Qutub Minar or Vishnu Stambh
पाठ्य-पुस्तकों की इतिहास की किताबों में हम हमेशा से यही पढ़ते हुए आए हैं कि “कुतुबमीनार (Construction of Qutub Minar) का निर्माण 1199 से 1220 के दौरान करवाया गया था. कुतुबमीनार को बनाने की शुरुआत दिल्ली के प्रथम मुस्लिम शासक कुतुबुद्दीन-ऐबक ने की थी और उसके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने इसमें तीन मंजिलों को बढ़ाया और सन 1368 में फीरोजशाह तुगलक ने पाँचवीं और अंतिम मंजिल बनवाई.”
ठीक!
लेकिन फिर कुतुबमीनार परिसर में गणेश प्रतिमायें क्या कर रही हैं? एक इस्लामिक संरचना की निर्मित दीवारों पर मंदिर की घंटियों, कलश, बछड़े को दूध पिलाती गाय और मूर्तियों का क्या काम था? आखिर एक इस्लामिक परिसर में अनेक हिंदू और जैन मान्यताओं की प्रतिमाओं का क्या काम था? आज इस ऐतिहासिक स्थल पर जितनी भी प्रतिमायें हमारे सामने हैं, उनमें से ज्यादातर खंडित क्यों हैं या उनके चेहरे क्यों घिस दिए गए हैं? इसी के साथ, कुतुबमीनार परिसर में हिन्दू वास्तुकला से निर्मित मंदिरों के सैंकड़ो स्तम्भ क्यों हैं? इन स्तंभों से मूर्तियों को हटाने के प्रयास में क्षतिग्रस्त हिस्से भी साफ देखे जा सकते है.
तो फिर कुतुबमीनार क्या है? इसकी वास्तविक पहचान क्या है? क्या यह विष्णुस्तंभ है या किसी ज्योतिषीय या ज्यामितीय शोध के लिए तैयार की गई संरचना है? या कुतुबमीनार वास्तव में प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिक वाराहमिहिर की वेधशाला (Observatory of Varahamihira) का हिस्सा हो सकती है? आइये आज इसी पर कुछ प्रकाश डालते हैं-
कुतुबमीनार का निर्माण कब किया गया था?
कुतुबुद्दीन ऐबक का शासनकाल 1206 से 1210 ईस्वी तक ही रहा था. यानी सिर्फ चार सालों का शासनकाल, और इन चार सालों में भी वह केवल अपनी सत्ता के स्थायित्व के लिए युद्ध में ही उलझा रहा. पश्चिमी और उत्तर भारत के सीमित क्षेत्रों में शासन करने वाले कुतुबुद्दीन ऐबक की राजधानी लाहौर (पाकिस्तान) थी. अब ऐसे में दिल्ली में इतनी बड़ी मीनार बनवाने की फुर्सत कुतुबुद्दीन ऐबक को कब और कैसे मिली?
“कुतुबमीनार का निर्माण कुतुबुदीन ऐबक ने करवाया”, यह तथ्य केवल वर्तमान पाठ्य-पुस्तकों की इतिहास की किताबों में ही मिलता है, बाकी उस समय की किसी भी ऐतिहासिक पुस्तक में इस तथ्य का उल्लेख नहीं मिलता है. ब्रिटिश सर्वेक्षक जोसेफ बेगलर (Joseph Begler) ने 1872 की एक सर्वे रिपोर्ट में कुतुबमीनार परिसर को हिंदू इमारत ही बताया था, साथ ही उन्होंने इसके लिए कई प्रमाण भी सामने रखे थे.
जोसेफ बेगलर ने अपनी रिपोर्ट में कुतुबमीनार परिसर से खुदाई में देवी लक्ष्मी जी की दो प्रतिमाएं मिलने की बात लिखी थी, जबकि इमारत के इस्लामी होने के निशान केवल जोड़-तोड़ की गवाही देर रहे हैं. मीनार पर मौजूद कुछ शिल्पकृतियों से पूरी तरह साबित होता है कि कुतुबमीनार वास्तव में सम्राट अशोक के समय से भी पहले की है.
अपनी रिपोर्ट के पृष्ठ 46 पर जोसेफ बेगलर ने अरबी यात्री इब्नबतूता का भी जिक्र किया था, जिसमें इब्नबतूता ने पूरे कुतुबमीनार परिसर को हिंदू परिसर कहा था और अपनी किताब में यहां 27 मंदिरों के होने के बारे में भी लिखा था. इसी के साथ, कई लेखकों ने कुतुबमीनार परिसर में मंदिरों को नष्ट कर मस्जिद बनाए जाने का उल्लेख तो किया है, लेकिन कथित मीनार का निर्माण करवाने की बात कहीं नहीं लिखी है.
