Netaji Subhash Chandra Bose
इतिहास की ज्यादातर किताबों में बताया गया है कि “भारत की पहली अस्थाई सरकार का गठन 2 सितंबर 1946 को हुआ था और जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) इस सरकार के प्रधानमंत्री थे..” जबकि आजादी के 4 साल पहले ही 1943 में भारत की पहली अस्थाई सरकार बनाई गई थी, जिसका गठन नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Netaji Subhas Chandra Bose) ने सिंगापुर में किया था. यानी सुभाष चंद्र बोस भारत के पहले नेचुरल प्राइम मिनिस्टर थे.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने देश की आजादी में एक बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी. उन्हें केवल भारत की स्वतंत्रता का लालच था, जबकि उस समय के बहुत सारे नेता ऐसे थे, जो आजादी के साथ-साथ आजादी के बाद मिलने वाली सत्ता के भी लालची थे.
साल 1939 में जब दूसरा विश्व युद्ध (Second World War) शुरू हुआ, तब महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू (Mahatma Gandhi and Jawaharlal Nehru) का यह मानना था कि भारत को इस युद्ध में अंग्रेजों का साथ देना चाहिए ताकि अंग्रेज खुश होकर भारत को आजाद कर दें.
जबकि सुभाष चंद्र बोस लगातार ये कह रहे थे कि भारत को इस विश्व युद्ध का फायदा उठाकर अंग्रेजों से आजादी हासिल करनी चाहिए, क्योंकि अंग्रेज इस समय खुद दबाव में हैं, जिसका फायदा भारतीयों को उठाना चाहिए.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस उस समय देश में इस हद तक लोकप्रिय थे कि उस समय का बच्चा-बच्चा यह कहने लगा था कि “उन्हें बोस चाहिए और बोस को आजादी चाहिए.”
सुभाष चंद्र बोस की लोकप्रियता महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं की तुलना में बहुत ज्यादा थी. बोस की लोकप्रियता की वजह से ही महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें कांग्रेस के अध्यक्ष पद (Congress President) से हटाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी थी और कई रणनीतियां अपनाई थीं.
आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा (Autobiography of Dr. Rajendra Prasad) में इस घटना का विस्तार से जिक्र किया गया है, जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं-
1885 (कांग्रेस पार्टी की स्थापना) से लेकर 1938 तक यानी 52 सालों तक कांग्रेस में कभी भी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव नहीं हुआ. इस परंपरा की शुरुआत 1939 में हुई थी, जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस बतौर कांग्रेस अध्यक्ष अपना एक साल का कार्यकाल पूरा कर चुके थे.
लेकिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर महात्मा गांधी की तरफ से यह दबाव डाला जा रहा था कि वे जवाहरलाल नेहरू के लिए कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ दें. जिस समय महात्मा गांधी जवाहरलाल नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए लड़ाई लड़ रहे थे, उस समय जवाहरलाल नेहरू भारत में उपस्थित नहीं थे. उस दौरान वे यूरोप में छुट्टियां मनाने के लिए गए हुए थे.
चूंकि जवाहरलाल नेहरू इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानते थे कि सुभाष चंद्र बोस देश के लोगों और क्रांतिकारियों के बीच महात्मा गांधी से अधिक लोकप्रिय हैं, यहां तक कि कांग्रेस पार्टी के नेता और कार्यकर्ता भी महात्मा गांधी से ज्यादा सुभाष चंद्र बोस को ही पसंद करते थे…
इसी के चलते, जवाहरलाल नेहरू ने यूरोप से वापस आते ही महात्मा गांधी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव न लड़ने की बात कही, साथ ही यह भी कहा कि अगर महात्मा गांधी के कहने पर भी सुभाष चंद्र बोस पीछे नहीं हटते, यानी अगर सुभाष चंद्र बोस चुनाव लड़ते हैं, तो फिर जवाहरलाल नेहरू सुभाष चंद्र बोस के विरोधी गुट का साथ देंगे.
यानी उस समय कांग्रेस पार्टी (Congress) में सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ एक गुट तैयार हो गया था, जिसका नेतृत्व खुद महात्मा गांधी कर रहे थे. महात्मा गांधी के इस गुट में जेबी कृपलानी, जवाहरलाल नेहरू और डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे नेता शामिल थे.
लेकिन सुभाष चंद्र बोस अपने खिलाफ खड़े हुए इस विरोधी गुट से बिल्कुल नहीं घबराए. उन्होंने अध्यक्ष पद के लिए अपना नामांकन दाखिल किया और सबको बताया कि वह पीछे नहीं हटेंगे और चुनाव जरूर लड़ेंगे. इस पर महात्मा गांधी ने सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए पट्टाभि सीतारमैया (Pattabhi Sitaramayya) को अपना उम्मीदवार बनाया.
दरअसल, महात्मा गांधी को यह लग रहा था कि उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को अपना समर्थन दिया है, इसलिए कांग्रेस पार्टी के बहुत से लोग सुभाष चंद्र बोस को वोट न देकर उन्हीं के उम्मीदवार को विजयी बनाएंगे. लेकिन जब चुनाव के नतीजे सामने आए, तो सब हैरान रह गए…
सुभाष चंद्र बोस को 1580 वोट मिले थे, जबकि महात्मा गांधी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को 1377 वोट हासिल हुए थे. यानी महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे लोग मिलकर भी चुनाव में सुभाष चंद्र बोस को हरा न सके. उनकी इस जीत ने महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू को बहुत हताश कर दिया था, क्योंकि इससे एक बात पूरी तरह साफ हो गई थी कि कांग्रेस पार्टी में सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी से ज्यादा लोकप्रिय थे.
