महाभारत (Mahabharat) की ऐतिहासिकता : कब हुआ था महाभारत का युद्ध?

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महाभारत की ऐतिहासिकता

महाभारत का युद्ध कब हुआ था (Mahabharat kab hua tha)?

(1). एहोल से दक्षिण के राजा चालुक्य पुलकेशियन द्वितीय (609-642) के समय के एक शिलालेख में एक जैन-मंदिर बनवाने का उल्लेख है, जिसमें कहा गया है-

त्रिशत्सु त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादितः।
सप्ताब्दशतयुक्तेषु श (ग) तेष्दवब्देषु पञ्च सु।
पञ्चाशत्सु कलौ काले षट्सु पञ्चशतसु च।
समासु समतीतासु शकानामपि भूभुजां॥
(Epigraphia Indica, Vol. VI, p.7)

अर्थात् यह मंदिर महाभारत-युद्ध से 30 + 3000 + 700 + 5 (3735) और शक-राजाओं के 50 + 6 + 500 (556) वर्ष बीतने पर कलियुग में बनवाया गया है.

यदि उपर्युक्त 3,735 वर्षों में से 556 वर्ष निकाल दिए जायें, तो 3179 वर्ष रहते हैं. अर्थात्, कलियुग के 3180वें वर्ष में शक संवत् की शुरुआत हुई, या शक संवत् से 3180 वर्ष पूर्व कलियुग की शुरुआत हुई थी. (वर्ष 2020 में) शक संवत् 1942 चल रहा है. इससे 3180 अर्थात् 1942 + 3180 = 5122 वर्ष पूर्व (3102 ई.पू.) महाभारत का युद्ध और कलियुग का प्रारम्भ हुआ था. इस प्रकार, एहोल के शिलालेख से 3102 ई.पू. में महाभारत-युद्ध होने एवं कलियुग के प्रारम्भ होने का तथ्य मिलता है.

(2). प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में लिखा है-

आसन्मघासु मुनयः शासति पृथ्वीं युधिष्ठिरे नृपत।
षड्द्विकपञ्चद्वियुतः शककालस्तस्य राजस्य॥
(बृहत्संहिता-13.3)

अर्थात् जब युधिष्ठिर राज्य कर रहे थे, तब सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे. उनका संवत् 2526 वर्ष बीतने पर शक संवत् प्रचलित हुआ.

कहने का तात्पर्य यह है कि शक संवत् के प्रारम्भ से 2526 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर का शासन प्रारम्भ हुआ. शक संवत् की शुरुआत 78 ई. में हुई. अतः 2526-78 = 2448, यानी 2448 ई.पू. में युधिष्ठिर का शासन प्रारम्भ हुआ. इस प्रकार बृहत्संहिता के अनुसार 2449 ई.पू. में महाभारत का युद्ध हुआ.

(3). अलग-अलग पुराणों में एक श्लोक कुछ हेरफेर के साथ आया है, जिसके आधार पर कुछ विद्वानों ने महाभारत-युद्ध की तिथि 14वीं-15वीं शताब्दी ई.पू. निर्धारित की है, जैसे-

मत्स्यपुराण एवं विष्णुपुराण में कहा गया है-

महापद्माभिषेकास्तु यावज्जन्मपरीक्षितः।
एकवर्षसहस्रं तु ज्ञेयंपञ्चाशदुत्तरम्॥
(मत्स्यपुराण-273.35)

यावत्परीक्षितो जन्म यावन्नन्दाभिषेचनम्।
एतद्वर्षसहस्र तु ज्ञेयं पञ्चाशदुत्तरम्॥
(विष्णुपुराण-4.24.104)

अर्थात् परीक्षित के जन्म से महापद्मनन्द के अभिषेक तक 1050 वर्ष होते हैं.

