Max Müller Translation : भारतीयों के शुभचिंतक मैक्समूलर

max muller translation, macaulay maxmuller translated rig veda sanskrit to english

Max Muller Translation

कुछ दशकों पहले भारत में तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला आदि समृद्ध विश्वविद्यालयों के साथ-साथ इनके अति दुर्लभ ग्रंथों से सुसज्जित एवं कठिन परिश्रम से बनाए गए पुस्तकालयों को जलाकर राख कर दिया गया था. इतना ही नहीं, जिन आतताइयों ने पुस्तकालय जलाये, उन्हीं आतताइयों की प्रशंसा में गीत गाने वाले कवियों और लेखकों द्वारा हिन्दू ग्रंथों और शास्त्रों का अपने-अपने तरीके से अनुवाद भी किया गया. उदाहरण केवल इतने ही नहीं हैं. क्या आप बता सकते हैं कि कोई आतताई किसी देश पर आक्रमण करते ही सबसे पहले उसके ज्ञान को नष्ट करने का प्रयास क्यों करता है?

फ्रेडरिक मैक्समूलर के बारे में जो जानकारी दी जाती है उसके मुताबिक, मैक्समूलर एक जर्मनवासी थे जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का कर्मचारी थे. वह एक जर्मन भाषाविद, वेद तथा प्राच्य विद्या विशारद थे. जन्म से जर्मन होने के बाद भी उन्होंने अपना अधिकतर जीवन इंग्लैण्ड में बिताया और वहीं अध्ययन भी किया. ब्रिटिश राजनीतिज्ञों, प्रशासकों तथा कूटनीतिज्ञों ने मैक्समूलर को ब्रिटिश शासनकाल में एक सदी तक लगातार हिन्दुओं का एक अभिन्न मित्र और वेदों के महान विद्वान के रूप में प्रस्तुत किया है.

अंग्रेज शासक लगातार यही प्रचार करते रहे कि मैक्समूलर तो वेदों का महान विद्वान और हिन्दुओं के शुभचिंतक हैं, लेकिन क्या यह सच है? क्या मैक्समूलर वास्तव में भारत के मित्र थे? क्या वह वेदों, उपनिषदों, दर्शनों आदि के प्रेरणादायक और आध्यात्मिक चिंतन से प्रभावित थे और उन्हें अंग्रेजी माध्यम से दुनियाभर में फैलाना चाहते थे? क्या वह भारतीय धर्मशास्त्रों के जिज्ञासु थे? तो जवाब है “नहीं”.

मैक्समूलर वैदिक ग्रंथों और प्राचीन भारतीय शास्त्रों का अंग्रेजी में अनुवाद अपनी किसी जिज्ञासा, प्रेरणा या शोध के लिए नहीं कर रहे थे, बल्कि इसके लिए उन्हें बाकायदा ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 15 अप्रैल 1847 को अनुबंधित (Contract) किया था. यह तो सब जानते ही हैं कि उस दौर में भारतीय ज्ञान, पुस्तकों और शिक्षा-पद्यति के दृष्टिगत पैसा देकर विकृतिकरण की प्रक्रिया चल रही थी. मैक्समूलर को भी अपने ब्रिटिश आकाओं की इच्छानुसार कार्य करने की बाध्यता थी.

मैक्समूलर के अनुवादों को समकालीन भारतीय विद्वानों ने ही खारिज कर दिया था. एक उद्धरण मिलता है कि किसी श्लोक का मैक्समूलर ने 18 बार केवल इसीलिये अलग-अलग तरीके से अनुवाद करवाया, क्योंकि उन्हें अपने पसंद का अर्थ नहीं मिल रहा था. हम पाश्चात्य अनुवादों और उनके उद्धरणों पर कितना विश्वास कर सकते हैं यह दूसरा प्रश्न है, पहला यह कि हमारी शिक्षा व्यवस्था जब तक पाश्चात्य प्रभाव से मुक्त नहीं होगी, तब तक हम क्या और कितना जानने की क्षमता रखते हैं?

