Humans and Dinosaurs Timeline
भारत के कई प्राचीन ऐतिहासिक और धर्म ग्रन्थ ये साबित करते हैं कि डायनासोरों (Dinosaur) के समय इंसान और सभ्यता मौजूद थी और लोग डायनासोरों के बारे में जानते भी थे. बस उस समय डायनासोरों का नाम ‘डायनासोर’ नहीं था. ये ‘डायनासोर’ नाम तो आधुनिक विदेशी विज्ञानियों ने दिया है. हम सब जानते ही हैं कि प्राचीन भाषा और आधुनिक भाषा में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है.
आधुनिक वैज्ञानिकों को तो डायनासोर का पहला जीवाश्म 1677 में मिला था. रॉबर्ट प्लॉट को 1677 में डायनासोर की पहली हड्डी मिली थी, लेकिन तब किसी वैज्ञानिक को यही पता नहीं चल पाया था कि यह किसकी हड्डी है. यानी विदेशी लोग या कोई भी आधुनिक वैज्ञानिक ‘डायनासोर’ जैसे किसी प्राणी के बारे में कुछ जानते ही नहीं थे.
लेकिन, 12वीं शताब्दी में सूर्यवर्मन द्वितीय द्वारा बनवाया गया विशाल हिन्दू मंदिर अंकोरवाट मंदिर (Angkor Wat Temple), जिसकी दीवारों पर हिन्दू ऐतिहासिक ग्रन्थों के प्रसंगों के बहुत चित्र मिलते हैं, इन्हीं चित्रों में डायनासोरों के अलग-अलग चित्र भी मिले हैं. इन चित्रों में असुरों और देवताओं के बीच समुद्र मंथन, रामायण और महाभारत के दृश्य भी दिखाए गए हैं (सबसे नीचे देख सकते हैं).
महाराष्ट्र के गडचिरोली में करीब हजार साल पुराने मारकंडा मंदिर (शिव मंदिर) और बेलूर के चेन्नाकेशव मंदिर के साथ-साथ भारत के कई बहुत प्राचीन मंदिरों के भित्ति चित्रों में डायनासोर, मकर (ड्रैगन) आदि के प्रमाण देखे जा सकते हैं. इसी के साथ, आज तक जो अनगिनत प्राचीन मंदिर टूट चुके हैं, उनमें भी बहुत तरह के सबूत रहे होंगे.
इसका मतलब कि आधुनिक विदेशी वैज्ञानिकों द्वारा डायनासोरों की पहली हड्डी खोजे जाने से बहुत पहले ही लोग डायनासोर के बारे में अच्छे से जानते थे. निश्चित ही उस समय के लोगों ने डायनासोरों, ड्रैगन आदि के बारे में प्राचीन ग्रंथों में ही पढ़ा होगा.
और जब प्राचीन ग्रंथों में इनके बारे में स्पष्ट लिखा है, तो इसका मतलब कि किसी ने इन्हें देखा भी होगा, तभी तो इनके आकार-प्रकार के बारे में जानकारी दे पाए.
तो फिर इसका मतलब कि लाखों सालों पहले इंसान भी थे और इतिहास भी लिखते थे. यानी मानव सभ्यता केवल कुछ हजार वर्षों पुरानी नहीं है, लाखों वर्ष पुरानी है, और वो भी पूरी तरह उन्नत और विकसित अवस्था में.
‘डायनासोरों का अंत एक एस्टेरॉयड के गिरने से हुआ’, ये आधुनिक वैज्ञानिकों का मात्र एक अनुमान और कल्पना है. अपनी इस कल्पना पर वैज्ञानिक समय-समय पर अपनी स्टडी और थ्योरी चेंज करते रहते हैं. इसके बारे में वैज्ञानिक कोई प्रमाण नहीं देते. आधुनिक वैज्ञानिकों ने कह दिया और हमने मान लिया. कोई प्रमाण भी नहीं मांगा.