महादेवाभिषेकात्तु जन्म यावत्परीक्षितः।
एकवर्षसहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चाशदुत्तरम्॥
(वायुपुराण-99.409)

अर्थात्, परीक्षित के जन्म से महादेव (महापद्मनन्द) के अभिषेक तक 1050 वर्ष होते हैं.

महानन्दाभिषेकान्तं जन्म यावत्परीक्षितः।
एतद्वर्षसहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चाशदुत्तरम्॥
(ब्रह्माण्डपुराण-3.74.227)

अर्थात्, परीक्षित के जन्म से महानन्द के अभिषेक तक 1050 वर्ष होते हैं.

आरभ्य भवतो जन्म यावन्नन्दाभिषेचनम्।
एतद् वर्षसहस्रं तु शतं पञ्चदशोत्तरम्॥
(भागवतपुराण-12.2.26)

अर्थात् (परीक्षित के) जन्म से लेकर नन्द के अभिषेक तक 1,115 वर्षों का समय लगेगा.

उपर्युक्त पौराणिक वचन उनके वर्तमान उपलब्ध (प्रकाशित) संस्करणों से लिए गए हैं. लेकिन अलग-अलग पुस्तकालयों में उपलब्ध इन्हीं पुराणों की प्राचीन प्रतियों में आये श्लोक इनसे कुछ भिन्न हैं. उदाहरण के लिए-

मत्स्य पुराण की प्राचीन प्रति में ‘पञ्चाशतुद्रम’ के स्थान पर ‘पंचशतोत्तरं’ शब्द पाया गया है. अब देखने में तो कोई विशेष अंतर नहीं जान पड़ता, और इस मामूली अंतर पर कोई ध्यान भी नहीं देता, पर गणना करने पर एक बड़ा अंतर आ जाता है. जहाँ आधुनिक प्रति के अनुसार गणना करने पर परीक्षित के जन्म से नन्द के अभिषेक तक 1,050 वर्ष होते हैं, वहीं प्राचीन प्रति के अनुसार गणना करने पर 1,500 वर्ष होते हैं.

अब सवाल यह उठता है कि पुराणों की प्राचीन प्रतियों और उनके आधुनिक संस्करणों में इतना बड़ा अन्तर क्यों है? तो इसका उत्तर यह है कि पुराणों की प्राचीन प्रतियाँ अंग्रेजों के भारत आने से पूर्व की हैं. वर्तमान प्रकाशित पुराण ब्रिटिश शासनकाल में सम्पादित, या कहें तो गड़बड़ करवाये गये हैं. अंग्रेजों ने राजनीतिक उद्देश्य के तहत भारतीय इतिहास में भारी मात्रा में विकृतियाँ पैदा कीं.

इसके अंतर्गत उन्होंने यूरोपीय और कुछ भारतीय विद्वानों और संस्कृतज्ञों को धन देकर उनसे भारत का इतिहास विकृत करवाया. इन तथाकथित विद्वानों ने भारतीय ग्रन्थों के मूल पाठों में कहीं अक्षरों में, तो कहीं शब्दों में और कहीं वाक्यावली में परिवर्तन किए. इतना ही नहीं, कहीं-कहीं प्रक्षिप्त अंश भी जोड़ दिए गए. राजाओं और उनके कालों को जानबूझकर पीछे ले जाया गया, जैसे-

मत्स्यपुराण के जिस श्लोक में मौर्यवंश का राज्यकाल 316 वर्ष दिया गया था, छपी हुई प्रति में अक्षर बदलकर उसे इस प्रकार कर दिया गया जिससे उसका अर्थ 137 वर्ष हो गया. विष्णुपुराण में मौर्यवंश का राज्यकाल 337 वर्ष दिया गया था, उसे भी 137 वर्ष में बदला गया. आज के ज्यादातर इतिहासकार 137 वर्ष को सही मानते हैं, लेकिन कलिंग-नरेश खारवेल के हाथीगुम्फा-अभिलेख में मौर्यवंश के संदर्भ में ‘165वें वर्ष’ का स्पष्ट उल्लेख होने से अंग्रेजों द्वारा की गयी गड़बड़ी का पर्दाफाश हो गया है.

