आजकल सोशल मीडिया पर तर्कशील विद्वानों के ज्यादातर सवाल-जवाब सनातन धर्म को लेकर ही होते हैं. ऐसे ही कुछ और विद्वानों के सवाल-जवाब पढ़ने को मिले. जैसे-
• लक्ष्मण जी ने 14 वर्षों तक अन्न, निद्रा का त्याग किया था. किसी महिला के चेहरे को नहीं देखा था.
• क्या लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा की नाक काटना उचित था?
• क्या मेघनाद को श्रीराम नहीं मार सकते थे?
• क्या राजा दशरथ की 350 रानियां थीं?
इनमें से एक सवाल का जवाब एक तथाकथित विद्वान ने कुछ इस प्रकार दिया कि, “राम जी ने कभी लक्ष्मण जी को खाने के लिए नहीं कहा, इसलिए लक्ष्मण जी ने 14 वर्षों तक कुछ खाया नहीं.”
अब जिसने ऐसा जवाब दिया है, उसने ऐसा कहां से पढ़ लिया, ये तो कोई नहीं बता सकता. लेकिन इस तरह के सवाल-जवाबों पर एक सवाल जरूर है कि क्या किसी को भी सनातन कथाओं में बिना किसी जानकारी और प्रमाण के इतनी मनगढ़ंत छेड़छाड़ करने का अधिकार मिलना चाहिए, कि किसी भी प्रकार के सवाल का अपने मन से कैसा भी जवाब दे दिया जाए और ऐतिहासिक ग्रंथों को लेकर लोगों के मन में भ्रम पैदा किया जाए?
खैर, ऐसा न तो वाल्मीकि रामायण में लिखा है और न ही तुलसीदास जी की रामचरितमानस में कि लक्ष्मण जी ने 14 वर्षों तक कुछ खाया नहीं था. इसके लिए सबसे पहले आप वाल्मीकि रामायण का ही एक श्लोक देखिए-
लक्ष्मणो लक्ष्मिसम्पन्नो बहि:प्राण इवापर:।
न च तेन विना निद्रां लभते पुरुषोत्तम:।।29।।
मृष्टमन्नमुपानीतमश्नाति न हि तं विना।
अर्थात- “लक्ष्मण जी श्रीराम जी के लिए बाहर विचरने वाले दूसरे प्राण के समान थे. श्रीराम को उनके (लक्ष्मण) बिना नींद भी नहीं आती थी. श्रीराम कोई भी उत्तम भोजन लक्ष्मण जी को खिलाए बिना नहीं खाते थे.”
कुछ लोगों का कहना है कि लक्ष्मण जी ने शबरी के जूठे बेर इसलिए नहीं खाए थे, क्योंकि उन्होंने 14 वर्षों तक व्रत रखा था.
जबकि ऐसा नहीं है, दरअसल श्रीराम जी को शबरी की केवल भक्ति और प्रेम दिखाई दे रहा था, इसलिए उन्हें वे जूठे बेर बड़े भा रहे थे और वे उन्हें बड़े प्रेम से खाते जा रहे थे. लेकिन जब उन्होंने लक्ष्मण जी से भी खाने के लिए कहा तो लक्ष्मण जी को किसी के जूठे बेर खाना अच्छा न लगा, लेकिन वे भैया की आज्ञा की अवहेलना भी नहीं करना चाहते थे और न ही माता समान शबरी जी के प्रेम भरे आतिथ्य का तिरस्कार करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने बेरों को खाने का नाटक करके उन्हें चुपचाप पीछे फेंक दिया.
⇒ अब जैसा कि एक महानुभाव का कहना है कि ‘राम जी ने कभी लक्ष्मण जी को कुछ खाने के लिए नहीं कहा…’,
तो क्या राम जी ने पूरे वनवास में लक्ष्मण जी को केवल शबरी जी के बेर ही खाने के लिए कहा था? इससे पहले और इसके बाद कभी कुछ भी खाने के लिए नहीं कहा?
