What is Dharm Adharm
अलग-अलग देशों की क्रान्तियों को पढ़ाते समय इतिहास के एक प्रोफेसर ने छात्रों को बताया कि
“धर्म ही शोषण और पीड़ा का कारण बनता है. धर्म मनुष्य को बेड़ियों में बांधता है. धर्म हमें संकुचित विचारधारा का बनाता है, धर्म ही सारे झगड़ों की जड़ है. धर्म ही हमें कमजोर और मूर्ख बनाता है. धर्म से मुक्ति पाने के लिए ही दुनिया में कुछ बड़ी क्रान्तियाँ हुईं….”
लेकिन क्या सच में धर्म ही …?
हां, शायद इसलिए क्योंकि धर्म की व्याख्या इस बात पर निर्भर करती है कि वह व्याख्या कर कौन रहा है, जैसे वाल्मीकि रामायण में रावण सीताजी से कहता है कि
“सीते! यदि तुम अपने पति का त्याग कर मुझे स्वीकार कर लेती हो तो वह भी धर्म ही है.”
तो यदि आप धर्म की व्याख्या ऐसे ही लोगों से करवाते हैं, तो देखियेगा कि ऐसे लोग कितनी चतुराई से शब्दों का जाल बिछाकर कैसे-कैसे अधर्म को भी धर्म और धर्म को अधर्म बता देते हैं, जैसे महाभारत में शकुनि-दुर्योधन आदि.
जब इसी प्रकार सब लोग अपने-अपने अनुसार धर्म की व्याख्या करने लगते हैं, अपने माने हुए धर्म को ही श्रेष्ठ बताने लगते हैं या उचित ठहराने लगते हैं, तब श्रीकृष्ण आकर महाभारत का युद्ध करवा के एक बड़ी साफ-सफाई कर जाते हैं.
और कभी-कभी यह भी होता है कि एक कार्य किसी समय तो धर्म था लेकिन परिस्थितियां विपरीत हो जाने पर भी उसी से चिपके रहना, उस धर्म को भी अधर्म बना देता है.
भीष्म पितामह ने जिसे अपना धर्म माना, उसे श्रीकृष्ण ने धर्म नहीं माना. इस संबंध में एक बहुत अच्छा उदाहरण भी दिया गया है कि यदि भवन के अंदर आग लगी हो तो उस समय द्वारपाल यह नहीं कह सकता कि मुझे तो द्वारपाल का ही धर्म निभाना है.
भीष्म पितामह पूरे जीवनभर अपने धर्म के प्रति बहुत ही ज्यादा समर्पित रहे; अच्छी बात! लेकिन इतने समर्पित कि सामने पुत्रवधू का इतना बड़ा अपमान होता रहा, और वे पूरी तरह समर्थ होते हुए भी उसे रोक न सके.
यानी पीड़ा केवल भीष्म पितामह को ही नहीं हुई, बल्कि दूसरों को भी सहनी पड़ी पीड़ा. और आखिरकार भीष्म पितामह भी थक चुके थे अपने इस माने हुए धर्म का बोझ उठाते-उठाते. वे भगवान को उकसाते हैं कि “शस्त्र उठाओ भगवन और मुझे मेरे इस धर्म से मुक्त करो.”
कर्ण ने जिसे अपना धर्म माना, उसे श्रीकृष्ण ने धर्म नहीं माना. कर्ण लाख तर्क देता रहा कि दुर्योधन ने तो उसके ऊपर उपकार किया है, अतः उसे अपना मित्रता का धर्म निभाना है. लेकिन वह भूल रहा था कि समाज के लिए खतरनाक व्यक्ति का या अधर्मी का सहयोग करना कहीं भी धर्म की श्रेणी में नहीं आता.
कर्ण भी अंतिम समय तक अपने धर्म के प्रति बड़ा समर्पित रहा, जिसकी वजह से न सिर्फ कर्ण को, बल्कि अन्य को भी पीड़ा सहनी पड़ी. लेकिन ठीक युद्ध से पहले बिना हिचकिचाए अपने तन से अपना कवच उखाड़कर दे देना और युद्धभर तक पांडवों को अपने रिश्ते का सच न बताना…. ये सब बताता है कि आखिर में कर्ण भी अपने इस धर्म से मुक्ति ही चाहता था.
गांधारी के सभी पुत्रों की मृत्यु कुंती के पुत्रों से ही हुई, लेकिन फिर भी गांधारी कुंती पर क्रोध न कर सकीं, क्योंकि गांधारी भी समझ गई थीं कि सौ पुत्रों की जिम्मेदारी होते हुए भी हमेशा के लिए केवल आँखों पर पट्टी बांधने को ही अपना पतिव्रत धर्म समझना धर्म नहीं, बल्कि एक भूल थी. परिणाम यह हुआ कि गांधारी न तो अपने पुत्रों को गलत रास्ते पर जाने से बचा सकीं और न ही अपने पति की कोई सहायता कर सकीं.
यही स्थिति द्रोणाचार्य वगैरह की भी थी, और ये सब अपने-अपने माने हुए धर्म के कारण उस दुर्योधन को सहायता दे रहे थे, जिसमें कलियुग की हर बुराई शामिल थी.
