Bhagwat Gita Chapter 17 : भगवद् गीता – सत्रहवाँ अध्याय (श्रद्धात्रयविभाग योग)

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महाभारत की ऐतिहासिकता

Geeta Adhyay 17 Shlok (Sanskrit Hindi)

भगवद्गीता के १६वें अध्याय के आरम्भ में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से निष्काम-भाव से सेवन किये जाने वाले शास्त्रविहित गुण और आचरणों का दैवीसम्पदा के नाम से वर्णन करके फिर शास्त्रविपरीत आसुरी सम्पदा का कथन किया. साथ ही आसुर-स्वभाव वाले मनुष्यों को नरकों में गिराने की बात कही और यह बतलाया कि काम, क्रोध, लोभ ही आसुरी सम्पदा के प्रधान अवगुण हैं. ये तीनों ही नरकों के द्वार हैं. इनका त्याग करके जो आत्मकल्याण के लिये साधन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है.

इसके अनन्तर उन्होंने यह भी कहा कि जो शास्त्रविधि का त्याग करके (जिन्हें शास्त्र की परवाह ही नहीं है) मनमाने ढंग से अपनी समझ से जिसको अच्छा कर्म समझता है, वही करता है, उसे अपने उन कर्मों का फल नहीं मिलता.

अब अर्जुन सोचते हैं यह तो ठीक ही है, किन्तु ऐसे लोग भी तो हो सकते हैं, जो न जानने के कारण (अज्ञानता के कारण) अथवा अन्य किसी कारण से शास्त्रविधि का त्याग कर बैठते हैं तथा यज्ञ-पूजादि शुभ कर्म श्रद्धापूर्व करते हैं, तो उनकी क्या स्थिति होती है? (जो शास्त्र को न जानने के कारण शास्त्रविधि का त्याग करके श्रद्धा के साथ पूजन आदि करने वाले हैं, वे कैसे स्वभाव वाले होते हैं?) इस जिज्ञासा को व्यक्त करते हुए अर्जुन भगवान से पूछते हैं-

भगवद्गीता – सप्तदश अध्याय (Gita Adhyay 17)

(Bhagwat Geeta Adhyay 17 Shlok in Sanskrit)

अर्जुन उवाच

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥१॥

श्रीभगवानुवाच

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श‍ृणु॥२॥
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥३॥

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः॥४॥
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥५॥

कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥६॥
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श‍ृणु॥७॥

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥८॥
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥९॥

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥१०॥
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥११॥

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥१२॥
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥१३॥

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥१४॥
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥१५॥

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥१६॥
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥१७॥

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥१८॥
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥१९॥

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥२०॥
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥२१॥

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥२२॥
ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥२३॥

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥२४॥
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥२५॥

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते॥२६॥
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥२७॥

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥२८॥


भावार्थ (सत्रहवाँ अध्याय) (Gita Adhyay 17)

(Bhagwat Geeta Adhyay 17 in Hindi)

अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो श्रद्धा से युक्त मनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर देवादि का पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विक है अथवा राजसी या तामसी?

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले- मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा (अनन्त जन्मों में किए हुए कर्मों के संचित संस्कार से उत्पन्न हुई श्रद्धा ”स्वभावजा” श्रद्धा कही जाती है) सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है॥2॥ हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है. यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है॥3॥ सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं॥4॥

जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं॥5॥ जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को (समस्त प्राणियों को) और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवास आदि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान्‌ के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना), उन अज्ञानियों को तुम आसुर स्वभाव वाला जानो॥6॥

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भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है. और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं. मैं तुम्हें उनके इस पृथक्‌-पृथक्‌ भेद को बताता हूँ॥7॥ आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले (जिस भोजन का सार शरीर में बहुत काल तक रहता है, उसको स्थिर रहने वाला कहते हैं) तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार अर्थात्‌ भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं॥8॥

कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात्‌ भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं ॥9॥ जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गंधयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो भोजन अपवित्र है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है॥10॥

महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय १४५ (११) में माता पार्वती ने जब भगवान् शिव से पूछा कि, “आहार की शुद्धि कैसे होती है?”
तब भगवान शिव ने बताया कि, “जिसमें मांस और मद्य न हो, जो सड़ा हुआ या पसीजा न हो, बासी न हो, अधिक कड़वा, अधिक खट्टा और अधिक नमकीन न हो, जिससे उत्तम गंध आती हो, जिसमें कीड़े या केश न पड़े हों, जो निर्मल हो, ढका हुआ हो और देखने में भी शुद्ध हो, जिसका देवताओं और ब्राह्मणों द्वारा सत्कार किया गया हो, सदा ऐसे ही अन्न का भोजन करना चाहिये. इसके विपरीत जो भोजन है, वह अशुभ है.”

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मनुष्य जैसा आहार करता है, वैसा ही उसका अन्तःकरण बनता है और अन्तःकरण के अनुरूप ही उसकी श्रद्धा होती है. आहार शुद्ध होगा तो उसके परिणामस्वरूप अन्तःकरण भी शुद्ध होगा. ‘आहारशुदौ सत्त्वशुद्धिः’. (छान्दोग्य ७.२६.२) अन्तःकरण की शुद्धि से ही विचार, भाव, श्रद्धादि गुण और क्रियाएं शुद्ध होगी. सात्त्विक, राजस और तामस आहार में जो आहार जिसको प्रिय होता है, वह उसी गुणवाला होता है. अतः आहार की दृष्टि से भी किसी की पहचान की जा सकती है. यही बात यज्ञ, दान और तप के विषय में भी है.

हे अर्जुन! जो शास्त्र विधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार मन को समाधान करके, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है॥11॥ परन्तु केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तुम राजस जानो॥12॥ शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मंत्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं॥13॥

देवता, ब्राह्मण, गुरु (माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- संबंधी तप कहा जाता है॥14॥ जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है (मन और इन्द्रियों द्वारा जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही कहना) तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है- वही वाणी-संबंधी तप कहा जाता है॥15॥

मन की प्रसन्नता, शांतभाव, भगवच्चिंतन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता, इस प्रकार यह मन संबंधी तप कहा जाता है॥16॥ फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं॥17॥ जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित (जिसका फल होने न होने में शंका हो) एवं क्षणिक फलवाला तप राजस कहा गया है॥18॥ जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है॥19॥

स्पष्टीकरण में बताया गया है कि “जो अशास्त्रीय, मनःकल्पित, घोर और स्वभाव से ही तामस है, जिसमें दम्भ की प्रेरणा से या अज्ञान से पैरों को पेड़ की डाली में बांधकर सिर नीचा करके लटकना (जैसे शम्बूक कर रहा था. वह तामस तप कर रहा था. ऐसे तप कभी अच्छे उद्देश्य से नहीं किये जाते हैं और इसलिए समाज पर ऐसे तप का बुरा प्रभाव पड़ता है), लोहे के कांटों पर बैठना तथा इसी प्रकार की अन्यान्य घोर क्रियाएं करके बुरी भावना से अर्थात् दूसरों की सम्पत्ति का हरण करने, उसका नाश करने, उनके वंश का उच्छेद करने अथवा उसका किसी प्रकार कुछ भी अनिष्ट करने के लिये जो अपने मन, वाणी, और शरीर को ताप पहुँचाना है- उसे ‘तामस तप’ कहते हैं.”