ऐसी और भी अनेक गड़बड़ियों का विवरण सुप्रसिद्ध इतिहासकार पं. कोटा वेंकटचलम् ने अपनी पुस्तकों- 1. ‘The Plot in Indian Chronology’ (1953) एवं 2. ‘Chronology of Kashmir History Reconstructed’ (1955) में दिया है.

ज्यादातर भारतीय विद्वानों ने अपने इतिहास-ज्ञान के लिए पाश्चात्यों द्वारा निर्धारित तिथियों को ही स्वीकार किया है. इस प्रकार अधिकतर भारतीय विद्वान् महाभारत-युद्ध की वास्तविक तिथि से पर्याप्त दूरी पर अंधेरे में भटकते रहे हैं.

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खैर, सारांश यह है कि मत्स्यपुराण, भागवतपुराण, विष्णुपुराण, ब्रह्मांडपुराण और वायुपुराण में शुद्ध पाठ ‘पञ्चशतोत्तरम्’ है न कि ‘पञ्चाशदुत्तरम्’ या ‘पञ्चदशोत्तरम्’. ‘पञ्चशतोत्तरम्’ करने पर मत्स्यपुराण (273.35) का श्लोक इस प्रकार बनता है-

महापद्माभिषेकात्तु यावज्जन्म परीक्षितः।
एवं वर्षसहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चशतोत्तरम्॥

अर्थात् परीक्षित के जन्म से महापद्मनन्द के अभिषेक तक 1,500 वर्ष होते हैं. इसी प्रकार वायु, ब्रह्मांड, भागवत और विष्णु पुराणों के उपर्युक्त श्लोकों में भी संशोधन कर देना चाहिए.

लगभग प्रत्येक पुराण में महाभारत-युद्ध के समय से कलियुग के राजाओं की भविष्य-वंशावलियों का वर्णन है और उनके राजत्वकाल भी गिनाए गए हैं. उनकी ओर ध्यान देने से मत्स्यपुराण की प्राचीन प्रति का कथन प्रमाणित हो जाता है.

प्रायः सभी पुराणों में लिखा है कि महाभारत-कालीन जरासंध के पुत्र सहदेव थे, उनके पुत्र मार्जारि से लेकर बृहद्रथ वंश के 22 राजाओं का राज्यकाल 1,000 (1006) वर्ष तक था. बृहद्रथ के बाद प्रद्योतवंशीय पाँच राजाओं का राज्यकाल 138 वर्षों तक रहा. उनके बाद शिशुनागवंशीय दस राजाओं का राज्यकाल 360 वर्ष तक और उनके बाद नन्दवंशीय 9 राजाओं का शासनकाल 100 वर्ष तक था.

सबका योग होता है 1006 + 138 + 360 + 100 = 1,604 वर्ष. यदि इस संख्या में नन्दवंशीय राजाओं का शासनकाल निकाल दें (क्योंकि महाभारत के युद्धकाल या परीक्षित के जन्म से महापद्मनन्द के अभिषेक तक में महापद्मनन्द का राज्यकाल नहीं है) तो रह जाते हैं 1504 वर्ष, जिससे मत्स्यपुराण का प्राचीन पाठ अक्षरशः सत्य सिद्ध हो जाता है. इसी के साथ, यह भी सिद्ध हो जाता है कि जो इतिहासकार मत्स्य, विष्णु आदि पुराणों के परिवर्तित श्लोकों के आधार पर महाभारत-युद्ध को 14वीं-15वीं शताब्दी ई.पू. में सिद्ध करते हैं, वे सर्वथा अमान्य हैं.

