Gyanvapi Temple Kashi Vishwanath
यदि आप कभी काशी विश्वनाथ मंदिर (Kashi Vishwanath Temple) में गए हों, तो आपने भी वहां लोहे की एक दीवार की तरफ मुख करके बैठे विशाल नंदी जी को भी जरूर देखा होगा, जो कई सौ वर्षों से अपने महादेव के दर्शनों की प्रतीक्षा करते हुए दिखाई देते हैं. सब जानते हैं कि नंदी जी अपना मुख भगवान शिव की तरफ ही रखते हैं. नंदी जी के साथ-साथ प्रतीक्षा कर रहे हम सबको बाबा भोलेनाथ कब दर्शन देंगे, यह तो भोलेनाथ ही जानें, पर आज हम विश्वेश्वर ज्ञानवापी के इतिहास और इससे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों पर चर्चा करते हैं.
काशी- गंगा तट पर बसी काशी विश्व की सबसे प्राचीन नगरी कही जाती है, जिसका निर्माण स्वयं भगवान शिव ने किया था. कहा जाता है कि यह नगरी भगवान शिव के त्रिशूल पर बसी है, अत: प्रलय में भी इस पुरी का नाश नहीं होता है. विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद सहित रामायण, महाभारत, स्कन्द पुराण आदि में इस नगरी का सविस्तार उल्लेख मिलता है. जब महर्षि विश्वामित्र ने भगवान् श्रीराम के पूर्वज राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा ली थी, तब राजा हरिश्चंद्र ने काशी में ही जाकर निवास किया था. इससे पता चलता है कि यह नगरी कितनी प्राचीन है. यह नगरी पवित्र सप्तपुरियों में से एक है.
स्कन्दपुराण (Skand puran) में काशी की महिमा का गुणगान करते हुए लिखा है-
भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतोऽप्युच्चैरध:स्थापिया
या बद्धाभुविमुक्तिदास्युरमृतंयस्यांमृताजन्तव:।
या नित्यंत्रिजगत्पवित्रतटिनीतीरेसुरै:सेव्यते
सा काशी त्रिपुरारिराजनगरीपायादपायाज्जगत्॥
“जो भूमि पर होने पर भी पृथ्वी से संबद्ध नहीं है, जो जगत् की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी के बंधन काटने वाली है, जो महा त्रिलोकपावनी गंगा के तट पर सुशोभित व देवताओं से सुसेवित है, त्रिपुरारि भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी संपूर्ण जगत् की रक्षा करे.”
काशी में विश्वेश्वर ज्ञानवापी (Vishweshwar Gyanvapi Kashi) एक ऐसा महत्वपूर्ण स्थान है, जिसका निर्माण भगवान् शिव ने अपने त्रिशूल से किया था. चूंकि यह स्थान सनातनी हिन्दुओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है, इसीलिए आक्रांताओं द्वारा इसका नामो-निशान मिटाने का प्रयास किया गया. अब तक खुदाई में जितने भी साक्ष्य मिल चुके हैं, उससे पक्ष-विपक्ष को इसमें जरा भी संदेह नहीं रहा कि इस मंदिर का या इस पूरे क्षेत्र का सच क्या है. सर्वे के दौरान मस्जिद की दीवारों और अन्य पत्थरों पर त्रिशूल, डमरू, स्वास्तिक, फूल, कमल, घंटी, कलश आदि कलाकृतियां मिलती रही हैं.
काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास (History of Kashi Vishwanath Temple)
काशी में विश्वनाथ मंदिर का सर्वप्रथम निर्माण कब और किसने करवाया था, इसकी फिलहाल कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. साक्ष्य यह कहते हैं कि इस मंदिर को भव्यता राजा हरिश्चंद्र ने प्रदान की थी. कालांतर में इसी मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट विक्रमादित्य के द्वारा करवाया गया था. इस मंदिर की अवस्थिति की जानकारी महाभारत सहित अनेक उपनिषदों में भी प्राप्त होती है, साथ ही भारत आने वाले विदेशी यात्री जैसे फाह्यान, ह्वेनसांग आदि ने भी अपने लेखन में इस मंदिर का उल्लेख किया है.
