Animal Sacrifice In Sanatan Dharm : सनातन धर्म में पशु बलि प्रथा कब से शुरू हुई?

animal sacrifice in hinduism, ashwamedha pashu bali pratha, mahabharat vedas, animal sacrifice

Animal Sacrifice in Hinduism

महाराजा अग्रसेन के जब 17 यज्ञ पूरे हो चुके थे और 18वां यज्ञ चल रहा था, तब बीच में ही एक घोड़े की बलि दी जाने लगी. घोड़े को भय से तड़पता देखकर महाराजा अग्रसेन को बेहद दया आई, साथ ही बहुत क्रोध भी आया. जब उनसे कहा गया कि यज्ञ में पशुबलि का विधान है, तब उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोककर घोड़े की बलि रुकवा दी और सख्त आदेश देते हुए घोषणा कर दी कि-

“शास्त्रों में कहीं भी किसी भी यज्ञ में किसी प्राणी की बलि या हत्या का विधान नहीं है. मेरे राज्य में कोई भी पशुओं की बलि नहीं देगा और न ही किसी भी प्राणी या जीव-जंतु की हत्या करेगा. मेरे राज्य में कोई भी व्यक्ति मांस नहीं खाएगा. हर एक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह सभी प्राणियों की रक्षा करे”. और इसी के साथ, महाराज अग्रसेन ने यज्ञ में भी नारियल फोड़ने की प्रथा की शुरुआत की.

वेदव्यासकृत महाभारत के ‘आश्वमेधिक पर्व’ के अध्याय ८८ में युधिष्ठिर द्वारा किये गए अश्वमेध यज्ञ का विस्तार से वर्णन किया गया है, जिसमें अश्व की बलि का भी वर्णन है. साथ ही ऐसे यज्ञ का युधिष्ठिर पर क्या असर हुआ था, इसका भी वर्णन है. और इन सबसे पता चलता है कि उस समय यज्ञ में पशुओं की बलि दी जाती थी.

Read Also : युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में पशुबलि

लेकिन क्या अब यही चीजें कुछ विरोधाभास नहीं दिखाती हैं? जहाँ यज्ञ का एक पर्यायवाची है ‘अध्वर’ (अहिंसा), तो वहीं दूसरी ओर कुछ कथाओं में अश्वमेध यज्ञ में पशु बलि (हिंसा) की भी बात पढ़ने को मिलती है.

जहाँ एक तरफ तो वेदों में कहा गया है कि-
“पशुओं की रक्षा करो, गाय को न मारो, बकरी को न मारो, भेड़ को न मारो, दो पैर वाले प्राणियों को न मारो, एक खुर वाले घोड़े-गधे आदि पशुओं को न मारो, किसी भी प्राणी की हिंसा न करो.”
तो वहीं दूसरी ओर कुछ कथाओं में यज्ञ के नाम पर पशुओं की बलि भी देखने को मिलती है.

यहां तक कि यज्ञ में हर प्रकार की लकड़ी का भी प्रयोग नहीं किया जा सकता है (जिन लकड़ियों में छोटे-छोटे जंतु लगे हों, उन्हें यज्ञ में प्रयोग नहीं किया जाता है, ताकि यज्ञ में किसी तरह की जीव हत्या न हो पाए, नहीं तो ऐसा यज्ञ शुद्ध नहीं माना जाता है).
तो फिर किसी पशु को मारकर होम विधान कैसे किया जा सकता है?

इन सब प्रश्नों के उत्तर हमें महाभारत में मिलते हैं. वैसे यदि आप महाभारत को पढ़ते जाते हैं, तो आपको कई प्रश्नों के उत्तर मिलते चले जाते हैं, और शायद इसीलिए एक भ्रान्ति फैलाई गई है कि महाभारत को कभी घर में नहीं रखना चाहिए या इसे पूरा नहीं पढ़ना चाहिए.