अब तक के विवेचन से एक बात तो सिद्ध हो जाती है कि महाभारत का युद्ध नन्द के अभिषेक से लगभग 1,500 वर्ष पूर्व हुआ था, लेकिन युद्धकाल से अबतक कितने वर्ष बीते, यह निश्चित नहीं हुआ. इसका उत्तर भी हमें महाभारत और पुराणों में मिल जाता है. महाभारत में कहा गया है-

अनन्तरे चैव सम्प्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत्।
समन्तपञ्चके युद्धे कुरुपाण्डवसेनयोः॥
(आदिपर्व-2.13)

अर्थात् जब द्वापर और कलि की सन्धि का समय आनेवाला था, तब समन्तपञ्चक क्षेत्र (कुरुक्षेत्र) में कौरवों और पाण्डवों की सेनाओं का परस्पर भीषण युद्ध हुआ.

त्वप्युपस्थिते षट्त्रिंशे मधुसूदन.
हत्ज्ञातिर्हतामात्यो हतपुत्रे वनेचरः॥
अनाथवदविज्ञातो लोकेष्वनभिलाभितः.
कुत्सितेनाभ्युपायेन निध्नं समवाप्स्यसि॥
(स्त्रीपर्व, 25.44-45)

अर्थात् (महाभारत-युद्ध के बाद) गांधारी ने भगवान् श्रीकृष्ण को शाप दिया कि आज से 36 वर्ष के पश्चात् यदुवंश का विनाश होगा और आप भी मृत्यु को प्राप्त होगे.

षट्त्रिंशे त्वथ सम्प्राप्ते वर्षे कौरवनन्दनः।
ददर्श विपरीतानि निमित्तानि युधिष्ठिरः॥
(मौसलपर्व 1.1)

अर्थात् महाभारत-युद्ध के बाद जब 36वाँ वर्ष प्रारम्भ हुआ, तब कौरवनन्दन राजा युधिष्ठिर को कई तरह के अपशकुन दिखायी देने लगे.

भविष्यपुराण में कहा गया है-

भविष्याख्ये महाकल्पे प्राप्ते वैवस्वतेन्तरे।
अष्टाविंशद्द्वापरान्ते कुरुक्षेत्रे रणोऽभवत्॥
(भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व-3.1.4)

अर्थात् भविष्य नामक महाकल्प के वैवस्वत मन्वन्तर के 28वें द्वापर युग के अन्त में कुरुक्षेत्र में (महाभारत) युद्ध हुआ था.

षट्त्रिंशदब्दराज्यं हि कृत्वा स्वर्गपुरं ययुः।
जनिष्यन्ते तदंशा वै कलिध्र्म विवृद्धये॥
(भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व 3.4.3)

अर्थात् पांडव 36 वर्षों तक राज्य करके स्वर्ग सिधारे थे.

स्वामी दयानन्द सरस्वती (1824-1883) ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ (1875) में युधिष्ठिर का राज्यकाल 36 वर्ष, 8 मास और 25 दिन लिखा है (एकादश समुल्लास, पृ. 271). इस दृष्टि से भी 37वें वर्ष में पांडवों के राज्यत्याग एवं परीक्षित के राज्याभिषेक की बात सिद्ध होती है.

महाभारत में कहा गया है-

षट्त्रिंशेऽथ ततो वर्षे वृष्णीनामनयोमहान्।
अन्योन्यं मुसलैस्ते तु निजघ्नुः कालचोदितः॥
(मौसलपर्व 1.13)

अर्थात् महाभारत-युद्ध के बाद 36वें वर्ष वृष्णिवंशियों (भगवान श्रीकृष्ण का जन्म वृष्णिवंश में हुआ था) में महान् अन्यायपूर्ण कलह आरम्भ हो गया, जिसमें काल से प्रेरित होकर उन्होंने मूसलों से एक-दूसरे को मार डाला.

