PM Modi Return of Farm Laws
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने 1 साल 1 महीना और 23 दिनों के बाद देश की संसद की तरफ से पास किए गए तीन नए कृषि कानूनों (Farm Laws) को वापस लेने का ऐलान कर दिया है. उन्होंने प्रदर्शनकारी किसानों से यह अपील की है कि वे अपना आंदोलन (Farmers Protest) छोड़कर अपने घरों को वापस जाएं. मालूम हो कि इन नए कृषि कानूनों को लेकर करीब एक साल से कुछ किसान संगठन दिल्ली की सीमाओं पर लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और इस बीच कई इस तरह की घटनाएं भी हुईं, जिन्हें देश की सुरक्षा के लिए सही नहीं माना जा सकता है.
19 नवंबर 2021 को गुरु पर्व के अवसर पर देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते हुए पूरी विनम्रता के साथ कहा कि “आज मैं देशवासियों से क्षमा मांगते हुए सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रह गई होगी, जिस वजह से दिये के प्रकाश के जैसा सत्य हम कुछ किसान भाइयों को समझा नहीं पाए, लेकिन आज का दिन किसी को दोष देने का नहीं है.”
‘किसानों के लिए लाए थे, देश के लिए वापस ले रहे हैं’
पीएम मोदी (PM Modi) ने यह भी कहा कि ‘ये तीन कानून हम किसानों के हित में लाए थे, लेकिन अब देश के हित में वापस ले रहे हैं (return of farm laws).’ इस बात से प्रधानमंत्री का मतलब साफ था कि इन कृषि कानूनों में कोई कमी नहीं थी और इन्हें लागू करने का सरकार का फैसला बिल्कुल सही था, लेकिन कुछ असंगत प्रदर्शनकारी समूहों की इच्छा को देखते हुए और देश की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ही आज इन कानूनों को रद्द करने का फैसला लिया गया है.
प्रधानमंत्री के अचानक इस फैसले के ऐलान ने सभी को चौंका दिया है. उनकी इस घोषणा के बाद देश के अलग-अलग वर्गों ने अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं. विपक्ष ने और प्रदर्शनकारी किसानों संगठनों ने प्रधानमंत्री के इस फैसले से खुश होने का दावा किया है. सभी वर्ग अपने-अपने तरीके और समझ से प्रधानमंत्री के इस फैसले की व्याख्या करने में लगे हुए हैं. हालांकि, प्रदर्शनकारी किसान संगठनों ने अब कुछ नई शर्तें लगाई हैं और कहा है कि अब जब तक उनकी ये शर्तें पूरी नहीं होंगी, तब तक सड़कें खाली नहीं की जाएंगी और उनका ये आंदोलन जारी रहेगा.
कौन से हैं ये तीन कृषि कानून?
इन तीनों कृषि कानूनों को पिछले साल 17 सितंबर को लागू किया गया था, जिनके विरोध में पंजाब और हरियाणा समेत कई राज्यों के किसानों ने पिछले साल नवंबर में अपना विरोध प्रदर्शन शुरू किया था. ये तीनों कानून जो अब इतिहास बन जाएंगे, वे थे-
♦ कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम 2020- इस कानून से किसानों को अपनी उपज के लिए बड़ा बाजार मिलता और वे अपनी फसल कहीं भी बेच सकते थे.
♦ कृषक (सशक्तिकरण संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम 2020- इस कानून के तहत किसान निजी क्षेत्र के साथ करार करके अपनी आय बढ़ाने का उपक्रम कर सकते थे.
♦ आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम 2020- इसके तहत कृषि के कई उत्पादों को जमा करने की सीमा हटा दी गई थी.
इस एक साल में देश ने क्या-क्या देखा?
इन तीनों कानूनों को पिछले साल संसद के मानसून सत्र में लोकसभा में पारित किया गया था. इसके बाद विपक्ष ने इन कानूनों को लेकर अपना विरोध जताना शुरू किया. नवंबर के महीने से पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के किसान संगठनों ने इन कानूनों के विरोध में आंदोलन खड़ा करते हुए 25 नवंबर को दिल्ली कूच करने का ऐलान किया. प्रदर्शनकारी किसान संगठनों ने दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाला.