♦ पूरे अरण्यकांड में श्रीराम-सीता और लक्ष्मण जी जिन-जिन ऋषियों के आश्रम में जाते हैं, वहां-वहां सभी ऋषि उन तीनों को ही खाने-पीने के लिए फल-फूल कन्द आदि देते हैं. कहीं भी ऐसी कोई बात नहीं लिखी है कि लक्ष्मण जी ने किसी भी ऋषि से ये कहा हो कि “मैं नहीं खाऊंगा, क्योंकि मैंने 14 वर्षों तक के लिए व्रत रखा है”.
देखिए वाल्मीकि रामायण के ही ये उदाहरण-
ततः शुभं तापस्योग्यमन्नं स्वयं सुतीक्ष्णः पुरुषर्षभाभ्याम्।
ताभ्यां सुसत्कृत्य ददौ महात्मासन्ध्यानिवृत्तौ रजनीं समीक्ष्य।।24।।
अर्थात- “संध्या का समय बीतने पर रात हुई देख महात्मा सुतीक्ष्ण ने स्वयं ही तपस्वी जनों के सेवन करने योग्य शुभ अन्न लाकर दोनों पुरुषशिरोमणि भाईयों को बड़े सत्कार के साथ अर्पित किया.”
एवमुक्त्वाफलैर्मूलैः पुष्पैर्वन्यैश्चराघवम्।
वन्यैश्चविविधाहारैः सलक्ष्मणमपूजयन्।।22।।
अर्थात- “उन तपस्वी मुनियों ने वन में उत्पन्न होने वाले फल, मूल, फूल और अन्य अनेक प्रकार के अन्न-आहारों से सीता जी और लक्ष्मण सहित भगवान श्रीराम का सत्कार किया.”
♦ वनवास के दौरान तीनों ही ज्यादा से ज्यादा व्रत रखते थे. खाने-पीने योग्य जो भी चीजें मिलती थीं, उसे श्रीराम जी सबसे पहले सीता जी को और फिर लक्ष्मण जी को देते थे, और उसके बाद ही स्वयं खाते थे.
♦ श्रीराम और सीता ने लक्ष्मण जी को अपने पुत्र के समान समझा है. पुत्र ने कुछ खाया या नहीं, इसका पता माता-पिता को न हो, ये तो हो ही नहीं सकता.
⇒ और फिर लक्ष्मण जी को 14 वर्षों तक व्रत रखने की जरूरत ही क्या थी? उन्हें व्रत रखने के लिए किसने कहा था?
तो इसके जवाब में कुछ लोगों का कहना है कि “मेघनाद ने ऐसा वरदान माँगा था कि जो भी मनुष्य 14 वर्षों तक सोया न हो, कुछ खाया न हो और किसी महिला का चेहरा न देखा न हो, वही उसे मार सकता है.”
ऐसा भी न तो वाल्मीकि रामायण में लिखा है और न ही तुलसीदास जी की रामचरितमानस में.
⇒ लक्ष्मण जी एक योगी भी थे. साधारण मनुष्य तो जागते हुए भी सोता रहता है. लेकिन लक्ष्मण जी जैसे योगी सोते हुए भी जागृत ही रहते हैं.
जब श्रीराम और सीता जी रात को सो जाते थे, तब लक्ष्मण जी पहरा देते थे. उन्हें ऐसा करने का आदेश उनकी सुमित्रा माता ने दिया था. निश्चित सी बात है कि वन में एक के सो जाने पर दूसरे को पहरा देना ही पड़ेगा.