विमृशन्नेव कालं तं परिचिन्त्य जनार्दनः।
मेने प्राप्तं स षट्त्रिशं वर्षं वै केशिसूदन:॥
(मौसलपर्व 2.20)

अर्थात् इस प्रकार समय का विचार करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने जब उसका (गांधारी के शाप का) चिंतन किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि महाभारत-युद्ध के बाद यह 36वाँ वर्ष आ पहुँचा.

भागवत, विष्णु, ब्रह्माण्ड, वायु और ब्रह्म पुराण के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण जिस दिन अपने निजधाम को पधारे थे, उसी दिन उसी समय पृथ्वी पर कलियुग प्रारम्भ हो गया था-

यदैव भगवान्विष्णोरंशो यातोदिवं द्विज।
वसुदेववुफलोद्भूतस्दैवात्रगतः कलि॥
(विष्णुपुराण 4.24.108)

यस्मिन कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदाहनि।
प्रतिपन्नं कलियुगं तस्य संख्यां निबोध मे॥
(विष्णुपुराण, 4.24.113
ब्रह्माण्डपुराण, 2.74.241
वायुपुराण, 19.428-429)

यस्मिन्दिने हरिर्यातो दिनं सन्त्याज्य मेदिनीम्।
यस्मिन्नेवावतीर्णोऽयं कालक्रायो बली कलिः॥
(विष्णुपुराण, 5.38.8; ब्रह्मपुराण, 212.8)

यदा मुकुन्दो भगवानिमां महीं जहौ स्ततन्वा श्रवणीयसत्कथः।
तदाहरेवाप्रतिबुद्धचेतसा मधर्महेतूः कलिरन्ववर्तत॥
(भागवतपुराण 1.15.36)

यस्मिन्नहनि यर्ह्येव भगवान् उत्ससर्ज गाम्।
तदैवेहानुवृत्तोऽसौ अधर्मप्रभवः कलिः॥
(भागवतपुराण, 1.18.6)

यर्ह्येवायं मया त्यक्तो लोकोऽयं नष्टमङ्गलः।
भविष्यत्यचिरात्साधो कलिनापि निराकृतः॥
(भागवतपुराण, 11.7.4)

विष्णोर्भगवतो भानुः कृष्णाख्योऽसौ दिवं गतः।
तदाविशत् कलिर्लोकं पापे यद् रमते जनः॥
(भागवतपुराण, 12.2.29)

यस्मिन कृष्णो दवं यातस्तास्मिन्नेव तदाहनि।
प्रतिपन्नं कलियुगमिति प्राहुः पुराविदः॥
(भागवतपुराण, 12.2.33)

सारांश यह है कि महाभारत-युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने 36 वर्ष, 8 मास और 25 दिनों तक शासन किया. उसी 37वें वर्ष में श्रीकृष्ण अपने परमधाम को पधारे, और उसी दिन पृथ्वी पर कलियुग की शुरुआत हुई.

कलियुग का प्रारम्भ कब हुआ?

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स्वामी श्री गजाननन्द सरस्वती जी के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने वर्ष 3102 ईसा पूर्व को चैत्र माह के शुक्ल पक्ष के पहले दिन (18 फरवरी) अपने निजधाम के लिए प्रस्थान किया था.

खगोलशास्त्री और गणितज्ञ आर्यभट्ट के अनुसार कलियुग की शुरुआत 3102 ईसा पूर्व में हुई थी. उन्होंने 499 ईस्वी में अपनी पुस्तक ‘आर्यभट्टियम’ समाप्त की, जिसमें उन्होंने कलियुग की शुरुआत का वर्ष बताया. वह लिखते हैं कि “उन्होंने 23 वर्ष की आयु में कलियुग के 3600 वर्ष में आर्यभट्टियम की रचना की थी”.