चार दांतों वाले हाथी (Four-toothed Elephant)
वाल्मीकि रामायण में चार दांतों वाले हाथियों का जिक्र किया गया है. आधुनिक वैज्ञानिकों को भी चार दांतों वाले हाथियों के जीवाश्म मिले हैं. वो भी उस समय के भी, जिस समय को रामायण का काल आधुनिक वैज्ञानिकों ने इनका नाम गोम्फोथेरे (Gomphotheres) रखा है.
वारणैश्च चर्तुदन्तैः श्रवेताभ्रनिचयोपमैः
(वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड का श्लोक 28)
हनुमान जी जब सीता जी की खोज में लंका में प्रवेश करते हैं, तब वे चार दांतों वाले हाथियों, विमानों, नावों आदि को देखते हैं. लंका में सीता जी को खोजते हुए हनुमान जी को कहीं और चार दांत वाले हाथी नहीं दिखाई देते. इसका मतलब ये हो सकता है कि हाथियों की यह नस्ल दुर्लभ थी और इसीलिए ये किसी विकसित राज्य के राजा की सेवा में ही रखे जाते थे.
चार दांतों वाले मैमथ के परिवार का अंत लगभग 10,000 ई.पू. में हो गया था. इस समय तक न केवल वर्तमान हाथी वर्ग विकसित हो चुका था, बल्कि दो दांत वाले विशालकाय मैमथ (Mammoths) भी जीवित थे.
इसका मतलब ये डायनासोर, चार दाँतों वाले हाथी आदि के समय एक विकसित मानव सभ्यता थी, जो इतिहास लेखन जैसे भी सभी कार्य करती थी, क्योंकि इतनी सटीक कल्पनाएं बिना देखे तो नहीं की जा सकती हैं.
प्राचीन ऋषि-मुनि कैसे जानते थे इन सबके बारे में?
आधुनिक वैज्ञानिकों ने पहले 9 ग्रह बताए, फिर 8 ग्रह कर दिए. कल को 7 या 10 ग्रह भी बता दिए जाएंगे, क्योंकि वे अपनी दी गई ‘Planet’ की परिभाषा से ग्रहों की संख्या निर्धारित करते हैं. कुछ सालों पहले ही इन लोगों ने चंद्रमा के जन्म की अपनी ही थ्योरी चेंज कर दी. विज्ञान और मानव सभ्यता के जन्म की थ्योरी को लेकर आधुनिक विज्ञानी तो केवल बन्दर-चिम्पैंजी और आदिमानवों में ही उलझकर रह गए.
और इन लोगों को आदिमानव के सारे अस्थि-पंजर और खोपड़ियां अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप जैसी जगहों से ही मिलते हैं और उसी के आधार पर पूरी दुनिया की मानव सभ्यता का निर्धारण कर दिया. जबकि भारत में हर जगह की खुदाई में केवल मंदिर के अवशेष या एक विकसित मानव सभ्यता के ही चिन्ह मिलते हैं.
वेदों, रामायण, महाभारत सहित भारत के अनेक प्राचीन धार्मिक और ऐतिहासिक ग्रंथों में रथों, विमानों, नावों, जलपोतों, पुलों, नगरों के व्यवस्थित निर्माण आदि के बारे में विस्तृत वर्णन मिलता है.
याज्ञवल्क्य संहिता, मार्कंडेय और अन्य पुराणों में भी अनेक स्थानों पर जहाजों और समुद्रयात्रा से संबंधित कई उल्लेख हैं. मनुसंहिता में जहाज के यात्रियों से संबंधित नियमों का वर्णन है. भारत के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में जहाज और समुद्रयात्रा के अनेक उल्लेख हैं (ऋग्वेद १.२५.७, १.४८.३, १.५६.२, ७.८८ इत्यादि). रामायण के अनुसार, रावण के पास वायुयानों के साथ ही कई समुद्र जलपोत भी थे.