इसी के साथ, इतिहास की कुछ किताबों में यह भी बताया गया है कि जब सुभाष चंद्र बोस चुनाव जीतने के बाद फिर से कांग्रेस पद अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभालने लगे, तब महात्मा गांधी को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई. इसके बाद बोस को पार्टी के अंदर कांग्रेस के नेताओं और अलग-अलग समितियों का सहयोग मिला बंद हो गया. उनके लिए ऐसे हालात पैदा कर दिए गए कि वे पार्टी में अध्यक्ष पद पर रहते हुए भी कोई फैसला नहीं ले सकते थे. इस बात से नेताजी सुभाष चंद्र बोस बहुत आहत हुए थे.
जब सुभाष चंद्र बोस यह बात समझ गए कि वह कांग्रेस के साथ रहकर भारत की आजादी की लड़ाई नहीं लड़ पाएंगे, तब उन्होंने चुनाव जीतने के 2 महीने बाद ही बिना किसी संकोच के न केवल अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, बल्कि कांग्रेस पार्टी को ही छोड़ दिया और अपनी खुद की एक नई पार्टी बना ली, जिसका नाम था ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ (Forward Bloc), क्योंकि उनकी विचारधारा महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से बहुत अलग थी. सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजों के प्रति आक्रामक थे.
इस्तीफे के बाद सुभाष चंद्र बोस की हिम्मत को तोड़ने के बहुत प्रयास किए गए. साल 1940 में उन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने हाउस अरेस्ट भी कर लिया. नेताजी सुभाष चंद्र बोस किसी तरह अंग्रेजों की कैद से भाग गए और अंग्रेजों से छुपकर जर्मनी के बर्लिन शहर में पहुंच गए, जहां उन्होंने युद्ध लड़ने की ट्रेनिंग ली. इन सबके बीच सुभाष चंद्र बोस के जीवन में एक बहुत बड़ा टर्निंग पॉइंट आया.
सुभाष चंद्र बोस जब जर्मनी में थे, तब ‘आजाद हिंद फौज’ (Azad Hind Fauj) के संस्थापक राम बिहारी बोस (Ram Bihari Bose) ने उन्हें सिंगापुर आने का निमंत्रण भेजा और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने इसे स्वीकार कर लिया. वहां सुभाष चंद्र बोस का जबरदस्त स्वागत हुआ. सिंगापुर पहुंचने के बाद सुभाष चंद्र बोस को ‘आजाद हिंद फौज’ का प्रमुख चुन लिया गया.
इसके बाद सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्टूबर 1943 को भारत की पहली अस्थायी सरकार (First provisional government of India) का गठन किया, जिसका नाम था ‘अर्जी हुकूमत आजाद हिंद’. इस सरकार में सुभाष चंद्र बोस खुद प्रधानमंत्री थे और उसी के साथ वे ही विदेश मंत्री और युद्ध मंत्री भी थे.
उस समय इस सरकार को 12 देशों ने मान्यता भी दे दी थी, जिनमें जर्मनी, इटली, जापान, इंडोनेशिया, म्यांमार जैसे देश शामिल थे और सोवियत संघ (Soviet Union) ने भी इस सरकार को अपनी मान्यता दे दी थी. सुभाष चंद्र बोस ने भारत के पहले बैंक की भी नींव रखी थी, जिसे ‘राष्ट्रीय आजाद बैंक’ कहा जाता था. इसी के साथ, उन्होंने अपनी अलग करेंसी का भी निर्माण किया और अपना एक खुफिया विभाग भी बनाया था.
सुभाष चंद्र बोस की ही इन कोशिशों का नतीजा था कि दिसंबर 1943 में आजाद हिंद फौज ने अंडमान निकोबार द्वीप समूह (Andaman and Nicobar Islands) को ब्रिटिश हुकूमत से आजाद भी करा दिया था. यानी यह भारत का पहला ऐसा क्षेत्र था, जहां अंग्रेजों से सबसे पहले आजादी मिली थी और यह आजादी लेकर आए थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस. उन्होंने 30 दिसंबर 1943 को वहां अपना झंडा भी फहराया था.
जिस समय नेताजी सुभाष चंद्र बोस यह सब कर रहे थे, उस समय भारत में एक अलग ही माहौल था. महात्मा गांधी उस समय ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ (Quit India Movement) चला रहे थे और उन्हें अंग्रेजी सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था. इसी के साथ, जवाहरलाल नेहरू भी 1942 से 1945 तक महाराष्ट्र के अहमदनगर किले में बंद थे.
हालांकि जवाहरलाल नेहरू के लिए कैद, कैद की तरह नहीं थी. उनके लिए तमाम तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराई गई थीं, जैसे अखबार-किताबें पढ़ने की पूरी छूट. उनके लिए अखबार और किताबें पढ़ने के लिए आते थे, बागवानी करने के लिए भी खास इंतजाम किए गए थे, ताकि जवाहर लाल नेहरू का कैद में मन लगा रहे.
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