अब लक्ष्मण सो जाएं और श्रीराम पहरा दें, ये बात लक्ष्मण जी सहन नहीं कर सकते थे. अतः पहरा लक्ष्मण जी देते थे. लक्ष्मण जी श्रीराम के साथ वन में जाना ही इसलिए चाहते थे ताकि वे उनकी भरपूर सेवा कर सकें. लेकिन लक्ष्मण जी 14 वर्षों तक भूखे नहीं रहे थे, क्योंकि ये श्रीराम और सीता जी से सहन नहीं होता.
क्या लक्ष्मण जी द्वारा शूर्पणखा की नाक काटना उचित था?
जब तक शूर्पणखा श्रीराम और लक्ष्मण जी से अपनी बात कहती रही, साथ ही सीता जी का बहुत तरह से अपमान भी करती रही, तब तक तीनों में से किसी ने भी शूर्पणखा से कुछ नहीं कहा. लक्ष्मण जी के द्वारा भी उससे विवाह के लिए मना कर देने पर शूर्पणखा श्रीराम को धमकी देती है, कि ‘अगर तुमने मुझसे विवाह नहीं क्या, तो मैं तुम्हारी पत्नी सीता और तुम्हारे छोटे भाई लक्ष्मण को खा जाऊंगी’.
लेकिन इतने पर भी तीनों में से कोई शूर्पणखा से कुछ नहीं बोला. लेकिन फिर जैसे ही शूर्पणखा सीता जी को मारने के लिए उन पर झपटी, तभी लक्ष्मण जी ने शूर्पणखा पर प्रहार किया, जिसमें शूर्पणखा की नाक कट जाती है.
♦ सोशल मीडिया पर एक ‘विचारवान’ व्यक्ति ने सवाल किया कि ‘अगर लक्ष्मण जी ने 14 वर्षों तक किसी स्त्री का चेहरा नहीं देखा था, तो उन्होंने शूर्पणखा की नाक कैसे काटी?’
लक्ष्मण जी ने 14 वर्षों तक किसी स्त्री का चेहरा नहीं देखा था, इसका मतलब ये है कि लक्ष्मण जी को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि कौन सी स्त्री कैसी लग रही है, या वह कितनी सुंदर है, या वह क्या पहनती है… ऐसी बातों से मतलब उन्हें केवल अपनी उर्मिला जी से था. बाकी सभी स्त्रियों को वे अपनी माता, या बहन या पुत्री की नजर से देखते थे, और राक्षस को राक्षस की नजर से ही देखते थे.
क्या राजा दशरथ की 350 से अधिक रानियां थीं?
नहीं, राजा दशरथ की तो तीन ही रानियां थीं. लेकिन कुछ लोगों में 350 से अधिक रानियों जैसा भ्रम इसलिए है क्योंकि वाल्मीकि रामायण में श्रीराम वनगमन के प्रसंग में कुछ श्लोकों के उपलब्ध हिंदी अर्थ से लोगों को ये लग रहा है कि राजा दशरथ जब अपनी सभी रानियों को बुला लाने की बात कहते हैं, तब कौशल्या जी के साथ 350 स्त्रियां उनके साथ चल देती हैं. इसी के साथ श्रीराम वन जाते समय सभी स्त्रियों को ‘माता’ कहकर उनसे विदा लेते हैं.
अगर इन श्लोकों का सही अर्थ लगाया जाए, तो ये 350 स्त्रियां रानी कौशल्या की दासियां हैं. दरअसल, वनगमन के प्रसंग में जगह-जगह अयोध्या की वैभवता का वर्णन यह बताने के लिए किया गया है, कि श्रीराम अचानक किस वैभव को छोड़कर वन में जा रहे हैं. वहीं, श्रीराम अपनी माता की दासियों को भी अपनी माता के समान ही देखते हैं. अब इसका मतलब ये नहीं कि वे सभी दासियां भी राजा दशरथ की ही पत्नियां हैं.