षष्ट्यब्दानां षड्भिर्यदा व्यतीतास्त्रयश्च युगपादाः.
त्र्यधिका विंशतिरब्दास्तदेह मम जन्मनोऽतीताः॥
(आर्यभट्टियम, कालक्रियापाद, 10)

चूंकि यह कलियुग का 3600वां वर्ष था जब वह 23 वर्ष के थे, और यह देखते हुए कि आर्यभट्ट का जन्म 476 ईस्वी में हुआ था, कलियुग की शुरुआत होगी (3600 – (476 + 23) + 1 (1 BCE से 1 CE तक का एक साल) = 3102 BCE.

भाष्कराचार्य II (1114-1183) ने अपने ग्रन्थ ‘सिद्धान्तशिरोमणि’ में लिखा है-

याताः षण्मन्वो युगानि भमितान्यन्यद्युगांधि त्रयं.
नन्दाद्रीन्दुगुणास्तथा शकनृपस्यान्ते कलेर्वत्सराः॥
(सिद्धान्तशिरोमणि, मध्यमाधिकार, कालमानाध्याय, 28)

अर्थात् छः मनवंतर और सातवें मनवंतर के 27 चतुर्युग बीत चुके हैं. जो 28वाँ चतुर्युग चल रहा है, उसके भी 3 युग बीत चुके हैं और जो चौथा कलियुग चल रहा है, उसके भी शालिवाहन संवत् तक 3179 वर्ष बीत चुके हैं.

शालिवाहन संवत् का प्रारम्भ 78 ई. में उज्जयिनी-नरेश शालिवाहन (शासनकाल : 46-106 ई.) ने किया था और वर्तमान में शालिवाहन संवत् 1944 चल रहा है. अतः, (1944+3179 =) 5123 वर्ष कलियुग के बीत चुके हैं (और 5124वाँ वर्ष चल रहा है). इस नजर से भी कलियुग की शुरुआत (5124 – 2022 =) 3102 ई.पू. में हुई थी.

नोट – “महाभारत कब हुआ” के तथ्य दिल्ली से प्रकाशित इतिहास और संस्कृति की प्रतिनिधि पत्रिका “हमारी धरोहर” के लेखक श्री गुंजन अग्रवाल जी से लिए गए हैं. हालाँकि इन तथ्यों पर और शोध की आवश्यकता है.

महाभारत की ऐतिहासिकता (पुरातात्विक साक्ष्य) –

हाल के वर्षों में हुए सनौली उत्खनन के बारे में आपने भी जरूर सुना होगा. यह स्थल महाभारत युगीन शासकों की परिधि है. इस उत्खनन में लगभग 5000 से 4000 वर्ष पुराने जिस तरह के रथ, धनुष और उन्नत तलवारें, ढाल, हेल्मेट, दाल-चावल से भरे बर्तन सामने आये हैं, वे एक महान और सबल योद्धा वर्ग के अस्तित्व की ओर इशारा करते हैं. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, यहां की खुदाई में एक अष्टभुजा शिवलिंग भी मिल चुका है.

मोहनजोदड़ो में 1927 में मैके द्वारा किए गए पुरातात्विक उत्खनन में मिली एक पत्थर की टेबलेट में एक छोटे बच्चे को दो पेड़ों को खींचते हुए दिखाया गया है और उन पेड़ों से दो पुरुषों को निकलकर उस बच्चे को प्रणाम करते हुए भी दिखाया गया है. यह दृश्य भगवान श्रीकृष्ण की बचपन की यमलार्जुन-लीला से समानता दिखाता है. इससे पता चलता है कि मोहनजोदड़ो सभ्यता के लोग भगवान् श्रीकृष्ण और महाभारत की कथाओं से परिचित थे.