अब आप ही बताइये, यदि पहले के समय में ये सब बिल्कुल अस्तित्व में नहीं होते, या ‘साइकिल’ के आविष्कार के पहले विज्ञान ही न होता, तो क्या प्राचीन ऋषि-मुनियों के लिए बिना किसी एक्सपीरियंस के इन सबकी इतनी सुव्यवस्थित कल्पना कर पाना इतना आसान होता?
आधुनिक समय में किसी विमान के बनने से पहले, क्या किसी भी उच्च कवि या व्यक्ति ने विमानों से सम्बंधित कोई भी दिशा-निर्देश, नियम या उनकी संरचना आदि से जुड़े कोई भी अनुमान लगा पाए थे, कि जब विमान जैसी कोई चीज बनेगी तब कौन-कौन से दिशा-निर्देश, नियम आदि बनाए जायेंगे?
इसीलिए यदि हजारों साल पहले ऋषियों ने यह सब सुव्यवस्थित तरीके से लिखा है, तो वह मात्र एक कल्पना मानी ही नहीं जा सकती है.
पहले के समय में तो आकाश में ग्रह भी साफ नजर आते थे
रामायण काल में इसका उल्लेख है कि उस समय चंद्र-तारों के साथ-साथ आकाश ग्रहों (Planets) से भी प्रकाशमान रहता था. भास्कराचार्य के समय में बांस से बनाई गई दूरबीन से ग्रहों को आसानी से देखा जा सकता था, जिससे भाष्कराचार्य खगोल विज्ञान का अध्ययन करते थे. वहीं, आज तो बहुत जगहों पर अब तारे भी ठीक से नजर नहीं आते.
और यदि आधुनिक (विनाशकारी) विज्ञान इसी प्रकार और विकास करता रहा, और मान लीजिये कि एक दिन सारा डेटा अचानक जल जाए, खत्म हो जाए (जैसे तक्षशिला, विक्रमशिला और नालंदा) तो आज से हजार साल बाद किताबों में यह भी लिखा जाने लगेगा कि “तारे हमसे इतनी दूर हैं कि वे पृथ्वी से नजर नहीं आ सकते”.
और फिर यदि उस समय कोई व्यक्ति कहेगा कि ‘पहले के समय में तारे आसानी से नजर आते थे’, तो शायद उस समय के लोग उस व्यक्ति की हंसी उड़ाकर कहेंगे कि “यह सब तो अन्धविश्वास है, कल्पना है, ब्राह्मणों की गपोड़ है, नहीं तो आज नजर क्यों नहीं आते?”
कहने का मतलब ये है कि यदि जो चीजें आज नहीं होतीं या आज नहीं दिखाई देतीं, तो इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि वे पहले भी नहीं होती थीं. आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार भी, पहले ऐसा बहुत कुछ हुआ, जो तब के बाद से आज तक दोबारा नहीं हुआ. जैसे अचानक एक बिंदु से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हो जाना, पृथ्वी से किसी पिण्ड का टकराना और चन्द्रमा की उत्पत्ति होना, अचानक से एक एस्टेरॉयड के गिरने से पृथ्वी पर से सारे डायनासोरों का खत्म हो जाना, आदिमानव का पत्थरों को रगड़कर अपने-आप आग जलाना सीख जाना आदि.
मेरा भी एक सवाल है कि क्या आपने कभी ऐसा सुना या देखा है कि किसी व्यक्ति ने कहीं पढ़े या सुने बगैर ही पत्थरों को रगड़कर अपने-आप आग जलाना सीख लिया हो?
♦ समय-काल के साथ-साथ परिवर्तन होता रहता है. सभ्यताएं आती-जाती रहती हैं. प्राचीन समय में अस्तित्व में रहीं चीजें लगातार धरती में दबती चली जाती हैं और भौतिक चीजों का अस्तित्व मिटता चला जाता है और नई सभ्यताएं जन्म लेती रहती हैं. लेकिन सबका आधार एक ही है.
