Manusmriti : मनुस्मृति कब और किसने लिखी थी, क्या इसमें बहुत सारे श्लोक मिलावटी हैं?

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Manusmriti Constitution of India

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कितनी पुरानी है मनुसंहिता (How old is Manusmriti)- स्वयंभू और अविनाशी भगवान विष्णु जी से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई. ब्रह्मा जी के 10 मानस पुत्र (मानसिक संकल्प से उत्पन्न) हैं- महर्षि अत्रि, अंगीरस, पुलस्त्य, मरीचि, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, और नारद. इनमें से मरीचि के पुत्र कश्यप, कश्यप के पुत्र विवस्वान, विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु, जो कि पहले प्रजापति थे. वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु को अयोध्या का प्रथम राजा कहा जाता है.

कल्प समय चक्र की मापन इकाई बहुत लंबी है और इसकी सटीक गणना बेहद कठिन है. हम जिस मनुसंहिता की बात करते हैं, उसकी रचना इसी काल या चतुर्युग के सतयुग में हुई है (हम यहां वर्तमान चतुर्युग से पहले के चतुर्युग और उनमें हुए मनु की बात नहीं करेंगे) और इस प्रकार मनुसंहिता के रचियता वैवस्वत मनु (Vaivaswat Manu) हैं (हालांकि अभी इस पर और रिसर्च की आवश्यकता है).

चूंकि मनुसंहिता में वेदों की आराधना की गई है, साथ ही इसमें कहा गया है कि “इस पवित्र कानून ग्रंथ का मूल स्रोत वेद ही हैं”. अतः मनुसंहिता की रचना वेदों के बाद हुई (वेद ही सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं). वहीं, वाल्मीकि रामायण में मनुस्मृति के कई श्लोक मिलते हैं, अतः मनुसंहिता की रचना रामायण काल से पहले हुई. और श्रीराम जी का समय आज से लगभग 9 लाख वर्ष पहले का है.

आज हमारे पास जो मनुसंहिता उपलब्ध है, वह मूल नहीं बल्कि स्मृतियों पर आधारित है, और उसके भी अर्थ का अनर्थ ही होता रहा है.

राजर्षि मनु और उनकी मनुसंहिता
(Rajarshi Manu and Manu samhita)

महाराज मनु ने लंबे काल तक एक आदर्श राजा के रूप में इस पृथ्वी पर राज किया. उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी. महाराज मनु ने अपने पुत्र को पूरा राजपाट सौंपकर अपनी पत्नी के साथ नैमिषारण्य में तप करना शुरू किया और इसीलिए ये राजर्षि कहलाए. उसी दौरान इन्होंने उस समय में प्रचलित संस्कृत भाषा में ‘मनुसंहिता’ नामक कानून ग्रन्थ की रचना की, जो आज उस रूप में उपलब्ध नहीं है, जिस रूप में वह लिखी गई थी.

मूल मनुस्मृति में क्या है?

इस प्रकार मनुस्मृति विश्व के सबसे प्राचीन धर्मशास्त्रों में से एक है. प्राचीन समय में मनुसंहिता को बहुत ही महत्वपूर्ण और आदरणीय स्थान प्राप्त था. मनुस्मृति की गणना विश्व के ऐसे ग्रंथों में की जाती है, जिनसे मानव को वैयक्तिक आचरण की प्रेरणा प्राप्त होती है.

मनुस्मृति में व्यक्तिगत मनशुद्धि से लेकर पूरी समाज व्यवस्था तक ऐसी कई अच्छी और सुंदर बातें हैं जो मानवजाति का मार्गदर्शन करती हैं. जन्म के आधार पर जाति और वर्ण व्यवस्था का स्पष्ट खंडन सबसे पहले मनुस्मृति में ही मिलता है (श्लोक-12/109, 12/114, 9/335, 10/65, 2/103, 2/155-58, 2/168, 2/148, 2/28).

