हनुमान जी में कितना बल है : जब जाम्बवान्‌ ने याद दिलाईं हनुमान जी की शक्तियां

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Hanuman ji ki Shakti Bal

हनुमान जी भगवान शिव के अवतार हैं. उन्हें एकादश (ग्यारहवाँ) रुद्र कहा जाता है. एक बार महापराक्रमी पुत्र की कामना से तपस्या करती हुईं वानरराज केसरी की पत्नी अंजनीदेवी को पवनदेव ने अपने ही समान वेगवान व बलशाली पुत्र की माता बनने का वरदान दिया था. भगवान रुद्र ही अपने एक अंश से माता अंजनी के गर्भ में आ गये थे, अतः उनसे उत्पन्न होने के कारण दिव्य वानर शरीर वाले हनुमानजी भी परम तेजस्वी एवं महाशक्तिमान हुये. रुद्रांश होने के कारण उनका तेज प्रखर है. अतुलित बल के भंडार हैं. वायु वाला वेग व बल भी सिद्ध हुआ. वायुरूप होने के कारण वे सर्वत्र विद्यमान हैं.

रुद्र के अवतार होने के कारण हनुमान जी उन्हीं की तरह आशुतोष भी हैं, अर्थात् शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवता हैं. वे संकटमोचन कहे जाते हैं. नैष्ठिक ब्रह्मचारी हनुमानजी मल्लयुद्ध करने वाले अर्थात् पहलवानों के भी परम आराध्य देव हैं. भारत ही नहीं, विश्व के अन्य देशों में भी श्री हनुमान जी के प्राचीन मन्दिर मिलते हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि वे सभी के प्रिय आराध्य रहे हैं. इनकी पूजा सम्पूर्ण जगत् में होती है.

हनुमानजी के गुण, चरित्र का वर्णन वेदों में भी मिलता है. वाल्मीकि रामायण में श्रीराम जी कहते हैं कि तेज, धैर्य, यश, शक्ति, दक्षता, विनय, नीति पुरुषार्थ, पराक्रम एवं बुद्धि – ये गुण हनुमानजी में नित्य स्थित हैं. समुद्र की ही भांति उनके ज्ञान व गुणों की थाह नहीं पाई जा सकती है. परिस्थिति चाहे कितनी ही विकट क्यों न हो, उसे तुरंत पहचानकर शीघ्र ही सही और सटीक निर्णय लेने की चतुराई हनुमान जी में है.

हनुमानजी वज्रांग अथवा सभी आयुधों से अवध्य हैं. वरुणदेव ने उन्हें अमरत्व दिया था, यम ने अपने दण्ड से उन्हें अभय दिया व कुबेर ने गदा के आघात से. भगवान शिव ने शूल तथा पाशुपतास्त्र से और ब्रह्माजी ने उन्हें ब्रह्मास्त्र से अवध्य होने का वरदान दिया था. अस्त्र-शस्त्रों के निर्माता विश्वकर्मा जी ने उन्हें सभी आयुधों से अवध्य रहने का वरदान दिया था. रावण की सभा में हनुमान जी स्वयं बताते हैं कि, “देवता या असुर मुझे किसी अस्त्र या पाश में बांध नहीं सकते, राक्षसराज रावण को देखने की इच्छा से ही मैंने ब्रह्मास्त्र में बांधना स्वीकार किया है.”

हनुमान जी कुछ समय के लिए अपनी शक्तियों को भूल गए थे. अनुकूल समय जानकर जब ऋक्षराज जाम्बवान्‌ जी ने उन्हें उनकी शक्तियों का स्मरण करवाया, तब उन्होंने अपना विराट स्वरूप प्रकट किया और पूरे उत्साह के साथ रामकार्य में जुट गए.