अब, लेकिन उपलब्ध इन्हीं हिंदी अर्थों से कुछ लोगों में ये भ्रम पैदा हो गया कि राजा दशरथ की 350 रानियां थीं. लेकिन शायद इन्हीं लोगों ने इसी वाल्मीकि रामायण में श्रीराम जन्म के प्रसंग को नहीं पढ़ा होगा (या शायद पढ़ना नहीं चाहते होंगे, नहीं तो अन्य लोगों को भी अपनी तरह कैसे भटकाएंगे).
⇒ वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के सर्ग-15 के श्लोक 19, 20 और 21… और सर्ग-16 के श्लोक 27, 28, 29 और 30 में साफ-साफ बताया गया है कि राजा दशरथ की तीन ही रानियां थीं-
“प्रभो! अयोध्या के राजा दशरथ धर्मग्य, उदार तथा महर्षियों के समान तेजस्वी हैं. उनकी तीन रानियां हैं, जो ह्री, श्री और कीर्ति– इन तीन देवियों के समान हैं. विष्णुदेव! आप अपने चार स्वरूप बनाकर राजा की उन तीनों रानियों के गर्भ से पुत्र रूप में अवतार ग्रहण कीजिए.”
“ऐसा कहकर नरेश ने उस समय उस खीर का आधा भाग महारानी कौशल्या को दे दिया. फिर बचे हुए आधे का आधा भाग रानी सुमित्रा को अर्पण किया. उन दोनों को देने के बाद जितनी खीर बच रही, उसका आधा भाग तो उन्होंने पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से कैकयी को दे दिया. तत्पश्चात उस खीर का जो अवशिष्ट आधा भाग था, उस अमृतोपम भाग को महाबुद्धिमान नरेश ने कुछ सोचविचार कर पुनः सुमित्रा को ही अर्पित कर दिया. इस प्रकार राजा ने अपनी सभी रानियों को अलग-अलग खीर बांट दी.”
जिन श्लोकों से राजा दशरथ की 350 से अधिक रानियों को साबित करने की कोशिश की जा रही है, उनके मुताबिक तो राजा दशरथ के जीवन की सभी मुख्य घटनाएं केवल तीन रानियों के साथ ही होती हैं, लेकिन जैसे ही राजा दशरथ का निधन होने लगता है, तभी अचानक 350 एक्स्ट्रा रानियां प्रकट हो जाती हैं… इससे पहले ये सभी रानियां कहां थीं? किसी चौथी रानी ने भी अपने जीवन की कोई लीला नहीं की क्या?
♦ तुलसीदास जी की रामचरितमानस में भी स्पष्ट रूप से तीन ही रानियों का उल्लेख है, साथ ही जिन प्राचीन मंदिरों के भित्ति चित्रों में रामायण की कथा का उल्लेख है, उनमें भी राजा दशरथ की तीन ही रानियां दिखाई गई हैं.
इसका मतलब कि जब लोगों को खुद से ही संस्कृत समझ में आती थी, तब लोगों में इस प्रकार के कोई संशय नहीं थे. इस तरह के संशय तब से ही हैं, जब से आधुनिक ‘विद्वानों’ ने श्लोकों की मात्राओं को इधर-उधर करना शुरू किया, साथ ही बीच-बीच में अपने-अपने हिसाब से हिंदी अर्थ छापना शुरू किए. आज वाल्मीकि रामायण के अलग-अलग संस्करणों में श्लोकों की संख्या और मात्राओं-शब्दों में बहुत अंतर देखने को मिलता है.
जानिए- वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास जी की रामचरितमानस में क्या अंतर है?
जानिए- सनातन धर्म से जुड़े विवाद और सवाल-जवाब
क्या मेघनाद को श्रीराम नहीं मार सकते थे?
भगवान श्रीराम तो बिना अवतार लिए ही सब राक्षसों को मार सकते थे, लेकिन श्रीराम धरती पर केवल अपना पराक्रम और अपनी महानता दिखाने के लिए नहीं आए थे. उन्होंने अपना साथ देने वाले अपने सभी भक्तों के चरित्र की महानता और पराक्रम को संसार के सामने लाने का अवसर दिया है.