मनुस्मृति नि:शुल्क शिक्षा की बात करती है (3/156) (ब्राह्मण दक्षिणा में मिले धन का संचय नहीं करते थे, बल्कि उससे निःशुल्क शिक्षा देते थे).

मनुस्मृति में सबके लिए समान शिक्षा और सबको शिक्षा ग्रहण करने की बात भी है (2/198-215). स्त्रियों की पूजा करने और उन्हें सम्मान देने, उन्हें कभी शोक न देने, उन्हें सदैव प्रसन्न रखने और संपत्ति का विशेषाधिकार देने जैसी बातें भी हैं (3/56-62, 9/192-200). राजा के लिए यह नियम है कि वह प्रजा से जबरन कोई कार्य न कराए (8/168), साथ ही प्रजा को सदैव निर्भयता महसूस कराए (8/303). सबके प्रति अहिंसा की बात भी मनुस्मृति में की गई है (4/164).

मनुस्मृति में राजा और युद्ध के लिए नियम

मनुस्मृति के अध्याय 7 में एक राजा के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए बताया गया है कि उसके पास कौन से गुण होने चाहिए और उसे किन दोषों से बचना चाहिए. इसके बाद मनुस्मृति न्यायोचित युद्ध के नियमों की व्याख्या करती है, जिसमें कहा गया है कि सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, बातचीत और सुलह के द्वारा युद्ध से बचा जाना चाहिए. लेकिन यदि युद्ध आवश्यक हो जाता है, तो मनुस्मृति कहती है कि एक सैनिक को कभी भी नागरिकों, गैर-लड़ाकों या आत्मसमर्पण करने वाले किसी भी व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए, बल का उपयोग आनुपातिक होना चाहिए. 7.127-7.137 छंदों में उचित कराधान के दिशानिर्देश दिए गए हैं.

मनुस्मृति को लेकर क्यों होता है विवाद
(Controversy on Manusmriti)

आज तक मनुस्मृति की पचास से भी ज्यादा पाण्डुलिपियाँ प्राप्त की जा चुकी हैं. अतः कालांतर में बहुत से क्षेपक स्वाभाविक हैं. साधारण व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह बाद में शामिल किए गए अंशों की पहचान कर सके. कोई विद्वान ही तुलनात्मक अध्ययन के बाद ऐसी पहचान कर सकता है.

मनुस्मृति के प्राचीन संस्करण को 12 अध्यायों में बांटा गया है, जबकि मूल मनुस्मृति में ऐसा कोई विभाजन नहीं था. आज की उपलब्ध मनुस्मृति को मोटे तौर पर चार भागों में बांटा जा सकता है-
संसार की रचना,
धर्म का स्रोत,
चार सामाजिक वर्गों का धर्म (कर्तव्य)
कर्म, पुनर्जन्म और अंतिम मुक्ति का नियम.

मनुस्मृति के सभी संस्करणों में हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद अलग-अलग मिलते हैं, या शब्दों में हेर-फेर मिलता है, जिससे अगले संस्करणों में अर्थ बदलते रहते हैं. जैसे-

‘वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्।’ का अर्थ दो अलग-अलग संस्करणों में इस प्रकार लिखा है-

Translation 1 : The root of the religion is the entire Veda.
Translation 2 : The whole Veda is the (first) source of the sacred law.

यानी मनुसंहिता की रचना वेदों के नियमों के आधार पर ही की गई है, अतः इसकी कोई भी बात वेदों के विरुद्ध नहीं जा सकती है. इससे भी स्पष्ट है कि मनुसंहिता में किसी भी प्रकार की असमानता, या भेदभाव या अश्लीलता या मांसाहार या पशुबलि आदि का समर्थन नहीं हो सकता है.

लेकिन वर्तमान मनुस्मृति में क्षेपकों की भरमार है. इसके कई श्लोक वेद विरुद्ध हैं जबकि राजर्षि मनु की मनुसंहिता पूरी तरह वेद सम्मत थी. वर्तमान मनुस्मृति में 2,685 श्लोक हैं (कुछ संस्करणों में 2964 श्लोक हैं) जिनमें बहुत से श्लोक वेद-विरुद्ध हैं और इनमें अंतरविरोध भी है, विषय विरोध है, प्रसंग विरोध है और लेखन शैली में विरोध है जो कि राजर्षि मनु द्वारा रचित मनुसंहिता से भिन्न है.