श्रूयते हि पुराकल्पे नृणां व्रीहिमयः पशुः
येनायजन्त यज्वानः पुण्यलोकपरायणाः
ऋषिभिः संशयं पृष्टो वसुश्चेदिपतिः पुरा
अभक्ष्यमिति मांसं स प्राह भक्ष्यमिति प्रभो
आकाशान्मेदिनीं प्राप्तस्ततः स पृथिवीपतिः
एतदेव पुनश्चोक्त्वा विवेश धरणीतलम्
(महाभारत अनुशासन पर्व 115)

“कुरुनन्दन! प्राचीनकाल में मनुष्यों के यज्ञादि केवल अन्न से ही हुआ करते थे. पुण्यलोक की प्राप्ति के साधनों में लगे रहने वाले याज्ञिक पुरुष अन्न के द्वारा ही यज्ञ करते थे. किन्तु जब एक समय ऋषियों ने चेदिराज वसु से अपना संदेह पूछा, उस समय वसु ने मांस को भी जो सर्वथा अभक्ष्य है, को भक्ष्य बता दिया. अनुचित निर्णय देने के कारण आकाशचारी राजा वसु (दण्डस्वरूप) आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े. इसके बाद पृथ्वी पर भी फिर ऐसा ही निर्णय देने के कारण वे पाताल में समा गये.”

क्योंकि यज्ञ का अर्थ ही ‘ईश्वर की पूजा’ होता है. अतः चाहे किसी भी चीज से कोई भौतिक यज्ञ या धार्मिक अनुष्ठान नहीं किया जा सकता है. किसी निरपराध पशु के रक्तमांस से ईश्वर को तृप्त करने की कल्पना अत्यंत वीभत्स है. इसे ईश्वरद्रोह कहा जाता है और ईश्वरद्रोह ही जिनकी प्रकृति है, वे ही ऐसा कार्य करते हैं.

कथा के अनुसार, एक समय ऋषियों तथा अन्य लोगों में, यज्ञ में प्रयोग होने वाले “अज” शब्द पर विवाद हुआ. ऋषियों का पक्ष ‘अज’ का अर्थ ‘अन्न’ (जो उत्पत्तिरहित है) से करता ही था, जबकि दूसरा पक्ष ‘अज’ का अर्थ ‘बकरा’ करना चाहता था. दोनों पक्षों ने चेदिराज वसु से अपना संदेह पूछा. वसु भी अनेक यज्ञ करा चुके थे और वे जानते थे कि यज्ञ आदि अन्न से ही किये जाते हैं, किन्तु मलेच्छों के संसर्ग से वे ऋषियों के द्वेषी बन गए थे. और ऋषि उनकी बदली हुई मनोवृत्ति से परिचित न थे. तब चेदिराज वसु ने ऋषियों के विरोधी पक्ष का ही समर्थन करते हुए कहा- “छागेनाजेन यष्टव्यम्”. असुर तो ऐसा ही चाहते थे, अतः वे उसके प्रचारक बन गए (असुरों द्वारा प्रचारित किये जाने के बाद कुछ स्थानों पर यह परंपरा बन गई). किन्तु ऋषियों ने उस मत को ग्रहण नहीं किया, क्योंकि वसु का यह अर्थ, वेदों का अर्थ निकालने के लिए बनाये गये नियमों का पालन नहीं करता था.

ऐसी ही कथा का उल्लेख महाभारत के ‘आश्वमेधिक पर्व’ के अध्याय 91 में भी करते हुए कहा गया है कि–

अपरिज्ञानमेतत्ते महान्तं धर्ममिच्छतः।
न हि यज्ञे पशुगणाः विधिदृष्ट पुरन्दर॥
ऊचुः शक्रं समागम्य नायं यज्ञविधिः शुभः॥
नायं धर्मकृतो यज्ञो न हिंसा धर्म उच्यते॥

‘महान धर्म की इच्‍छा रखकर भी यज्ञ में पशुवध के लिए उद्यत हो जाना अज्ञान ही है; क्‍योंकि यज्ञ में पशुओं के वध का विधान शास्‍त्रों में नहीं है. यज्ञ में पशुवध शुभकारक नहीं है. ऐसा यज्ञ धर्म को हानि पहुँचाने वाला है.’

