Shudra In Ancient India : प्राचीन भारत में शूद्रों के साथ भेदभाव?

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Brahman and Shudra In Ancient India (Fahyan ki Bharat Yatra)

आज सनातन धर्म पर यह आरोप लगता है कि ब्राह्मणों ने जातियां बनाईं और शूद्रों पर अत्याचार करने लगे. यह आरोप लगाया जाता है कि प्राचीन समय में शूद्रों, चांडालों के साथ भेदभाव होता था, उनके साथ अत्याचार होता था. हालाँकि मैंने अब तक किसी भी पौराणिक कथा में ऐसा कुछ नहीं पढ़ा कि शूद्रों को या चांडालों को अपने अधिकारों के लिए आंदोलन करना पड़ा हो, या आरक्षण वगैरह मांगा हो, या समाज पर या अन्य वर्णों पर भेदभाव का आरोप लगाया हो या उनसे मैला वगैरह उठवाने जैसा कोई काम कराया गया हो.

आपको ऐसी कहानियां केवल आधुनिक समय की ही मिलेंगी. पौराणिक कथाओं में कहीं ऐसा कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि उस समय के शूद्रों को भी मालूम था कि वे शूद्र वर्ण में क्यों आते हैं और वे चाहें तो अपने आचरण और कर्मों में बदलाव लाकर अन्य वर्ण को धारण कर सकते थे. चाहे साइंस हो या धर्म, दोनों का ही यह सिद्धांत है कि दुनिया की कोई भी वस्तु (या मनुष्य) अपने अपने गुण और स्वभाव के अनुसार ही अलग अलग वर्ण को धारण करता है. बाकी, पूरी महाभारत पढ़िए, बहुत कुछ समझ आ जायेगा, समझ आएगा कि शूद्रता क्या है और ब्राह्मणत्व क्या है.

ब्राह्मणत्व सर्वोच्च है, ब्राह्मण नहीं.
शूद्रता गलत है, शूद्र नहीं.

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कम से कम सच पढ़ने की और समझने का प्रयास तो कीजिए कि कुछ नियम क्यों बनाए गए थे. महाभारत में, मनुस्मृति में और पुराणों में व्याध जैसे कर्म करने वालों को शूद्र कहा गया है. महाभारत (12.188) के अनुसार-

“प‍हले वर्णों में कोई अंतर नहीं था. ब्रह्माजी से उत्पन्न होने के कारण यह सारा जगत ब्राह्मण ही था. पीछे विभिन्न कर्मों के कारण उनमें वर्णभेद हो गया. जो विषयभोग के प्रेमी, तीखे स्वभाव वाले, क्रोधी और साहस का काम पसंद करने वाले हो गये, वे ब्राह्मण क्षत्रिय भाव को प्राप्‍त हुए (वे क्षत्रिय कहलाने लगे). जिन ब्राह्मणों ने पशुपालन तथा कृषि आदि कर्मों के द्वारा जीविका चलाने की वृत्ति अपना ली, वे ही ब्राह्मण वैश्‍यभाव को प्राप्‍त हुए. जो शौच और सदाचार से भ्रष्ट होकर हिंसा और असत्‍य के प्रेमी हो गये, लोभवश व्याधों के समान सभी तरह के निन्ध कर्म करके जीविका चलाने लगे, वे ब्राह्मण शूद्रभाव को प्राप्‍त हो गये. इन्हीं कर्मों के कारण ब्राह्मणत्त्व से अलग होकर वे सभी ब्राह्मण दूसरे-दूसरे वर्ण के हो गये, किंतु उनके लिये नित्यधर्मानुष्ठान और यज्ञ कर्म का कभी निषेध नहीं किया गया है. किन्तु लोभविशेष के कारण शूद्र अज्ञानभाव को प्राप्‍त हुए, अतः वे वेदाध्‍ययन के अनधिकारी हो गये.”

तो यहाँ हम देख सकते हैं कि किसानी, पशुपालन जैसे कार्य करने वालों को शूद्र नहीं कहा गया है, बल्कि जो ब्राह्मण सदाचार से भ्रष्ट होकर हिंसा और असत्‍य के प्रेमी हो गये, और लोभवश व्याधों के समान सभी तरह के निन्ध कर्म करके जीविका चलाने लगे, जैसे मांस खाना, जीवहत्या करके मांस-चमड़ा बेचना जैसे कार्य करने वालों को शूद्र कहा गया है.

जो लोग मांसभक्षण करते थे, मांस का व्यापार करते थे, चमड़ा बेचने का काम करते थे, केवल ऐसे ही काम करने वाले लोगों को नगर के बाहर रखा जाता था (सभी शूद्रों को नहीं), ताकि बाकी वर्णों को उनके संपर्क से और उनके जैसा बनने से बचाया जा सके, और शूद्रों चांडालों को भी इस बात से कोई दिक्कत नहीं थी.
यह कोई भेदभाव नहीं, बल्कि एक सभ्य समाज की सामाजिक व्यवस्था थी.

