीन मंदिरों, जिनके भित्ति चित्रों में रामायण की पूरी कहानी के चित्र उकेरे गए थे, उन सबमें उत्तरकाण्ड के प्रसंग के कोई चित्र नहीं मिलते हैं. जैसे 12वीं सदी में बनाया गया कंबोडिया का अंकोरवाट मंदिर, जिसकी दीवारों पर रामायण के सभी प्रसंगों के चित्र मिले हैं, लेकिन उसमें भी वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के कोई निशान मौजूद नहीं हैं.

(7) वाल्मीकि रामायण के बाद सबसे प्रमाणिक मानी जाने वाली गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरितमानस में भी उत्तरकाण्ड है, लेकिन उसकी विषय-वस्तु में न तो शंबूक है, और न ही श्रीराम द्वारा सीता जी को त्यागने का विवरण है. वाल्मीकि जी छठे काण्ड में श्रीराम जी के राज्याभिषेक का वर्णन करते हैं तो तुलसीदास जी सातवें काण्ड में.

रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने साफ-साफ बताया है कि राक्षसों के संहार के लिए ‘सीता-हरण’ की योजना श्रीराम और सीता जी ने मिलकर बनाई थी. श्रीराम पहले ही जानते थे कि उनकी सीता जी का तेज इतना प्रचंड है, कि अगर रावण अपनी पाप बुद्धि के साथ उनके सामने आएगा, तो वहीं भस्म हो जाएगा. इसीलिए रावण के आने से पहले ही उन्होंने सीता जी को अग्नि में प्रवेश करने और अपनी जगह अपना प्रतिबिंब देने के लिए कह दिया था.

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला।
मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा।
जौ लगि करौं निसाचर नासा॥

इसके बाद, श्रीराम द्वारा सीता जी की पवित्रता पर संदेह करने जैसी कहानी का तो कोई आधार ही नहीं बनता.

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संस्कृत के सभी ग्रन्थों में समय-समय पर मिलावट की जाती रही है. कई कवि इस भयंकर साजिश का शिकार भी हुए. आज रामायण के 4-5 अलग-अलग संस्करण मिलते हैं, जिनमें कुल श्लोकों की संख्या और मात्राओं आदि में अंतर देखने को मिलता है. इससे भी पता चलता है कि स्वार्थी लोग समय-समय पर इन पुस्तकों में से श्लोक हटाते-मिलाते रहे. इन मिलावटी श्लोकों के कारण ही सनातन धर्म की पुस्तकों और महापुरुषों का अपमान ही होता रहा है.

उदाहरण के तौर पर, एक कम्युनिष्ट लेखिका ने एक बार एक अखबार में एक लेख लिखा था, जिसमें उसने माता सीता द्वारा (पूजा के तौर पर) गंगा नदी में शराब के घड़े डालने की बात लिखी थी. बाद में ढूँढने पर पाया गया कि यह श्लोक केवल एक संस्करण में है जो किसी शराब पीने वाले ने मिलाया था.

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धार्मिक ग्रंथों में जो हिंदी अर्थ दिए गए हैं, वे मात्र शब्दार्थ हैं. उन्हें भावार्थ, गूढ़ार्थ, और तत्त्वार्थ न समझें. भावार्थ और शब्दार्थ में बहुत अंतर होता है. आजकल के शिक्षक और पुस्तकें केवल शब्दार्थ बताते हैं, जिससे अर्थ का अनर्थ होता रहता है. लोग केवल शब्दों को पकड़कर भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं.

खैर, जाते-जाते वेदों-मनुस्मृति-रामायण आदि के श्लोकों का गलत अर्थ निकालने और उनसे भ्रम फैलाने वालों के लिए उनका एक शौकिया कार्य देकर जाती हूं.

ततोवरो वध्यादक्षिण स्कन्धोपरि हस्तं नीत्वाममब्रते स्तिस्व पठित मंत्रेण तस्थाहृदयमालभते.

इस संस्कृत पंक्ति का word-by-word अर्थ निकालेंगे तो अर्थ निकलेगा-
“विवाह वेदी पर दूल्हा स्त्री के दायें कन्धे को पकड़कर देह काटकर उसका हृदय निकाल लेता है और ‘अम्माब्रत’ (अपने कुल में) मंत्र पढ़ते हुए बांट देता है”.

अरे ये क्या? प्राचीन भारत में नारी जाति के खिलाफ इतना बड़ा अत्याचार? इतनी हिंसा? विवाह वेदी पर दूल्हे द्वारा स्त्री की बलि??

अब एक लेख तो बनता ही है, “हिंदुओं में नारी जाति के शोषण पर” तो फिर देर किस बात की… शुरू हो जाइये.


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11 Comments

  1. क्या वाल्मिकी रामायण के किसी संस्करण के उत्तराकांड के 13-36 श्लोक, पृष्ठ 1005 में युद्ध विजय के पश्चात अशोक वाटिका में राम और सीता को शराब और मांस ग्रहण करते हूऐ जश्न मनाते बताया गया है? कृपया सत्यता पूर्वक दर्शन करें।

    • नमस्कार प्रदीप कुमार जी! कई और मित्रों ने भी हमसे ऐसे ही प्रश्न पूछे हैं. हम आपके इस प्रश्न का उत्तर शीघ्र ही देंगे.

  2. ये बात है तो वालमीकि रामायण में ये बात अब तक रखा गया है. हटा देना चाहिए.