कुछ सत्य कभी सामने नहीं आ पाते. मैक्समूलर की आत्मकथा आत्मप्रशंसा से भरी हुई है. इसमें उन्होंने स्वयं को भारतीयों का मसीहा बताया है, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी जॉर्जिया मैक्समूलर ने उनका जीवन दो खण्डों में कार्यों व पत्रों को संकलित कर प्रकाशित करवाया. इसी से उनका सारा कच्चा-चिट्ठा खुलकर सामने आ गया. इन्हीं खण्डों और पत्रों से कुछ उदाहरण देखिये जिससे पता चलता है कि भारतीय ग्रंथों के साथ इन विदेशियों ने क्या व्यवहार किया है-

15/12/1866 को मैक्समूलर ने जॉर्जिया को पत्र में लिखा-

“मेरा ऋग्वेद का यह संस्करण और वेद का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों की आत्माओं के विकास पर प्रभाव डालने वाला होगा. वेद उनके धर्म का मूल है और मूल को उन्हें दिखा देना जो कुछ उससे पिछले तीन हजार वर्षों में निकला है, उसको मूल सहित उखाड फेंकने का सबसे अच्छा तरीका है”.

16/12/1868 को मैक्समूलर का भारत के लिये सेक्रेटरी ऑफ स्टेट्सड्यूक ऑफ़ आर्गायल को पत्र लिखा उल्लेखनीय है, वे लिखते हैं-

“भारत एक बार जीता जा चुका है लेकिन भारत को दोबारा जीता जाना चाहिये और यह दूसरी जीत ईसाई धर्म शिक्षा के माध्यम से होनी चाहिये. हाल में शिक्षा के लिये काफी किया जा चुका है लेकिन यह धनराशि दुगुनी या चौगुनी कर दी जाये तो ऐसा करना मुश्किल न होगा. भारत की ईसाईयत शायद हमारी उन्नीसवीं सदी जैसी ईसाईयत भले ही न हो लेकिन भारत का प्राचीन धर्म यहाँ डूब चुका है, फिर भी यदि यहाँ इसाईयत नहीं फैलती है तो इसमें दोष किसका होगा?”

13/01/1875 को डीन स्टेनली को लिखे पत्र में मैक्समूलर धन्यवाद ज्ञापित करते हैं कि-

“इंग्लैण्ड की महारानी यह जानें कि जिस कार्य के लिए मैं वर्ष 1846 में इंग्लैण्ड आया था, वह कार्य मैंने पूरा कर दिया है. इंग्लैण्ड वापस आने पर मुझे एक पत्र मिला जिसमें लॉर्ड सैलिसबरी ने मेरी ऋग्वेद सम्बंधी सेवाओं के सम्मान में मेरे काम के लिये अनुदान राशि बढ़ाने का प्रस्ताव किया है”.

The Life and Works of Lord Macaulay, लार्ड मैकॉले की जीवनी और पत्र, पृष्ठ 329; भारती पृ. 46-47

“हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यजनक गति से बढ़ हे हैं! निसंदेह कुछ जगहों पर ऐसा होना मुश्किल हो रहा है. हुगली शहर में चौदह सौ लड़के अंग्रेजी सीख रहे हैं! इस शिक्षा का हिन्दुओं पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ रहा है! कोई भी हिन्दू जिसने अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर ली है, वह निष्ठापूर्वक हिन्दू धर्म से जुड़ा हुआ नहीं रहता है! कुछ एक, औपचारिकता के रूप में, नाममात्र को हिन्दू धर्म से जुड़े दिखाई देते हैं, लेकिन अनेक स्वयं को ‘शुद्ध देववादी’ कहते हैं तथा कुछ ईसाईमत अपना लेते हैं! मेरा पूरा विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा की योजनाएँ चलती रहीं तो तीस साल बाद बंगाल के सम्भ्रांत परिवारों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं रहेगा और ऐसा किसी प्रकार के प्रचार एवं धर्मान्तरण किए बगैर हो सकेगा! किसी धार्मिक आजादी में न्यूनतम हस्तक्षेप न करते हुए ऐसा हो सकेगा! ऐसा स्वाभाविक ज्ञान देने की प्रक्रिया द्वारा हो जाएगा! मैं उस योजना के परिणामों से हृदय से प्रसन्न हूँ!”