ज्ञानवापी काशी विश्वनाथ मंदिर का उल्लेख स्कंदपुराण में विस्तार से मिलता है. महर्षि व्यास द्वारा रचित यह पुराण सात भागों में विभाजित है- महेश्वर खंड, वैष्णव खंड, ब्रह्म खंड, काशी खंड, अवन्त्य खंड, नागर खंड और प्रभास खंड.
इनमें से ‘काशीखंड’ में काशी के प्राचीन इतिहास का सविस्तार वर्णन मिलता है. काशी का अर्थ है – जहाँ ब्रह्म ज्ञान प्रकाशित हो. इसी के साथ इस क्षेत्र को ‘अविमुक्त क्षेत्र’ भी कहा जाता है, क्योंकि भगवान् शिव और पार्वती जी इस स्थान पर सदा ही वास करते हैं. वाराणसी को पृथ्वीलोक पर शिवलोक का ही प्रतीक माना जाता है.
वर्ष 1460 में वाचस्पति ने भी अपनी पुस्तक ‘तीर्थचिन्तामणि’ में बताया है कि अविमुक्तेश्वर और विश्वेश्वर एक ही ज्योतिर्लिंग है.
ज्ञानवापी विश्वेश्वर मंदिर पर क्यों किये गए थे हमले
हालाँकि इस सवाल का कोई मतलब नहीं है कि आक्रांताओं ने भारत के मंदिरों पर हमले क्यों किये. लेकिन फिर भी यदि हम ज्ञानवापी विश्वेश्वर मंदिर की बात करें तो इस मंदिर को आक्रांताओं द्वारा जिस प्रकार बार-बार नष्ट करने का प्रयास किया, इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह मंदिर सनातनी हिन्दुओं के लिए कितना अधिक महत्वपूर्ण होगा. बताया जाता है कि यहाँ ज्ञान का वह स्रोत था, जिसे अवरुद्ध किये बिना अन्य कोई भी मजहब भारत में अपनी जड़ें जमा नहीं सकता था.
इससे पता चलता है कि इस मंदिर को बार-बार तोड़ने का प्रयास करने वाले आक्रांताओं का मकसद केवल इस मंदिर को नष्ट करना और लूटना ही नहीं था, बल्कि उनकी मानसिकता भारत के नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों को नष्ट करने वाले आतताइयों के समान ही थी. यानि मकसद था भारत के महत्वपूर्ण ज्ञान को नष्ट कर देना, क्योंकि ज्ञान को नष्ट किये बिना देश को मानसिक गुलाम नहीं बनाया जा सकता है.
इतिहासकार एलपी शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘मध्यकालीन भारत’ में लिखा है- ‘1669 में सभी सूबेदारों और मुहासिबों को हिन्दू मंदिरों, विद्यालयों, पाठशालाओं को तोड़ने के आदेश दिए गए. इस कार्य के लिए एक अलग विभाग तक बनाया गया था. वाराणसी का विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवदेव मंदिर, सोमनाथ मंदिर सहित कई बड़े मंदिर इसी समय में तोड़े गए थे.’
ज्ञानवापी विश्वेश्वर मंदिर पर हमले
काशी विश्वनाथ मंदिर को सबसे पहले नष्ट करवाने का प्रयास मुहम्मद गोरी के गुलाम सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने किया था. वर्ष 1194-97 के बीच ऐबक की सेना ने अनेक प्रयास किये इस मंदिर को नष्ट करने के, लेकिन उन्हें आंशिक सफलता ही मिल सकी. वर्ष 1447 में इस्लामिक आक्रांताओं ने इस पवित्र मंदिर पर फिर हमला किया, जिनमें प्रमुख था जौनपुर का शासक महमूदशाह शर्की.
