Surdas ji Ka Sahityik Parichay
भक्त एवं कवि सूरदास जी दृष्टिहीन थे लेकिन भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति में अपने प्रज्ञा-चक्षु से देखकर लीलामाधव के बालपन का जो वर्णन किया है, वह अद्भुत है. ऐसा तब होता है जब भक्त अपने आराध्य देव की भक्ति के उच्चतम स्तर पर पहुँच जाता है. सूरदास जी ने कोई भी रचना एक कवि के रूप में एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करने के उद्देश्य से नहीं की. वे तो श्रीकृष्ण के प्रेम में गाते चले गए, और यही कारण है कि बंद आँखों से जो कुछ सूरदास जी ने देख और दिखा दिया, उसका शतांश भी खुली आँखों वाले नहीं देख पाते.
भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि सूरदास हिंदी साहित्य के ‘सूर्य’ कहे गए हैं. कृष्णभक्त कवियों में उनकी समता करने वाला कोई दूसरा नहीं दिखाई देता. सूरदास जी के जन्मकाल के विषय में मतभेद है. भारतीय विद्वानों की यह परंपरा रही है कि वे अपने नाम से नहीं, बल्कि अपने कार्यों से अमर होना चाहते हैं. इनका जन्म वैशाख शुक्ल छठ संवत १५३५ को मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता (रेणुका क्षेत्र) ग्राम में हुआ था. कुछ विद्वान इनका जन्म दिल्ली के निकट स्थित सीही नामक ग्राम में मानते हैं.
सूरदास जी सारस्वत ब्राह्मण रामदास के पुत्र थे. सूरदास जी जन्मांध थे या बाद में नेत्रहीन हुए, इस सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है. दरअसल, अधिकतर विद्वानों के अनुसार सूरदास जी जन्मांध थे, पर सूरदास जी ने प्रकृति के नाना व्यापारों, मानव-स्वभाव, एवं चेष्टाओं आदि का जैसा सूक्ष्म वर्णन किया है, उसे देखते हुए ही कुछ विद्वान यह मानते हैं कि सूरदास जी बाद में नेत्रहीन हुए होंगे.
सूरदास जी में आरम्भ से ही भगवद्भक्ति थी. मथुरा के निकट गऊघाट पर ये भगवान् के प्रति विनय के पद गाते हुए निवास करते थे. वहीं इनकी भेंट महाप्रभु वल्लभाचार्य से हुई, जिन्होंने इनके सरस पद सुनकर इन्हें अपना शिष्य बनाया. सूरदास जी गोवर्धन पर स्थित श्रीनाथजी के मंदिर में कीर्तन करने लगे, जहाँ लोग इन्हें सुनने के लिए आते रहते थे और कृष्णभक्ति में डूब जाते थे. इन्हें सुनने वाले लोग इनके पदों को गुनगुनाते रहते थे.
श्रीनाथजी के मंदिर में ही सूरदास जी ने श्रीमद्भागवत में वर्णित कृष्णचरित्र का ललित पदों में गायन किया. गुरु के प्रति इनकी अगाध श्रृद्धा थी. अंत समय में इन्होने अपने गुरु महाप्रभु वल्लभाचार्य जी का स्मरण निम्नलिखित शब्दों में किया था-
भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो।
श्रीवल्लभ नखचंद्र प्रभा बिनु, सब जग माँझ अँधेरो॥
सूरदास जी की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में सम्वत १६४० में हुई. मृत्यु के समय इन्होंने यह पद गाकर अपने प्राण त्यागे- खंजन नैन रूप रस माते।
सूरसागर (Sursagar)
सूरदास जी की मुख्य रचना ‘सूरसागर’ के नाम से संकलित है. यह सूरदास जी की सर्वप्रमुख एवं सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति है, जिसमें श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध की कथा को अद्भुत तन्मयता से गाया गया है. इन ग्रन्थ में भगवान् श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर उनके मथुरा जाने तक की कथा अत्यंत विस्तार से कह दी गई है. सूरसागर विश्व के महानतम ग्रंथों में से एक है.
सूरसागर में वात्सल्य और श्रृंगार- दो ही प्रमुख रस हैं, जिन्हें दृष्टिहीन सूरदास जी ने पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया है. इसी ग्रन्थ के कारण वात्सल्य को स्वतंत्र रस की गरिमा भी प्राप्त हुई. सूरसागर की भाषा परिष्कृत एवं अतीव मधुर ब्रज भाषा है. कहा जाता है कि सूरसागर में मूलतः सवा लाख पद थे, किन्तु अब तक छह-सात हजार से अधिक पद प्राप्त नहीं हो पाए हैं.