पूरे एक साल तक चले इस विरोध प्रदर्शन के बीच किसान संगठनों और सरकार के बीच कई दौर की वार्ताएं भी की गईं, जिनका कोई नतीजा नहीं निकल सका. हर बातचीत में बजाय कोई चर्चा करने के प्रदर्शनकारी किसान तीनों कानूनों को वापस लेने की बात पर ही अड़े रहे. आंदोलन को बढ़ता देखकर सुप्रीम कोर्ट ने 12 जनवरी को इन कृषि कानूनों पर स्टे भी लगाया और एक कमेटी भी बनाई, हालांकि इन 10-11 महीनों में उस कमेटी ने क्या किया, इसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है.
इस प्रदर्शन के बीच भारत बंद, ट्रैक्टर रैली, 26 जनवरी की हिंसा जैसी घटनाएं भी देखने को मिलीं. यहां तक कि प्रदर्शन स्थल पर बलात्कार और आत्महत्या जैसी घटनाओं के होने की भी खबरें सामने आईं. यह भी सामने आया कि इस आंदोलन की आड़ में कुछ देश विरोधी ताकतें देश में अपने पैर जमाने की लगातार कोशिश कर रही हैं.
कैसे रद्द होंगे ये तीनों कृषि कानून?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 245 के तहत, देश की संसद को कानून बनाने का अधिकार है और इसी अनुच्छेद में संसद को बहुमत से किसी भी कानून को रद्द करने का भी अधिकार दिया गया है. जिस तरह किसी कानून को बनाने के लिए केंद्र सरकार संसद में संबंधित बिल पेश करती हैं, उसी तरह किसी कानून को रद्द करने के लिए भी संसद में एक बिल पेश करना होता है.
ये बिल दो तरीके से लाया जा सकता है- सरकार की तरफ से सीधे संसद में बिल लाकर या, इस संबंध में एक अध्यादेश जारी करके, लेकिन अध्यादेश वाले तरीके में एक समस्या यह सामने आती है कि अगले 6 महीने में सरकार को फिर से बिल संसद में ही लाना होता है. यानी घूम फिरकर प्रक्रिया वही होती है. जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने बताया है कि ये तीनों कानून इसी शीत सत्र में खत्म कर दिए जाएंगे, तो इसका मतलब है कि केंद्र सरकार इन कानूनों को रद्द करने के लिए अध्यादेश वाला तरीका नहीं अपनाएगी.
क्या किसानों की जीत है ये ‘किसान आंदोलन’?
जहां विपक्ष और प्रदर्शनकारी किसानों ने प्रधानमंत्री मोदी के इस फैसले को अपनी जीत बताया है, तो वहीं देश के एक तबके ने बेहद निराशा भी जताई है. ये तबका है देश के उन करोड़ों छोटे किसानों का, जो लाल किले पर जाकर, पथराव करके अपनी अपनी आवाज उठाना नहीं जानता, जो जबरन सड़कों को घेरकर अपनी मांगे मनवाना नहीं जानता…क्योंकि अगर ऐसा ही होता, तो आज देश में उन छोटे किसानों की संख्या 10 करोड़ से ज्यादा नहीं होती, जिनके पास दो हेक्टेयर की भी जमीन नहीं है. इन छोटे किसानों को ही इन कृषि कानूनों से अपनी आर्थिक स्थिति में कई बड़े सुधारों की उम्मीद थी.
ये तीनों कानून किसानों पर थोपे नहीं गए थे, इन्हें किसानों के सामने केवल एक विकल्प के रूप में पेश किया गया था और यही बात प्रधानमंत्री मोदी एक बार संसद में भी समझा चुके हैं कि इन कानूनों के रूप में किसानों को केवल एक विकल्प दिया गया था, क्योंकि पुरानी व्यवस्था को खत्म नहीं किया गया है. यह किसानों के ऊपर है कि वह चाहे पुरानी व्यवस्था के हिसाब से चलें या इस नई व्यवस्था के हिसाब से.
केंद्र सरकार के मुताबिक, इन तीनों कानूनों को मुख्य रूप से इन्हीं छोटे किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए, उन्हें बाजारों से सीधा जोड़ने के लिए, किसानों को उनकी मेहनत का मूल्य दिलाने के लिए ही लागू किया गया था, जो कि केवल एक राजनीति का शिकार बन कर रह गए हैं.