उदाहरण के लिए, आज की उपलब्ध मनुस्मृति के 3.55-3.62 जैसे छंद महिलाओं की स्थिति का महिमामंडन करते हैं, जबकि 9.3 और 9.17 इसके बिल्कुल विपरीत बात कहते हैं.

9.72-9.81 पुरुष या महिला को कपटपूर्ण विवाह या अपमानजनक विवाह से बाहर निकलने और पुनर्विवाह करने की अनुमति देता है. यह किसी महिला को पुनर्विवाह करने के लिए कानूनी साधन भी प्रदान करता है जब उसका पति लापता हो गया हो या उसने उसे छोड़ दिया हो.

श्लोक 3.55-3.56 में, मनुस्मृति यह भी घोषणा करती है कि “नारी का सम्मान और श्रृंगार किया जाना चाहिए, जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवता प्रसन्न रहते हैं, और जहां नारी का सम्मान नहीं होता, या जहां नारी अप्रसन्न रहती है, वहां पवित्र अनुष्ठान भी निष्फल हो जाते हैं.”

लेकिन छंद 5.147-5.148 में इन सबसे एकदम विपरीत बात देखने को मिलती है कि “एक महिला को कभी भी स्वतंत्र रूप से जीने की तलाश नहीं करनी चाहिए”.

इसी प्रकार मनुस्मृति के कई छंद मांस-भक्षण और जीवहत्या का सख्त विरोध करते हैं और बताते हैं कि “यह कैसे जीवित प्राणियों को नुकसान पहुंचाता है, यह बुराई क्यों है, और शाकाहार की नैतिकता क्या है.” जबकि अनुवादित श्लोक 5.56 में फिर एकदम विपरीत बात देखने को मिल जाती है कि “मांस खाने या शराब पीने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह प्राणियों की प्राकृतिक गतिविधि है.”

इसी के साथ, मनुस्मृति पर सबसे ज्यादा आरोप लगता है जातिवाद का कि यह ब्राह्मणवादी है और इसमें दलितों के अधिकारों के विपरीत बातें कही गई हैं. जबकि संस्कृत और भारतीय धर्मों के एक प्रोफेसर पैट्रिक ओलिवेल के अनुसार-

“हिंदू धर्म-शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था समाज को चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में विभाजित करती है. किसी भी वर्ण द्वारा वेदों के अध्ययन पर प्रतिबंध जैसी बात वैदिक युग के साहित्यों में नहीं मिलती है. हमें कोई उदाहरण नहीं मिलता है कि व्यक्तियों के समूह या वर्ण या जाति के संदर्भ में शुद्ध/अशुद्ध शब्द का प्रयोग किया गया हो. हिंदू धर्म-शास्त्र ग्रंथों में शुद्धता-अशुद्धता की चर्चा जरूर की गई है, लेकिन केवल व्यक्ति के नैतिक, अनुष्ठान और जैविक दोषों (जैसे भोजन में मांस, पेशाब और शौच) के संदर्भ में. मूल ग्रंथों में अशुद्धता का एकमात्र उल्लेख उन लोगों के बारे में है, जो गंभीर पाप या अपराध करते हैं, जो बर्बर और अधार्मिक या अनैतिक हैं, उन्हें ही ‘गिरे हुए लोग’ और ‘अशुद्ध’ कहा गया है.”