जैसे- हाल ही में (2022 में ही) सऊदी अरब में एक खुदाई के दौरान 8000 साल पुराने मंदिर का मिलना. यहां मिली चीजों में सबसे खास है- पत्थरों से बना मंदिर, यज्ञ वेदिकाएं और वेदी के कुछ हिस्से. माना जा रहा है कि लोग यहां अनुष्ठान आदि करते थे. यहां मानव बस्तियों के अवशेष मिले हैं. नहरें, पानी के कुंड के अलावा बारिश के पानी को खेतों तक पहुंचाने की व्यवस्था मिली है.
तो निश्चित ही इससे बहुत पहले भी विकसित मानव सभ्यता रही होगी और मंदिर, अनुष्ठान, खेती, नगर निर्माण वगैरह सब होते थे.
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इस खोज के बाद यह बात भी गलत साबित हो गई कि मानव सभ्यता केवल 6000 वर्ष पुरानी है. न ही औद्योगीकरण की शुरुआत केवल 1800 के दशक में हुई, और न सुमेरी विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता है.
जरा रुकिए, अभी हाल ही की एक और नई स्टडी के अनुसार, ईराक की एक खुदाई में 70 हजार साल पहले भी दाल-रोटी और शाकाहारी खाना खाने के चिन्ह मिले हैं. इस रिपोर्ट के बारे में बताने वाले यूनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल में पोस्टडॉक्टोरल रिसर्च एसोसिएट केरेन काबुकू का कहना है कि, “जांच के लिए भेजे गए नमूनों को देखने के बाद लगता है कि दाल काफी गाढ़ी बनाई जाती थी, और गुफा में मिलने वाली रोटियां बीजों को पीसकर बनाए गए आटे की बनी हुई थीं.”
यानी अब मानव सभ्यता खिसककर करीब 70 हजार पीछे पहुँच गई….
यानी जब तक खोज पूरी नहीं हुई, और जब तक वैदिक संस्कृत में मिलावट और जानबूझकर गलत-सलत अर्थ निकालने का सिलसिला बंद नहीं होता, तब तक वेदों आदि की बातें कल्पना और अन्धविश्वास ही लगेंगे.
♦ किसी ने बिल्कुल सच कहा है कि-
“हर त्रेता में श्रीराम जन्म लेते हैं और हर द्वापर में श्रीकृष्ण का जन्म होता है. हम समय चक्र में फँसे हुए हैं, अर्थात सब कुछ घट जाने के बाद हम पुनः हड़प्पा काल से अपना अस्तित्व खोजते रहते हैं…”
हिन्दू शास्त्रों में, वरुण का वाहन मकर (मगर नहीं) है, जो जल में ही रहता था जो कुछ-कुछ डायनासोर और मगरमच्छ के बीच के जैसा लगता है. संस्कृत में ‘मकर’ का अर्थ समुद्र का दानव होता है.
वैदिक साहित्यों में अक्सर तिमिंगिल और मकर का साथ-साथ जिक्र होता है. तिमिंगिल को एक राक्षसी हांगर (शार्क) के रूप में दर्शाया गया है. महाभारत के अनुसार तिमिंगिल और मकर गहरे समुद्र में रहते हैं.
तिमिंगिल समुद्र में पाई जाने वाली एक विशालकाय मछली है. जीवाश्म विज्ञानियों ने इस विशालकाय मछली के जीवाश्म खोजे और उसे मेगालोडोन (Megalodon) नाम दिया है. यह एक विशाल हांगर थी. इसके विशालकाय दांत थे.
क्या महाभारत के समय श्रीराम की पूजा होती थी?
यह सवाल तो केवल वे लोग ही पूछते हैं जिन्हें पढ़ना तो कुछ नहीं है, लेकिन फिर भी सवाल पूछने का बड़ा शौक है. जिन्होंने न महाभारत बिल्कुल पढ़ी और न गीता, केवल वे लोग ही यह सवाल पूछ सकते हैं.