क्या वाराहमिहिर की वेधशाला है कुतुबमीनार?
अब जानते हैं कि कुतुबमीनार को वाराहमिहिर से क्यों जोड़ा जाता है-
कुतुबमीनार भारत में दक्षिण दिल्ली शहर के महरौली भाग (Mehrauli, South Delhi) में स्थित ईंट से बनी ऊँची मीनार है. महरौली दिल्ली के सात प्राचीन शहरों में से एक है. महरौली एक संस्कृत शब्द ‘मिहिरावली’ (मिहिर+अवली) से लिया गया है. यह उस क्षेत्र को दर्शाता है जहाँ विक्रमादित्य के दरबार के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री वराहमिहिर अपने सहायकों, गणितज्ञों और तकनीकविदों के साथ रहते थे.
‘मिहिरावली’ (Mihiravali) का शाब्दिक अर्थ ‘सूर्य की पंक्ति’ होता है. ग्रह-नक्षत्रों के अध्यन में सूर्य का स्थान सबसे ऊपर रहता है. इसलिए कई विद्वान मिहिरावली का अर्थ सूर्य आदि ग्रह-नक्षत्रों का अध्ययन करने वाली वेधशाला से लगाते हैं.
पंडित जगन्नाथ भारद्वाज ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय खगोल विज्ञान’ (Indian Astronomy) में कुतुबमीनार के पूरे परिसर को मेरुस्तंभ और 27 मंदिरों के अध्ययन के लिए बनवाई गई संरचनाओं से तथ्यपूर्वक सिद्ध किया है. डॉ. भोजराज द्विवेदी ने अपने शोध प्रबंध ‘कुतुबमीनार हिन्दू वेधशाला’ में ‘वेधशाला और छाया प्रमाण शीर्षक’ से यह स्पष्ट किया है कि यह कोई इस्लामिक संरचना नहीं है, साथ ही कई और तथ्यों को भी स्पष्ट किया है. आइये देखते हैं-
♦ इस संरचना का प्रवेश द्वार दक्षिण की ओर है (जबकि किसी भी इस्लामिक संरचना का प्रवेशद्वार पश्चिमाभिमुख होता है). रात में दिशा बोध के लिए, सप्तर्षियों के अध्ययन के लिए ग्रहों और उचित लग्नों को समझने के लिए हमें सबसे पहले ध्रुव तारे (Pole Star) का सहारा लेना होता है. और कहा भी यही जाता है कि कुतुबमीनार का नाम ‘ध्रुव स्तम्भ’ (Dhruv Stambh) था.
♦ ऐसी अवस्था में ज्योतिष नियमों के अनुसार, सभी वेधशालाओं के प्रवेश द्वार और झरोखे उत्तराविमुख होते हैं. और यह कुतुबमीनार भी उत्तराभिमुख है. यह एक वेधशाला ही है क्योंकि कुतुबमीनार में 27 नक्षत्रों के लिए 27 रोशनदान बनाए गए हैं. हर नक्षत्र के लिए एक शोध कक्ष भी है. इस मीनार के चारों ओर 27 मंदिर थे, नक्षत्र या तारामंडलों के लिए, जिसके ऊपर गोल गुंबद थे.
♦ ज्योतिष सिद्धांतों के अनुसार, प्राचीन जंतर-मंतर और दिल्ली के कर्क वलय यंत्रों की तरह इस मीनार का झुकाव भी 5 डिग्री अंश दक्षिण की ओर रखा गया है. इसे समझने के लिए यह भी जानना आवश्यक है कि 21 जून जो कि साल का सबसे बड़ा दिन होता है, तब दोपहर 12 बजे इस विशाल मीनार की परछाईं धरती पर नहीं पड़ती है.
♦ इस विषय पर 21 जून 1970 को इतिहासकारों और ज्योतिषियों के एक दल ने विधिवत अनुमापन और परीक्षण भी किया था और इस तथ्य का सत्यापन किया गया था. इस शोध की जानकारी तत्कालीन महत्वपूर्ण समाचार पत्रों में प्रकाशित भी की गई थी, और देशभर में यह विषय खूब चर्चित भी रहा था.
