होली (Holi) एक अध्यात्मिक त्योहार है. भारत के मुख्य त्योहारों में से एक है होली. भारतीय संस्कृति में रची-बसी है होली. फूलों वाली होली, रंगों वाली होली, वृंदावन की लट्ठमार होली और पिचकारी वाली होली… हर रूप में प्रेम और खुशियों का संदेश लेकर आती है यह होली. केवल प्रेम और खुशियों का ही नहीं, दीपावली की तरह ही बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है यह होली.
सब जानते हैं कि होली का त्योहार मुख्य रूप से भक्त प्रहलाद की भक्ति और भगवान द्वारा उस भक्त की रक्षा के रूप में मनाया जाता है. यह त्योहार इस बात का प्रतीक है कि अगर भक्त की भक्ति प्रह्लाद की ही तरह निर्मल, निष्कपट और कोमल हो, तो भगवान उसकी रक्षा करने के लिए जरूर आते हैं.
होली का त्योहार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है, इसी से इसे फाल्गुनी भी कहते हैं. होली के त्योहार की शुरुआत बसंत पंचमी से ही हो जाती है. पहला गुलाल उसी दिन उड़ाया जाता है. फाग और धमार के गाने शुरू हो जाते हैं. इस समय प्रकृति अपने यौवन पर होती है. सरसों के खेत लहलहा उठते हैं और गेहूं की बालियां इठलाने लगती हैं. बाग-बगीचों में फूलों की सुंदर छटा छा जाती है. घरों से स्वादिष्ट पकवानों, गुझिया, पापड़ी, चाट, ठंडाई आदि की खुशबू आने लगती है. पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और सब प्राणियों के मन उल्लास और उमंग से भर जाते हैं.
होली की कथा (Holi ki Kahani)
होली मनाने के कई कारण हैं और इससे जुड़ी कई कथायें हैं, लेकिन सबसे प्रसिद्ध कथा प्रह्लाद (Prahlad) की ही है. प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप (Hiranyakashipu) नाम का एक बहुत शक्तिशाली राक्षस हुआ करता था. उसने बड़ी कठिन तपस्या करके ब्रह्मा जी से कई शक्तियां वरदान में मांग ली थीं. अपनी शक्तियों के अहंकार में वह स्वयं को ही भगवान मानने लगा था. यहां तक कि उसने अपने राज्य में भगवान की पूजा या भगवान का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी. वह देवताओं, ऋषि-मुनियों, मनुष्यों हर किसी पर अत्याचार करने लगा.
वहीं, हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु भगवान विष्णु (Bhagwan Vishnu) की परम भक्त थीं. वह अपने पति से छिपाकर भगवान की पूजा और भक्ति किया करती थीं. उनकी इस भक्ति का असर उनके पुत्र प्रहलाद पर भी आया. प्रह्लाद बचपन से ही भगवान विष्णु के परम भक्त थे. वह बिना डरे भगवान विष्णु के नाम का जाप करते रहते थे, साथ ही वह अपने पिता हिरण्यकश्यप को भी यही सलाह देते थे कि ‘भगवान विष्णु ही भगवान हैं, वही इस सृष्टि के पालनहार हैं और वही सबसे बड़ी शक्ति हैं. हम सब को उन्हीं की पूजा करनी चाहिए और उन्हीं की शरण में जाना चाहिए.’
प्रह्लाद अपने पिता को समझाते रहते थे कि ‘बुरे कर्मों का फल बुरा ही होता है. एक न एक दिन अपने कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है, इसलिए लोगों पर अत्याचार करना छोड़कर भगवान की शरण में जाकर उनसे क्षमा मांग लेनी चाहिए.’
लेकिन अहंकार के मद में चूर हिरण्यकश्यप को किसी तरह की कोई भी अच्छी सलाह या बात समझ ही नहीं आती थी. उल्टे उसने अपने ही पुत्र प्रह्लाद को ही मृत्यु देने की ठान ली.
उसने प्रह्लाद को मारने के लिए तरह-तरह के षड्यंत्र रचे, प्रहलाद को कठिन यातनाएं दीं, लेकिन नन्हें से प्रह्लाद ने भगवान की भक्ति का रास्ता न छोड़ा. ऐसे में भगवान विष्णु को भी हर बार प्रह्लाद की रक्षा करने के लिए आना ही पड़ता, और हिरण्यकश्यप प्रह्लाद का बाल भी बांका न कर सका.
हिरण्यकश्यप की बहन होलिका (Holika) को ब्रह्मा जी से यह वरदान मिला था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती, जिसका फायदा उठाकर उसने अपने भाई हिरण्यकश्यप से कहा कि “मैं प्रह्लाद को मार सकती हूं. मैं प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर भयंकर अग्नि में बैठ जाऊंगी और प्रहलाद की मृत्यु हो जाएगी.”
हिरण्यकश्यप को यह उपाय बहुत अच्छा लगा. होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई, लेकिन भयंकर अग्नि प्रह्लाद का तो कुछ नहीं बिगाड़ सकी, उल्टे होलिका ही जलकर भस्म होने लगी.
होलिका चिल्लाने लगी कि “इसका अर्थ है कि ब्रह्मा जी ने मुझे झूठा वरदान दिया था? आखिर ऐसा कैसे हो सकता है, अग्नि मुझे कैसे जला सकती है?”