♦ आज कुछ लोग यह भी पूछते हैं कि जब हनुमान जी पर्वत उठाकर ला सकते थे, तो राम जी की पूरी सेना को लेकर समुद्र पार भी तो करवा सकते थे. तो उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया?
भगवान तो बिना अवतार लिए ही रावण को मार सकते थे. लेकिन फिर वे मनुष्यों को ये शिक्षा कैसे देते कि धर्म और सत्य के साथ रहते हुए एक मनुष्य अपने आत्मविश्वास और संकल्प से क्या कर दिखा सकता है.
दूसरी बात कि श्रीराम को, रावण को केवल हनुमान जी की ही शक्तियों से परिचित नहीं कराना था, बल्कि अपनी सेना के एक-एक वानर की शक्ति और इच्छाशक्ति से परिचित कराना था. वे रावण को दिखाना चाहते थे कि मेरी सेना में उपस्थित वानर कोई साधारण वानर नहीं हैं. ये समुद्र को बांध सकते हैं, तो कुछ भी कर सकते हैं. अतः सीता जी को सम्मान सहित वापस लौटा देने में ही लंका की भलाई है. श्रीराम धरती पर केवल अपना पराक्रम और अपनी महानता दिखाने के लिए नहीं आए थे. उन्होंने अपना साथ देने वाले अपने सभी भक्तों के चरित्र की महानता और पराक्रम को संसार के सामने लाने का अवसर दिया है.
कहने का मतलब ये है कि रामायण, महाभारत आदि के अस्तित्व पर सवाल उठाने से पहले उनका सही जगह से, सही तरीके से और सही अर्थ लगाकर ठीक से अध्ययन करना जरूरी है, तो उसके बाद कोई संदेह या सवाल नहीं रह जाएंगे.
एक नजर कंबोडिया के अंकोरवाट मंदिर पर भी
भगवान विष्णु को समर्पित अंकोरवाट मंदिर का पुराना नाम ‘यशोधरपुर’ था. इसका निर्माण 12वीं शताब्दी में सूर्यवर्मन द्वितीय ने करवाया था. इस मंदिर के अवशेषों को देखने से साफ पता चलता है कि अंग्कोरथोम जिस कम्बुज देश की राजधानी था, उसमें भगवान विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश आदि की पूजा प्रचलित थी. आज का अंग्कोरथोम एक विशाल नगर का खंडहर है. विद्वानों के अनुसार यह मंदिर चोल वंश के मंदिरों से काफी मिलता-जुलता है.
अंगकोरथोम और अंग्कोरवात में 20वीं सदी की शुरुआत में जो पुरातात्विक खुदाइयां हुई हैं, उनसे साफ पता चलता है कि कम्बुज के अनेक राज्य स्थानों में आश्रम स्थापित थे, जहां रामायण, महाभारत, पुराण और अन्य भारतीय ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन होता था. यहां सुदूर पूर्व के हिन्दचीन में प्राचीन भारतीय संस्कृति के अवशेष हैं.
अंकोरवाट मंदिर के भित्ति चित्रों में बलि-वामन, स्वर्ग-नरक, समुद्र मंथन, देव-दानव युद्ध, रामायण और महाभारत से सम्बंधित अनेक शिलाचित्र पाए गए हैं. मंदिर बहुत विशाल है. इसकी दीवारों पर पूरी रामायण मूर्तियों में अंकित है.
इन चित्रों में रामायण की कथा ‘रावण वध के लिए देवताओं द्वारा भगवान विष्णु जी की आराधना’ से शुरू होती है और सभी प्रसंगों के चित्रों के साथ श्रीराम-सीता जी के राज्याभिषेक पर समाप्त हो जाती है. यहां वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड का कोई निशान नहीं मिलता है. 14वीं या 15वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का प्रचार बढ़ने पर इस मंदिर को बौद्ध मंदिर में तब्दील कर दिया गया.
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