सूरदास जी ने भगवान् के लोकरंजक (संसार को आनंदित करने वाले) रूप को लेकर उनकी लीलाओं का गायन किया है. उनका उद्देश्य किसी को उपदेश देना नहीं था. वे केवल श्रीकृष्ण की मनोहारिणी लीलाओं के रस में डूबे रहते थे. श्री वल्लभाचार्य जी के शिष्य बनने से पहले सूरदास जी विनय के पद ही गाते रहते थे, जिसमें दास्य भाव की प्रधानता और भगवान् की महिमा का वर्णन रहता था-
मो सम कौन कुटिल खल कामी।
जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ नोनहरामी॥
हरि मैं सब पतितन को नायक।
की करि सकै बरावरि मेरी, और नहीं कोउ लायक।
किन्तु श्री वल्लभाचार्य जी से मिलते ही उनकी उपासना में सख्यभाव आ जाता है, जिसमें श्रीकृष्ण की लीलाओं का गायन प्रमुख था. तब सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की बाल्यावस्था व किशोरावस्था की लीलाओं का बड़ा ही हृदयहारी गायन किया है. श्री वल्लभाचार्य जी का कहना था कि भगवान की लीलाओं का कोई प्रयोजन नहीं. भगवान लीला करने के लिए ही लीला करते हैं.
यदि काव्य की दृष्टि से देखा जाए, तो स्वभावतः ही सूरदास जी का काव्य क्षेत्र मुख्य रूप से वात्सल्य एवं श्रृंगार- इन दोनों रसों तक ही सिमटकर रह गया, पर इस सीमित क्षेत्र में भी सूरदास जी की भक्ति और प्रतिभा ने जो कमाल किया, वह बेजोड़ है. सूरदास जी इन दोनों रसों का कोना-कोना झाँक आये.
वात्सल्य को पहले स्वतंत्र रस नहीं माना जाता था, पर सूरदास जी ने उसके संयोग और वियोग- दोनों पक्षों का ऐसा सूक्ष्म एवं सरल वर्णन किया, कि काव्यशास्त्र के पंडितों को वात्सल्य को एक स्वतंत्र रस की मान्यता देनी पड़ी. वात्सल्य रस का जैसा सरस और विशद वर्णन सूरदास जी ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है. सूरदास जी का सम्पूर्ण गायन ब्रज भाषा में है. उनकी भाषा में सरसता, कोमलता और प्रवाहमयता सर्वत्र है.
सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की बाल सुलभ चेष्टाओं के रूप में बाल लीलाओं का बड़ा ही सुन्दर गायन किया है. न केवल बाह्या चेष्टाओं का, अपितु उनके मनोभावों को भी बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है. निश्चय ही सूरदास जी को नित्य भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन होते होंगे. श्रीकृष्ण की बालक्रीड़ाओं के निम्न चित्र द्रष्टव्य हैं, जिनमें अगणित भावरत्नों से सूरदास जी के पद जगमगा रहे हैं-
कबहुँ पालक हरि मूँद लेत हैं कबहुँ अधर फरकावैं।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥
इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै।
जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नंद-भामिनि पावै॥
सोभित कर नवनीत लिये।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किये॥
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नंद के आँगन,
निज प्रतिबिम्ब पकरिबे धावत॥
काहे को आरि करत मेरे मोहन!
यों तुम आँगन लोटी।
जो माँगहु सो देउँ मनोहर, यहैं बात तेरी खोटी॥
मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी
किती बार मोहि दूध पियत भइ,
यह अजहूँ है छोटी॥
मैया मैं नहिं माखन खायो।
जानि परै ये सखा सबै मिलि मेरो मुख लपटायो॥
भगवान् श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर उनके प्रति नन्द-यशोदा जी के उद्गार-
तुम तो टेब जानतिहि है हो, तऊ मोहि कहि आवै।
प्रातहिं उठत तुम्हारे कान्हहिं माखन-रोटी भावै॥
तेल उबटनों अरु तातो जल देखत हीं भजि जाते।
जोइ-जोइ मांगत सोइ-सोइ देती, क्रम-क्रम करिकैं न्हाते॥
नन्द ब्रज लीजै ठोकि बजाय
देहु विदा मिलि जाहिं मधुपुरी,
जहँ गोकुल के राय॥
वृंदावन में श्रीकृष्ण और गोपियों का संपूर्ण जीवन क्रीड़ामय है. इसमें श्रीकृष्ण और राधाजी के अंग-प्रत्यंग की शोभा का अनेकानेक पदों में अत्यंत चमत्कारपूर्ण वर्णन सूरदास जी ने किया है. इसके बाद सूरदास जी वृंदावन की करील कुंजों, सुंदर लताओं, हरे-भरे कछारों के बीच खिली हुई चांदनी और कोकिल-कूजन के उद्दीपक परिवेश में श्रीकृष्ण, राधा और गोपिकाओं की विभिन्न क्रीड़ाओं का वर्णन करते हैं, जैसे रासलीला, दानलीला, मानलीला आदि. इनके अतिरिक्त मुरलीमाधुरी, माखनचोरी, चीरहरण आदि सभी प्रसंगो की प्रस्तुति सूरदास जी के द्वारा हुई है.