जैसे माता-पिता अपने बच्चे को सीधा चलना सिखाने के लिए खुद ही उल्टा चलने लगते हैं. या अपने बच्चे को वीर-बहादुर बताने के लिए स्वयं डरने का नाटक करने लगते हैं, उसी तरह श्रीराम और सीता जी ने भी किया है.
अब जैसे लक्ष्मण जी को मेघनाद की शक्ति लगने पर श्रीराम रोने लगते हैं. लेकिन अगर श्रीराम ऐसा नहीं करते, तो संसार को ये कैसे पता चलता कि हनुमान जी कितने शक्तिशाली, दृढ़ प्रतिज्ञ और पराक्रमी हैं. कैसे संसार को पता चलता कि हनुमान जी संकटमोचन हैं.
इसी तरह अगर रामसेतु बनाने की जगह, हनुमान जी ही पूरी वानर सेना को लेकर समुद्र पार कर जाते तो फिर रावण को पूरी वानर सेना के पराक्रम का कैसे पता चलता? और श्रीराम पूरी मानव जाति को कैसे सिखाते कि एक दृढ़ संकल्प व्यक्ति सत्य और आत्मविश्वास के बल पर क्या कर दिखा सकता है.
कुछ और झूठे प्रचार
कुछ लोग आजकल यह भी प्रचारित करते हैं कि सीता जी रावण की पुत्री थीं. लेकिन वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में कहीं भी इस बात को ढूंढकर बता दीजिए कि सीता जी रावण की पुत्री थीं. रावण को मंदोदरी, विभीषण, कुंभकर्ण, नाना माल्यवान सबने खूब समझाया था कि ‘सीता जी का हरण न करो, नहीं तो लंका संकट में आ जाएगी’, लेकिन किसी ने भी एक बार भी यह बात नहीं कही थी कि “सीता जी तुम्हारी पुत्री हैं.”
मतलब जो रहस्य खुद रावण, मंदोदरी, विभीषण, कुंभकर्ण, नाना माल्यवान और वाल्मीकि जी को भी नहीं पता था, वो आजकल के कुछ लोगों को पता हैं.
इसी तरह एक और उड़ाया गया झूठ कि “रावण को मारने के बाद श्रीराम पर ब्रह्महत्या का पाप लगा था”, “सीता जी को तोतों का श्राप लगा था…”
ये सब वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में कहाँ लिखा है??
दरअसल, “रामायण” के नाम से कहानी उन लोगों ने भी लिखी हैं, जो जीवनभर चिल्लाते रहे कि “राम काल्पनिक हैं”. और ऐसे लोगों ने राम जी के नाम से इतनी गन्दी बातें लिखी हैं कि कहा नहीं जा सकता। इन लेखकों का यह भी कहना था कि “वाल्मीकि जी और तुलसीदास जी ने राम की कुछ बातें जानबूझकर छिपा लीं, लेकिन हम बता रहे हैं.”
लेकिन अब मुझे ये समझ नहीं आता कि जिन लोगों की नजर में राम-हनुमान आदि हैं ही नहीं, तो उन्हें राम जी की छिपी बातें किसने आकर बता दीं???
लेकिन हां! इन लोगों को ‘शम्बूक वध’, ‘श्रीराम द्वारा सीता जी का त्याग’ बिल्कुल सच लगता है. इसे लेकर इन लोगों ने खूब लेख भी लिखे हैं ‘जातिवाद’ और ‘नारी के अधिकारों’ पर…
मतलब हमें अपने श्रीराम जी के बारे में वाल्मीकि जी या तुलसीदास जी या राम जी के करोड़ों सच्चे भक्तों या अपने दिल की बातें न मानकर, उन लोगों की बातों पर यकीन करना चाहिए जो कहते रहते हैं कि “राम काल्पनिक हैं”??
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