सीता जी की खोज में निकली वानर सेना विशाल महासागर के पास पहुँच जाती है, जिसका कहीं कोई पार न दिखता था. जटायु जी के बड़े भाई सम्पाती ने उन सब वानरों को यह बता दिया था कि सीता जी इस समुद्र के पार बसी लंका नगरी में हैं. तब सब वानर चिंता में पड़कर सोचने लगे कि अब यहाँ से कहाँ जाना चाहिए, कैसे जाना चाहिए, यह विशाल महासागर कैसे पार करें? ऐसा कौन है जो इस समुद्र को पार कर शक्तिशाली असुरों के बीच में से सीता जी का पता लगाकर सुरक्षित वापस लौट सके!

समुद्र की विशालता देखकर विषाद में पड़े हुए सब वानरों को आश्वासन देकर राजकुमार अंगद एक-एक करके सब वानरों से पूछते हैं कि इस समुद्र को लांघने में जिसकी जितनी शक्ति हो, वह बताएं. तब सब किसी ने अपना-अपना बल कहा, लेकिन समुद्र के पार जाने में सभी ने संदेह प्रकट किया. ऋक्षराज जाम्बवान्‌ कहने लगे- ‘मैं बूढ़ा हो गया हूँ. शरीर में पहले वाला बल नहीं रहा.’ वहीं, अंगद जी ने कहा- ‘मैं पार तो चला जाऊँगा, परंतु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ संदेह है.’ जाम्बवान्‌ ने अंगद जी से कहा- ‘तुम सब प्रकार से योग्य हो, परंतु तुम सबके नेता हो, तुम्हे कैसे भेजा जाए?’

तब अंगद जी ने कहा- ‘यदि मैं नहीं जाऊंगा और दूसरा कोई और भी वानर जाने को तैयार नहीं होगा, तो फिर यह कार्य सिद्ध होगा कैसे? अतः ऐसा ही कोई उपाय सोचें जिससे सीताजी के दर्शनरूपी कार्य सिद्धि में कोई रुकावट न पड़े.’

तब ऋक्षराज जाम्बवान्‌ जी ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा- ‘ऐसा ही होगा. अब मैं ऐसे वीर को प्रेरित कर रहा हूँ, जो इस कार्य को अवश्य सिद्ध कर सकेगा.’ ऐसा कहकर जाम्बवान्‌ जी हनुमान जी के पास गये, जो वहीं पर एकांत में बैठे हुए थे.

जाम्बवान्‌ जी हनुमान जी से बोले-

“वानरजगत के वीर तथा संपूर्ण शास्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ हनुमान! तुम एकांत में आकर चुपचाप क्यों बैठे हो? कुछ बोलते क्यों नहीं? हनुमान, तुम तो तेज और बल में श्रीराम और लक्ष्मण जी के समान हो. ऋषि कश्यप जी के महाबली पुत्र और समस्त पक्षियों में श्रेष्ठ गरुड़ के समान तुम भी शक्तिशाली एवं तीव्रगामी हो. गरुड़ के दोनों पंखों में जो बल है, वही बल और पराक्रम तुम्हारी इन दोनों भुजाओं में भी है.”

“वानरशिरोमणि! तुम्हारा बल, बुद्धि, तेज और धैर्य समस्त प्राणियों में सबसे बढ़कर है, फिर तुम अपने आप को ही समुद्र लांघने के लिए क्यों तैयार नहीं करते? वत्स! तुम पवन के पुत्र हो, अतः तेज की दृष्टि से एवं छलांग मारने में भी उन्हें के समान हो. तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है. तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो. संसार में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो तुमसे न हो सके. तुम युद्ध में किसी अस्त्र-शस्त्र से मारे नहीं जा सकते हो. मृत्यु तुम्हारी इच्छा के अधीन है. जब तुम चाहोगे, तभी तुम्हारी मृत्यु हो सकती है, अन्यथा नहीं.”

