Maa Durga ke 9 Roop
मां दुर्गा (Maa Durga) की शक्ति और महिमा अनंत है. समस्त शक्तियों में मां दुर्गा को ही पराशक्ति और सर्वोच्च शक्ति माना गया है. पुराणों में मां दुर्गा को ही आदिशक्ति और प्रधान प्रकृति बताया गया है, जो सारे जगत का संचालन करती हैं और उनके अलावा कोई और अविनाशी शक्ति इस पूरे ब्रह्मांड में नहीं है, इसीलिए नवरात्रि (Navratri) के दौरान मां दुर्गा के नौ रूपों (Maa Durga ke 9 roop) का ध्यान कर उन्हीं की आराधना की जाती है. नवरात्रि के हर एक दिन मां दुर्गा की एक-एक शक्ति रूप का पूजन किया जाता है.
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दया और करुणा की देवी मां दुर्गा का रूप अत्यंत कल्याणकारी है. जो भी प्राणी मां दुर्गा का ध्यान करता है, उसके भय का नाश हो जाता है. वे अपने भक्तों के दुख, दरिद्रता और भय को हर लेती हैं और शांति, समृद्धि और धर्म पर आघात करने वाली राक्षसी शक्तियों का विनाश करती हैं. मां दुर्गा के कई रूप (Maa Durga ke 9 roop) हैं. उनके शांत, सुंदर रूप के कारण उन्हें ‘गौरी’ कहा जाता है. वही, जब वे क्रोधित होकर राक्षसी शक्तियों का विनाश करती हैं, तब उनके भयानक रूप के कारण उन्हें ‘काली’ कहा जाता है.
मां दुर्गा का भव्य स्वरूप (Maa Durga ke 9 Roop)
मां दुर्गा अपने भक्तों को अभयदान देने और राक्षसों का संहार करने की मुद्रा में रहती हैं. उनकी आठ भुजाएं हैं, जिनमें कोई ना कोई अस्त्र-शस्त्र होते हैं. उनके हाथों में चक्र, तलवार, धनुष-बाण, ॐ का निशान, त्रिशूल, शंख और कमल का फूल होता है.
सिंह की सवारी
मां दुर्गा शेर की सवारी करती हैं. शेर को उग्रता और हिंसक प्रवृत्तियों का प्रतीक माना जाता है. मां दुर्गा के शेर पर सवार होने का मतलब है कि जो उग्रता और हिंसक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण पा सकता है, वही शक्ति है. मां दुर्गा हमें यही संदेश देती हैं कि जीवन में बुराई और अधर्म पर नियंत्रण करके शक्ति संपन्न बना जा सकता है.
तलवार, धनुष-बाण, वज्र
मां दुर्गा के हाथों में तेज धार की तलवार चमकती रहती है, जो ज्ञान का प्रतीक है. यह ज्ञान सभी संदेहों मुक्त है. इसकी चमक और आभा यह बताती है कि ज्ञान के मार्ग पर कोई संदेह नहीं होता. मां दुर्गा धनुष-बाण धारण करती हैं, जो कि ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करते हैं. इसी तरह माता के हाथों में वज्र दृढ़ता का प्रतीक है.
त्रिशूल और चक्र
संसार में तीन तरह की प्रवृत्तियां बताई जाती हैं- सत यानी सद्गुण, रज यानी सांसारिक प्रवृत्ति और तम यानी तामसी प्रवृत्ति. त्रिशूल के तीन नुकीले सिरे इन तीनों प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और मां दुर्गा इन गुणों पर पूर्ण नियंत्रण होने का संदेश देती हैं. माता की उंगली में घूमता चक्र इस बात का प्रतीक है कि समस्त संसार उन्हीं के अधीन है. सभी उनके आदेश में हैं. वह बुराई और पापों का नाशकर धर्म का विकास करती हैं.
शंख और कमल का फूल
शंख ध्वनि और पवित्रता का प्रतीक है, जो शांति और समृद्धि का भी सूचक है. जिस प्रकार शंख की ध्वनि से आसपास का वातावरण शुद्ध हो जाता है, उसी तरह मां के हाथों में शंख इसी बात का संदेश देता है कि मां दुर्गा के पास आने वाले सभी भक्त पूरी तरह से पवित्र हो जाते हैं.
वहीं, मां के हाथों में कमल का फूल यह बताता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य रखने और कर्म करने से सफलता अवश्य मिलती है. जिस प्रकार कमल कीचड़ में रहकर भी उससे अछूता रहता है, उसी तरह मनुष्य को भी सांसारिक कीचड़ यानी वासना, लोभ, लालच और अहंकार आदि से दूर होकर सफलता को प्राप्त करना चाहिए.
