शून्य (जीरो) का आविष्कार (Invention of Zero in India):
शून्य के बिना हम अपने जीवन के बारे में कुछ सोच भी नहीं सकते हैं। सकारात्मक खालीपन को, बौद्ध मैडिटेशन में शून्यता कहा गया है और हिंदी में शून्य (जीरो) के नाम से जाना जाता है। 13वीं सदी तक, यूरोप में शून्य के बारे में कोई नहीं जानता था, वहां इसकी कोई कल्पना तक नहीं की गई थी। वे इस अंक को भारतीय (Invention of zero in India) और अरबी अंक प्रणाली से जुड़ा हुआ बताते थे।
यह आज तक एक रहस्य बना हुआ है कि शून्य का आविष्कार (Invention of zero) किसने और कब किया, लेकिन भारतीय गणितज्ञ वर्षों से यह दावा करते रहे हैं कि शून्य (zero) की कल्पना भारत (India) में ही की गई थी। आज इसी महान खोज ने गणित और विज्ञान को इतनी ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। भारत की पाण्डुलिपियों में शून्य का प्रयोग किया गया है। शून्य एक संस्कृत शब्द है। यह भारत के एक मंदिर के दीवारों पर भी मिला था।
भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट का शून्य के अविष्कार में योगदान:
Did Aryabhata invented zero? – क्या आप जानते हैं कि प्रसिद्ध गणितज्ञ और खगोलशास्त्री आचार्य आर्यभट्ट ने, 5वीं शताब्दी के मध्य में भारत में शून्य की खोज की थी। आर्यभट्ट ने ५वीं शताब्दी में शून्य को एक संख्या के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया था, और बाद में यह पूरे विश्व में प्रचलित हो गया। 5वीं शताब्दी के मध्य में आर्यभट्ट ने भारत में शून्य की अवधारणा (जीरो का कांसेप्ट) दी थी, जिसे आज हम गणित में पढ़ते हैं। आज पूरा विश्व भी इस बात पर राजी है कि विश्व को शून्य की अनुपम देन भारत की ही है। आर्यभट्ट ने अपनी पुस्तक आर्यभटीय (Aryabhatiya) में लिखा है-शून्य के आविष्कार के बारे में एक और अलग तथ्य है कि यदि भारत में आर्यभट्ट ने पांचवीं शताब्दी में शून्य का आविष्कार (Invention of zero) किया, तो हजारों साल पहले रावण के दस सिर बिना शून्य के कैसे गिने जाते थे? बिना शून्य के आप कैसे बता सकते हैं कि कौरवों की संख्या 100 थी? फिर भी अभी भी यह व्यापक रूप से माना जाता है कि आर्यभट्ट ने 5वीं सदी में शून्य का आविष्कार किया था।
भारतीय गणितज्ञों का शून्य के अविष्कार में योगदान (Invention of Zero in India):
♦ ‘महाभारत’ में भीष्म पितामह ने विष्णु सहस्रनाम को गाते हुए भगवान विष्णु का नाम ‘शून्य’ भी बताया है और उस नाम की व्याख्या करते हुए आदि शंकराचार्य ने कहा था- “सर्वविशेषरहितत्वात् शून्यवत: शून्य:”
अर्थात “समस्त विशेषणों, गुणों तथा प्रकृतियों से रहित होने के कारण शून्यवत् हैं।”
♦ सर्वनन्दि नामक दिगम्बर जैन मुनि द्वारा मूल रूप से प्राकृत में रचित लोकविभाग नामक ग्रंथ में शून्य का उल्लेख मिलता है। इस ग्रंथ में दशमलव संख्या प्रणाली का भी विवरण है, जिसका उल्लेख भारतीय गणितज्ञ और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने 498 ईस्वी में आर्यभटीय [सङ्ख्यास्थाननिरूपणम्] में किया है।
♦ वराहमिहिर (505-587) ने 575 ई. में लिखित अपनी पुस्तक पंचसिद्धांतिका में अनेक स्थानों पर शून्य का प्रयोग उसी रूप में किया है जिस रूप में हम इसे जानते हैं।
♦ शून्य को बीजगणित के रूप में परिभाषित करने का प्रयास सर्वप्रथम भारतीय गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त (598-665) ने किया। अपनी पुस्तक ब्रह्मस्फुट सिद्धांत जिसे उन्होंने 628 ई. में लिखा, ब्रह्मगुप्त लिखते हैं –
अ – अ = 00/0 = 0.