“इस समय हम सबमें तुम ही सब प्रकार के गुणों से संपन्न हो, अतः पराक्रमी वीर हनुमान! तुम अपने असीम बल का विस्तार करो. यह सारी वानर सेना तुम्हारे बल पराक्रम को देखना चाहती है. उठो वानर श्रेष्ठ हनुमान और इस महासागर को लांघ जाओ, क्योंकि तुम्हारी गति सभी प्राणियों से बढ़कर है. समस्त वानर चिंता में पड़े हैं. इसलिए हे महान वेगशाली वीर! जिस प्रकार भगवान विष्णु ने त्रिलोकी को नापने के लिए तीन पग बढ़ाये थे, उसी प्रकार तुम भी अपना पैर बढ़ाओ. उठो वीर, उठो!”

हनुमान जी का विराट स्वरूप

इस प्रकार जाम्बवान्‌ जी की प्रेरणा पाकर कपिवर पवनकुमार हनुमान जी को अपने महान वेग पर विश्वास हो आया. उन्होंने वानर वीरों की सेना का हर्ष बढ़ाते हुए उसी समय अपना विराट स्वरूप प्रकट किया. उनका सोने का सा रंग है और शरीर पर तेज सुशोभित है.

सौ योजन के समुद्र को लांघने के लिए हनुमान जी को अचानक बढ़ते और वेग से परिपूर्ण होते देखकर सब वानर तुरंत शोक और चिंता छोड़कर अत्यंत हर्ष और आनंद से भर गए और महाबली हनुमान जी की स्तुति करते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे. सब वानर हनुमान जी के चारों ओर खड़े होकर प्रसन्न एवं आश्चर्यचकित होकर उन्हें देखने लगे.

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महाबली हनुमान जी ने अपने शरीर को और भी बढ़ाना प्रारम्भ किया, साथ ही हर्ष के साथ अपनी पूंछ को बार-बार घुमाकर अपने महान बल का स्मरण किया. सभी वानरों के मुख से अपनी प्रशंसा सुनते और तेज से परिपूर्ण होते हुए हनुमान जी का रूप बड़ा ही उत्तम प्रतीत होता था. वे वानरों के बीच से उठकर खड़े हो गए. उनके संपूर्ण शरीर में रोमांच छा गया.

और तब हनुमानजी ने सभी वानरों की चिंता को दूर करते हुए तथा उन सबको प्रणाम करके इस प्रकार कहा-

“हे जाम्बवान्‌ जी! बताइये मुझे क्या करना है! जो पवनदेव बड़े बलवान हैं, जिनकी शक्ति की कोई सीमा नहीं है, जो अग्निदेव के मित्र हैं और अपने वेग से बड़े-बड़े पर्वत शिखरों को भी तोड़ डालते हैं, मैं उन्हीं वेगवान वायुदेव का पुत्र हूँ और छलांग मारने में उन्हीं के समान हूँ. कई सहस्त्र योजनों तक फैले हुए मेरुपर्वत की परिक्रमा मैं बिना विश्राम लिए सहस्त्रों बार कर सकता हूं. अपनी भुजाओं के वेग से समुद्र को विक्षुब्ध करके उसके जल से मैं पर्वत, नदी और जलाशयों सहित संपूर्ण जगत को आप्लावित कर (डुबो) सकता हूं.”

“गरुड़ के आकाश में उड़ते हुए ही मैं हजारों बार उनके चारों ओर घूम सकता हूं. मैं सूर्यदेव को अस्त होने से पहले ही छू सकता हूं और वहां से पृथ्वी तक आकर यहां पैर रखे बिना ही पुनः उनके पास तक बड़े भयंकर वेग से जा सकता हूं. मैं समस्त ग्रह-नक्षत्र आदि को लाँघकर आगे बढ़ जाने का उत्साह रखता हूं. मैं चाहूं तो समुद्र को सोख सकता हूं, पृथ्वी को विदीर्ण कर सकता हूं और कूद-कूदकर पर्वतों को भी चूर-चूर कर सकता हूं, मैं महान वेग से महासागर को फांदता हुआ उसके पार पहुंच सकता हूं.”