अब किसान जिस हाल में थे, वहीं खड़े दिख रहे हैं. अब मंडी व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं होगा और मंडियां वैसे ही चलती रहेंगी. दलाल और बिचौलिए किसानों से उसी तरह पैसा कमाते रहेंगे और किसानों के साथ होने वाली मनमानी की पुरानी व्यवस्था में कोई फिलहाल बदलाव नहीं आएगा. कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की व्यवस्था भी पहले की तरह ही कठिन बनी रहेगी. इन सबको देखते हुए इस किसान आंदोलन की वजह से प्रधानमंत्री की तरफ से लिए गए इस फैसले को किसानों की जीत कहना किसी भी तरह से उचित ही नहीं होगा.
प्रधानमंत्री मोदी ने क्यों लिया होगा ये फैसला?
प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) की तरफ से अचानक लिए गए इस फैसले (return of farm laws) की सब अपनी-अपनी बुद्धि के हिसाब से व्याख्या करने में लगे हैं, क्योंकि पीएम मोदी के कार्यों और उनके फैसलों के मकसद को समझना किसी के लिए भी बहुत आसान नहीं. कुछ वर्ग इसे किसानों की जीत बता रहे हैं तो कुछ इसे लगातार चलने वाले आंदोलन की सफलता. कुछ ने इसे सरकार का अहंकार टूटने का नाम दिया है तो कुछ का कहना है कि प्रधानमंत्री ने आंदोलनकारियों के आगे अपने कदम पीछे खींच लिए. वहीं, ज्यादातर लोग इसे आने वाले विधानसभा चुनावों से भी जोड़ रहे हैं, तो कुछ ने इसे सुधारों को झटका देने वाला फैसला बताया है.
दरअसल, बहुत सारे लोगों को यह समझ ही नहीं आ रहा कि अपने शासनकाल में हमेशा से ही मजबूत फैसले लेने और अपने रुख पर अडिग रहने वाली सरकार अचानक कैसे झुक गई. ये दलील गले ही नहीं उतरती कि सरकार महज प्रदर्शनकारियों के दबाव में आकर इन कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर हुई. निश्चित रूप से इसके पीछे का कारण आने वाले विधानसभा चुनाव भी हैं.
लेकिन क्या चुनाव ही हैं कारण?
अगले साल पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में चुनाव होने वाले हैं और इन राज्यों में कृषि कानूनों को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शन का कुछ असर दिख सकता था. पीएम मोदी के इस फैसले ने विपक्ष के हाथों से एक बहुत बड़ा मुद्दा चीन लिया है. वहीं, जिन किसान नेताओं ने इस आंदोलन के नाम पर अपनी राजनीतिक दुकानें खोल रखी थीं, वे भी अचानक बंद होती दिख रही हैं. हालांकि, अभी यह नहीं कहा जा सकता कि बीजेपी को इस फैसले का कितना चुनावी लाभ मिलेगा, क्योंकि चुनाव में कई और पहलू भी भूमिका निभाते हैं.
लेकिन अपने जिस फैसले पर प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी भारी राजनीतिक पूंजी दांव पर लगा रखी हो, उसे केवल चुनावी फायदे के लिए वापस ले लिया हो, यह बात भी कुछ हजम नहीं होती. निश्चित ही इसके पीछे कुछ और भी ऐसे कारण हैं, जिन्होंने सरकार को इतना बड़ा यू-टर्न लेने पर मजबूर कर दिया. इसे लेकर ये अनुमान लगाया जा रहा है कि सरकार की चिंता राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर ही बढ़ी हुई थी. पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी प्रदर्शनकारियों के बीच खालिस्तानी और पाकिस्तानी तत्वों की बढ़ती पैठ को लेकर लगातार सावधान करने में लगे हुए थे.
DNA ने दिया उत्कृष्ट उदाहरण
खैर, जितने मुंह उतनी बातें. प्रधानमंत्री मोदी के इस फैसले का जब तक निश्चित असर सामने नहीं आता, तब तक लोग इसके पीछे के कारणों का केवल अनुमान ही लगा सकते हैं. लेकिन इस मामले में Zee News के एडिटर-इन-चीफ सुधीर चौधरी ने अपने प्राइम टाइम शो DNA में जो उदाहरण पेश किया, उसने सभी दर्शकों को बहुत प्रभावित किया. वह उदाहरण हम आपके सामने रखना चाहते हैं-
जब भगवान श्री कृष्ण ने राक्षस कंस का वध किया था तो इसका बदला लेने के लिए जरासंध ने मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया था. भगवान श्री कृष्ण उसे हर बार पराजित कर छोड़ देते थे, यानी उसका वध नहीं करते थे. इस बारे में पूछने पर श्री कृष्ण जी ने कहा कि ‘जरासंध अधर्मी है और वह जितनी बार मुझसे युद्ध करने के लिए आएगा, अधर्मियों को इकट्ठा करके लेकर आएगा और इस तरह हम अपने ही स्थान पर बैठे हुए सभी अधर्मियों को समाप्त कर सकते हैं…नहीं तो हम कहां-कहां इन अधर्मियों को ढूढ़ते फिरेंगे.”
