What is Brahman in Hinduism Sanatan Dharm (Brahmin Kaun Hai)
हमारी भारतीय सनातन परम्परा में ब्राह्मणों को विशेष सम्मान दिया गया है, ब्राह्मणों को पूजनीय बताया गया है, ब्राह्मणों को ही दान देने का महत्त्व बताया गया है. ब्राह्मणों को सभी अधिकार दिए गए हैं, ऐसा क्यों?
क्या हमारी परंपरा में वर्ण या जाति के आधार पर चारों वर्णों में भेदभाव का विधान बनाया गया है? वास्तविकता क्या है, इसे जानने के लिए हमें यह देखना पड़ेगा कि असल में हमारे यहाँ ब्राह्मण कहा किसे गया है और शूद्र किसे कहा गया है?
हमने इस लेख में केवल तथ्य और प्रमाण रखे हैं. आशा है कि यदि लेख को पूरा पढ़ा जाये तो फिर आपके मन में ब्राह्मणों को लेकर कोई संशय आदि न रहे.
महाभारत (12.188) में भृगु ऋषि बताते हैं-
“पहले वर्णों में कोई अंतर नहीं था. ब्रह्माजी से उत्पन्न होने के कारण यह सारा जगत ब्राह्मण ही था. पीछे विभिन्न कर्मों के कारण उनमें वर्णभेद हो गया. जो विषयभोग के प्रेमी, तीखे स्वभाव वाले, क्रोधी और साहस का काम पसंद करने वाले हो गये, वे ब्राह्मण क्षत्रिय भाव को प्राप्त हुए (वे क्षत्रिय कहलाने लगे). जिन्होंने पशुपालन तथा कृषि आदि कर्मों के द्वारा जीविका चलाने की वृत्ति अपना ली, वे ही ब्राह्मण वैश्यभाव को प्राप्त हुए. जो शौच और सदाचार से भ्रष्ट होकर हिंसा और असत्य के प्रेमी हो गये, लोभवश व्याधों के समान सभी तरह के निन्ध कर्म करके जीविका चलाने लगे, वे ब्राह्मण शूद्रभाव को प्राप्त हो गये. इन्हीं कर्मों के कारण ब्राह्मणत्त्व से अलग होकर वे सभी ब्राह्मण दूसरे-दूसरे वर्ण के हो गये, किंतु उनके लिये नित्यधर्मानुष्ठान और यज्ञ कर्म का कभी निषेध नहीं किया गया है. किन्तु लोभविशेष के कारण शूद्र अज्ञानभाव को प्राप्त हुए, अतः वे वेदाध्ययन के अनधिकारी हो गये.”
तो यहाँ हम देख सकते हैं कि किसानी, पशुपालन जैसे कार्य करने वालों को शूद्र नहीं कहा गया है, बल्कि जो ब्राह्मण सदाचार से भ्रष्ट होकर हिंसा और असत्य के प्रेमी हो गये, और लोभवश व्याधों के समान सभी तरह के निन्ध कर्म करके जीविका चलाने लगे, जैसे मांस खाना, जीवहत्या करके मांस-चमड़ा बेचना जैसे कार्य करने वालों को शूद्र कहा गया है. महाभारत में व्याध को शूद्र कहा गया है.
श्रीमद्भगवद्गीताशाङ्करभाष्यम् में भी कहा गया है कि “ब्राह्मण उस व्यक्ति को दिया गया एक पद है जिसमें सत्त्व की प्रधानता होती है, और शूद्र वह है जिसमें तमस की प्रधानता है. ये गुण व्यक्ति के प्राकृतिक स्वभाव और व्यवहार से प्रकट होते हैं.”
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महाभारत के अनुशासन पर्व अध्याय १४३ में भगवान शिव ने शूद्रों के लिए वो नियम बताये हैं, जिनका पालन करके शूद्र ब्राह्मणतत्व को प्राप्त कर सकते हैं, उनमें से एक नियम यह भी बताया है कि “जो शूद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त करना चाहता है, उसे मांसाहार का त्याग कर देना चाहिए.”
