Ram Sita Vanvas Story
सीताजी के विरुद्ध केवल एक व्यक्ति (धोबी) ही उल्टा-सीधा बोल रहा होता तो इतनी समस्या की बात नहीं होती, लेकिन जब श्रीराम ने भद्र से पता करवाया तो पाया कि बहुत सारी जगहों पर प्रजा में श्रीराम और सीता जी के विरुद्ध ऐसी ही बातें चल रही थीं. सब लोग एक-दूसरे की बात का खूब समर्थन करते हुए भी दिखाई दे रहे थे.
आमतौर पर होता भी यही है; किसी भी विषय पर कुप्रचार करने वाले हमेशा ग्रुप बनाकर ही आते हैं और एक-दूसरे का खूब समर्थन करते हुए भी दिखाई देते हैं, जिससे साधारण लोग बड़ी जल्दी ऐसे लोगों के झांसे में आ जाते हैं.
झूठ बड़ी तेजी से फैलता है, इसलिए किसी भी विषय पर कुप्रचार करना बहुत आसान होता है. आज सोशल मीडिया पर ही देख लीजिए.
शत्रुओं से जीतना इतना मुश्किल नहीं होता. शत्रुओं से तो हम जीत जाते हैं, क्योंकि हमें पता होता है कि सामने वाला हमारा शत्रु है, तो वह हमारे विरुद्ध ऐसी ही बात करेगा, या हम पर हमला ही करेगा, तो हम भी उससे सावधान रहते हैं और उसे सबक भी सिखाते हैं. श्रीराम ने भी अपने सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की.
लेकिन अब मुकुट धारण करते समय जिनके मतों का सम्मान करने की शपथ ले रखी है, उनका क्या करें? अब भले ही वे सब मिलकर अपना मत रखने के नाम पर केवल दुष्प्रचार ही कर रहे हों, झूठ ही फैला रहे हों.
श्रीराम किस-किस का मुंह बंद करवाते? जैसी आसानी से बाणों की वर्षा वे राक्षसों पर कर देते थे, वैसी ही बाणों की वर्षा वे अपनी उस प्रजा पर तो नहीं कर सकते थे, जिसके ही सुखों को प्राथमिकता देने और जिसकी रक्षा का वचन उन्होंने राज्याभिषेक के समय ले लिया था…
किस-किस को कारागार में डालते? किस-किस को दंड देने की धमकी देते? और फिर धमकियां देकर सबका मुंह तो बंद करवा देते, पर क्या इससे सबके मन में तेजी से फैलते जा रहे मैल को भी बाहर निकाला जा सकता था?
श्रीराम समझ गए कि
बलिदान का समय आ गया है….
और फिर श्रीराम और सीताजी को सदैव के लिए अलग-अलग करने का जो काम रावण जैसा इतना बड़ा राक्षस न कर सका, वह काम श्रीराम की प्रजा ने कर दिया.
वही प्रजा जिसने बड़े आंसुओं के साथ 14 वर्षों तक श्रीराम का बेसब्री से इंतजार किया था, वही प्रजा जिसने श्रीराम के वापस लौटने पर उनका भव्य स्वागत किया था, दीपावली मनाई थी, उत्सव मनाया था.
श्रीराम का स्वागत तो कर लिया, पर श्रीराम को ही न समझ सकी.
और फिर श्रीराम ने सीताजी के जाने के बाद भी सैंकड़ों बड़े-बड़े यज्ञ किए, और प्रत्येक यज्ञ में अपने साथ सीताजी की प्रतिमा को बिठाया. सबको दिखा दिया कि
न तो राम ने कभी अपनी सीता का त्याग किया था और न ही राम के जीवन में सीता का स्थान कोई ले सकता है.
प्रजा जब-जब ये दृश्य देखती, तब-तब अपनी मूर्खता पर पछताती, वह समझ चुकी थी कि श्रीराम केवल किसी से कुछ कह नहीं रहे लेकिन वे अंदर ही अंदर कितने….