इसी के साथ, मैक्समूलर ने वेदों का रचना काल ईसा के 1200 पूर्व का बताया है. मैक्समूलर के इस मत की आलोचना में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि उससे भिन्न किसी अन्य पाश्चात्य विद्वान ने भी उसके इस कथन को स्वीकार नहीं किया है. ज्योतिषीय गणना के आधार पर बाल गंगाधर तिलक इस काल को ईसा के कई लाख वर्ष पूर्व सिद्ध करते हैं तो उमेशचन्द्र विद्यारत्न और अविनाश चन्द्र दास ने इस तिथि को और पीछे ले जाना स्वीकार किया है.

मैक्समूलर को इस कार्य के लिए नियुक्त किया गया था कि वह संस्कृत साहित्य में निहित तथ्यों को इस प्रकार प्रस्तुत करे जिससे भारत में ईसाई मत का प्रचार एवं उत्कर्ष हो, तथा यहाँ के अधिकांश पुरातन हिन्दू धर्म और तत्सम्बद्ध आस्थाओं को त्यागकर ईसाइयत को स्वीकार कर लें. मैक्समूलर ने खुद यह बात स्वीकार की थी कि भारतीय वाङ्गमय तथा वैदिक साहित्य के अध्ययन, व्याख्या और अनुवाद के पीछे उसकी ईसाई धर्म प्रचारक की मनोवृत्ति हमेशा से ही कार्यशील रही है.

इसी के साथ, भारतीय शास्त्रों के अंग्रेजी अनुवाद का एक उदाहरण देखिये-

एतस्मिन्नंतरे साक्षाच्छंकरो नीललोहितः।
विरूपं च समास्थाय परीक्षार्थं समागतः॥
दिगम्बरोऽतितेजस्वी भूतिभूषणभूषितः।
स चेष्टामकरोद्दुष्टां हस्ते लिंगं विधारयन्॥

शिवपुराण के इस श्लोक का अर्थ हिंदी में लिखा गया है कि-

“इसी बीच उन लोगों की परीक्षा लेने हेतु साक्षात् नीललोहित भगवान् शंकर विकत रूप धारण कर वहां आये. वे दिगंबर भस्मरूप भूषन से विभूषित तथा महातेजस्वी भगवान् शंकर अपने हाथ में तेजोमय लिंग को धारण कर विचित्र लीला करने लगे.”

लेकिन इसी श्लोक का अंग्रेजी अनुवाद कुछ इस प्रकार लिखा गया है-

“He was very brilliant but stark naked. he had smeared ashes all over his body as the soul ornament. standing there and holding his penis he begin to show all sorts of vicious tricks.”


Read Also :

संस्कृत भाषा के अद्भुत और चमत्कारिक प्रयोग

वेदों में मांसाहार, पशुबलि और अश्लीलता

रामायण में मांसाहार – एक महत्वपूर्ण तथ्य

वेदों में मां सरस्वती जी का रहस्य, स्वरूप और स्तुति, सरस्वती जी और ब्रह्मा जी

मनुस्मृति कब और किसने लिखी थी? मनुस्मृति में क्या है?



Copyrighted Material © 2019 - 2024 Prinsli.com - All rights reserved

All content on this website is copyrighted. It is prohibited to copy, publish or distribute the content and images of this website through any website, book, newspaper, software, videos, YouTube Channel or any other medium without written permission. You are not authorized to alter, obscure or remove any proprietary information, copyright or logo from this Website in any way. If any of these rules are violated, it will be strongly protested and legal action will be taken.



About Niharika 268 Articles
Interested in Research, Reading & Writing... Contact me at niharika.agarwal77771@gmail.com

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*