यानी कई बार दुश्मनों को छोड़ना केवल इसलिए जरूरी होता है, क्योंकि वे आपसे दुश्मनी निभाकर भी आपका ही काम आसान कर रहे होते हैं. इसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने जरासंध से बार-बार युद्ध करने की बजाय मथुरा को छोड़ने का ही फैसला ले लिया और गुजरात में द्वारिका नाम की एक नई भव्य नगरी का निर्माण किया. यानी भगवान श्री कृष्ण ने एक ऐसे युद्ध पर अपनी ऊर्जा व्यर्थ करना उचित नहीं समझा, जिसका कोई नतीजा नहीं निकलना था. उन्होंने अपनी यही ऊर्जा दूसरे जरूरी और अच्छे कार्यों में लगाई.
ये किसान आंदोलन ही था या कुछ और?
प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) ने तीनों कृषि कानूनों को वापस (return of farm laws) लेने का फैसला कर लिया है, जिसकी मांग प्रदर्शनकारी किसान लगभग एक साल से कर रहे थे और उनका यह कहना था कि तीनों कानूनों के रद्द होते ही वे अपना आंदोलन समाप्त कर देंगे, लेकिन पीएम मोदी के फैसले के बाद किसान संगठनों ने सकपकाकर अब जिस तरह अपनी नई मांगें सामने रखी हैं, उससे तो अब यही पता चलता है कि उनका यह आंदोलन कृषि कानूनों को लेकर था ही नहीं.
इस आंदोलन की आड़ में उनका मकसद कुछ और ही है…और इसीलिए यह आंदोलन इतनी आसानी से खत्म होने वाला भी नहीं है. दरअसल, प्रदर्शनकारी किसानों ने भी ये सोचा नहीं था कि पीएम मोदी एकदम से इन तीनों कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर देंगे. अब वे सब कोई और रास्ता न दिखने पर उन मांगों के साथ आ रहे हैं, जिनका किसानों से कोई लेना-देना ही नहीं है.
क्या वाकई में पीएम मोदी के इस फैसले का होगा ये असर?
ये पहली बार है कि मोदी सरकार ने अपने ही बनाए किसी कानून (return of farm laws) को वापस लिया हो, लेकिन पीएम मोदी (PM Modi) के इस फैसले से लोगों की एक बड़ी चिंता जरूर सामने आई है. कुछ लोग देश के भविष्य को लेकर बहुत चिंता में हैं कि अगर इस तरह सड़कों को घेरकर, अराजकता फैलाकर जबरन अपनी मांगें मनवाई जा सकती हैं, संसद में लाया गया कानून भी वापस करवाया जा सकता है, तो इससे उन तत्वों का दुस्साहस बढ़ सकता है, जो अपनी मनमानी मांगों को लेकर आए दिन सड़कों पर आ जाते हैं.
यह शुभ संकेत नहीं कि संसद से पारित कानून सड़कों पर उतरे महज कुछ प्रदर्शनकारियों की जिद से वापस होने लगें. यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि किसानों का भला करने वाले कृषि कानून सस्ती राजनीति की भेंट चढ़ गए. इससे नई सरकार के नाम से हर फैसले पर विरोध खड़ा करने वाले विपक्ष को भी यही लगेगा कि लगातार दबाव बनाकर सरकार को झुकाया जा सकता है.
लोकतंत्र में लोगों की इच्छाओं का सम्मान होना जरूरी है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि जोर-जबर्दस्ती को भी आकांक्षाओं का नाम दे दिया जाए. ‘अति’ हर चीज की बुरी होती है. लेकिन अब जब सरकार का मानना यही है कि वह कुछ किसानों को अपनी बात नहीं समझा पाई तो फिर उसे उन कारणों पर ही ध्यान देने की जरूरत है, जिनके चलते ऐसी नौबत आई. फिलहाल जनता को ऐसे डर भी अपने मन से निकाल देने चाहिए, क्योंकि कृषि कानूनों को वापस लेने के फैसले का असर सामने आना अभी बाकी है.
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