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महाभारत से सम्बंधित सभी ऐतिहासिक सन्दर्भ पुरातात्विक साक्ष्यों से भी मेल खाते हैं. पुरातात्विक और साहित्यिक साक्ष्य मिलकर घटक्रमों को जोड़ते हैं. जैसे-

महाभारत में पाण्डु वंश के राजा निक्षशु के युग में भीषण बाढ़ आने का उल्लेख मिलता है, जिसके बाद उन्होंने हस्तिनापुर का त्याग कर कौशाम्बी को अपनी राजधानी बना लिया था. पुरातात्विक साक्ष्य महाभारत में लिखे इस कथन की पूर्ण पुष्टि करते हैं कि हस्तिनापुर भारी बाढ़ के बाद उजड़ी और कौशाम्बी उसी दौर में बसाई गई.

जिस सभ्यता ने हस्तिनापुर को रिक्त किया, वही सभ्यता कौशाम्बी में आकर बसी. यहां से घोड़ों के कंकाल, हारपून, नुकीली तलवारें, बरछी और मानवीय आकृतियां भी प्राप्त हुई हैं. ये सब एक योद्धा सभ्यता की ओर इशारा करते हैं. इतना ही नहीं, यहां से अलग-अलग तरह के पांसे भी प्राप्त हुए हैं, जो लोगों के चौसड़ के प्रति प्रेम को दर्शाते हैं.

यहाँ से प्राप्त मृदभांडों के आधार पर इस सभ्यता को ‘चित्रित धूसर मृदभांड वाली सभ्यता’ (Painted Grey Ware Culture) भी कहा गया. इस कालखंड की तिथि 1100-800 बीसी ई के बीच निर्धारित की गई है. हाल ही में सनौली उत्खनन में जिस तरह के रथ, धनुष और उन्नत तलवारें सामने आये, वे एक महान और सबल योद्धा समुदाय की ओर इशारा करते हैं. यह स्थल महाभारत युगीन शासकों की परिधि है.

बुद्ध से पहले…

जर्नल ऑफ अमेरिकन ओरियंटल सोसायटी, वॉल्यूम-82, 2 वर्ष 1969 में प्रकाशित शोधपत्र “The oldest extant parvan list of the mahabharata” के हवाले से इतिहासकार गोवर्धन राय (Govardhan Rai) अपनी पुस्तक “भारतीय संस्कृति पुरातात्विक आधार” में बताते हैं कि “महाभारत के संरचना विषयक सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण पाण्डुलिपि उल्लेखनीय है, जो चीनी तुर्किस्तान से प्राप्त की गई थी. इस पाण्डुलिपि का प्रामाणिक संस्करण बुद्ध के पूर्व का है.

डॉ. ब्रज बसी लाल (Dr. Braj Basi Lal)

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक पुरातात्विक स्थलों का अन्वेषण एवं उत्खनन करने वाले तथा भारत सरकार द्वारा विज्ञान एवं अभियांत्रिकी क्षेत्र में पद्मभूषण से सम्मानित भारतीय पुरातत्त्वविद् डॉ. ब्रज बसी लाल को रामायण, महाभारत, हड़प्पा कालीन आदि जगहों और अयोध्या मामलों में महत्वपूर्ण खोजों के लिए जाना जाता है. उन्होंने खुदाई में ऐसे-ऐसे साक्ष्य सामने लाए, जिसे कोई भी झूठला नहीं सका.

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के महानिदेशक रह चुके बीबी लाल पचास से भी अधिक वर्षों तक पुरातत्वविद् के रूप में और विभिन्न यूनेस्को समितियों में भी काम कर चुके हैं. बीबी लाल ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिकाओं में 20 से अधिक पुस्तकें और 150 से अधिक शोधपत्र और लेख प्रकाशित किए हैं.

बीबी लाल ने हस्तिनापुर के अतिरिक्त महाभारत से जुड़े अहिक्षत्र, काम्पिल्य, मथुरा, बागपत, कुरुक्षेत्र, पानीपत, तिलपत और इंद्रप्रस्थ आदि जगहों पर भी उत्खनन किया, और आश्चर्यजनक रूप से इन सभी स्थानों पर चित्रित धूसर मृदभांड वाली संस्कृति का पता चला.



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