“वानरों! आज समस्त प्राणी मुझे आकाश में सीधे जाते हुए, ऊपर उछलते हुए और नीचे उतरते हुए देखेंगे. तुम सब देखोगे, मैं मेरुपर्वत के समान विशाल शरीर धारण करके स्वर्ग को ढकता हुआ और आकाश को निगलता हुआ-सा आगे बढूंगा, बादलों को छिन्न-भिन्न कर डालूंगा, पर्वतों को हिला दूंगा और छलांग मारकर समुद्र को भी सुखा दूंगा.”

“इस समय पक्षीराज गरुड़ एवं महाबली वायुदेवता के सिवाय कोई प्राणी ऐसा नहीं है, जो यहां से छलांग मारने में मेरे साथ जा सके. मैं बादलों से उत्पन्न हुई विद्युत (बिजली) की भांति पलक मारते ही सहसा निराधार आकाश में उड़ जाऊंगा. समुद्र को लांघते समय मेरा वही रूप प्रकट होगा, जो तीनों पगों को बढ़ाते समय भगवान विष्णु का हुआ था.”

“वानरों! मैं बुद्धि से जैसा देखता या सोचता हूं, मेरे मन की चेष्टाएँ भी उसी के अनुरूप होती हैं. मुझे निश्चय जान पड़ता है कि मैं विदेहकुमारी सीताजी का दर्शन अवश्य करूंगा. इस समय तो मैं दस हजार योजन तक जा सकता हूं (यह तो केवल सौ योजन ही है). मैं वज्रधारी इंद्र अथवा ब्रह्माजी के हाथ से भी बलपूर्वक अमृत छीनकर तुरंत यहां आ सकता हूं. मैं समूची लंका को भी भूमि से उखाड़कर हाथ पर उठाये चल सकता हूं. अतः हे वीर वानरों! अब तुम सब शोक छोड़कर खुशियां मनाओ. हे जाम्बवान्‌! मैं आपसे पूछता हूँ, आप मुझे उचित सीख दीजिये कि मुझे क्या करना है!”

अमिततेजस्वी वानरश्रेष्ठ हनुमान जी जब इस प्रकार गर्जना कर रहे थे, उस समय संपूर्ण वानरसेना अत्यंत हर्ष में भरकर और आश्चर्यचकित होकर उनकी ओर देख रही थी. हनुमान जी की सब बातें उनके सब भाई-बंधुओं के शोक को नष्ट करने वाली थीं. हनुमान जी की सब बातें सुनकर सब वानर सहित जाम्बवान्‌ जी और अंगद जी को बड़ी प्रसन्नता हुई.

जाम्बवान्‌ जी बोले- “वीर! केसरी के सुपुत्र! वेगशाली पवनकुमार! तुमने अपने सब बंधुओं का शोक नष्ट कर दिया. यहां आए हुए सब वानरश्रेष्ठ तुम्हारे कल्याण की कामना करते हैं. ऋषियों के प्रसाद, वृद्ध वानरों की अनुमति तथा गुरुजनों की कृपा से तुम इस महासागर के पार हो जाओ. वत्स! तुम जाकर इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनका समाचार कह दो. फिर श्रीरामजी अपने बाहुबल से ही राक्षसों का संहार कर सीताजी को ले आयेंगे. हनुमान! तुम जब तक यहां लौट कर आओगे, तब तक हम सब यहीं खड़े होकर तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगे!”

हनुमान जी समझ गए कि उन्हें क्या करना है और लंका में जाकर कब कितने बल का प्रदर्शन करना है. जाम्बवान्‌ के सुंदर वचन हनुमान्‌जी के हृदय को बहुत भाए. वे बोले- जब मैं यहां से छलांग मारूंगा, उस समय संसार में कोई भी मेरे वेग को धारण नहीं कर सकेगा. हे भाईयों! आप सब चिंता छोड़कर कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना, जब तक मैं सीताजी को देखकर लौट न आऊँ. कार्य अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है. और यों कहकर व सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्रीरघुनाथजी को धारण करके हनुमान्‌जी महेंद्र पर्वत पर चढ़ गए.

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