Importance of Mountains
2023 हमारी दुनिया का सबसे गर्म वर्ष रहा है. इस वर्ष 3 जुलाई को 17.1 डिग्री सेल्सियस तापमान के समाचार ने पूरी दुनिया में हलचल पैदा कर दी. यह बात है पृथ्वी के औसत तापमान की, जो 12 से 16 डिग्री सेल्सियस से ऊपर नहीं जाता लेकिन इस बार जुलाई में ही 17.1 डिग्री सेल्सियस तापमान होना एक अनहोनी घटना मानी जा सकती है. 1.1 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने का मतलब दुनिया का कई तरह के संकटों से घिर जाना है और इसका सबसे पहला और बड़ा असर पर्वतों पर ही पड़ता है.
उदाहरण के लिए, क्या स्कैंडिनेविया और क्या अन्य पहाड़ी पश्चिमी देश, सभी सूखे की चपेट में आ गए. एक तरफ तो पानी के स्रोत सूख गए, वहीं दूसरी तरफ बढ़ते तापमान ने फसलों को भी भारी नुकसान पहुंचाया जिसकी कीमत अरबों डॉलर आंकी गई है. भारतीय संदर्भ में इसे हिमाचल प्रदेश की त्रासदी से लेकर सिक्किम की घटना तक से सीधा जोड़ा जा सकता है. इन दोनों ही स्थानों में करोड़ों रुपए के माल की हानि हुई, वहीं सैकड़ों लोगों ने अपनी जान भी गंवाई.
• एक डिग्री सेल्सियस तापमान का बढ़ना भले ही बहुत उल्लेखनीय न दिखता हो, लेकिन इससे हिमखंडों के पिघलने की गति बहुत बढ़ जाती है. इससे हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण 84 प्रतिशत पर्वतीय जीव-पादप प्रजातियां किसी न किसी संकट में चली गई हैं.
पर्वत दुनिया का 70% पानी अपने हिमखंडों से देते हैं. अब हिमखंडों को देखें तो इनके पिघलने की दर बढ़ गई है. अकेले अलास्का में ही 80% बर्फ पिघल चुकी है. समुद्र में पृथ्वी के बढ़ते तापमान के कारण बदलाव चक्रवाती तूफानों को जन्म देते हैं. यह भी पर्वतीय क्षेत्रों में प्रतिकूल असर डालते हैं, क्योंकि इनके कारण समुद्रों में उमस बढ़ती है और यह हवाओं के साथ मैदानी इलाकों से होते हुए पर्वतीय क्षेत्रों में अनायास बारिश करवाती है. केदारनाथ की त्रासदी या फिर सिक्किम, हिमाचल प्रदेश की अतिवृष्टि इन्हीं कारणों से हुई.
पहले चक्रवाती तूफानों की घटना 2000 सालों में एक बार होती थी, लेकिन अब यह आम बात हो चुकी है. जलवायु परिवर्तन के बढ़ते कारणों से पर्वतीय तंत्र की पारिस्थितिकी चरमरा जाती है और ऊपर से ढांचागत विकास की उपयुक्त शैली न होने के कारण पर्वत कई घटनाओं, आपदाओं के शिकार बन जाते हैं.
अनंत हैं पर्वतों के उपकार
दुनिया में पर्वतों की महिमा का कोई छोर नहीं है. इनके उपकारों की संख्या अनंत है, साथ ही इनके द्वारा की गई सेवा का कोई विकल्प नहीं. पृथ्वी का ऐसा कोना नहीं जहाँ पर्वत न पाए जाते हों. ये समुद्रों में भी बसे हैं. दुनियाभर में जितने भी मरुस्थल क्षेत्र हैं, उनकी नदियों का दाता भी पर्वत (श्रेणियां) ही हैं. ये वे स्थान हैं जहाँ वर्षा कम होती है, और ऐसे में पर्वतों से प्रवाहित हुई नदियां यहाँ सबको जीवन देती हैं.
पर्वत अक्सर भौगोलिक विशेषताओं के रूप में कार्य करते हैं जो देशों की प्राकृतिक सीमाओं को परिभाषित करते हैं. उनकी ऊंचाई मौसम के मिजाज को प्रभावित कर सकती है, महासागरों में आने वाले तूफानों को रोक सकती है और बादलों से पानी निचोड़ सकती है. पृथ्वी पर पर्वतों का जन्म कई तरीकों से हुआ और हर तरह के पर्वतों की एक बड़ी भूमिका हमेशा से रही है, और इसीलिए इन्हें दुनिया का पालक कहा जाता है.
दुनिया की 13 प्रतिशत जनसँख्या प्रत्यक्ष रूप से इन्हीं की गोद में पलती है. दुनिया का करीब 22 प्रतिशत क्षेत्र पहाड़ों से घिरा हुआ है, जो कि जीवन की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकताओं के दाता हैं. दुनिया दो ध्रुव जानती है, आर्कटिक और अंटार्कटिक. किन्तु तीसरा ध्रुव है हिमालय. ये हिमाच्छादित होते हैं, और यही हिमखंड दुनिया के पानी की सबसे बड़ी आवश्यकता को पूरा करते हैं.