  3. मनु स्मृति में भी मिलावट की गई है, मात्र बदनाम करने के लिये. इसे 6वीं शताब्दी में कुल्लूक भट्ट ने भांप लिया था और फिर अपना भाष्य लिखा था. मैंने उसका हिंदी अनुवाद पढ़ा है.

  4. बेहतरीन। बहुत सुंदर व्याख्या। देखिए, श्री रामचरितमानस और रामायण में श्रेष्ठ ढूंढने व उनके किसी अध्याय में कमी निकालकर लड़ने बैठेंगे तो दोनो महाग्रंथों की अच्छी बातें व संदेश कभी नहीं सीख पाएंगे।
    सीधी सी बात है की कवि व राइटर अपने समय के अनुसार कुछ कुछ बातें जोड़ देते हैं। वो केवल उनके अपने विचार होते हैं जो वे कथा के पात्रों के ज़रिए लोगों को बताते हैं, और हम हैं कि बिना सोचे समझे उसे सच मान बैठते हैं। कृपया अच्छी बातों पर ध्यान दें व दूसरों को भी यही सिखाएं। तभी हम साथ मिलकर आगे बढ़ पाएंगे।

  5. So many thanks for you, i just read a slok from uttar kand after reading i was shoked how it can be possible the sloka was described about lord rama which is very blamable. I just search about it on whole internet i read all about what u write ✍️ in your website so thank you very much. I am very satisfied afterthe conclusions. 😊

  6. सही बात है,
    धार्मिक ग्रंथों में जो हिंदी टीका (अर्थात, हिंदी अर्थ) दी गई है, वह मात्र शब्दार्थ (शाब्दिक अर्थ) है। उसे भावार्थ, गूढ़ार्थ, एवं तत्त्वार्थ ना समझे।

    भावार्थ और शब्दार्थ में बहुत अंतर होता है। और इसीलिए कहा गया है कि वेदों को, पुराणों को और धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने और समझने के लिए मुनि वशिष्ठ जैसे योग्य गुरु के मार्गदर्शन की ही आवश्यकता होती है। उनका सही भावार्थ समझना हर किसी के बस की बात नहीं।

    आजकल के शिक्षक और पुस्तकें केवल शब्दार्थ बताती है जिससे अर्थ का अनर्थ बन जाता है।

  7. लेकिन गीताप्रेस गोरखपुर की छापी हुई किताबों में तो यही लिखा है. हालाँकि गीताप्रेस अपनी पुस्तकों में सुधार के लिए लोगों को आमंत्रित भी करती है. हनुमान प्रसाद पोद्दार जी और उनकी टीम ने देश-दुनिया के हर कोने से रामायण, गीता, वेद, पुराण और उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों-मुनियों की कथाओं को कलेक्ट करने में बहुत कड़ी मेहनत की है.

    इसी के साथ, वे इनमें त्रुटियों और मिलावटों को बाहर निकलने के लिए सभी को आमंत्रित भी करते हैं. हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने भगवदगीता के श्लोकों और अनुवाद में कई बार सुधार करवाया था. हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के जीवित रहने तक ये सुधार कार्य चलता रहता था. बिना काट-छांट हुए अब सब जगह सब तरह के संस्करण छापे जा चुके हैं.

    जो लोग गीताप्रेस गोरखपुर की पुस्तकों को पढ़कर अनर्गल सवाल उठाते हैं, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि यही पुस्तकें रामानंद सागर ने भी पढ़ी थीं. लेकिन उन्हें कहीं कोई गलत बात नजर नहीं आई, क्योंकि उन्होंने पुस्तकों के शब्दों पर न जाकर उनके भावों को ग्रहण किया है. उन्होंने एक ही पुस्तक पढ़कर अपनी कोई धारणा नहीं बना ली, बल्कि सभी पुस्तकों को पढ़कर उनका एनालिसिस भी किया है.

    • सही कहा भाई, गीता प्रेस वालों ने केवल उसी तरह सब कुछ कलेक्ट करके छाप दिया, जैसे हनुमान जी पूरा पर्वत ही उठाकर ले आए थे. गीता प्रेस वालों ने कोई काट छांट नहीं की, जिसका फायदा आज विकास दिव्यकीर्ति जैसे लोग उठाने में लगे हैं. गीता प्रेस वाले सुधार के लिए लोगों को आमंत्रित भी करते हैं.

      दरअसल, वामपंथियों की नजर उसी चील की तरह होती है जो ऊंचाई पर उड़कर भी सड़े हुए चूहे पर ही नजर रखती है.और हम जैसे लोग उस पर्वत पर से संजीवनी बूटी तलाशते हैं.

      • I am so lucky to reach this article.😊
        I hated Ramayan since my childhood and had no faith towards it befire I read this masterpiece. It not only aswered all my questions but also gave me more knowledge. I’ll surely spread it to my kind of people.

        • कृपया कुप्रचारों में फंसकर अपने ही धर्म, संस्कृति और ग्रंथों से नफरत न करें. भारत सदैव से ही आक्रांताओं के आकर्षण का केंद्र बिंदु रहा है. सबसे पहले किसी भी देश की संस्कृति पर ही हमला किया जाता है.

          हमने पाठकों की सुविधा के लिए सनातन धर्म पर “प्राचीन भारत (Ancient India) : सनातन धर्म से जुड़े कुछ विवाद और सवाल-जवाब” नाम से एक डायरी बनाई है, आप उसके टॉपिक्स को पढ़ सकते हैं. उम्मीद है कि आपको और भी प्रश्नों के उत्तर मिलें. इसी के साथ, आप अपडेट के लिए “Dharm” और “Blog” कैटेगरी को भी देख सकते हैं.
          इति शुभम्!

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