दान देना ही कर्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल (जिस देश-काल में जिस वस्तु का अभाव हो, वही देश-काल, उस वस्तु द्वारा प्राणियों की सेवा करने के लिए योग्य समझा जाता है) और पात्र के प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है॥20॥ किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में (अर्थात्‌ मान बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिए) रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है॥21॥ जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है॥22॥

जिसके पास जहाँ जिस समय जिस वस्‍तु का अभाव हो, वह वहीं और उसी समय उस वस्तु के दान का पात्र है. जैसे- भूखे, प्यासे, नंगे, दरिद्र, रोगी, आर्त, अनाथ और भयभीत प्राणी अन्न, जल, वस्त्र, निवार्हयोग्य धन, औषधि, आश्वासन, आश्रय और अभय दान के पात्र हैं. इनके अतिरिक्त जो श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान्, ब्राह्मण, उत्तम ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तथा सेवावृति लोग हैं, जिन्हें जिस वस्‍तु का दान देना शास्त्र में कर्तव्य बतलाया गया है, वे भी अपने-अपने अधिकार के अनुसार यथाशक्ति धन आदि सभी आवश्यक वस्तु के दानपात्र हैं.

यदि किसी ने हमारे ऊपर उपकार किया है, उसकी सेवा करना तथा यथासाध्य उसे सुख पहुँचाने का प्रयास करना तो हमारा कर्तव्य है ही. उसे जो लोग दान समझते हैं, वे वस्तुतः उपकारी का तिरस्कार करते हैं और जो लोग उपकारी की सेवा नहीं करना चाहते, वे तो कृतध्न की श्रेणी में हैं. यहाँ अनुपकारी को दान देने की बात कहकर भगवान यह भाव दिखलाते हैं कि दान देने वाला दान के पात्र से बदले में किसी प्रकार की जरा भी उपकार पाने की इच्छा न रखे. वस्तुतः दाता की स्वार्थबुद्धि का ही निषेध किया गया है.

मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि इस लोक और परलोक के भोगों की प्राप्ति के लिये या रोग आदि की निवृति के लिये जो किसी वस्तु का दान किसी व्यक्ति या संस्था को दिया जाता है, वे फल के उद्देश्य से दान देना है. पांच बात सुनाकर, कड़वा बोलकर, धमकाकर, फिर न आने की कड़ी हिदायत देकर, मजाक उड़ाकर अथवा अन्य किसी भी प्रकार से वचन, शरीर या संकेत के द्वारा अपमानित करके जो दान दिया जाता है, वह तिरस्कारपूर्वक दिया जाने वाला दान है.

जिस मनुष्य को दान देने की आवश्यकता नहीं है तथा जिनको दान देने का शास्त्र में निषेध है, वे धर्मध्वजी, पाखण्डी, कपट वेषधारी, हिंसा करने वाले, मद्य-मांस आदि अभक्ष्य वस्तुओं को भक्षण करने वाले, चोरी, व्यभिचार आदि नीच कर्म करने वाले, ठग, जुआरी और नास्तिक आदि सभी दान के लिये अपात्र हैं.

ॐ, तत्‌, सत्‌-ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गए॥23॥ इसलिए वेद-मंत्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ मनुष्यों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ‘ॐ’ इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं॥24॥ तत्‌ अर्थात्‌ ‘तत्‌’ नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है- इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार के यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छा वाले मनुष्यों द्वारा की जाती हैं॥25॥

‘सत्‌’- इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है तथा उत्तम कर्म में भी ‘सत्‌’ शब्द का प्रयोग किया जाता है॥26॥ तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी ‘सत्‌’ इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्‌- ऐसे कहा जाता है॥27॥ बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त ‘असत्‌’- इस प्रकार कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही॥28॥

यज्ञ, तप और दान से यहाँ सात्त्विक यज्ञ, तप और दान का निर्देशन किया गया है, जिसमें कर्ता का जरा भी स्वार्थ नहीं रहता- ऐसा कर्म कर्ता के अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर उसे परमेश्वर की प्राप्ति करा देता है, इसलिये वह ‘सत्’ है. हवन, दान और तप तथा अन्यान्य शुभ कर्म श्रद्धापूर्वक किये जाने पर ही अन्तःकरण शुद्धि और इस लोक या परलोक के फल देने में समर्थ होते हैं. बिना श्रद्धा के लिये हुए शुभ कर्म व्यर्थ है.

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