तभी वहां ब्रह्मा जी प्रकट होते हैं. वे होलिका को बताते हैं कि “वरदान देते समय ही मैंने तुमसे कह दिया था कि मेरी शक्तियों का प्रयोग किसी भले व्यक्ति को नुकसान पहुंचाने या गलत कार्यों के लिए नहीं किया जा सकता. तुमने भगवान की दी हुई शक्ति का गलत फायदा उठाया है, जिस वजह से तुम्हें दिया गया वरदान अपने आप निष्फल हो गया.”
यह कथा बताती है कि किसी भी प्राणी के कुकर्म ही एक दिन उसे जला देते हैं. होलिका दहन किसी स्त्री का अपमान नहीं, बल्कि एक राक्षसी का वध है. भगवान ने तो उस राक्षसी का वध ही नहीं किया था, उस राक्षसी को उसी के बुरे कर्मों ने उसे जला दिया.
बाद में जब हिरण्यकश्यप ने स्वयं ही प्रह्लाद को मारने का निश्चय कर लिया, तब भगवान विष्णु ने नृसिंह का अवतार धारण कर हिरण्यकश्यप का वध कर दिया. इस तरह होलिका दहन की अग्नि बुराई को, मुश्किलों को जलाने का प्रतीक है. यह अग्नि बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है.
होली क्यों खेली जाती है?
होलिका दहन (Holika Dahan) से अगले दिन रंगों या फूलों वाली होली खेली जाती है, जिसे ‘धुलेंडी’ या ‘धूलिवंदन’ भी कहा जाता है. इसे मनाने के भी कई कारण और कथायें कही जाती हैं. रंगों वाली होली कब से खेली जा रही है, इसका ठीक-ठीक जवाब तो कहीं नहीं मिलता, लेकिन इतना निश्चित है कि द्वापरयुग में पूरा ब्रजमंडल हर साल रंगों, फूलों से और लट्ठमार होली खेलता था. राधा-कृष्ण (Radha-Krishna) अपने सभी भक्तों, ग्वालवालों, गोपियों संग होली खेलते हैं. इस समय पूरा ब्रजमंडल कृष्ण के रंग में रंग जाता है.
ब्रज में होली की विधिवत शुरुआत फाल्गुन कृष्ण एकादशी को मथुरा से 18 किलोमीटर दूर मानसरोवर गांव में लगने वाले श्रीराधारानी के मेले से होती है. यहां राधा जी का भव्य मंदिर भी है. कहते हैं कि यहीं भगवान श्रीकृष्ण ने राधारानी के साथ रासलीला की थी. ब्रज के मंदिरों में बसंत पंचमी के दिन से ही भगवान श्रीकृष्ण के दैनिक श्रृंगार में गुलाल का इस्तेमाल शुरू हो जाता है, साथ ही इन मंदिरों में राजभोग के बाद प्रसाद के रूप में भक्तों पर गुलाल की वर्षा भी की जाती है. शिवरात्रि से ही ढोल के साथ रसिया गान शुरू हो जाते हैं. भक्त ठंडाई की मस्ती में झूमने-नाचने लगते हैं.
नंदगांव-बरसाने की लट्ठमार होली के बाद ब्रज में फाल्गुन शुक्ल की एकादशी का त्यौहार बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है. इस दिन ब्रज के लगभग सभी लोग मंदिरों में भगवान श्रीकृष्ण के सामने रंग, फूल, गुलाल, इत्र, केवड़ा-गुलाबजल आदि की होली खेलते हैं. कुछ मंदिरों में राधा-कृष्ण के स्वरूपों की बहुत सुंदर शोभायात्राएं भी निकाली जाती हैं. इन यात्राओं में गुलाल और रंग प्रसाद के रूप में भक्तों पर डाला जाता है. आसपास का सारा वातावरण कृष्ण के रंग में रंग जाता है. कुछ लोग इस रंग को अपने ऊपर डलवाने के लिए भीड़ में बड़ी कठिन मेहनत करते हैं.
राधा-कृष्ण की इस लीला का वर्णन करते हुए सूरदास जी ने लिखा है-
होली का वैज्ञानिक महत्व-
हम सब जानते हैं कि भारतीय संस्कृति के पास दुनिया की हर समस्या का समाधान है. हमारे देश की प्राचीन सभ्यताओं, कथाओं और ऋषि मुनियों ने जो कुछ भी इस धरती को दिया, उसने समय-समय पर पूरी दुनिया का मार्गदर्शन किया. क्षेत्र कोई भी हो, चाहे शिक्षा का हो, या चिकित्सा का, धर्म हो या कर्म, सभी में पूरी मानव जाति का कल्याण ही छिपा है.
मार्च का महीना सर्दी के मौसम के जाने और बसंत के आने का समय होता है. जब होलिका जलाई जाती है, तो उससे आसपास का तापमान बढ़ जाता है, जिसकी गर्मी में वातावरण में मौजूद सभी बैक्टीरिया जलकर खत्म हो जाते हैं. दहन से निकली गर्मी शरीर में भी मौजूद बैक्टीरिया को भी मार देती है. इसके अलावा दहन में जिन चीजों को डालने की सलाह दी जाती है, या यदि होलिका दहन को पारम्परिक तरीके से ही मनाया जाता है, तो उनसे निकलने वाला धुआं भी कई स्वास्थ्य लाभ पहुंचा सकता है.
इसी तरह अगर रंगों वाली होली सही तरह से, पारंपरिक तरीके से ही खेली जाए और सही रंगों, यानी प्राकृतिक रंगों का ही इस्तेमाल किया जाए, तो यह भी कई तरह के स्वास्थ्य लाभ पहुंचाती है. होली में हल्दी, चंदन और फूलों से बने प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करके कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है.
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