Shri Ram Ayodhya (Ramayan)
भगवान श्रीराम (Shri Ram) के पिता और परम प्रतापी महाराज दशरथ जी (Raja Dashrath) के समय की अयोध्या नगरी (Ayodhya) का वर्णन करते हुए रामायण (Ramayan) के एक अंक में कहा गया है कि-
“अयोध्या नगरी इंद्र की पुरी के समान बड़ी सुंदर ढंग से बसी हुई थी. उसके आठ कोने थे. बड़ी सुंदर लंबी-चौड़ी पक्की सड़कें बनी हुई थीं. नगरी की प्रधान सड़कें तो बहुत ही लंबी-चौड़ी थीं, जिन पर रोज सुगंधित फूल बिखेरे जाते थे. सड़कों के दोनों ओर सुंदर वृक्ष लगे हुए थे. बड़ी सघन बस्ती थी. बड़े-बड़े कारीगर वहां रहते थे. नगर में व्यापारी भी अनेक होते थे. अनेकों बाजार थे. सब प्रकार के यंत्र (मशीनें) और युद्ध के सामान तैयार मिलते थे.
अयोध्या नगरी समतल भूमि पर बसी हुई थी. सात-मंजिले बड़े-बड़े मकान थे. खूब धान होता था और अनेक प्रकार के और पदार्थ होते थे. हजारों महारथी नगरी में रहते थे. वेद-वेदांत के ज्ञाता, अग्निहोत्री और गुणी स्त्री-पुरुषों से नगरी भरी हुई थी. महर्षियों के समान अनेकों महात्मा वहां रहा करते थे. स्त्रियां विदुषी, गुणवती और अपने-अपने धर्म का पालन करने वाली होती थीं.
राजा के द्वारा पूर्ण रूप से सुरक्षित था नगर
नगरी राजा के द्वारा पूर्ण रूप से सुरक्षित थी. अटारियों के ऊपर ध्वजाएं फहराया करती थीं. नगर की चहारदीवारों पर सैकड़ों तोपें लगी हुई थीं. बड़े मजबूत किवाड़ लगे हुए थे. नगर के चारों ओर शाल वृक्ष की दूसरी चहारदीवार थी. राजा के किले के चारों ओर गहरी खाई थी. अनेक सामंत राजा और शूरवीर वहां रहा करते थे. राजा के महलों में रत्न जड़े हुए थे.
विद्या-बुद्धि-निपुण, अग्नि के समान तेजस्वी और शत्रुओं के अपमान को सहन न करने वाले योद्धाओं से अयोध्या उसी प्रकार भरी हुई थी, जैसे गुफाएं सिंहों से भरी रहती हैं. अनेक प्रकार के घोड़े और बड़े-बड़े मतवाले हाथियों से नगरी पूर्ण थी. इस नगरी का नाम अयोध्या इसीलिए पड़ गया था, क्योंकि वहां कोई भी शत्रु युद्ध के लिए नहीं जा सकता था. अयोध्या का शाब्दिक अर्थ है- जिसके साथ युद्ध करना असंभव हो.
कैसे थे अयोध्या के लोग
उस समय उस सुंदर नगरी अयोध्या में निरंतर आनंद में रहने वाले, अनेक शास्त्रों का श्रवण करने वाले, धर्मात्मा, सत्यवादी, लोभरहित और अपने ही धन में संतुष्ट रहने वाले मनुष्य रहते थे. ऐसा एक भी गृहस्थ नहीं था, जिसका धन आवश्यकता से कम हो, या जिसके पास इहलोक और परलोक के सुखों के साधन न हों. सभी गृहस्थों के घर गौ (गाय), घोड़े और धन-धान्य से पूर्ण थे.