महाभारत के शान्तिपर्व के अध्याय 265 में कहा गया है कि–

यदि यज्ञांश्च वृक्षांश्च यूपांश्चोद्धिश्य मानवाः।
वृथा मांसानि खादन्ति नैष धर्मः प्रशस्यते॥
सुरा मत्स्या मधु मांसमासवं कृसरौदनम्।
धूर्तैः प्रवर्त्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम्॥
कामान्मोहाच्च लोभाच्च लौल्यमेतत्प्रवर्तितम्।

“यदि यह कहा जाये कि “मनुष्‍य यूप निर्माण के उद्देश्‍य से जो वृक्ष काटते और यज्ञ के उद्देश्‍य से पशुबलि देकर जो मांस खाते हैं, वह व्‍यर्थ नहीं है, अपितु धर्म ही है”, तो य‍ह ठीक नहीं; क्‍योंकि ऐसे धर्म की कोई प्रशंसा नहीं करता. सुरा, आसव, मधु, मांस और मछली तथा तिल और चावल की खिचड़ी– इन सब वस्‍तुओं को धूर्तों ने यज्ञ में प्रचलित कर दिया है. वेदों में इनके उपयोग का विधान नहीं है. उन धूर्तों ने अभिमान, मोह और लोभ के वशीभूत होकर उन वस्‍तुओं के प्रति अपनी यह लोलुपता ही प्रकट की है.”

इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्यो मार्गैरबुधोऽधमः।
हन्याज्जन्तून् मांसगृध्नुः स वै नरकभाङ्नरः॥
(महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 115)

“जो मांसलोभी मूर्ख एवं अधम मनुष्य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गों के नाम पर प्राणियों की हिं*सा करता है, वह नरकगामी होता है.”

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

“निषाद! तुमने बिना किसी अपराध के ही प्रेम में मग्न पक्षी की हत्या की है. तुम्हें नित्य-निरंतर कभी शान्ति न मिले.” (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड २|१५)

तो इन सब बातों से स्पष्ट होता है कि शास्त्रों में तो कहीं भी पूजा-कर्मकाण्ड या यज्ञादि के नाम पर पशु बलि का कोई विधान नहीं है. ऐसी परम्परा स्वार्थी आसुरी प्रवृत्तियों के कुप्रचारों के कारण ही मनुष्यों के बीच में आई हैं.

प्राचीनकाल से ही अपने स्वार्थ के लिए व अपने मत के समर्थन के लिए शास्त्रों के अर्थ का अनर्थ करने की परम्परा रही है. प्राचीनकाल से ही स्वार्थी बुद्धि या आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग वेदों, शास्त्रों का अपने-अपने अनुसार अर्थ का अनर्थ करते रहे हैं. अपने-अपने अनुसार धर्म-अधर्म की व्याख्या करते रहे हैं, जैसे रावण, शकुनि आदि.

आज कुछ लोग यह तर्क देते नजर आते हैं कि “युद्ध से पहले पशुबलि दी जाती थी, यह प्राचीन परम्परा है”. जबकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार न तो भगवान् श्रीराम और उनकी सेना ने युद्ध से पहले किसी प्रकार की बलि दी थी और न ही महाभारत के युद्ध से पहले श्रीकृष्ण और पांडवों या कौरवों ने.

Read Also : ‘श्री राम मांस खाते थे और चमड़ा पहनते थे’

कुछ लोगों का ये तर्क हैं कि ‘तंत्र पूजा अलग होती है और सात्विक पूजा अलग’. ऐसा कहकर ये लोग रावण, अहिरावण आदि का उदाहरण देकर यह भी मनवाने का प्रयास करते हैं कि वैष्णव धर्म ही पशुबलि का विरोध करता है, और शैव और शाक्त धर्म में पशुबलि सदा से रही है. जबकि वैष्णव, शैव, शाक्त आदि कोई अलग-अलग धर्म या सम्प्रदाय नहीं, सब एक ही हैं. सबके शिव और सबकी देवी मां एक ही हैं, अलग-अलग नहीं.

और फिर यह भी तो देखना चाहिए कि तांत्रिक पूजा असुरों में थी, मनुष्यों में नहीं. रावण, मेघनाद, अहिरावण आदि तांत्रिक या तामसी पूजा करते थे और वे सब के सब मारे गए. देवी मां ने विजय का आशीर्वाद सात्विक विधि से पूजा करने वाले श्रीराम को ही दिया, रावण या अहिरावण को नहीं. यानी देवी मां को भी ऐसी कोई बलि पसंद नहीं.

