Vinayak Damodar Savarkar : विनायक दामोदर सावरकर

Vinayak Damodar Savarkar, विनायक दामोदर सावरकर
Vinayak Damodar Savarkar : विनायक दामोदर सावरकर

Veer Savarkar (Biography in Hindi)

स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) को अपने पूरे जीवन में बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, लेकिन वे हमेशा डटे रहे. एक छात्र के रूप में पुणे में रहते हुए, उन्होंने 1904 में अपने भाई, गणेश दामोदर सावरकर के साथ अभिनव भारत सोसाइटी (Abhinav Bharat Society) नामक एक गुप्त संगठन की स्थापना की.

वे यहीं नहीं रुके और ब्रिटेन में रहने के दौरान फ्री इंडिया सोसाइटी और इंडिया हाउस के सदस्य बन गए. वह ब्रिटिश राज से भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का आह्वान करने वाली कई पुस्तकों के लेखक बने. दुर्भाग्य से, सावरकर द्वेष और गलत सूचनाओं के बहुत शिकार हुए हैं. आज हम वीर सावरकर के जीवन और देश के लिए दिए गए उनके योगदानों के बारे में कुछ जानने का प्रयास करते हैं-

देश के लिए 14 वर्ष के बच्चे की शपथ

1897, जब ब्रिटिश शासन के तहत भारत ब्यूबोनिक प्लेग (Bubonic Plague) से भी पीड़ित था. यह प्लेग सिंगापुर से भारतीय तटों पर आने वाले जहाजों में चूहों के माध्यम से भारत में प्रवेश कर गया था. अंग्रेज इस वायरस से संक्रमित रोगियों का परीक्षण करने के लिए अमानवीय तरीकों का इस्तेमाल करते थे.

इस वायरस से नासिक और पुणे जैसे शहरों को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ. पुणे के चापेकर बंधुओं (Chapekar Brothers) ने कार्रवाई करने और प्लेग समिति के आयुक्त- वाल्टर रैंड की हत्या करने का फैसला किया और 22 जून, 1897 को उन्होंने योजना को अंजाम दिया.

ऐसे समय में नासिक में मराठी चितपावन ब्राह्मण परिवार के एक 14 साल के बच्चे ने चापेकर बंधुओं के शौर्य और बलिदान से प्रेरणा ली. उन्होंने परिवार की कुलदेवी अष्टभुजा भवानी देवी के सामने शपथ ली कि-

“देशाच्या स्वातंत्र्यासाठी सशस्त्र क्रांतीचा केतू उभारूनशत्रूस मारता मारता मरेतो झुंजेन” (मैं अपने देश की स्वतंत्रता के लिए एक सशस्त्र क्रांति का पहाड़ स्थापित करूंगा, और मैं तब तक नहीं मरूंगा जब तक मैं अपनी धरती के आखिरी दुश्मन को नहीं मार देता).

वह बच्चा विनायक सावरकर था, जो स्वतंत्रता संग्राम में लोकमान्य तिलक (Lokmanya Tilak) के नेतृत्व में बड़ा हुआ था. सावरकर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने विदेशी कपड़ों की होली जलानी शुरू की थी.

‘मित्र मेला’ नामक समाज की शुरुआत

अपने शुरुआती 20 के दशक में, सावरकर ने क्रांतिकारी विचारों पर चर्चा करने और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने के लिए ‘मित्र मेला’ नामक एक गुप्त समाज की शुरुआत की. जब यह बना था, तब सावरकर पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में छात्र थे. यहां वे शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप, बाजी प्रभु देशपांडे, माधवराव पेशवा आदि जैसे महान नायकों की वीरता के बारे में कविताएं, पोवाड़ा और लोक गीत सुनाकर अपने साथी साथियों को एकजुट करते थे.

यही मित्र मेला आगे चलकर ‘अभिनव भारत सीक्रेट सोसाइटी’ (Abhinav Bharat Secret Society) बन गया. जब सावरकर कानून (Law) का अध्ययन करने के लिए वहां गए, तो देश भर में कई शाखाओं के साथ और यहां तक ​​कि लंदन तक फैले 100 क्रांतिकारियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को शामिल करने के लिए समाज का विकास हुआ.

सावरकर की पुस्तक

लंदन में भी, सावरकर ने फ्रांसीसी क्रांति की पुस्तकों और जोसेफ मैजिनी की पुस्तकों से प्रेरणा ली. इन क्रांतिकारी विचारों से प्रेरित होकर सावरकर ने 1857 के भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम पर एक पुस्तक लिखी. इस पुस्तक पर अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया था लेकिन गुप्त समाज के सदस्यों की बदौलत यह किसी तरह भारत पहुंच गई. इस पुस्तक ने भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस (Bhagat Singh and Subhash Chandra Bose) सहित कई अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरित किया. और बाद में इस पुस्तक के तीसरे संस्करण की छपाई खुद भगत सिंह जी ने कारवाई थी.