धर्म के वास्तविक स्वरूप पर विचार न करके अपना स्वयं का धर्म तय कर लेना और उसी से चिपके भी रहना, अक्सर कट्टरता या बंधन लाता है और कट्टरता हमेशा ही पीड़ा और शोषण लेकर आती है. न केवल अपने लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए. ऐसा ही धर्म बोझ बन जाता है, न केवल स्वयं पर बल्कि पूरे समाज पर.
धर्म शोषण और पीड़ा का कारण नहीं बनता, धर्म मनुष्य को बेड़ियों में नहीं बांधता, धर्म हमें संकुचित विचारधारा का नहीं बनाता और न ही धर्म हमें कमजोर और मूर्ख बनाता है.
ये सारी बातें अपने-अपने माने हुए धर्म और उससे चिपके रहने के कारण होती हैं, न कि धर्म के कारण. ये सारी बातें अधर्म को धर्म बताकर उसका अनुसरण करने से होती हैं.
आज धर्म के नाम पर जितने भी पंथ या मजहब चल रहे हैं, वास्तव में वे धर्म हैं ही नहीं. वे तो अपने-अपने माने हुए धर्म के गुट मात्र हैं, जिन्हें धर्म का नाम दे दिया गया, और ऐसे धर्म पीड़ा और शोषण का कारण तो बनेंगे ही, तो ऐसे ही धर्मों से लोग मुक्त तो होना चाहेंगे ही.
अधर्म उस जहर के समान होता है जो धीरे-धीरे मारता है, अब आप अधर्म को धर्म बताने के लिए उसकी चाहे जितनी सुन्दर तरीके से व्याख्या कीजिये, लेकिन इससे वह धर्म नहीं बन जायेगा.
जहर को अमृत कह देने से वह अमृत नहीं बन जायेगा, जहर तो जहर ही रहेगा, और चाहे उसे गलती से पीया जाये या जानबूझकर, वह अपना असर तो दिखायेगा ही.
भगवान शिव ने भगवान का धर्म निभाते हुए अपने भक्त (भस्मासुर) को यह वरदान दे दिया कि जिसके ऊपर हाथ रखोगे, वह भस्म हो जाएगा. ऐसा वरदान देते समय भगवान ने एक बार भी समाज के हित-अहित का ध्यान नहीं रखा, जिसका परिणाम यह हुआ कि न केवल अन्य लोगों पर, बल्कि स्वयं भगवान शिव पर भी संकट आ पड़ा.
अपनी इस लीला से भगवान शिव सिखाना चाहते हैं कि यदि आप समाज का हित-अहित का ध्यान रखे बिना ही कोई कार्य या निर्णय करते हैं, तो इसका परिणाम न केवल समाज को, बल्कि आपको भी भुगतना होगा.
भृगु ऋषि की पत्नी ने अपना धर्म निभाते हुए अत्याचारी दैत्यों को शरण दे दी, और यहाँ उन्होंने समाज के हित-अहित का ध्यान नहीं रखा, अतः भगवान विष्णु ने उसे धर्म नहीं माना और भृगु ऋषि की पत्नी का वध कर दिया.
धर्म तो एक ही है, जिसका मूल है करुणा. ज्ञान, धैर्य, प्रेम, समर्पण, न्याय…. आदि सब इसी पर टिके हुए हैं. और इसलिए हर परिस्थिति में धर्म की सारी व्याख्याएं इसी के आधार पर होनी चाहिए, नहीं तो वह धर्म नहीं कहलायेगा, क्योंकि यदि हम मूल को ही उखाड़ फेकेंगे तो कुछ नहीं बचेगा, सब नष्ट हो जाएगा.
इसी करुणा के कारण किसी योद्धा को समाज और बेकसूरों की रक्षा के लिए शस्त्र उठाकर आतताई शक्तियों से लड़ भी जाना होता है. इसी करुणा के कारण भगवान भी अपनी प्रतिज्ञा को तोड़कर शस्त्र उठा लेते हैं.
इसी करुणा के कारण श्रीराम को छल का सहारा लेकर बाली का वध करना पड़ता है, क्योंकि बाली उन्हीं के राज्य के एक क्षेत्र में राजा के पद पर बैठा हुआ था, और यदि राजा ही दूसरे की पत्नी के साथ जबरदस्ती करने जैसा अधर्म करे, तो कुछ समय बाद प्रजा को भी वैसा ही बनने में समय नहीं लगेगा, क्योंकि “यथा राजा तथा प्रजा.”
यदि छल का हेतु धर्म है, तो छल भी धर्म है.
यानी कि धर्म कट्टरता नहीं लाता और इसीलिए धर्म सनातन है.
और शायद इसी कारण इतिहास के वही प्रोफेसर एक दिन यह भी कह रहे थे कि
“समझ नहीं आता कि क्यों पूरी दुनिया में एकमात्र भारत (सनातन धर्म) ही है, जो सबसे पुराना होते हुए भी व अनगिनत आक्रमणों को झेलते हुए भी अपने मूल स्वरूप को आजतक जीवित रखे हुए है, और भारत की इस विशेषता पर पूरी दुनियाभर में रिसर्च चलती है….”
Written By : Aditi Singhal (Working in the media)
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