यूरोपीय संघ (European Union) क्या है, क्यों और कैसे हुई थी स्थापना और कैसे बढ़ी सदस्य संख्या

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European Union

What is European Union

यूरोपीय संघ (European Union-EU) यूरोप में स्थित 27 देशों का एक राजनीतिक और आर्थिक मंच है, जिसमें आपस में प्रशासनिक साझेदारी होती है, जो संघ के सभी सदस्य देशों पर लागू होती है. यूरोपीय संघ की 23 आधिकारिक और कार्यकारी भाषाएं हैं. यूरोपीय संघ की कुल मिलाकर भौगोलिक सीमा 44 लाख 22 हजार 773 वर्ग किलोमीटर है. यूरोपीय संघ के 19 सदस्य देश अपनी आधिकारिक मुद्रा के तौर पर ‘यूरो’ का इस्तेमाल करते हैं, जबकि बाकी 8 सदस्य देश (बुल्गारिया, क्रोएशिया, चेक गणराज्य, हंगरी, रोमानिया, स्वीडन, पोलैंड और डेनमार्क) ‘यूरो’ का इस्तेमाल नहीं करते हैं.

यूरोपीय संघ में 27 संप्रभु राष्ट्र शामिल हैं- फ्रांस, आस्ट्रिया, आयरलैंड, बेल्जियम, बुल्गारिया, नीदरलैंड, पोलैंड, लक्जमबर्ग, साइप्रस, चेक गणराज्य, डेनमार्क, स्पेन, स्वीडन, पुर्तगाल, रोमानिया, एस्टोनिया, फिनलैंड, जर्मनी, ग्रीस (यूनान), हंगरी, इटली, लातविया, लिथुआनिया, माल्टा, स्लोवाकिया, स्लोवानिया, क्रोएशिया.

क्यों बनाया गया यूरोपीय संघ

द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) की तबाही के बाद यूरोप के देशों ने इस बात को माना कि अगर उनके बीच (यूरोपीय देशों के बीच) आर्थिक सहयोग बढ़ेगा, तो उनके राजनीतिक संघर्ष कम हो सकते हैं. इसलिए दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद पश्चिमी यूरोप के देशों में एकता के पक्ष में माहौल बनना शुरू होने लगा. यूरोप में आर्थिक एकीकरण (Economic Integration) और सहयोग की प्रक्रिया की शुरुआत इसी मान्यता पर आधारित है.

इस दिशा में सबसे पहला प्रयास साल 1950 में यूरोप के 6 देशों की तरफ से ‘यूरोपीय कोयला और स्टील समुदाय’ (European Coal and Steel Community) की स्थापना करके किया गया. ये 6 देश हैं- बेल्जियम, इटली, फ्रांस, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड और पश्चिमी जर्मनी. यूरोपीय कोयला और स्टील समुदाय का मुख्य उद्देश्य सभी सदस्य देशों के राष्ट्रीय कोयला और स्टील उद्योगों पर केंद्रीयकृत नियंत्रण (Centralized Control) और सहयोग की व्यवस्था करना था. बाद में अन्य आर्थिक क्षेत्रों में भी सहयोग बढ़ाने का प्रयास किया गया.

यूरोपीय आर्थिक समुदाय की स्थापना

साल 1957 में रोम की संधि के द्वारा ‘यूरोपीय आर्थिक समुदाय’ (European Economic Community-EEC) की स्थापना की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य इसके सदस्य देशों के बीच व्यापार और अन्य आर्थिक गतिविधियों में सहयोग को बढ़ाना था.

इसी के साथ, यूनियन और आणविक ऊर्जा के विकास में सहयोग करने के लिए ‘यूरोपीय आणविक ऊर्जा समुदाय’ (European Atomic Energy Community) की भी स्थापना की गई. बाद में इस संगठन में शामिल देशों की संख्या बढ़ती गई और इसी के साथ परिस्थितियों के अनुसार इस संगठन के ढांचे में भी बदलाव किया गया.