♦ एक और तथ्य का सत्यापन यह भी है कि दिल्ली करीब 28.61 डिग्री अक्षांश पर स्थित है और 21 जून को मध्यान्ह के समय सूर्य कर्क रेखा (जो कि 23.5 डिग्री पर है) के ठीक ऊपर रहता है. कुतुबमीनार 5 डिग्री कोण से दक्षिण की ओर झुकी हुई है, तो सूर्य ठीक इसी के ऊपर चमकता है और इसी कारण इसकी परछाईं जमीन पर नहीं पड़ती है.
♦ इसी के साथ, उत्तरी गोलार्ध के सबसे छोटे दिन यानी 23 दिसंबर को इस मीनार की परछाईं सबसे लम्बी दिखाई देती है. इस दिन इसकी परछाईं की माप 280 फीट रिकॉर्ड किया गया है. इसी प्रकार, 21 मार्च और 22 सितम्बर को (जब दिन-रात बराबर होते हैं) कुतुबमीनार की परछाईं 180 फीट दर्ज की गई है.
♦ ये सारी बातें या गणनाएं और सभी तथ्य वाराहमिहिर द्वारा रचित पंचसिद्धांतिका (Panchasiddhantika) के अध्याय-13 के श्लोक 10-11 में हैं, जो कि कुतुबमीनार के निर्माण का वास्तविक आधार है. बृहत्संहिता (वाराहमिहिर द्वारा संस्कृत में रचित) के अध्याय ‘प्रासादलक्षण’ (मंदिरों से सम्बन्धित) में भी वाराहमिहिर ने सबसे पहले 6 कोण और 12 वलय वाले मेरुप्रासाद बनाने की विधि बताई है, और कुतुबमीनार ठीक वैसी ही संरचना है, जिसका नाम ‘विष्णु स्तम्भ’ था.
सभी तथ्यों को मिलाकर कहा जा सकता है कि कुतुबमीनार एक ईसा पूर्व की संरचना है जो लगातार 11वीं सदी तक अलग-अलग हिन्दू शासकों द्वारा संरक्षित की जाती रही है, साथ ही इसमें सुधार कार्य करवाए जाते रहे हैं. यह परिसर एक छोटे से पर्वत पर बनाया गया था, जिसे विष्णु गिरि कहा जाता था और इस मीनार को विष्णु स्तंभ.
लौह स्तम्भ (Lauh Stambh)- कुतुबमीनार के निकट स्थित एक विशाल स्तम्भ, जिसे लौह स्तम्भ (Lauh Stambh) कहा जाता है, उसमें आज तक जंग नहीं लगी, यह दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है. यह अपने आप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है. इतिहासकारों के अनुसार, इस लौह स्तम्भ का निर्माण चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने या उनसे भी पहले किसी ने करवाया था.
इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक ने लिखा है, “कुतुबमीनार और अलाई दरवाजा, अलाई मस्जिद वास्तव में विष्णुमन्दिर परिसर का हिस्सा है. अलाई मस्जिद वास्तव में विष्णुमन्दिर का खंडहर है जिसेआक्रांताओं ने नष्ट कर दिया. यहां शेषशय्या पर विराजमान भगवान विष्णु की विशाल प्रतिमा थी. कुतुबमीनार जो वास्तव में विष्णु स्तम्भ या ध्रुव स्तम्भ है, वह एक सरोवर के मध्य में स्थित था जो कमलनाभ का प्रतीक था. स्तम्भ के उपर कमलपुष्प पर ब्रह्मा जी की प्रतिमा थी, जिसे भी नष्ट कर दिया गया.”
निष्कर्ष यही है कि आक्रांताओं ने वर्तमान कुतुबमीनार परिसर कहे जाने वाले परिक्षेत्र में स्थित 27 मंदिरों को नष्ट कर पूर्व स्थापित आधारभूत संरचना के ऊपर केवल इस्लामिक चिन्ह मढ़ दिए. आक्रांता मंदिरों, भवनों का तोड़कर केवल उनका स्वरूप बदल दिया करते थे. इमारतों के ऊपरी आवरण को निकालकर अरबी में लिखे दूसरे पत्थरों को चिपका देते थे. कुतुबमीनार परिसर में स्तंभों और दीवारों पर उकेरे गए घंटियों और मूर्तियों की नक्काशी को स्पष्ट देखा जा सकता है. नाम में “कुतुब” जोड़कर बन गई कुतुबमीनार.
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