ज्यादातर वन पर्वतों पर पाए जाते हैं, और इसका एक कारण यह भी है कि ये वो क्षेत्र हैं जहाँ इंसान की आसानी से पहुँच न होने के कारण ये अपने-आप ही सुरक्षित रह पाते हैं. ये हवा, मिट्टी, पानी को बचाने-बनाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं. दुनिया में अन्न की 20 प्रमुख प्रजातियों में से छह पर्वतों की देन हैं. और आज यही पर्वत पीड़ा से गुजर रहे हैं. लगभग 31.1 लोग किसी न किसी कारण से यहाँ जलवायु परिवर्तन का दंश झेल रहे हैं और करीब 17.8 करोड़ लोगों के लिए खाद्य असुरक्षा का सवाल खड़ा होता जा रहा है.
पर्वतों के खराब होते हालात
कुछ समय से पर्वतों के हालात लगातार बहुत गंभीर होते चले जा रहे हैं. असल में हमने पर्वतों को सैर-सपाटे के रूप में ज्यादा जाना है और यही कारण है कि दुनियाभर में चाहे वह स्कैंडिनेविया हो या हिमालय के क्षेत्र, यहां एक खास दर्जे का टूरिस्ट पहुंचता है, और वह स्थिति की संवेदनशीलता को न समझते हुए इन्हें कूड़े के भंडार में बदल रहा है.
पहाड़ साहसिक खेलों (Adventure) के गढ़ भी हैं, लेकिन अब परिस्थितियां पर्वतों के हाथ से भी निकलती जा रही हैं. इसलिए पहाड़ों के संरक्षण की बात को गंभीरता से लिया जाना चाहिए. IPCC की रिपोर्ट ने बार-बार दोहराया है कि जलवायु परिवर्तन का यदि कोई बड़ा असर होगा तो पर्वतीय क्षेत्रों में ही होगा और इसके लक्षण भी दिखाई देने लगे हैं.
असल में हमें पहाड़ों को अब अपने भविष्य की दृष्टि से देखना चाहिए. भविष्य से सीधा मतलब हवा, मिट्टी, पानी तो है ही, खेती-बाड़ी और उद्योग भी हैं. इनमें किसी भी तरह का संकट पूरी अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाएगा, साथ ही जलवायु परिवर्तन का दंश भी बढ़ा देगा. आज भी पर्वत जलवायु नियंत्रक के रूप में बहुत बड़ी भूमिका में हैं. दुनिया में तापमान के नियंत्रण में या अन्य संसाधनों की बेहतरी में इनकी भूमिका हमेशा रहेगी. इनमें सीमा से अधिक कोई छेड़छाड़ पूरे तंत्र को कमजोर बना देगी और यह मानव जाति के लिए एक बहुत बड़ा अभिशाप होगा.
वास्तविकता तो यह है कि हमने पर्वतों के महत्व को गौण रखा है, फिर चाहे अपने देश के हों या दुनिया के अन्य पर्वत. हमने पर्वतीय क्षेत्रों की चिंता के लिए बहुत से शोध संस्थान तो खड़े कर दिए हैं, लेकिन उनके लिए कोई अलग नीति ऐसी नहीं है जो यह तय कर सके कि यहां पर मनुष्य का कितना दबाव होना चाहिए. पर्वतों के ढांचागत विकास को लेकर गंभीर होने की आवश्यकता है.
प्रकृति की ही बात स्वीकारनी होगी कि जैसे-जैसे पहाड़ ऊंचे होते चले जाते हैं, सब कुछ छोटा होता जाता है. मसलन वनों से लेकर मनुष्य की ऊंचाई भी घटती चली जाती है. यह प्रकृति का नियम है जो एक सीमा से ज्यादा हमारी चाहतों को स्वीकार नहीं करेगी. इसलिए चाहे सड़क की बात हो या बांध की, सबमें पर्वत शैली की समझ आवश्यक है.
विकास पर्वतों के लोगों की हमेशा से मांग रही है लेकिन इसके अनुरूप नए सिरे से सोचना होगा. पहाड़ अभी भी अपने हिस्से के विचार-विमर्श की प्रतीक्षा में हैं. जलवायु परिवर्तन पर्वतों को प्रभावित कर रहा है और यदि जल्द ही इसे रोक नहीं गया तो फिर हवा, मिट्टी, पानी के लाले पड़ जाएंगे. यदि जान बचानी है तो पहाड़ों को भी बचाना ही होगा.
साभार : अनिल प्रकाश जोशी (पद्म विभूषण से सम्मानित प्रख्यात पर्यावरणविद)
दैनिक जागरण (11 दिसंबर 2023 को ‘अंतरराष्ट्रीय पर्वत दिवस’ पर विशेष)
Edited By : Nancy Garg
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