इस संबंध में आप भारत में आने वाले विदेशी यात्रियों जैसे फाह्यान आदि की भारत यात्रा का वर्णन पढ़ सकते हैं. एक नजर डालिये-

फाहियान ने अपनी भारत यात्रा के वर्णन में बताया है कि यहाँ के लोग समृद्ध, सुखी, उदार और सरल आचरण वाले थे. अधिकांशतः वे शाकाहारी थे और मांस, प्याज, शराब और अन्य नशीले पदार्थों से परहेज करते थे. धनी लोग परोपकार और धार्मिकता के आचरण में एक दूसरे से होड़ करते थे. सार्वजनिक नैतिकता ऊँची थी और लोग अपने जीवन से संतुष्ट थे. उन्होंने पाकिस्तान, नेपाल, उत्तरी भारत और अंततः श्रीलंका की यात्रा की और दावा किया कि राक्षस और ड्रेगन सीलोन के मूल निवासी थे.

IJFMR के अनुसार-

तत्कालीन समाज पर प्रकाश डालते हुए फाह्यान ने भारतीयों के आचरण को आदर्श, धर्मपरायण एवं अत्यंत उच्चकोटि का बताया है. लोग अतिथि परायण होते थे. मध्य देश में लोग पशुवध, मद्यपान, प्याज, लहसुन, मदिरा, मांस, मछली का प्रयोग नहीं करते थे. फाह्यान लिखता है कि देश में न तो कोई जीवहत्या करता है और न ही कोई प्याज, लहसुन खाता है. इससे स्पष्ट होता है कि उस समय अधिकांश भारतीय जनता शाकाहारी थी.

फाह्यान ने देश में वर्ण-व्यवस्था स्थापित होने और चाण्डालों के नगर की सीमा के बाहर रहने का उल्लेख किया है. फाह्यान ने देखा था कि ये लोग नगर के बाहर रहते थे और नगर-मार्गों पर अपने आगमन की सूचना लकड़ी ठोक-ठोककर देते थे जिससे अन्य वर्ण के लोग उनके संपर्क से बच सकें. फाह्यान के अनुसार मध्य देश में पशुवध, मद्यपान, प्याज-लहसुन का प्रयोग एक प्रकार से अज्ञात था.

चीनी यात्री फाह्यान के यात्रा काल में उत्तर भारत में ब्राह्मण धर्म की सर्वाधिक प्रतिष्ठा थी. भारत में आंतरिक शांति थी. बौद्ध धर्म अपेक्षाकृत अवनति पर था और जैन धर्म के संबंध में फाहयान सर्वथा मौन है. यह मौन इस बात का प्रमाण है कि कुछ थोड़े से भू-भागों के अतिरिक्त जन-समुदाय में जैन धर्म की मान्यता कम थी.

फाह्यान ने भारतीयों में पुष्पों और सुगंध के प्रति विशेष रुचि देखी थी, लेकिन उसके विवरण केवल धार्मिक कृत्यों तक ही सीमित हैं. फाह्यान के अनुसार शारीरिक पवित्रता के साथ-साथ लोगों की धर्म-परायणता भी उच्चकोटि की थी. उसके अनुसार चोरी और डकैती सरीखे नैतिक अपराध नहीं होते थे और दण्ड-व्यवस्था भी उसी अनुपात में सरल थी. भारत के लोग पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे और पापकर्म करने को बुरा मानते थे. राजद्रोहियों का सीधा हाथ काट लिया जाता था.

चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाओं का फाह्यान द्वारा विशेष वर्णन हुआ है. उसके अनुसार देश के सभी छोटे-बड़े नगरों में औषधालयों की सुंदर व्यवस्था थी. लोग उपचार के लिए अपनी सुविधानुसार उन औषधालयों में अपनी चिकित्सा कराते और कभी-कभी यथेष्ट दिनों तक वहाँ ही निःशुल्क औषधि, भोजन आदि ग्रहण करके स्वस्थ शरीर के साथ अपने घरों को लौटते थे. साधारण जनता का आर्थिक स्तर अच्छा था. मनुष्य सदाचारी थे तथा परस्पर सहयोग का जीवन व्यतीत करते थे. निर्धन तथा अनाथ लोगों को राज्य की ओर से सहायता दी जाती थी.