मां दुर्गा को अत्यंत प्रिय है लाल रंग
मां दुर्गा को लाल रंग अत्यंत प्रिय है. इसीलिए नवरात्रि के अवसर पर माता रानी को लाल रंग के वस्त्र, फूल और श्रृंगार की सभी वस्तुएं चढ़ाई जाती हैं. कलश की स्थापना के समय इस पर भी लाल कपड़े में लिपटा हुआ नारियल रखा जाता है. लाल मौली से ही रक्षा सूत्र बांधा जाता है. देवी को लाल रंग की वस्तुएं समर्पित करके सूर्य और ग्रहों को अच्छा और शुभ बनाया जा सकता है. मां दुर्गा में नवग्रहों का वास माना गया है. आदिशक्ति के नौ स्वरूप इन ग्रहों के प्रभावों को नियंत्रित करते हैं.
देवी का हर एक स्वरूप एक ग्रह का प्रतिनिधि है. पुराणों के अनुसार, हर ग्रह के प्रभाव को शांत करने के लिए उस दिन की देवी के स्वरूप की आराधना का बहुत महत्व है, जैसे सूर्य के प्रभाव को शांत करने के लिए पहले स्वरूप यानी देवी शैलपुत्री की पूजा की जाती है. सूर्य को रुद्र यानी अग्नि भी कहा जाता है. अग्नि का स्वरूप ही लाल होता है. मंगल जो कि सूर्य के समान तेज रखता है, उसका भी रंग लाल ही है, इसीलिए मां दुर्गा को लाल रंग की चीजें भेंट करने से सभी ग्रहों को शांत किया जा सकता है.
मां दुर्गा के 9 रूप (Maa Durga ke 9 Roop)
मां दुर्गा के नौ रूप (Maa Durga ke 9 Roop) अत्यंत कल्याणकारी और शुभदाई हैं-
माता शैलपुत्री
मां दुर्गा को सबसे पहले शैलपुत्री (Shailaputri) के रूप में पूजा जाता है. पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण ही उनका नाम ‘शैलपुत्री’ पड़ा. मां शैलपुत्री की महिमा और शक्ति अनंत है. इनका वाहन वृषभ है और इसलिए इन्हें ‘वृषारूढ़ा देवी’ के नाम से भी जाना जाता है. देवी के दाएं हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है. यही मां दुर्गा का प्रथम रूप हैं. इन्हीं सती के नाम से भी जाना जाता है.
कथा के अनुसार, एक बार देवी सती के पिता प्रजापति दक्ष ने एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया. इसमें उन्होंने सभी देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन भगवान शिव जी को नहीं. देवी सती इस यज्ञ में जाना चाहती थीं, तब भगवान शिव ने उन्हें बताया कि इस यज्ञ में उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया है. इस पर देवी सती को बहुत क्रोध आया. उन्होंने भगवान शिव से यज्ञ में जाने की अनुमति मांगी और अपने मायके के लिए चल पड़ीं.
जब देवी सती मायके पहुंचीं, तो उनकी मां ने उन्हें बहुत स्नेह दिया, लेकिन उनके पिता दक्ष ने भगवान शिवजी के प्रति अपमानजनक वचन कहे. देवी सती अपने पति का ऐसा अपमान सहन न कर सकीं और उन्होंने योग अग्नि द्वारा अपने को जलाकर भस्म कर लिया. इस पर भगवान शिव ने क्रोधित होकर उस यज्ञ का विध्वंस कर दिया और प्रजापति दक्ष को भी दंड दिया. इन्हीं माता सती ने अगले जन्म में हिमालय राज की पुत्री पार्वती के रूप में जन्म लिया. माता पार्वती का विवाह भगवान शिव से हुआ.
माता ब्रह्मचारिणी
मां दुर्गा की दूसरी शक्ति का नाम ब्रह्मचारिणी (Brahmacharini) है. माता का यह स्वरूप भक्तों को अनंत फल देने वाला है. ब्रह्मचारिणी का अर्थ है- तप का आचरण करने वाली. देवी का यह रूप पूर्ण ज्योतिर्मय और अत्यंत दिव्य है. देवी के दाएं हाथ में जप की माला है और बाएं हाथ में कमंडल धारण किए हुए हैं. माता ब्रह्मचारिणी की उपासना से तप, वैराग्य, त्याग, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है.
माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए नारद जी के उपदेश से कठोर तपस्या की थी. इस कठिन तपस्या के कारण ही उन्हें ‘ब्रह्मचारिणी’ नाम दिया गया. माता ने एक हजार साल केवल फल-फूल खाकर ही बिता दिए. सभी सुखों का त्याग कर 3 हजार सालों तक केवल टूटे हुए बिल्वपत्र ही खाकर कठोर तपस्या की. कई हजार सालों तक उन्होंने जल और आहार ही ग्रहण नहीं किया और सिर्फ भगवान शिव का ही ध्यान करती रहीं.
कठिन तपस्या के कारण माता का शरीर एकदम क्षीण हो गया था. सभी देवताओं ने कहा कि ऐसी तपस्या ना आज तक किसी ने की है और न ही आगे भी कोई कर सकेगा. देवी की तपस्या सफल हुई और उनका विवाह भगवान शिवजी से हुआ. माता ब्रह्मचारिणी यही संदेश देती हैं कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी विचलित हुए बिना अपने कर्म को करते जाना चाहिए. मां ब्रह्मचारिणी की उपासना से सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं.
माता चंद्रघंटा
मां दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा (Chandraghanta) है. देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसीलिए इन्हें ‘चंद्रघंटा’ कहा जाता है. देवी का स्वरूप अत्यंत कल्याणकारी है. इनकी कृपा से भक्तों को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं. देवी चंद्रघंटा के शरीर का रंग सोने के समान चमकीला है. इनकी सभी भुजाओं में अस्त्र-शस्त्र विभूषित हैं. देवी चंद्रघंटा युद्ध की मुद्रा में सिंह पर सवार रहती हैं. इनके घंटे से भयानक ध्वनि से पापी और अत्याचारी राक्षस सदैव भयकंपित रहते हैं.
माता चंद्रघंटा की उपासना से साधक के मन में वीरता और निर्भयता के साथ-साथ सौम्यता और विनम्रता का भी विकास होता है. भक्तों को मन, वचन और कर्म के साथ, विधि-विधान के अनुसार, शुद्ध-पवित्र होकर मां चंद्रघंटा की शरण में जाना चाहिए.
माता कूष्मांडा
मां दुर्गा की चौथी शक्ति का नाम है- कूष्मांडा (Kushmanda). इन्हीं देवी ने ब्रह्मांड की रचना की है और इसीलिए इन्हें ‘कूष्मांडा’ कहा जाता है. यही माता सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति हैं. इनकी सभी भुजाओं में कमंडल, धनुष-बाण, कमल-पुष्प, अमृत से भरा कलश, चक्र और गदा है. एक हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है.
माता कूष्मांडा देवी का वाहन सिंह है. इन्हें कुम्हड़े (कद्दू) की बलि प्रिय है. देवी कुष्मांडा सूर्यमंडल के भीतर निवास करती हैं, जिससे इनका शरीर सूर्य के समान ही कांतिमय है. इन्हीं के प्रभाव से दसों दिशाएं प्रकाशमान हैं. माता कुष्मांडा की पवित्र मन से आराधना करने से रोग और शोक का नाश होता है और आयु, यश, बल और आरोग्य की प्राप्ति होती है.
देवी स्कंदमाता
मां दुर्गा की पांचवी शक्ति का नाम स्कंदमाता (Skandamata) है, जो पर्वतों पर निवास कर सांसारिक जीवो में नवचेतना का निर्माण करती हैं. स्कंद कुमार यानी कार्तिकेय की माता होने के कारण ही इन्हें ‘स्कंदमाता’ कहा जाता है. भगवान स्कंद बालरूप में इनकी गोद में विराजमान हैं. स्कंदमाता सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी हैं और कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं, इसलिए इन्हें ‘पद्मासना’ भी कहा जाता है. इनका वर्ण एकदम शुभ है.
माता की चार भुजाएं हैं. दो भुजाओं में कमल और एक भुजा वर मुद्रा में है. एक भुजा से वह बालक स्कंद को अपनी गोद में पकड़े हुए हैं. स्कंदमाता की उपासना से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं. पवित्र मन से माता की उपासना करने से जीवन की सभी कठिनाइयों से मुक्ति मिलती है. स्कंदमाता की कृपा से मूढ़ भी ज्ञानी हो जाता है.