आगे इससे जुड़े और भी प्रमाण देखिये-
महाभारत के वनपर्व 313 में जब युधिष्ठिर से पूछा जाता है कि ब्राह्मण कौन हैं? तब युधिष्ठिर बताते हैं –
न तो कुल ब्राह्मणत्व में कारण है न स्वाध्याय और न शास्त्रश्रवण. ब्राह्मणत्व का हेतु आचार ही है, इसमें संशय नहीं है. इसलिये प्रयत्नपूर्वक सदाचार की ही रक्षा करनी चाहिये. ब्राह्मण को तो उस पर विशेष रूप से दृष्टि रखनी जरूरी है; क्योंकि जिसका सदाचार अक्षुण्ण है, उसका ब्राह्मणत्व भी बना हुआ है और जिसका आचार नष्ट हो गया, वह तो स्वयं भी नष्ट हो गया. पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले तथा शास्त्र का विचार करने वाले- ये सब तो व्यसनी और मूर्ख ही हैं. पण्डित तो वही है, जो अपने (शास्त्रोक्त) कर्तव्य का पालन करता है. चारों वेद पढ़ा होने पर भी जो दुराचारी है, वह अधमता में शूद्र से भी बढ़कर है. जो (नित्य) अग्निहोत्र में तत्पर और जितेन्द्रिय है, वही ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है.
महाभारत (3.177) में-
सर्प (नहुष) ने पूछा- “राजा युधिष्ठिर! यह बताओ कि ब्राह्मण कौन है?”
युधिष्ठिर ने कहा- “नागराज! जिसमें सत्य, दान, क्षमा, सुशीलता, क्रूरता का अभाव, तपस्या और दया- ये सद्गुण दिखाई देते हैं, उसी को ब्राह्मण कहा गया है.”
तब सर्प ने कहा- “युधिष्ठिर! सत्य, दान, अक्रोध, क्रूरता का अभाव, अहिंसा और दया आदि सद्गुण तो शूद्रों में भी हो सकते हैं.”
तब युधिष्ठिर ने कहा- “जिस शूद्र में सत्य आदि उपर्युक्त लक्षण हैं तो वह शूद्र शूद्र नहीं है, और यदि ये लक्षण ब्राह्मण में नहीं हैं तो वह ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है. जिसमें ये सत्य आदि लक्षण मौजूद हों, उसी को ब्राह्मण माना गया है और जिसमें इन लक्षणों का अभाव हो, उसे शूद्र कहना चाहिये.”
अनुशासन पर्व 143 में भगवान् शिव ने पार्वती जी को बताया है कि-
“गिरिराजकुमारी! ब्राह्मणत्व की प्राप्ति में न तो केवल योनि, न संस्कार, न शास्त्रज्ञान और न संतति ही कारण है. ब्राह्मणत्व का प्रधान हेतु तो सदाचार ही है. लोक में यह सारा ब्राह्मण समुदाय सदाचार से ही अपने पद पर बना हुआ है. सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकता है.”
भगवान् शिव ने आगे कहा है कि-
“देवि! शूद्र भी यदि जितेन्द्रिय होकर पवित्र कर्मों के अनुष्ठान से अपने अन्तःकरण को शुद्ध बना लेता है, वह द्विज की ही भाँति सेव्य होता है- यह साक्षात् ब्रह्मा जी का कथन है. मेरा तो ऐसा विचार है कि यदि शूद्र के स्वभाव और कर्म दोनों ही उत्तम हों तो वह द्विजाति से भी बढ़कर मानने योग्य है.”
व्याध गीता (महाभारत मार्कण्डेयसमास्या पर्व) में कहा गया है कि-
“जो ब्राह्मण होकर भी पतन के गर्त में गिराने वाले पापकर्मों में फंसा हुआ है और प्राय: दुष्कर्मपरायण तथा पाखंडी है, वह शूद्र के समान है. इसके विपरीत जो शूद्र होकर भी (शम) दम, सत्य तथा धर्म का पालन करने के लिये सदा उद्यत रहता है, वह ब्राह्मण ही है, क्योंकि मनुष्य सदाचार से ही द्विज होता है. शूद्रयोनि में उत्पन्न मनुष्य भी यदि उत्तम गुणों का आश्रय ले, तो वह वैश्य तथा क्षत्रिय भाव को प्राप्त कर लेता है. जो ‘सरलता’ नामक गुण में प्रतिष्ठित है, उसे ब्राह्मणत्व प्राप्त हो जाता है.”