लेकिन अब…?
अब कुछ हो नहीं सकता था, जो होना था हो चुका था.
लोहे के अस्त्र-शस्त्रों से, झूठ और दुष्प्रचार के अस्त्र-शस्त्र अधिक खतरनाक होते हैं.
Written By : Lata Agarwal
श्रीराम से जुड़ी कुछ बातों के उत्तर क्यों नहीं मिलते?
श्रीराम से जुड़ी कुछ बातों के उत्तर हमें इसलिए भी नहीं मिलते क्योंकि वाल्मीकि जी ने किसी-किसी जगह स्पष्टीकरण दिया नहीं है.
अब जैसे कि, अग्नि परीक्षा के दौरान जब सीताजी लक्ष्मण जी से अपने लिए अग्नि का प्रबंध करने के लिए कहती हैं, तब लक्ष्मण जी श्रीराम को क्रोध से देखते हैं, और तब श्रीराम लक्ष्मण जी को संकेत में अपना अभिप्राय समझा देते हैं. और तब श्रीराम का अभिप्राय जानकर लक्ष्मण जी सीताजी के लिए अग्नि का प्रबंध कर देते हैं.
अब श्रीराम ने लक्ष्मण जी को अपना क्या अभिप्राय बताया, यह वाल्मीकि जी ने नहीं लिखा.
और आज कुछ लोग पूछते रहते हैं कि ‘सीताजी की अग्नि परीक्षा क्यों हुई?’
इसी प्रकार, वाल्मीकि जी ने एक बार भी इस बात का कारण नहीं बताया कि श्रीराम ने बाली को पीछे से ही मारने का निश्चय क्यों किया, जबकि उन्होंने बाली को मिले किसी वरदान का भी स्पष्ट उल्लेख नहीं किया.
और आज कुछ लोग पूछते रहते हैं कि ‘श्रीराम ने बाली को पीछे से ही क्यों मारा?’
ऐसा ही उन्होंने सीता-वनवास के प्रसंग और शम्बूक वध वाले प्रसंग में भी किया.
यानी कि जहाँ-जहाँ श्रीराम पर प्रश्न खड़े होते हैं, वहीं-वहीं वाल्मीकि जी या तो मौन हो गए या अप्रत्यक्ष रूप से कुछ संकेत दे दिए हैं.
अब ऐसा तो नहीं कहा जा सकता है कि वाल्मीकि जी को डिटेल लिखने में आलस्य आ रहा होगा. ऐसा प्रतीत होता है जैसे ऐसा उन्होंने जानबूझकर ही किया कि
“उलझे रहो और इसी बहाने श्रीराम का नाम लेकर अपना उद्धार करते रहो….”
अब जो समझने योग्य होगा वो बार-बार पढ़कर और सभी चीजों का धैर्यपूर्वक अध्ययन करके अपने-आप समझ जायेगा, और जिसे समझ न आए, या जो समझना ही न चाहता हो, उसे समझाने की कोई आवश्यकता भी नहीं है.
सीताजी के वनवास से श्रीराम और सीताजी ने एक बहुत अच्छी शिक्षा दी है कि जरूरी नहीं कि दो प्रेमियों को हमेशा साथ-साथ रहने को ही मिले, परिस्थितियां और समाज उन्हें अलग-अलग भी कर सकता है, लेकिन परिस्थितियां और समाज दो प्रेमियों के शरीरों को ही अलग कर सकता है, उनकी आत्माओं को नहीं.
श्रीराम जानते थे कि यदि सीताजी अयोध्या में रहेंगी तो प्रजा की उलूल-जुलूल बातों से उनका दुःख बढ़ता ही जायेगा, जिसका असर न सिर्फ सीताजी पर, बल्कि उनकी आने वाली संतान पर भी पड़ता, यानी देश के भविष्य पर भी.