माता कात्यायनी
दुर्गा जी की छठी शक्ति का नाम कात्यायनी (Katyayani) है. प्रसिद्ध महर्षि कात्यायन जी के घर में पुत्री के रूप में प्रकट होने के कारण इनका नाम ‘भगवती कात्यायनी’ पड़ा. मां कात्यायनी की उपासना करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है. इन्हें ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी भी कहा जाता है. श्रीराधा जी सहित ब्रज की गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने के लिए कालिंदी यमुना के तट पर मां कात्यायनी की पूजा की थी.
माता कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत भव्य और कल्याणकारी है. इनका वर्ण सोने के समान चमकीला है. इनकी चार भुजाएं हैं. एक भुजा में तलवार और दूसरी में कमल सुशोभित है. एक भुजा अभय मुद्रा में है और एक भुजा वर मुद्रा में. इनका भी वाहन सिंह है. माता कात्यायनी की उपासना और आराधना से भक्तों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है. भक्तों के जन्मों के समस्त पाप, रोग, शोक और दुख समाप्त हो जाते हैं और परम पद की प्राप्ति होती है.
माता कालरात्रि
देवी की सातवीं शक्ति का नाम कालरात्रि (Kalaratri) है. यह मां दुर्गा का भयानक स्वरूप है. इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है. सिर के बाल बिखरे हुए हैं और गले में बिजली की तरह चमकने वाली माला है. माता का यह भयानक रूप पापियों और अत्याचारों को भयकंपित करता है, लेकिन भक्तों के लिए इनका यही रूप अभयदान देने वाला और अत्यंत शुभकारी है. मां कालरात्रि अंधकारमय स्थितियों का विनाश कर काल से भी रक्षा करती हैं. दैत्य, दानव, राक्षस और भूत-प्रेत मां कालरात्रि के स्मरण मात्र से ही भाग जाते हैं.
माता कालरात्रि के तीन नेत्र हैं, जो ब्रह्मांड के समान गोल हैं. इनकी सांसों से अग्नि की ज्वालाएं निकलती रहती हैं. इनका वाहन गर्दभ है. इनकी चार भुजाएं हैं. एक भुजा में लोहे का कांटा और दूसरी में खड्ग है. एक भुजा अभय मुद्रा में है और एक भुजा से मां अपने भक्तों को वरदान देती हैं. मां कालरात्रि की उपासना करने से भक्तों के मन से सभी तरह के भय समाप्त हो जाते हैं और तमाम तरह की बुरी शक्तियों से रक्षा होती है.
माता महागौरी
नवरात्रि के आठवें दिन मां दुर्गा की आठवीं शक्ति महागौरी (Mahagauri) की आराधना की जाती है. इनका रूप पूरी तरह से गौर वर्ण का है. इनके सभी आभूषण और वस्त्र भी सफेद हैं, इसलिए इन्हें ‘श्वेतांबरधरा’ भी कहा जाता है. इनकी उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी जाती है. महागौरी वृषभ पर विराजमान रहती हैं, इसलिए इन्हें ‘वृषभरूढ़ा’ भी कहा जाता है. महागौरी की चार भुजाएं हैं. इनके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में डमरू है. उनका एक हाथ अभय मुद्रा में है और दूसरे हाथों से वे अपने भक्तों को वरदान देती हैं.
महागौरी का रूप अत्यंत शांत है. जब देवी पार्वती जी ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थी, जिससे उनका शरीर काला पड़ गया था. तपस्या के सफल होने के बाद जब उन्होंने गंगा के पवित्र जल में स्नान किया, तब उनका शरीर फिर से उज्जवल और कांतिमय हो गया और तभी से वो ‘महागौरी’ कहलाईं. महागौरी की पूजा-आराधना से भक्तों के सभी पाप धुल जाते हैं और सब तरह से कल्याण होता है.
माता सिद्धिदात्रि
मां दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री (Siddhidatri) है, जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाली हैं. आठ प्रकार की सिद्धियां बताई गई हैं और मां सिद्धिदात्री की उपासना से सभी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती है. हिमालय के नंदा पर्वत पर इनका प्रसिद्ध तीर्थ है. इन्हीं देवी की कृपा से भगवान शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ और तभी से वह ‘अर्धनारीश्वर’ कहलाए. माता सिद्धिदात्री की भी चार भुजाएं है. चारों भुजाओं में गदा, शंख, कमल का पुष्प और चक्र हैं. यह कमल के पुष्प पर विराजमान हैं. जो भी भक्त पूरे विधि-विधान से नवरात्रि के नौवें दिन देवी सिद्धिदात्री की उपासना करता है, उसे समस्त सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं और सभी तरह की कामनाओं की पूर्ति होती है.
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