यूरोपीय संघ की सदस्य संख्या में वृद्धि

संगठन के फायदों को देखते हुए अन्य यूरोपीय देशों ने भी इसकी सदस्यता ग्रहण कर ली. साल 1973 में ब्रिटेन, डेनमार्क और आयरलैंड ने यूरोपीय आर्थिक समुदाय (EEC) की सदस्यता ग्रहण की. साल 1981 में यूनान और 1986 में पुर्तगाल और स्पेन ने भी इसकी सदस्यता ले ली. इससे शीतयुद्ध की समाप्ति तक यूरोपीय आर्थिक समुदाय की सदस्य संख्या बढ़कर 12 हो गई थी.

वास्तव में यूरोपीय आर्थिक समुदाय (EEC) जो कि वर्तमान में ‘यूरोपीय संघ’ कहलाता है, की सदस्यता में एक बड़ा विस्तार शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद हुआ है. सोवियत साम्यवादी व्यवस्था की समाप्ति के बाद पूर्वी यूरोप के देशों और सोवियत संघ से टूट कर आए नए गणराज्यों और पूर्वी यूरोप के देशों ने यूरोपीय संघ की सदस्यता ले ली.

2004 में 10 देश एक साथ हुए शामिल

उत्तर शीतयुद्ध काल में सबसे पहले 1995 में फिनलैंड, ऑस्ट्रिया और स्वीडन ने यूरोपीय संघ की सदस्यता प्राप्त की. साल 2004 में पूर्वी यूरोप के एक साथ 10 राज्यों ने यूरोपीय संघ में एंट्री ली. ये 10 राज्य हैं- हंगरी, पोलैंड, स्लोवाकिया, साइप्रस, चेक गणराज्य, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, माल्टा और स्लोवेनिया. साल 2007 में बुल्गारिया और रोमानिया भी यूरोपीय संघ के सदस्य बन गए, जिसके बाद इसकी सदस्य संख्या 28 हो गई. तुर्की ने भी इसकी सदस्यता लेने की काफी कोशिश की, लेकिन उसकी इस्लामिक छवि के कारण वह इस संगठन की सदस्यता प्राप्त नहीं कर सका.

जनवरी 2021 में ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग हो गया, जिससे इसकी सदस्य संख्या घटकर 27 रह गई है. इसे ही ‘ब्रेक्जिट’ (Brexit यानी ब्रिटेन एक्जिट) के नाम से जाना जाता है. (साल 2016 में UK सरकार की तरफ से एक जनमत संग्रह करवाया गया था. इस जनमत संग्रह में ब्रिटेन के 51.89 प्रतिशत लोगों ने ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने के पक्ष में मतदान दिया था).

यूरोपीय संघ के ढांचे में बदलाव

‘यूरोपीय आर्थिक समुदाय’ से ‘यूरोपीय समुदाय’ से ‘यूरोपीय संघ’

शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद साल 1992 में मास्ट्रिक्ट संधि के द्वारा इस संगठन का नाम बदलकर ‘यूरोपीय समुदाय’ (European Community) कर दिया गया, अब तक इसका नाम ‘यूरोपीय आर्थिक समुदाय’ (EEC) था. इसके ढांचे में बदलाव की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण संधि 2007 की लिस्बन संधि थी, जो 1 दिसंबर 2009 को अस्तित्व में आई थी और इस संधि के अस्तित्व में आते ही पहले की सभी संधियां हमेशा के लिए समाप्त हो गईं.

लिस्बन संधि के द्वारा ‘यूरोपीय समुदाय’ का नाम बदलकर ‘यूरोपीय संघ (European Union)’ कर दिया गया और उसे एक स्वतंत्र कानूनी व्यक्ति बना दिया गया, जिसका मतलब होता है कि यूरोपीय संघ अब अन्य देशों के साथ एक राष्ट्र की तरह संबंध बना सकता है. लिस्बन संधि ने देशों के बीच सहयोग से संबंधित विषयों के अधिकार क्षेत्र को तीन भागों में बांट दिया-

पहले भाग में, यूरोपीय संघ के एकमात्र अधिकार क्षेत्र में आने वाले पांच विषयों को शामिल किया गया- कस्टम यूनियन, आंतरिक बाजार, मौद्रिक नीति का निर्धारण, सामान्य मछली उत्पादन और सदस्य देशों के लिए सामान्य व्यावसायिक नीति. इन सभी मामलों में यूरोपीय संघ को अकेले ही कार्यवाही करने का अधिकार है.