सावरकर को कालापानी की सजा

अभिनव भारत समाज एक क्रांतिकारी आंदोलन था, जो ब्रिटिश राज से पूर्ण स्वतंत्रता के लिए लड़ा था. सावरकर और समाज के इन्हीं क्रांतिकारी विचारों के कारण 1909 में मदनलाल ढींगरा द्वारा लंदन में लॉर्ड कर्जन वाइली की हत्या और नासिक में अनंत कान्हेरे द्वारा कलेक्टर जैक्सन की हत्या कर दी गई.

इस बीच, मुजफ्फरपुर में खुदीराम बोस (Khudiram Bose) ने किंग्सफोर्ड की हत्या भारत में निर्मित पहले बम से की थी. खुदीराम, कान्हेरे और ढींगरा को गिरफ्तार कर लिया गया और अंततः उन्हें मौत की सजा सुनाई गई.

अंग्रेजों को पता चला कि उनके अधिकारियों की हत्या सावरकर के दिमाग की उपज थी, जो लंदन में थे. तो उन्हें वहां गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें भारत वापस लाया जाना था. जब जहाज मार्सिले पहुंचा, तो सावरकर ने भागने का फैसला किया और समुद्र में कूद गए. इस दौरान उनके दोस्त मैडम भीकाजी कामा और लाला हरदयाल सिंह माथुर उन्हें भागने में मदद करने वाले थे, लेकिन किसी तरह उन्हें देरी हो गई.

ब्रिटिश सैनिकों द्वारा लगातार पीछा करने के बाद, सावरकर को फ्रांसीसी बंदरगाह पर फिर से पकड़ लिया गया. चीजों ने नए मोड़ लिए क्योंकि यह अंग्रेजों के लिए भी एक विदेशी भूमि थी. अंतरराष्ट्रीय मीडिया मंचों ने मामले के बारे में प्रचार किया क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय न्यायालयों में यह ‘फ्रांसीसी सरकार बनाम ब्रिटिश सरकार’ था. अंत में, अदालतों ने अंग्रेजों का पक्ष लिया और सावरकर को 1911 में अंडमान में 2 आजीवन कारावास कालापानी की सजा सुनाई गई, तब उनकी उम्र महज 28 वर्ष की थी.

अंडमान में सावरकर को अत्यधिक यातना और क्रूरता का शिकार होना पड़ा. उन्हें एकान्त कारावास में डाल दिया गया, और उन्हें पेशाब और मल के बीच रहना पड़ा. जेलर सावरकर को तेल मथने के लिए एक कोल्हू (तेल की चक्की) से बाँध देते थे.

इतना कठिन परिश्रम करने के बाद भी सावरकर कोठरी की दीवारों पर कीलों, कीलों, काँटों आदि की सहायता से कविताएँ, लेख, निबंध आदि लिखते रहते थे. उन्होंने जो कुछ भी लिखा उसे याद किया. 11 साल बाद सेल्युलर जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने इन सबको फिर से लिखा और रत्नागिरी में कैद होने पर इसे प्रकाशित किया.

हिंदू महासभा के अध्यक्ष

रत्नागिरी में कारावास के दौरान सावरकर ने स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ समाज सुधार में भी भूमिका निभाई. ब्रिटिश शासन में भारतीय हिन्दू समाज में फूट डालने के लिए जिस समाज को पिछड़े और दलित कहकर सम्बोधित किया जाता था, साथ ही उन्हें कई प्रकार के अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया था, सावरकर ने उन दलितों और पिछड़ी जाति के लोगों में जनेऊ बांटने के कार्यक्रम आयोजित किए.

सावरकर चाहते थे कि विदेशियों द्वारा बनाई गई इस जाति व्यवस्था को हिंदू धर्म से समाप्त कर दिया जाए, और सभी हिंदुओं को देश की स्वतंत्रता के लिए एकजुट किया जाए. सावरकर को 17 साल तक रत्नागिरी में नजरबंद रखा गया था. सावरकर की बिना शर्त रिहाई के बाद वे हिंदू महासभा (Hindu Mahasabha) के अध्यक्ष बने, और देश की आजादी के लिए पूरी तरह से काम किया! उन्होंने युवाओं को शाही सेना में शामिल होने के लिए उकसाया और इस तरह 1857 जैसा विद्रोह पैदा किया.

सुभाष चंद्र बोस और वीर सावरकर

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सुभाष चंद्र बोस जो कलकत्ता में ब्रिटिश हिरासत से भाग गए थे, एक्सिस पॉवर्स (जापान, इटली, जर्मनी) तक पहुंच रहे थे और भारत में अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए आजाद हिंद फौज (भारतीय राष्ट्रीय सेना) का गठन कर रहे थे. (विक्रम संपत, जिन्होंने सावरकर पर लिखा है कि सावरकर ने युवा भारतीयों को ब्रिटिश सेना में भर्ती होने और प्रशिक्षित होने के लिए प्रोत्साहित किया ताकि वे बाद में नेताजी की INA में जा सकें).