वर्ष 1632 में मुगल शासक शाहजहां ने इस मंदिर को तोड़ने का प्रयास किया, पर उसे सफलता नहीं मिली. इस पर शाहजहां ने काशी के अन्य 63 मंदिर तुड़वा दिए थे. इसके बाद वर्ष 1669 में इस मंदिर को तोड़ने के लिए औरंगजेब का फरमान जारी हुआ. और तब इस मंदिर को न सिर्फ तोड़ दिया गया, बल्कि मंदिर के ऊपर एक गुम्बद चिपकाकर मस्जिद का नाम भी दे दिया गया.
18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वेश्वर मंदिर को ध्वस्त करने का आदेश दिया था. यह फरमान कोलकाता की एशियाटिक लाइब्रेरी में आज भी सुरक्षित है. उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खाँ ने ‘मासीदे आलमगिरी’ में इस विध्वंस का वर्णन किया है. 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने के कार्य के पूरा होने की सूचना दी गई.
काशी विश्वनाथ मंदिर को जब औरंगजेब ने तुड़वाया तो उसने एक दीवार छोड़ दी, ताकि काशी आने वाले लोग देख लें कि हम उनके देवस्थलों के साथ क्या कर सकते हैं, और वे कुछ नहीं कर सकते, पर ऐसी बुराई का उत्तर सनातन सभ्यता कैसे देती है, यह भी देखिये. 1776-80 में महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने ध्वस्त किये गए मंदिर के ठीक सामने एक और भव्य शिवमंदिर का निर्माण करवा के मंदिर की खोयी हुई प्रतिष्ठा की स्थापना कर दी.
उसी के कुछ दिनों बाद ही पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह जी ने मंदिर के दोनों शिखरों को सोने से मढ़वा दिया और दिखा दिया कि देखो! लुटेरों की सेंधमारी से सभ्यता का वैभव समाप्त नहीं होता. तोड़ने वाले समाप्त हो जाते हैं, रचने वाले समाप्त नहीं होते. भगवान शिव के त्रिशूल पर बसी यह काशी कभी समाप्त न होने वाली नगरी है. सभ्यता के लंबे इतिहास में सत्य पर झूठ की परत चढ़ती रहती है, पर यूँ ही एकाएक सत्य उभर आता है. सत्य छिपता है, मिटता नहीं.
दुनिया की सभी सभ्यताएं आती-जाती रहती हैं, पर सनातन सभ्यता सनातन है, जिसमें बार-बार उठ खड़े होने की शक्ति होती है. विध्वंस से सभ्यता समाप्त नहीं होती, धर्म कभी समाप्त नहीं होता. भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण पर कहा था कि ‘सृजन की शक्ति सदैव विनाश की शक्ति से अधिक होती है’. तो वे तोड़ते रहे और हम बनाते रहे. वे तोड़-तोड़कर अपने कर्मों के साथ टूटकर चले गए और वह परिसर आज भी ‘हर-हर महादेव’ के जयकारों से गुंजायमान है.
प्राचीन ग्रंथों में ज्ञानवापी विश्वेश्वर मंदिर का उल्लेख
♦ सर्वप्रथम स्कन्द पुराण के काशीखण्ड की इन कुछ पंक्तियों पर ध्यान दें-
योसौ विश्वेश्वरो देवः काशीपुर्यामुम स्थितः।
लिङ्गरूपधरः साक्षान्मम श्रेया स्पद हि तत्॥
(स्कन्द पुराण काशीखंड ४.१.२६.१३०)
“विश्वेश्वर ने यहाँ काशी में स्वयं को एक लिंग के रूप में प्रकट किया.”
