Shri Ram Panchvati (Ramayan)
रामायण का यह भाग बड़ा ही खूबसूरत है. महर्षि अगस्त्य जी को जैसे ही इस बात की सूचना मिलती है कि श्रीराम-सीता जी और लक्ष्मण जी उनसे मिलने के लिए उनके आश्रम में आये हैं, वे बोले- “सौभाग्य की बात है, आज चिरकाल के बाद श्रीरामचंद्रजी स्वयं ही मुझसे मिलने आ गए.”
श्रीराम आश्रम में प्रवेश करते हैं, वहीं महर्षि अगस्त्य भी उनके स्वागत-सत्कार के लिए अपने शिष्यों सहित अपनी यज्ञशाला से बाहर निकलते हैं. श्रीराम ने महर्षि अगस्त्य को देखते ही लक्ष्मण जी से उनके तप की प्रशंसा की और दौड़कर उनके चरण पकड़ लिए.
वाल्मीकी जी लिखते हैं कि ‘जिनमें योगियों का मन रमण करता है एवं जो भक्तों को आनंद प्रदान करने वाले हैं, वे श्रीराम उस समय सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ महर्षि के चरणों में प्रणाम करके हाथ जोड़कर खड़े हैं. महर्षि ने दोनों भाईयों को उठाकर बड़े प्रेम से उन्हें हृदय से लगा लिया और आसन, जल देकर उनका आतिथ्य सत्कार किया.’
महर्षि अगस्त्य ने अपने सभी श्रेष्ठ आयुध श्रीराम और लक्ष्मणजी को सौंप दिए थे. ऋषि अगस्त्य सीता जी के धर्म और गुणों की बहुत प्रशंसा करते हैं. इसके बाद श्रीराम महर्षि अगस्त्य से पूछते हैं कि- “हे मुनि! कृपया आप मुझे कोई ऐसा स्थान बताइये, जहाँ बहुत से वन हों, जल की भी सुविधा हो, तथा जहां आश्रम बनाकर मैं वनवास का शेष समय बिता सकूं.”
तब ऋषि अगस्त्य श्रीराम को बताते हैं कि यहां से (उनके आश्रम से) दो योजन की दूरी पर गोदावरी नदी के तट पर, सदा फूलों से सुशोभित, पंचवटी नाम से विख्यात एक बहुत ही सुन्दर व पवित्र स्थान है, जहाँ फल-मूल और जल की अच्छी सुविधा है.
मुनि की आज्ञा पाकर श्रीराम वहाँ से चल दिए और शीघ्र ही पंचवटी के निकट पहुँच गए, जहाँ उनकी भेंट गृध्रराज जटायु से हुई. जटायु जी से उनका पूरा परिचय पाकर श्रीराम ने उनका बहुत सम्मान किया और प्रसन्नतापूर्वक उनके गले लगकर उनके आगे नतमस्तक हो गए. इसके बाद वे जटायु के साथ ही पंचवटी की ओर चल दिए.
अनेक प्रकार के सर्पों, हिंसक जंतुओं और मृगों से भरी हुई पंचवटी में पहुंचकर श्रीराम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण जी से कहा-
“सौम्य! महर्षि अगस्त्य ने हमें जिस स्थान का परिचय दिया था, हम उसी स्थान पर आ गए हैं. देखो! यह स्थान कितना सुंदर है और वनपुष्पों से कैसी शोभा पा रहा है. लक्ष्मण! तुम इस वन में चारों ओर दृष्टि डालो और बताओ कि किस स्थान पर आश्रम बनाना हमारे लिए अच्छा होगा, जहां से जलाशय निकट हो, जहां वन और जल दोनों का सुंदर दृश्य हो तथा जिस स्थान के पास ही समिधा (हवन की लकड़ी), फूल, कुश (धार्मिक कृत्यों के उपयोग में आने वाली घास) आदि मिलने की सुविधा हो, जहां विदेहकुमारी सीता का मन लगे और जहां तुम और हम भी प्रसन्नतापूर्वक रह सकें.”
तब लक्ष्मण जी श्रीराम से कहते हैं- “भैया आप स्वयं ही देखकर जो स्थान सुंदर जान पड़े, वहां आश्रम बनाने के लिए मुझे आज्ञा दें.”