बूझत स्याम, “कौन तू गोरी?
कहां रहति काकी है बेटी देखी नाहिं कहूं ब्रज खोरी॥”
“काहे को हम ब्रजतन आवति? खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति श्रवनन नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥”
“तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं? खेलन चलौं संग मिलि जोरी।”
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरई राधिका भोरी॥
भ्रमरगीत – भ्रमरगीत में सूरदास जी ने गोपिकाओं के अनन्य प्रेम और श्रीराधा जी की विरह वेदना का चित्र दिखाने का प्रयास किया है. ऐसा विरह प्रेम की प्रगाढ़ता से ही उत्पन्न होता है, जिसका अनुभव भी एक रसमग्न और भक्त हृदय ही कर सकता है. सूरदास जी का हृदय ऐसा ही परम भावुक भक्त हृदय था जिसमें सूक्ष्म से सूक्ष्म अन्तर्दशाएं प्रत्यक्ष होती चलती हैं. वस्तुतः भ्रमरगीत अपना उपमान आप है.
सूर सूर तुलसी शशि?
गोस्वामी तुलसीदास जी तथा सूरदास जी हिंदी काव्य क्षेत्र के ध्रुव प्रकाश-स्तंभ हैं. दोनों ही श्रीहरि के परमभक्त थे. दोनों का हृदय भक्ति भाव से भरा हुआ है. दोनों की रचनाएँ मात्र एक काव्य नहीं, मंत्र हैं. सूरदास और तुलसीदास जी दोनों ही महान हैं और दोनों ही अपने-अपने स्थान पर बेजोड़ हैं. दोनों ही प्रतिभासंपन्न रससिद्ध कवीश्वर थे और अपने-अपने क्षेत्र में दोनों ने जो रचनाएं कीं, वह उनको संसार के महान कवियों की पंक्ति में अनायास ही बैठा देती हैं.
जहां सूरदास जी की रचनाएं हमें चमत्कृत, हर्षित व आनंदित कर देती हैं, तो वहीं गोस्वामी जी की रचना हमें भक्तिसामृतसिंधु में डुबोकर आनंदित करने के साथ-साथ जीवन के प्रति अपने महान दायित्व की भावना जगाकर उसे पूरा करने की प्रेरणा देती हैं. गोस्वामी जी और सूरदास जी, दोनों ही रचना करते समय या पदों को गाते समय भगवान की लीलाओं के वर्णन में पूरी तरह तन्मय हो जाते हैं. इस प्रकार दोनों की तुलना द्वारा एक को दूसरे से बड़ा या छोटा बताना कठिन ही नहीं, अपितु अनुचित भी है.
गोपाल गोकुल वल्लभे,
प्रिय गोप गोसुत वल्लभं।
चरणारविन्दमहं भजे,
भजनीय सुरमुनि दुर्लभं॥
घनश्याम काम अनेक छवि,
लोकाभिराम मनोहरं।
किंजल्क वसन किशोर मूरति,
भूरिगुण करुणाकरं॥
सिरकेकी पच्छ विलोलकुण्डल,
अरुण वनरुहु लोचनं।
कुजव दंस विचित्र सब अंग,
दातु भवभय मोचनं॥
कच कुटिल सुन्दर तिलक,
ब्रुराकामयंक समाननं।
अपहरण तुलसीदास,
त्रास बिहारी बृन्दाकाननं॥
गोपाल गोकुल वल्लभे,
प्रिय गोप गोसुत वल्लभं।
चरणारविन्दमहं भजे,
भजनीय सुरमुनि दुर्लभं॥
– गोस्वामी तुलसीदास
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