अविमुक्तं महत्क्षेत्रं पंचक्रोशपरीमितम्।
ज्योतिर्लिगं तदेकं हि ज्ञेयं विश्वेश्वराभिधम्॥३१॥
एकदेशस्थितमपि यथा मार्तंडमंडलम्।
दृश्यते सर्वगं सर्वैः काश्यां विश्वेश्वरस्तथा॥३२॥
(स्कन्द पुराण काशीखंड अध्याय २६)
स्कंदज्ञानोदतीर्थस्य माहात्म्यं वद सांप्रतम्।
ज्ञानवापीं प्रशंसंति यतः स्वर्गौकसोप्यलम्॥१॥
घटोद्भव महाप्राज्ञ शृणु पापप्रणोदिनीम्।
ज्ञानवाप्याः समुत्पत्तिं कथ्यमानां मयाधुना॥२॥
(स्कन्द पुराण काशीखंड अध्याय ३३)
“हे स्कन्द (कार्तिकेय)! अब आप मुझे ज्ञानोदय तीर्थ की महिमा सुनाइये. स्वर्गवासी भी ज्ञानवापी की इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं?
कुम्भ में जन्मे महान बुद्धि वाले सभी पापों को दूर करने वाली ज्ञानवापी की उत्पत्ति को सुनिये.”
चखान च त्रिशूलेन दक्षिणाशोपकंठतः।
कुंडं प्रचंडवेगेन रुद्रोरुद्रवपुर्धरः॥१७॥
(स्कन्द पुराण काशीखंड अध्याय ३३)
“लिंगोद्भव मूर्ति को शांत करने के लिए ईशान (भगवान् शिव) ने अपने त्रिशूल को विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग के दक्षिण दिशा की ओर भूमि पर प्रहार किया.”
तो इस प्रकार हमें इस बात की स्पष्ट जानकारी मिलती है कि मूल विश्वेश्वर मंदिर किस दिशा की ओर है. आज हम जिन काशी विश्वनाथ जी की पूजा करते हैं, उस मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्याबाई होल्कर जी ने 1776 में करवाया था.
♦ ‘Kashi the City Illustrious or Benares’ में Edwin Greaves लिखते हैं-
“मस्जिद के बगल में ज्ञानवापी नाम का एक कुआँ है, जिस पर एक ब्राह्मण बैठता है. पूजा करने वाले लोग कुयें के पास आते हैं, फूल चढ़ाते हैं और ब्राह्मण के हाथ से एक छोटा चम्मच जल प्राप्त करते हैं.”
शिवलिंग पर जलाभिषेक के लिए शिवालय में कुयें की व्यवस्था, प्राचीन वैदिक परम्परा है. आपने वाराणसी में स्थित प्राचीन संकटमोचन हनुमान मंदिर में भी एक कुआँ जरूर देखा होगा. कहना न होगा कि ‘ज्ञानवापी’ का जल श्री काशीविश्वनाथ जी पर चढ़ाया जाता था.
♦ ज्ञानवापी केस से जुड़े डॉ. राम प्रसाद सिंह के अनुसार वर्ष 1669 से पहले ज्ञानवापी में भगवान शिव का भव्य मंदिर हुआ करता था. इतिहासकार एएस अल्टेकर एवं जेम्स प्रिंसेप ने भी विश्वेश्वर मंदिर के बारे में जानकारी उपलब्ध कराई है. प्रिंसेप ने मंदिर का नक्शा भी तैयार किया था.
कई अध्ययनों से यह पता चलता है कि भगवान विश्वनाथ के मंदिर की ऊँचाई 128 फीट और चौड़ाई 136 फीट थी. तीन मंजिला मंदिर में 8 फीट ऊँचा शिखर था. मंदिर में आठ मंडप थे. पश्चिम दिशा में स्थित श्रृंगार मंडप के पास प्रवेश द्वार था. उत्तर दिशा में नंदी विराजमान थे और दक्षिण दिशा में स्थित कुंड में मंदिर का जल प्रवाहित होता था.
♦ लंदन की ब्रिटिश लाइब्रेरी, कैलिफोर्निया के जे. पॉल गेट्टी म्यूजियम, वॉशिंगटन की लाइब्रेरी ऑफ काँग्रेस आदि में विदेशी फोटोग्राफर्स द्वारा वर्ष 1859 से 1910 के बीच ली गईं ज्ञानवापी की अनेक तस्वीरें संगृहीत हैं. इन चित्रों में अलग-अलग कोणों से ज्ञानवापी, उसके आसपास स्थित नंदी और गणेशजी, हनुमान जी, आदि की प्रतिमाओं का अवलोकन किया जा सकता है.