तब श्रीराम ने सोच-विचारकर ऐसा स्थान पसंद किया, जो सब प्रकार के उत्तम गुणों से संपन्न और आश्रम बनाने योग्य था. श्रीराम लक्ष्मण जी से कहते हैं-
“देखो वीर! यह स्थान समतल और सुंदर है और बड़े-बड़े वृक्षों से घिरा हुआ है. सुंदर कमलों के कारण यह स्थान पुष्करिणी तीर्थ के समान ही दिखाई दे रहा है. वृक्षों से घिरी हुई यह सुंदर गोदावरी नदी में हंस आदि जलपक्षी विचर रहे हैं. यह नदी इस स्थान से न अधिक दूर है और न ही अत्यंत निकट है. यहां से सुंदर ऊंचे-ऊंचे पर्वत भी दिखाई दे रहे हैं, जहां मयूरों की बोली गूँज रही है. पुष्पों, गुल्मों, लता-वल्लरियों से युक्त साल, खजूर, आम, अशोक, तिलक, केवड़ा, चंपा, चंदन, जलकदम्ब, ताल, तमाल, तिनिश, पुनाग, कदम्ब, पर्णास, लकुच, धव, अश्वकर्ण, खैर, शमी, पलाश आदि वृक्षों से गिरे हुए ये पर्वत बड़ी शोभा पा रहे हैं. अतः सुमित्रानंदन! यह स्थान तो बड़ा ही पवित्र और सुन्दर है. हम लोग इन पक्षीराज जटायु के साथ यहीं रहेंगे. हमें यहीं पर एक सुंदर आश्रम का निर्माण करना चाहिए.”
(ये सभी वृक्ष जिनके नाम श्रीराम ने गिनाये हैं, सदाबहार होते हैं और सेहत के लिए बहुत ही उपयोगी हैं).
श्रीराम के ऐसा कहने पर महाबली लक्ष्मण जी ने शीघ्र ही उस स्थान पर आश्रम बनाकर तैयार किया. वह आश्रम एक बड़ी पर्णशाला (पर्णकुटी) के रूप में बनाया गया था. लक्ष्मण जी ने पहले वहां मिट्टी एकत्र करके दीवार खड़ी की. उसमें सुंदर एवं सुदृढ़ स्तम्भ (खम्भे) लगाए. उन खम्भों के ऊपर बड़े-बड़े बांस तिरछे करके रखे. बांसों के रख दिए जाने पर वह पर्णकुटी बड़ी सुंदर दिखाई देने लगी. फिर उन बांसों पर उन्होंने शमी वृक्ष की शाखाएं फैला दीं और उन्हें मजबूत रस्सियों से कसकर बांध दिया. इसके बाद ऊपर से कुश, कास, सरकंडे और पत्ते बिछाकर उस पर्णशाला की छत को अच्छे से ढक दिया. और नीचे की भूमि को बराबर करके उस पर्णकुटी को बड़ा ही सुंदर बना दिया, जो देखने योग्य थी.
पर्णकुटी को तैयार करके लक्ष्मण जी ने गोदावरी के तट पर जाकर उसमें स्नान किया और कमल के फूल और फल लेकर वे फिर वहीं लौट आए. इसके बाद उन्होंने शास्त्रीय विधि से देवताओं का पूजन किया और उसके बाद अपना बनाया हुआ आश्रम श्रीराम और सीताजी को दिखाया.
श्रीराम और सीता जी उस सुंदर आश्रम को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए. वे उस आश्रम को देखते ही रह गए और कुछ समय तक भीतर ही खड़े रहकर उसे निहारते रहे. तब श्रीराम ने अत्यंत प्रसन्न होकर लक्ष्मण जी को पकड़कर अपने हृदय से लगा दिया और बड़े स्नेह के साथ कहा-
“महाबली लक्ष्मण! मैं तुम पर अत्यंत प्रसन्न हूं. इसके बदले मैं तुम्हें क्या दूं? इस समय तुम्हें अपने हृदय से लगाने के अतिरिक्त तुम्हें देने के लिए मेरे पास और कुछ नहीं है. लक्ष्मण! तुम तो मेरे मन की बात तुरंत ही समझ जाते हो. तुम कृतज्ञ और धर्मज्ञ भी हो. तुम मेरे लिए क्या हो लक्ष्मण, यह कहने के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास. तुम मेरे भाई ही नहीं, मेरे पुत्र और पिता के भी समान हो. तुम्हारे साथ रहने से मुझे ऐसा लगता है जैसे तुम्हारे रूप में पिताजी ही मेरे साथ हैं.”
और फिर श्रीराम उस सुंदर पंचवटी प्रदेश में सबके साथ सुखपूर्वक निवास करने लगे. जब से श्रीराम ने वहाँ निवास किया, तब से वहां के मुनि और सदाचारी लोग सुखी हो गए, असुरों से उनका डर जाता रहा. पशु-पक्षियों के समूह आनंदित रहते थे. पर्वत, वन, नदी और तालाब शोभा से छा गए. वे दिनोंदिन और भी अधिक सुहावने होने लगे.
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