♦ सम्भवतः 7वीं सदी में संकलित, प्राचीन बक्षाली पोथी (जो शारदा लिपि में है) में शून्य के लिए एक मोटे बिन्दु का प्रयोग किया गया है।शून्य की अन्य देशों में यात्रा:
भारत से आरंभ होकर शून्य का सफर अन्य देशों में भी पहुंचा। यह सफर भारत से इस्लामिक देशों के रास्ते हुए पश्चिम देशों तक जा पहुंचा। भारत से जीरो चीन में पहुंचा और वहाँ से मिडिल-ईस्ट में। भारत के ‘शून्य’ को अरब दुनिया में ‘सिफर’ (अर्थ – खाली) के रूप में जाना जाने लगा, और अंततः लैटिन, इतालवी, फ्रेंच और अन्य भाषाओं के माध्यम से अंग्रेजी में ‘जीरो’ (zero) के रूप में जाना जाने लगा।
विदेशों में शून्य की यह यात्रा, भारतीयों का सिर गर्व से ऊंचा करने में सफल रहा। उन्होंने ‘कुछ नहीं’ वाले इस ‘शून्य’ की संख्या प्रणाली (अंक पद्धति) लिखने का एक नया तरीका पेश करके गणित के इतिहास पर चार चांद लगा दिए।
महान गणितज्ञ पियेर सिमों लाप्लास (Pierre Simon Laplace) की टिप्पणी – “शून्य की खोज को, हमारे गणित इतिहास की दो महान विरासत आर्किमिडीज और एपोलोनियस से भी अधिक महत्व दिया जा सकता है,”
यह दर्शाता है कि शून्य की खोज से गणित को कितना लाभ हुआ।
मिडिल-ईस्ट के प्रसिद्ध गणितज्ञ मुहम्मद अल-ख़्वारिज़्मी (780-850) ने शून्य को एक बिंदु के बदले अंडाकार रूप में लिखना शुरू किया, जिसके परिणामस्वरूप हिन्दू-अरबी (0,1,2,3,4,5,6,7,8,9,) संख्या का विकास हुआ। मुहम्मद अल-ख़्वारिज़्मी (780-850) ने अंकगणित पर एक पुस्तक ‘हिन्दू संख्यान पद्धति’ लिखी जिसमें शून्य का प्रयोग दिखता है। अल ख़्वारिज़्मी ने यह पुस्तक अरबी भाषा में लिखी थी जो आज अप्राप्य है। भारतीय संख्या प्रणाली (अंक पद्धति) पर आधारित इस पुस्तक ने यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय विधि सरल और सर्वश्रेष्ठ हैं। 12वीं सदी में किया गया इसका लैटिन अनुवाद, ‘अल्गोरिथम की न्यूमेरो इंडोरामा’, आज भी उपयोग में है। सन् 1030 के आसपास, अलबरूनी (973-1048) ने भारत पर ‘अलहिंद’ के साथ-साथ भारतीय नंबरों पर एक किताब ‘अलअर्कम’ लिखी, जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि अरब लोग जिन अंक संकेतों का इस्तेमाल करते थे वे भारत के सर्वोत्तम अंक प्रतीकों से प्राप्त हुए थे।
अमेरिकी गणितज्ञ आमिर एक्जेल की शून्य को खोजने की यात्रा:
शून्य की खोज का ऐतिहासिक विकास:
- शून्य का आविष्कार किसने किया, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है।
- कहा जाता है कि बाबिल, फिर माया सभाओं ने आविष्कार किया था। पहला दर्ज शून्य मेसोपोटामिया में लगभग 3 ई.पू. मायाओं ने इसे स्वतंत्र रूप से 4 ए डी का आविष्कार किया था। लेकिन बाबिल और माया सभ्यता इसको संख्या प्रणाली को प्रभावित करने मे असमर्थ थे।
- बाद में इसे भारत में मध्य – पांचवीं शताब्दी में तैयार किया गया था। भारत से आरंभ होकर शून्य का सफर (Invention of zero in India) अन्य देशों में भी पहुंचा, जो सातवीं शताब्दी के अंत में कंबोडिया तक फैल गया, और आठवें के अंत में चीन और इस्लामी देशों में। यह सफर भारत से इस्लामिक देशों के रास्ते हुए पश्चिम देशों तक जा पहुंचा।
- चीन में 1247 में छपी पुस्तक ‘नौ विभागों के गणितीय नियमों का विश्लेषण’ (Mathematical Treaties of Nine Sections) में भी शून्य पर विवेचना मिलती है, साथ ही शून्य का वर्तमान रूप 0 भी इस पुस्तक में वर्णित है।
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- भारत के ‘शून्य’ को अरब दुनिया में ‘सिफर’ (अर्थ – खाली) के रूप में जाना जाने लगा, और अंततः लैटिन, इतालवी, फ्रेंच और अन्य भाषाओं के माध्यम से अंग्रेजी में ‘जीरो’ (zero) के रूप में जाना जाने लगा। यूरोप में 13वीं सदी में फिबोनैकी द्वारा रचित पुस्तक ‘The Book of Calculations’ में भी शून्य का जिक्र किया गया है; उसी से पूरे यूरोप में शून्य का प्रयोग एक अंक के रूप में होने लगा।
(Sources – features)
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Originally shunya discovered by sage Grutsamad (गृत्समद).
Ref: class 9th maths book MP govt.