नेताजी को सावरकर का सुझाव

22 जून 1940 को, सावरकर और नेताजी के बीच “फॉरवर्ड ब्लॉक और हिंदू महासभा के बीच सहयोग की संभावनाओं का पता लगाने” के लिए एक बैठक हुई. दादर में सावरकर के निवास स्थान पर कथित तौर पर हुई इस मुलाकात ने नेताजी को प्रभावित किया था. सावरकर ने नेताजी को सुझाव दिया था कि-

“कलकत्ता में होलवेल स्मारक जैसी ब्रिटिश मूर्तियों को हटाने के लिए विरोध प्रदर्शन आयोजित करने में समय बर्बाद न करें”, बल्कि देश से बाहर द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश के खिलाफ खड़ी शक्तियों तक पहुंचें और प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी में बंद कैदियों की मुक्ति करवा के युद्ध के लिए एक भारतीय सेना का गठन करें.”

24 जून, 1940 के ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने इस बैठक पर एक लेख छापा था. पुलिस ने इसका एक संक्षिप्त विवरण भी नोट किया था: “सुभाष चंद्र बोस 22 जून को बंबई पहुंचे और क्रमशः फॉरवर्ड ब्लॉक और हिंदू महासभा के बीच सहयोग की संभावनाएं तलाशने के उद्देश्य से वीडी सावरकर के साथ चर्चा की.” (एमएसए, गृह विशेष विभाग, 1023, 1939-40, एसए दिनांक 29 जून, 1940, ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’).

उपरोक्त घटना को एक जापानी लेखक और प्रकाशक, युकीकाजु सकुरासावा द्वारा लिखित पुस्तक ‘द टू ग्रेट इंडियन्स इन जापान’ में भी विस्तार से बताया गया है. उन्होंने लिखा है-

“सावरकर सदन बॉम्बे में नेताजी सुभाष बाबू और सावरकर के बीच यह निजी और व्यक्तिगत बैठक थी. सावरकर द्वारा सुभाष बाबू को एक निश्चित सुझाव दिया गया था कि उन्हें भारतीय सेना को संगठित करने के लिए जर्मनी जाने का जोखिम उठाना चाहिए. वहाँ जर्मन से सहायता लेकर श्री रास बिहारी बोस के साथ जापान से हाथ मिलना चाहिए. सावरकर ने सुभाष बाबू को रासबिहारी बोस द्वारा सावरकर को लिखा गया एक पत्र दिखाया, जो युद्ध की जापानी घोषणा की पूर्व संध्या पर लिखा गया था.” इस प्रकार सावरकर ने रास बिहारी बोस और नेता जी को जोड़ने की कड़ी के रूप में कार्य किया.

रास बिहारी बोस और सावरकर

रास बिहारी बोस जापान में हिंदू महासभा के अध्यक्ष भी थे. दोनों के सहयोग से जापान में हिंदू महासभा की शुरुआत हुई. जापान द्वारा युद्ध nकी घोषणा करने और नेताजी द्वारा सिंगापुर में भारतीय राष्ट्रीय सेना के गठन तक दोनों नेताओं के बीच पत्राचार जारी रहा. आजाद हिंद फौज के सौजन्य से भारत को 1947 में आजादी मिली.

15 अगस्त 1947 को लाल किले पर आजादी के जश्न के शुभ अवसर पर देशभर से स्वतंत्रता सेनानियों को आमंत्रित किया गया था. लेकिन सत्ता में आई कांग्रेस ने सावरकर को अलग-थलग रखा. इसके अलावा, 1950 में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के भारत आने पर सावरकर को बेलगाम में गिरफ्तार कर लिया गया था. विडंबना यह थी कि उन्हें स्वतंत्र भारत में अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ने के बाद गिरफ्तार किया गया था! 26 फरवरी 1966 की दोपहर को सावरकर ने अंतिम सांस ली.

“माफीवीर”

‘I beg to remain your most obedient servent’ के आधार पर आज भारत का एक वर्ग सावरकर को माफीवीर कहता है और अंग्रेजों का सहयोगी बताता है.

लेकिन पहली बात कि यह जो शब्द लिखा है ‘I beg to remain your most obedient servent’, यह उस जमाने की एक आम शब्दावली हुआ करती थी. महात्मा गाँधी सहित जॉर्ज वाशिंगटन ने अपनी कई चिट्ठियों में ठीक ऐसे ही शब्द लिखे हैं. इसी के साथ, सावरकर ने अंग्रेजों से 2 बार जनरल Amnesty plea की थी, जो कि सेल्युलर जेल में हो रहे अत्याचारों से त्रस्त कैदियों को छोड़ने के लिए लिखी गयी थी, न कि अकेले सावरकर के लिए.

इसी के साथ, सावरकर को 2 बार 50-50 साल की सजा सुनाई गयी. उन्होंने कुल 27 साल जेल में गुजारे, जिसमें से 10 साल अंडमान के सेल्युलर जेल में थे, जिसे तब कालापानी बोला जाता था. सावरकर ने वहाँ कोल्हू में जुतकर तेल निकाला, काल कोठरी में र, ढेरों यातनाएं झेलीं… तो आखिर ये सावरकर कैसे सहयोगी थे अंग्रेजों के? कौन अपने सहयोगी को इस प्रकार की काल कोठरी में डालता है?



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