मूल मनुस्मृति के अनुसार, कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण बन सकता है या किसी भी वर्ण को धारण (का चयन) कर सकता है. ज्ञानवान् ब्राह्मण पूज्य हैं और श्रद्धा का स्थान हैं, लेकिन यदि ब्राह्मण अधर्म करे, तो शूद्र की अपेक्षा उस पर दण्ड चतुर्गुण है (8/268), क्योंकि राजर्षि मनु का कहना है कि जिसका कार्य देश की नयी पीढ़ी को शिक्षा देना, सही मार्ग दिखाना और सुसंस्कारित करना है, यदि उसका ही आचरण गलत होगा, तो फिर वह नयी पीढ़ी को क्या सिखाएगा? इसलिए यदि ऐसा व्यक्ति अधर्म या अनैतिक कार्य करता है, तो उसका अपराध और भी बड़ा कहलाएगा. मनु ने दुष्ट, कठोर और छली ब्राह्मण की घोर निन्दा की है (4/195-197). मनु ने ब्राह्मणों की रियायत नहीं की, लेकिन हाँ, ब्राह्मणों के ज्ञान की रक्षा के लिए उन्हें अवध्य जरूर कहा है.

क्या मनुस्मृति में बहुत सारे श्लोक मिलावटी हैं?

‘मनु धर्मशास्त्र : ए सोशियोलोजिकल एण्ड हिस्टोरिकल स्टडी’ (Manu Dharma Sastra : A Sociological and Historical Study) by Kewal Motwani (Madras: Ganesh & Co.) 1958 के अनुसार, “मूल मनुस्मृति में 680 श्लोक थे, लेकिन वर्तमान मनुस्मृति में 2685 श्लोक हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि वर्तमान मनुस्मृति में पाए जाने वाले बहुत से श्लोकों का राजर्षि मनु की मनुसंहिता से कोई संबंध नहीं है.”

महात्मा गांधी ने मनुस्मृति के अंदर देखी गई विसंगतियों पर टिप्पणी करते हुए कहा था-

“मैं मनुस्मृति को शास्त्रों का हिस्सा मानता हूं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं मनुस्मृति के रूप में वर्णित पुस्तक में छपे हर श्लोक की कसम खाता हूं. छपी हुई मनुस्मृति के श्लोकों की मात्राओं में इतने विरोधाभास हैं कि यदि आप एक भाग को स्वीकार करते हैं, तो आप उन भागों को अस्वीकार करने के लिए भी बाध्य हैं जो इसके साथ पूरी तरह से असंगत हैं. मूल मनुस्मृति आज किसी के पास नहीं है.”

1887 में नेल्सन ने ब्रिटिश भारत के मद्रास उच्च न्यायालय के सामने एक कानूनी ब्रीफ में कहा था

“मनुस्मृति में कई विरोधाभास और विसंगतियां हैं, और इन विरोधाभासों से एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस तरह की टिप्पणियां मूल मनुस्मृति में नहीं रखी गई थीं.”

एक मशहूर विद्वान डॉ. सुरेंद्र कुमार ने मनुस्मृति का विस्तृत और गहन अध्ययन कर यह कहा था कि उन्होंने मनुस्मृति के 2685 में से कम से कम 1471 श्लोक प्रक्षिप्त (मिलावटी) पाए हैं. मनुस्मृति के प्रथम पाश्चात्य समीक्षक सर विलियम जोन्स भी वर्तमान मनुस्मृति के 2685 श्लोकों में से 2005 श्लोकों को प्रक्षिप्त घोषित करते हैं. उनके मतानुसार भी मूल मनुस्मृति में 680 श्लोक ही थे.

मनुस्मृति भाष्यकार मेधातिथि (9वीं शताब्दी) की तुलना में कुल्लूक भट्ट (12वीं शताब्दी) के संस्करण में 170 श्लोक अधिक हैं. लेकिन तब तक ये अतिरिक्त श्लोक मूल पाठ के साथ घुल-मिल नहीं पाए थे, अतः इन श्लोकों को बृहत् कोष्ठक में दर्शाया गया है. अन्य टीकाओं में भी कई श्लोकों और उनके शब्द-मात्राओं में अंतर है.

इसी के साथ, भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन और श्री रविन्द्रनाथ टैगोर भी मनुस्मृति में प्रक्षेपों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं.