अयोध्या में नहीं होते थे अपराध
कामी, कृपण, क्रूर, मूर्ख और नास्तिक तो ढूंढने पर भी नहीं मिलते थे. क्षुद्र विचार वाले (छोटी सोच वाले), चरित्रहीन, चोर, मांसाहारी आदि नहीं होते थे. अयोध्या में कोई भी नास्तिक, झूठा, ईर्ष्या करने वाला, अशक्त और मूढ़ नहीं था. सभी बहुश्रुत (अनेक विषय का ज्ञान सुनने और उनका स्मरण रखने वाले) थे. ऐसा कोई न था, जो वेदों के छः अंगों को न जानता हो, व्रत-उपवास आदि न करता हो, या दीन हो या दुखी हो, या पागल हो.
वहां के सभी स्त्री-पुरुष धर्मात्मा इंद्रिय-निग्रही (अपनी इंद्रियों को वश में रखने वाले), हर्षयुक्त, सुशील और महर्षियों के समान पवित्र थे. सभी स्नान करते थे, वस्त्र-कुंडल-मुकुट-माला आदि धारण करते, सुगंधित वस्तुओं का लेप करते, उत्तम भोजन करते और दान देते थे. वहां के जितेन्द्रिय ब्राह्मण निरंतर अपने कर्मों में लगे रहते थे. वे दान देते थे, विद्याध्ययन करते थे, लेकिन निषिद्ध दान कोई नहीं लेता था.
अयोध्या में सभी स्त्री-पुरुष सुंदर थे और धर्मात्मा राजा के भक्त थे. चारों वर्णों के स्त्री-पुरुष देवता और अतिथि की पूजा करने वाले, बाहर से आए दुखियों को आवश्यकतानुसार देने वाले, कृतज्ञ और शूरवीर थे. वे धर्म और सत्य का पालन करते थे. दीर्घजीवी थे और पुत्र-पुत्री-पौत्रादि से युक्त थे. सभी वर्ण अपनी-अपनी इच्छानुसार अपने सतकर्मों में लगे रहते थे.”
क्या आज के समय के किसी भी देश से उस समय की अयोध्या की तुलना की जा सकती है?
कैसे थे महाराज दशरथ?
इसी अंक में महाराज दशरथ जी के चरित्र के बारे में बताते हुए लिखा गया है कि-
“जिनके यहां भक्तिप्रेमवश, साक्षात सच्चिदानंद घन प्रभु ने ही पुत्र रूप में अवतार लिया हो, उन परम भाग्यवान महाराज श्री दशरथ जी की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है? महाराज दशरथ भगवान को पुत्र रूप में पाकर अपरिमित आनंद का अनुभव करने के लिए ही संसार में पधारे थे. श्रीराम के लिए राजा दशरथ ने कठोर तपस्या करके, जन्म-जन्मांतर तक उनकी प्रतीक्षा की थी, उन्होंने अपने जीवन का परित्याग भी भगवान श्रीराम के प्रेम में ही कर दिया… “रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई.”
श्री दशरथ जी परम तेजस्वी, मनु महाराज की तरह ही प्रजा की रक्षा करने वाले थे. वे वेदों के ज्ञाता, विशाल सेना के स्वामी, दूरदर्शी, अत्यंत प्रतापी, नगर और देशवासियों के प्रिय, महान यज्ञ करने वाले, धर्मप्रेमी, स्वाधीन, महर्षियों के समान सद्गुणों वाले, राजर्षि, त्रैलोक प्रसिद्ध, पराक्रमी, शत्रुनाशक, अतिरथी, उत्तम मित्रों से मिलने वाले, जितेंद्रिय, धन-धान्य के संबंध में कुबेर और इंद्र के समान, सत्यप्रतिज्ञ एवं धर्म, अर्थ और काम का शास्त्रानुसार पालन करने वाले थे.
महाराज दशरथ की सहायता के लिए देवता भी सदा तैयार रहते थे. महाराज दशरथ ने अनेक यज्ञ किए थे. इनमें उन्होंने अनेक प्रकार की वस्तुओं के अतिरिक्त दस लाख दुग्धवती गायें, 10 करोड़ सोने की मुहरें और 40 करोड़ चांदी के सिक्के दान दिए थे.