और स्कन्द पुराण तो कहता है कि-
“जो मनुष्य पाप से मोहित होकर मांस पकाता है, वह उस पशु के शरीर में जितने रोयें होते हैं, उतने वर्षों तक नरक में निवास करता है. जो मनुष्य मद्य और मांस में आसक्त हैं, उनसे भगवान् शिव बहुत दूर रहते हैं.” (स्कन्द पुराण काशीखण्ड पूर्वार्ध ३.५९-५३)

इसी के साथ, महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 145 (11) में भी भगवान शिव ने मांस-मदिरा के सेवन की कड़ी निंदा की है.

क्या मां काली को पशुबलि पसंद है?

कोई व्यक्ति शुद्ध शाकाहारी है और वह मानवजाति की रक्षा के लिए बहुत से आतंकियों का वध कर देता है, तो क्या आप उसे अपने घर पर बुलाकर उसके सामने जानवरों को काट-काटकर खिलाने लग जायेंगे? मां काली निर्दोषों की रक्षा के लिए ही दैत्यों का वध करती हैं, इसलिए नहीं कि वे मांस की भूखी हैं. वे रक्तबीज को मारने के लिए उसका रक्तपान करती हैं, इसलिए नहीं कि वे रक्तभोजी हैं. क्या कभी किसी कथा में सुना है कि मां काली को जब भी भूख लगती है, तब वो भैंसों-बकरों को मारकर उनका मांसभक्षण और रक्तपान करती हैं?

शास्त्रों में हर जगह मांसभक्षण और रक्तपान को आसुरी प्रवृत्तियों की ही पहचान बताया गया है, और मां काली ऐसी ही आसुरी प्रवृत्तियों को काटने वाली देवी हैं. अतः केवल अपने स्वार्थ के लिए उन्हें मांसाहारी और पशुबलि-प्रेमी दिखाना उनका अपमान करना ही है.

कुछ लोगों का यह भी तर्क होता है कि ‘यज्ञ या अनुष्ठान में हम अपने इष्ट को हमारा प्रिय भोग चढ़ाते हैं. जो मांसाहारी हैं, भोजन के लिए जीव हत्या करते हैं, वे अनुष्ठान में जीवों की बलि देकर क्या गलत करते हैं?’

तो यदि कोई शाकाहारी व्यक्ति आपके घर आता है, तो आप उसके सामने शाकाहार ही रखेंगे या उसे भी जबरन मांसाहार ही खिला देंगे? आप मांसाहारी के सामने शाकाहारी भोजन तो परोस सकते हैं, लेकिन शाकाहारी के सामने जानवरों को काटकर कैसे खिलाने में लग जायेंगे? क्या आप इस हद तक मांसाहारी हैं कि आप एक बार के लिए भी शाकाहारी भोजन को अपनी आँखों के सामने नहीं देख सकते, और इसलिए आपको पूजा-अनुष्ठान में भी मांसाहार ही चढ़ाना है? यदि आप ऐसा करते हैं तो आप राक्षस ही कहलायेंगे, और राक्षसों को तो कभी कोई सही बात समझाई भी नहीं जा सकती है. वे अपने स्वार्थ में रोज नए कुतर्क गढ़ते रहते हैं. राक्षस होते ही हैं अशुभ करके धर्म को हानि पहुंचाने के लिए, जैसा कि महाभारत में लिखा भी है.

Read Also :

क्या प्राचीन भारत में कोई मनुष्य मांस नहीं खाता था? मांसाहार को लेकर क्या थे नियम?

मांस-भक्षण को लेकर भीष्म पितामह ने क्या कहा है

वेदों में मांसाहार, पशुबलि और अश्लीलता

रामकथा में आजादी

संस्कृत भाषा के अद्भुत और चमत्कारिक प्रयोग

मनुस्मृति में मांसाहार और पशु हत्या

सनातन धर्म से जुड़े तथ्य, सवाल-जवाब और कथाएं



Copyrighted Material © 2019 - 2024 Prinsli.com - All rights reserved

All content on this website is copyrighted. It is prohibited to copy, publish or distribute the content and images of this website through any website, book, newspaper, software, videos, YouTube Channel or any other medium without written permission. You are not authorized to alter, obscure or remove any proprietary information, copyright or logo from this Website in any way. If any of these rules are violated, it will be strongly protested and legal action will be taken.



About Niharika 255 Articles
Interested in Research, Reading & Writing... Contact me at niharika.agarwal77771@gmail.com

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*