अतः उन्होंने सीताजी को ऐसे माहौल से दूर रखना ही उचित समझा. और इसके बाद श्रीराम ने भी अपने सभी सुखों का त्याग करने का निश्चय कर लिया और दृढ़ होकर एक आदर्श राजा की भूमिका निभाते रहे. प्रजा तो सुखपूर्वक रहती थी, पर राजा-रानी….
जब लक्ष्मण जी सीताजी को रथ में बिठाकर वाल्मीकि आश्रम तक छोड़कर वापस अयोध्या आते हैं, तब वे नीचे मुख किये दुःखी मन से बेरोक-टोक भीतर चले गये. उन्होंने देखा श्रीरघुनाथजी दुःखी होकर एक सिंहासन पर बैठे हैं ओर उनके दोनों नेत्र आंसुओं से भरे हैं. बड़े भाई को सामने इस अवस्था में देख दुःखी मन से लक्ष्मणजी ने उनके दोनों पैर पकड़ लिये और हाथ जोड़ चित्त को एकाग्र करके दीन वाणी में बोले-
“वीर महाराज की (आपकी) आज्ञा शिरोधार्य करके मैं उन शुभ आचारवाली, यशस्विनी, जनककिशोरी, सीताजी को गङ्गातट पर महर्षि वाल्मीकि के शुभ आश्रम के समीप निर्दिष्ट स्थान में छोड़कर पुनः आपके श्रीचरणों की सेवा के लिये यहाँ लौट आया हूं॥ पुरुषसिंह! आप शोक न करें. काल की ऐसी ही गति है. संसार में जितने संचय हैं, उन सबका अंत विनाश है, उत्थान का अंत पतन है, संयोग का अंत वियोग है और जीवन का अंत मरण है॥ इसीलिए राजा को पत्नी, पुत्र, मित्र और धन में विशेष आसक्ति नहीं रखनी चहिये; क्योंकि उनसे वियोग होना निश्चित है॥” (उत्तरकाण्ड सर्ग ५२)
और इसके बाद श्रीराम ने अपना दुःख कभी किसी को नहीं दिखाया.
जब माता कैकेयी ने अपने दो वर मांगे थे, तब राजा दशरथ जी कहते हैं कि
“जैसे ही मेरे पुत्र का सुखभोग का समय आया है, वह वन के कष्टों को भोगेगा…”
दरअसल, श्रीराम और सीताजी ने पूरे जीवनभर अपने बारे में सोचा ही नहीं, केवल दूसरों के बारे में ही सोचते रहे. और इसलिए जब-जब उनके सुखभोग का समय आता, तभी उनके लिए बलिदान का समय आ जाता. वे पृथ्वी पर आये ही थे मानवजाति का कल्याण करने के लिए, सभी को भयमुक्त करने और सुख देने के लिए.
नहीं तो क्या कारण था कि श्रीराम अपने वनवास में 13 वर्षों तक एक कुटिया बनाकर नहीं रहे, बल्कि आगे बढ़ते-बढ़ते देश में घुसपैठ कर आतंक मचा रहे राक्षसों का वध करते रहे. इसके बाद श्रीराम और सीताजी ने मिलकर माया रचाकर उस source को ही खत्म कर दिया, जहाँ से लगातार घुसपैठ होती रहती थी.
नकली मृग की माया रचाने वाला रावण यह नहीं जानता था कि वह माया रचा भी किसके साथ रहा है, जो स्वयं मायापति हैं. रावण सोच रहा था कि उसने श्रीराम और सीताजी को अपनी माया में फंसा लिया, वह नहीं जानता था कि ऐसा करके वह स्वयं ही श्रीराम और सीताजी के मायाजाल में फंस चुका है.
यदि आप पूरी महाभारत को ठीक से पढ़ लेंगे तो शायद आपको वाल्मीकि रामायण का उत्तरकांड भी समझ आ जाए.
Written By : Aditi Singhal (working in the media)
(Guest Author)
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