IPC Section 85 and 86 in Hindi
भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code-IPC) के अध्याय 4 में धारा 76 से लेकर धारा 106 तक उन ‘सामान्य अपवादों (General Exceptions)’ के बारे में बताया गया है, जो किए गए अपराध को भी क्षमा करने योग्य बनाते हैं, यानी इन धाराओं में उन परिस्थितियों या हालात के बारे में बताया गया है, जिनके मौजूद होने पर कोई आपराधिक कार्य होते हुए भी वह अपराध नहीं माना जाएगा, या उस आपराधिक कार्य के लिए क्षमा कर दिया जाएगा. हम इन धाराओं का अध्ययन अलग-अलग भागों में करेंगे-
IPC की धारा 85 और 86 अस्वैच्छिक मत्तता (बिना इच्छा या जानकारी के नशा) और स्वैच्छिक मत्तता से संबंधित है. कानून में अस्वैच्छिक मत्तता की हालत में किए गए आपराधिक कार्य को क्षम्य बताया गया है, लेकिन स्वैच्छिक मत्तता की हालत में किया गया आपराधिक कार्य क्षम्य नहीं है.
जैसे- अगर किसी व्यक्ति ने अपनी मर्जी से शराब नहीं पी है, बल्कि उसे जबरदस्ती या धोखे से पिलाई गई है…और फिर नशे की हालत में वह कोई अपराध कर देता है, तो अपने बचाव के लिए उसे ये सिद्ध करना होगा कि नशे की वजह से उसे ये नहीं पता था कि वह क्या कर रहा है, साथ ही उसने यह नशा अपनी मर्जी या अपने ज्ञान से नहीं किया था.
अगर ये साबित हो जाता है कि व्यक्ति ने नशा अपनी मर्जी से ही किया था, या उसे पता था कि उसे नशा करवाया जा रहा है और तो भी उसने किया, तो भले ही अपराध करते समय वह अपने कार्य की प्रकृति को न समझ पा रहा हो, लेकिन तब भी वह अपराधी माना जाएगा.
IPC की धारा 85 (IPC Section 85 in Hindi)
ऐसे व्यक्ति का कार्य, जो अपनी इच्छा के विरुद्ध मत्तता में होने के कारण निर्णय पर पहुंचने में असमर्थ है-
“वह कोई बात अपराध नहीं है जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाती है, जो उसे करते समय मत्तता के कारण उस कार्य की प्रकृति, या यह कि वह जो कुछ भी कर रहा है, वह दोषपूर्ण या विधि के प्रतिकूल है, जानने में असमर्थ है, लेकिन यह तब जब कि वह चीज, जिससे उसकी मत्तता हुई थी, उसके अपने ज्ञान के बिना या इच्छा के बिना इच्छा के विरुद्ध दी गई थी.”
यहां ‘ज्ञान के बिना’ का मतलब है कि व्यक्ति यह नहीं जानता था कि उसके द्वारा लिया गया पदार्थ नशीला पदार्थ था, या वह नशीला पदार्थ उसे किसी चीज में मिला कर दिया गया.
इस तरह, धारा 85 के तहत आपराधिक दायित्व से उन्मुक्ति या बचाव के लिए अभियुक्त को यह साबित करना होगा कि-
(1) वह कार्य की प्रकृति को जानने या समझने में असमर्थ था,
(2) वह यह जानने में असमर्थ था कि वह जो कुछ भी कर रहा है, वह दोषपूर्ण या कानून के खिलाफ है,
(3) जिस चीज से उसे मत्तता (नशा) आई थी, वह चीज उसे उसके ज्ञान के बिना या उसकी इच्छा के खिलाफ (जबरन) दिया गया था.
यहां यह कहना बेकार है कि ‘इस धारा के तहत बचाव लेने के लिए मत्तता का सिद्ध होना जरूरी है’, क्योंकि केवल मत्तता की हालत में किया गया आपराधिक कार्य बचाव का आधार नहीं है, न ही धारा 85 के तहत और न ही 86 के तहत. बचाव तभी मिल सकेगा, जब मत्तता ऐसी हो, जिससे व्यक्ति यह समझने में असमर्थ हो जाए कि वह क्या कर रहा है. दूसरा, वह मत्तता उसे अपनी मर्जी से न हुई हो.