“The original form of Manusmriti was changed as many things written in the manuscript contradict each other. The ancient version of the text has been subdivided into twelve Adhyayas (chapters), but the original text had no such division. The verses 12.1, 12.2 and 12.82 are transitional verses. This section is in a different style than the rest of the text, raising questions whether this entire chapter was added later.”

कुछ लोग मनुस्मृति की रचना का काल आज से लगभग 2000 साल पहले पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल का बताते हैं. हालांकि बहुत सारे इतिहासकारों ने इस दावे को प्रमाणों के साथ खारिज कर दिया है. रोमिला थापर इन दावों को अतिशयोक्तिपूर्ण मानती हैं. इसी के साथ वह यह भी कहती हैं कि पुरातात्विक साक्ष्य पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में बौद्धों के उत्पीड़न के दावे को भी झूठा साबित करते हैं.

किस-किस ने की मनुसंहिता की सराहना-

मनुस्मृति के प्रशंसकों में स्वामी दयानंद सरस्वती, एनी बेसेंट, फ्रेडरिक नीत्शे, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि भी शामिल हैं. फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा है-

“Close the Bible and open the Manusmriti. It has an affirmation of life, a triumphing agreeable sensation in life.”

पोलार्ड और अन्य इतिहासकारों ने कहा है-

“मनुसंहिता इस सवाल का भी जवाब देती है कि लोग बाढ़ जैसी आपदाओं के बाद अपने समाज का पुनर्निर्माण कैसे कर सकते हैं.”

मनु के अनेक टीकाकारों की टीकाएँ भी अब लुप्त हो चुकी हैं, इसलिए राजर्षि मनु के जीवन और काल के विषय में आज सटीक जानकारी नहीं मिल पाती है, फिर भी सभी इतिहास-पुराण आदि यह बात एक मत से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनकी मनुस्मृति आदिशास्त्र है, क्योंकि मनु की समस्त मान्यताएँ सत्य होने के साथ-साथ देश, काल और जाति बंधनों से रहित या मुक्त हैं.

मनुस्मृति में मांसाहार, पशुबलि, नारी के अपमान और भेदभाव, वर्णों में भेदभाव आदि का कोई समर्थन नहीं मिलता है, जबकि एक अच्छी और समानता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के नियम जरूर देखने को मिलते हैं. मनुस्मृति में चारों वर्णों, आश्रमों, सोलह संस्कारों और सृष्टि उत्पत्ति के अलावा राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, अलग-अलग प्रकार के विवादों, सेना का प्रबंध आदि सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है.

‘बाइबल इन इण्डिया’ नामक ग्रन्थ में लुई जैकोलिऑट (Louis Jacolliot) ने लिखा है-

“Manu Smriti was the foundation upon which the Egyptian, the Persian, the Grecian and the Roman codes of law were built and that the influence of Manu is still felt in Europe.” [मनुस्मृति के आधार पर ही मिस्र, पर्शिया, ग्रेसियन (ग्रीस देश सम्बन्धी) और रोमन कानूनी संहिताओं का निर्माण हुआ. आज भी यूरोप में मनु के प्रभाव का अनुभव किया जा सकता है].

एन्टॉनी रीड लिखते हैं-

“प्राचीन काल में बर्मा, थाईलैंड, कम्बोडिया, जावा-बाली आदि में धर्मशास्त्रों और प्रमुख रूप से मनुस्मृति का बड़ा आदर था. इन देशों में इन ग्रंथों को प्राकृतिक नियम देने वाला ग्रन्थ माना जाता था और राजाओं से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे इनके अनुसार ही आचरण करेंगे.”

इस प्रकार हम यह पुष्टि के साथ कह सकते हैं कि आज मनुस्मृति पर जातिवाद, महिलाओं के अधिकार छीने जाने और मांसाहार के समर्थन जैसे जो भी आरोप लगाए जाते हैं, वे सभी पूरी तरह निराधार हैं. मनुस्मृति किसी भी समाज के लिए व्यक्ति के अच्छे आचरण और सही कर्तव्यों के बारे में बताती है.

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