साधारणतया मध्यम वर्ग और वैश्य वर्ग के लोग औषधालयों की व्यवस्था और औषधियों के समुचित प्रबंध को देखते थे. प्राचीन भारत की शिक्षा-पद्धति विदेशियों के विशेष आकर्षण का कारण रही है. चीनी बौद्ध भिक्षुओं ने यहाँ के शिक्षण संस्थाओं में रहकर यहाँ के भाषाओं की जानकारी प्राप्त की थी.

Faxian’s account gives us some glimpses of the social conditions in India. It appears the bulk of the people were vegetarian, and followed the principle of Ahimsa. They had “no shambles or wine-shops in their market-places.” They do not keep pigs and fowls, nor do they eat onions and garlic, nor drank wine — a feature which may hearten modem temperance reformers. The Candalas were regarded as social outcasts, being the only persons “to go hunting and deal in flesh.” They lived away from the people, and when they approached a city or market they had to strike a piece of wood, so that other folk might avoid coming in contact with them.
[Source: “History of Ancient India” by Rama Shankar Tripathi, Professor of Ancient Indian History and Culture, Benares Hindu University, 1942]


अब मान लीजिए कि मेरा अगला जन्म शूद्र कुल में हो जाए लेकिन मेरा स्वभाव ऐसा ही हो जैसा इस जन्म में है, तो निश्चित सी बात है कि मैं ऐसा कोई काम नहीं करना चाहूंगी. मैं शिल्पकारी करूंगी, किसानी करूंगी, मजदूरी आदि करूंगी, लेकिन व्याध जैसा कर्म नहीं करूंगी. और ऐसा ही प्राचीन समय के कुछ शूद्र भी किया करते थे, जो अपनी शुद्रता को छोड़ना चाहते थे.

लेकिन वामपंथी या विरोधी इतिहासकारों ने अपने अनुवादों में या अपनी व्याख्या में लिख दिया कि किसानी, शिल्पकारी, मजदूरी, पशुपालन आदि काम करने वालों को नीच समझा जाता था. अंग्रेजों ने इसे सीधा भेदभाव बता दिया.

भारत में अधिकांश हिन्दुओं के बीच मांसाहार का प्रचलन इतना पुराना नहीं है. यह मुख्य रूप से इस्लामिक आक्रांताओं और अंग्रेजों के आने के बाद शुरू हुआ.

कुछ दशकों पहले भारत में तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला आदि समृद्ध विश्वविद्यालयों के साथ-साथ इनके अति दुर्लभ ग्रंथों से सुसज्जित व कठिन परिश्रम से बनाए गए पुस्तकालयों को जलाकर राख कर दिया गया था. उदाहरण केवल इतने ही नहीं हैं. दुनियाभर में आतंक फैला रहा समूह किसी भी राष्ट्र में जाकर सबसे पहले वहां की पुस्तकों को ही नष्ट कर रहा है, पुस्तकालयों में आग लगा देता है.

क्या आप बता सकते हैं कि वह किसी भी देश पर आक्रमण करते ही सबसे पहले उसके ज्ञान को नष्ट करने का प्रयास क्यों करता है? भला किताबें किसी को क्या नुकसान पहुँचा सकती हैं? तो इन सवालों का एक जवाब यह है कि जब तक किसी देश के मस्तिष्क व मन पर कब्जा नहीं किया जाता, तब तक उस देश को जीता नहीं जा सकता है. हर अँधा चाहता है कि सब उसकी तरह ही अंधे हो जाएँ. हर राक्षस चाहता है कि सब उसकी तरह तरह ही राक्षस हो जाएँ.

पहले तो मांस का व्यापार करने वालों को नगरों से अलग थलग रखा जाता था, लेकिन आज तो हिंदू मंदिरों के सामने भी मांस की दुकानें खुली हैं, और तो भी हम विरोध नहीं कर सकते, क्योंकि आज हिंदुओं के ही मुताबिक
यह तो अपनी अपनी चॉइस है,
अपने-अपने विचार हैं,
अपनी अपनी परंपराएं हैं,
अपना अपना रोजगार है.

और अब यह संख्या इतनी बड़ी हो चुकी है कि अब हम इसका विरोध नहीं कर सकते, और जो भी विरोध करेगा, उस पर आरोप लगेगा कि तुम एकता को तोड़ रहे हो, तुम भेदभाव और अत्याचार कर रहे हो, लेकिन आज सही बात समझने की क्षमता किसी में बची ही नहीं है. तुरंत कोई मूर्ख बीच में कूदकर शैव-शाक्त-वैष्णव का राग अलापना शुरू कर देगा. जबकि यदि आप अपने मूल ग्रंथों को पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि देवी मां ने और भगवान शिव ने तो मांसाहार और जीवहत्या का और भी कड़े शब्दों में विरोध किया है.

Written By : Aditi Singhal (working in the media)

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