IPC की धारा 86
किसी व्यक्ति द्वारा, जो मत्तता में है, किया गया अपराध जिसमें विशेष आशय या ज्ञान का होना अपेक्षित है-
“उन दशाओं में, जहां कि कोई किया गया कार्य अपराध नहीं होता, जब तक कि वह किसी विशिष्ट ज्ञान या आशय से ना किया गया हो, कोई व्यक्ति, जो वह कार्य मत्तता की हालत में करता है, इस प्रकार बरते जाने के दायित्व के अधीन होगा, मानो उसे वही ज्ञान था, जो उसे होता अगर वह मत्तता या नशे में ना होता, जब तक कि वह चीज जिससे उसे मत्तता हुई थी, उसे उसके ज्ञान के बिना या उसकी इच्छा के विरुद्ध न दी गई हो.”
यानी जब किसी अपराध के लिए विशिष्ट ज्ञान या आशय की जरूरत होती है, तो अगर किसी व्यक्ति ने मत्तता की हालत में वह अपराध किया है, तो वह दोषी नहीं होगा, बशर्ते वह मत्तता उसकी स्वेच्छा से न की गई हो.
वासुदेव बनाम पेप्सू राज्य (1956) के मामले में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से कहा गया था कि वह व्यक्ति जो अपनी इच्छा से मत्तता (नशा) की हालत में पहुंचता है, उसके लिए यही माना जाएगा कि उसे अपराध के बारे में उतना ही ज्ञान था, जितना कि एक ऐसे व्यक्ति को ज्ञान होता, जो नशे की हालत में नहीं है.
उदाहरण : एक व्यक्ति ने किसी नशीली चीज का सेवन किया, जिससे वह मत्तता की हालत में पहुंच गया. अब उसने किसी व्यक्ति को डराने के लिए हवा में गोली चलाई, लेकिन वह गोली किसी अन्य व्यक्ति को लग गई, जिससे उस व्यक्ति की मौत हो गई. न्यायालय ने कहा कि चूंकि व्यक्ति अपनी इच्छा से मत्तता की स्थिति में पहुंचा था, इसलिए वह मानव वध के लिए दोषी है. (आमेर सिंह बनाम राज्य-1955).
यानी अगर कोई व्यक्ति अपनी इच्छा से नशा करता है, जिससे वह मत्तता की स्थिति में पहुंच जाता है….और इसके चलते वह किसी व्यक्ति की मृत्यु कारित करता है, तो यही माना जाएगा कि वह जानता होगा कि ऐसा करना कितना खतरनाक है और ऐसा करने पर व्यक्ति की मौत होने की संभावना है…और इसलिए उसे मृत्यु कारित करने के लिए दोषी ठहराया जाएगा, भले ही उसका आशय ऐसा न करने का रहा हो, क्योंकि अपनी इच्छा से की गई मत्तता (स्वैच्छिक मत्तता) कोई बचाव नहीं है.
(बाद में इस धारा से ‘आशय’ को हटा दिया गया और केवल ‘ज्ञान’ ही रहने दिया गया).
धारा 85 और 86 को एक साथ पढ़ने पर यही पता चलता है कि दंड संहिता में मत्तता के कारण किए गए कार्य तभी अपराध माने जाएंगे, जब व्यक्ति को मत्तता उसी की इच्छा से आई हो, फिर भले ही वह मत्तता के कारण अपने कार्य की प्रकृति को न समझ पा रहा हो, या वह ये जानने में असमर्थ हो कि वह क्या कर रहा है, लेकिन वह दोषी होगा. उसे बचाव तभी मिलेगा, जब मत्तता अस्वैच्छिक हो. दोनों धाराओं के बीच बस यही अंतर है कि धारा 85 के तहत सभी अपराध आते हैं, वहीं धारा 86 के तहत वे अपराध आते हैं, जिनमें ‘ज्ञान’ या ‘आशय’ की जरूरत है.
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