♦ स्कन्द पुराण के काशीखण्ड का 34वाँ अध्याय ‘ज्ञानवापीप्रशंसनम्’ के नाम से प्रसिद्ध है. इस अध्याय में ज्ञानवापी की महिमा पर 127 श्लोक हैं.
कलावती चित्रपटीं पश्यंतीत्थं मुहुर्मुहुः.
ज्ञानवापीं ददर्शाथ श्रीविश्वेश्वरदक्षिणे॥३६॥
“बार-बार चित्रपट को निहारती हुई उसने भगवान् विश्वनाथ के दक्षिण भाग में ज्ञानवापी को देखा. पुराण में महादेवजी को जिन आठ मूर्तियों से युक्त बताया जाता है, उनमें से उनकी जलमयी मूर्ति यह ज्ञानवापी ही है, जो ज्ञान प्रदान करने वाली है.”
व्यासो विश्वेशभवनं समायातः सुहृष्टवत्.
ज्ञानवापी पुरोभागे महाभागवतैः सह॥४१॥
(स्कन्दपुराण काशीखण्ड अध्याय ९५)
ज्ञानवापी च कुंकुमवापी रोहणवापिका.
जलपानाद् भवेन्मुक्तिर्वापीत्रयं हि पावनम्॥
-(लक्ष्मीनारायणसंहिता खण्ड १ अध्याय ५१४)
तस्य सुवर्णरूपस्य वापी स्नानार्थमेव या.
ज्ञानवापी ज्ञानजलं ज्ञानोदं तीर्थमेव तत्॥१६॥
दशाश्वमेधिकं तीर्थं ज्ञानवापीं प्रियां पराम्.
विश्वेश्वरं तथा कृष्णनारायणेश्वरं हरिम्॥४६॥
दृष्ट्वा विश्वेश्वरं ज्ञानवापीं निजपुराभुवम्.
जहृषतुश्च तौ कृष्णनारायणपदार्थिनौ॥६९॥
कारयामास विधिना ज्ञानवापीं ययौ ततः.
नृपः सार्धं कलावत्या तत्र सस्नौ प्रहृष्टवत्॥७३॥
-(लक्ष्मीनारायणसंहिता खण्ड १ अध्याय ४६०)
स्कन्द पुराण से अन्य हिंदी अनुवाद
“असी ओर वरुणा के बीच में पांच कोस तक वाराणसी क्षेत्र है. वहां मणिकर्णिका, ज्ञानवापी, विष्णुपादोदक ओर पंचनद कुण्ड (पंचगंगा) में स्नान करने वाले मनुष्य का पुनर्जन्म नहीं होता है. किसी प्रसंग से भी काशी में विश्वनाथजी का दर्शन करके मनुष्य को जन्म-मृत्युरहित मुक्ति प्राप्त होती है.”
“विश्वनाथजी बोले- त्रिलोकों में जितने तीर्थ हैं, उन सबसे यह शिवतीर्थं परम श्रेष्ठ होगा. शिव ज्ञान को कहते हैं. वही ज्ञान मेरी महिमा के उदय से इस कुण्ड में द्रवीभूत होकर प्रकट हुआ है. अतः यह तीर्थ तीनों लोक में ज्ञानोद (ज्ञानवापी) के नाम से प्रसिद्ध होगा.”
“ज्ञानवापी तीर्थ के समीप सन्ध्योपासना करके द्विज काल-लोकजनित पाप का क्षणभर में नाश कर देता है ओर ज्ञानवान् हो जाता है. यही शिवतीर्थं कहा गया है ओर इसी को मंगलमय ज्ञानतीर्थं, तारकतीर्थ ओर मोक्षतीर्थं भी कहते हैं.”
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