महाराज दशरथ जी का मंत्रिमंडल
महाराज दशरथ जी के मंत्रिमंडल में महामुनि ब्रह्मर्षि वशिष्ठ, वामदेव जैसे विद्याविनयसंपन्न, कार्यकुशल, जितेंद्रिय, श्रीसंपन्न, पवित्र-हृदय, शास्त्रज्ञ, शस्त्रज्ञ, प्रतापी, पराक्रमी, राजनीतिक विचारक, सावधान, राजा का अनुसरण करने वाले, तेजस्वी, क्षमावान, कीर्तिमान, हंसमुख, काम-क्रोध और लोभ से बचे हुए और सत्यवादी स्त्री-पुरुष विद्यमान थे.”
महाराज दशरथ जी सर्वगुण संपन्न थे. उन्होंने एक आदर्श राजा के सभी कर्तव्यों को निभाया. युवावस्था के दौरान उनमें केवल एक ही दोष था, कि वो शिकार पर जाते थे. इसी दोष के कारण अपने हाथों भयंकर पाप हो जाने के बाद उन्होंने कभी शिकार न खेलने की प्रतिज्ञा कर ली थी.
श्रीराम के वनगमन के बाद भारी दुःख और वियोग से पीड़ित महाराज दशरथ अपने जीवन की एक घटना का स्मरण करते हुए बताते हैं कि, “मैं शब्दभेदी बाण विद्या जानता था. दूर से बिना देखे ही कोई भी आवाज सुनकर उसी पर निशाना लगाने में निपुण था. जब मेरा विवाह नहीं हुआ था, जब मैं केवल युवराज था, तब अपने यौवन के मद में शिकार खेला करता था. चारों दिशाओं में मेरी धनुर्विद्या की बड़ी ख्याति थी.”
दशरथ जी आगे कहते हैं, “उन्हीं दिनों एक रात्रि मैं सरयू के किनारे शिकार पर गया था, ये सोचकर कि जैसे ही कोई पशु पानी पीने के लिए नदी के किसी किनारे में आएगा, तो मैं उस पर शब्दभेदी बाण चला दूंगा… और उसी में मुझसे भयंकर पाप हो गया.”
राजा दशरथ का बाण श्रवण कुमार जी पर लगा था, जिनकी तुलना आदर्श पुत्र के रूप में स्वयं भगवान श्रीराम जी से की जाती है. श्रवण कुमार की मृत्यु का समाचार सुनकर उनके दोनों अंधे माता-पिता ने दशरथ जी को श्राप देते हुए अपने प्राण त्याग दिए.
अगर श्रवण कुमार के माता-पिता जीवित रह पाते, तो निश्चय ही राजा दशरथ उनकी जीवनभर सेवा अपने माता-पिता की तरह ही करते. लेकिन ऐसा हो न सका. राजा दशरथ को इस घटना को लेकर अत्यंत पछतावा और दुःख था. उन्होंने अपने इस पाप का हर प्रकार से प्रायश्चित किया. श्रीराम जी के वनगमन के बाद उन्होंने अपने जीवन की इसी घटना के बारे में अपनी पत्नी कौशल्या जी को बताते हुए कहा-
“कर्म ही सबसे शक्तिशाली है…”
नोट- पहले के क्षत्रिय राजा अपनी शस्त्रविद्या के अभ्यास (प्रैक्टिस) या किसी नरभक्षी को मारने के लिए शिकार पर जाया करते थे, लेकिन वे मांस का सेवन नहीं करते थे. जब तक भारतवर्ष में मनुस्मृति और वेदों के अनुसार विधान चला, तब तक राक्षसों को छोड़कर कहीं कोई भी व्यक्ति मांस का सेवन नहीं करता था, क्योंकि मनुस्मृति और वेदों में मांस के सेवन पर सख्त प्रतिबंध है.
देखें- देवताओं द्वारा भगवान श्री विष्णु जी की स्तुति
श्रीराम जी के साथ विवाह के लिए सीता जी की प्रार्थना
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