दूसरे भाग में उन मामलों को शामिल किया गया है, जिन पर यूरोपीय संघ और सदस्य राष्ट्रों को साझा अधिकार दिए गए हैं. इस कैटेगरी में- अंतरिक्ष, तकनीकी और विकास से जुड़े शोध, विकास सहयोग और मानवीय सहायता जैसे मामले शामिल हैं. इसी कैटेगरी में कुछ ऐसे मामले भी शामिल हैं, जिनमें यूरोपीय संघ सदस्य राष्ट्रों के बीच समन्वय बनाने का काम करता है. ये मामले हैं- आर्थिक, रोजगार संबंधी और सामाजिक नीतियों का समन्वय और सामान्य विदेश सुरक्षा और प्रतिरक्षा नीतियां.

तीसरे भाग में वे मामले शामिल हैं, जिनमें यूरोपीय संघ को समर्थन का अधिकार दिया गया है, यानी जिन मामलों में EU समर्थन और सहयोग करने की भूमिका निभाता है. इसके तहत- मानवीय स्वास्थ्य का सुधार और रक्षा, उद्योग, संस्कृति, पर्यटन, खेलकूद, शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण, नागरिक संरक्षण और प्रशासनिक सहयोग जैसे मामले शामिल हैं. वर्तमान में यही व्यवस्था लागू है.


शीतयुद्ध क्या है?

द्वितीय विश्वयुद्ध (World War-II) के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ (United States and Soviet Union) के बीच पैदा हुए तनाव की स्थिति को शीतयुद्ध (Cold War) कहा जाता है. ‘शीतयुद्ध’ शब्द का पहली बार इस्तेमाल अंग्रेजी लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने साल 1945 में प्रकाशित अपने लेख में किया था. इसमें ‘शीत’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया गया, क्योंकि दोनों पक्षों के बीच प्रत्यक्ष रूप से बड़े पैमाने पर कोई युद्ध नहीं हुआ था. इसीलिए कुछ इतिहासकारों ने इसे ‘शस्त्र सज्जित शांति’ का नाम भी दिया है, क्योंकि यह युद्ध हथियारों का युद्ध न होकर केवल धमकियों (दोनों महाशक्तियों के बीच वैचारिक मतभेद) तक ही सीमित रहा.

दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति से ही शीत युद्ध की शुरुआत हुई. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने मिलकर धुरी राष्ट्रों- जर्मनी, इटली और जापान के खिलाफ संघर्ष किया था, लेकिन युद्ध खत्म होते ही एक तरफ ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका और दूसरी तरफ सोवियत संघ के बीच गहरा तनाव उत्पन्न हो गया.

विश्वयुद्ध की समाप्ति के कारण चाहे जो रहे हों, लेकिन इसका नतीजा ये हुआ कि वैश्विक राजनीति के मंच पर दो महाशक्तियों का उदय हो गया. अमेरिका और सोवियत संघ दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति थीं. इनके पास इतनी क्षमता थी कि ये दुनिया की किसी भी घटना को प्रभावित कर सकते थीं. अमेरिका और सोवियत संघ के बीच महाशक्ति बनने की होड़ में ही एक-दूसरे के साथ मुकाबला करना शीतयुद्ध का कारण बना.

शीतयुद्ध मुख्य रूप से पूंजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका और साम्यवादी सोवियत संघ के बीच एक वैचारिक युद्ध था. विचारधारा की लड़ाई इस बात को लेकर थी कि ‘पूरी दुनिया में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन को सूत्रबद्ध करने का सबसे बेहतर सिद्धांत कौन सा है’. पश्चिमी गठबंधन की अगुवाई अमेरिका कर रहा था और यह गुट उदारवादी लोकतंत्र और पूंजीवाद का समर्थन कर रहा था, वहीं पूर्वी गठबंधन की अगुवाई सोवियत संघ कर रहा था और यह गुट समाजवाद और साम्यवाद का समर्थक था. इन दोनों महाशक्तियों के बीच पैदा हुए इन मतभेदों ने तनाव की भयंकर स्थिति उत्पन्न कर दी.

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LLB (Bachelor of Law). Work experience in Mahendra Institute and National News Channel (TV9 Bharatvarsh and Network18). Interested in Research. Contact- sonagarwal00003@gmail.com

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