ब्राह्मण को अपने सदाचार की रक्षा करनी चाहिए, तब ही वह ब्राह्मण कहला सकता है
व्याध गीता (Vyadh Gita) में जब कौशिक ब्राह्मण एक पतिव्रता स्त्री के सामने अहंकार का प्रदर्शन करते हैं और शाप देने की धमकी देते हैं, तब वह स्त्री कौशिक ब्राह्मण से कहती है-
“कृपया क्रोध न करें तपोधन! आप इस प्रकार कुपित होकर मेरा क्या कर लेंगे? मैं बगुली नहीं हूँ, जो आपकी इस क्रोध भरी दृष्टि से जल जाऊंगी. मैं बुद्धिमान ब्राह्मणों के तेज और महत्व को जानती हूँ. मनस्वी ब्राह्मण तो देवता के समान होते हैं. महात्मा ब्राह्मणों का क्रोध और कृपा दोनों ही महान् होते हैं. ब्रह्मन्! देवता लोग उसे ही ब्राह्मण मानते हैं जो जितेन्द्रिय, धर्मपरायण, स्वाध्यायतत्पर और पवित्र है तथा काम और क्रोध जिसके वश में है. स्वाध्याय, मनोनिग्रह, सरलता और इन्द्रियनिग्रह- ये ब्राह्मण के लिये सनातन धर्म कहे गये हैं.”
व्याध गीता में ही धर्मव्याध कौशिक ब्राह्मण को बताते हैं कि पूर्वजन्म में वे भी एक ब्राह्मण ही थे. लेकिन एक पशु का शिकार करने के प्रयास में उनके हाथों एक ऋषि की हत्या हो जाती है. ब्राह्मण होकर भी व्याध जैसा कर्म कर रहे थे, तो अगला जन्म व्याध योनि में ही मिला (ऋषि का शाप तो एक निमित्त मात्र था. यदि ऋषि शाप न भी देते तो भी उनका अगला जन्म व्याध योनि में ही होता). इसके बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व की पुनः प्राप्ति के लिए व्याध होकर भी जीवनभर मांसाहार और जीवहत्या नहीं की. मरे हुए पशुओं का मांस बेचकर जीविका तो चलाते, लेकिन अपने इस कर्म का भी समर्थन नहीं करते, बल्कि इससे छूटने के उपायों में लगे रहते. किसी से ईर्ष्या या कुंठा नहीं रखते, लोभ अहंकार आदि से दूर रहते और प्रसन्नतापूर्वक माता-पिता की सेवा में लगे रहते. और इस प्रकार उन्हें अगले जन्म में पुनः ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हो जाती है.
पुनर्जन्म और वर्ण प्राप्ति (Varna System)
महाभारत का अनुशासन पर्व 143 पढ़िए. उसमें भगवान् शिव ने माता पार्वती को वर्ण व्यवस्था के विषय में समझाया है. उससे आपको समझ आ सकता है कि एक मनुष्य कैसे दूसरे-दूसरे वर्णों को प्राप्त कर सकता है.
सनातन धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है. नियम यह है कि हम जैसे कर्म करते हैं, या जैसे आचरण को अपनाते हैं, हमें अगला जन्म उसी योनि में मिलता है. जैसे कि मान लीजिये कि हम इस जन्म में ब्राह्मण हैं, लेकिन हम मांस खाते हैं या मांस बेचते हैं, तन-मन की स्वच्छता आदि का ध्यान नहीं रखते, मन में लोभ कुंठा अहंकार ईर्ष्या आदि भरा हुआ है, तो भले ही इस जन्म में दुनिया की नजर में हम ब्राह्मण हैं, लेकिन देवताओं की नजर में हम ब्राह्मण नहीं हैं. हमें अगला जन्म शूद्र योनि में या चांडाल योनि में मिल सकता है. और यदि हमारे कर्म राक्षसों जैसे हुए, जैसे धर्म या ईश्वर के नाम पर निरपराध प्राणियों की हिंसा और कट्टरता, तो हमारा अगला जन्म मलेच्छ योनि में हो सकता है.
और यदि मान लीजिये कि हमने इस जन्म में शूद्र कुल में जन्म लिया है, लेकिन हमारा खानपान सात्विक है, हमारा व्यवहार भी सात्विक है, मन में लोभ कुंठा अहंकार ईर्ष्या आदि नहीं है, तो भले ही पूरी दुनिया की नजर में हम शूद्र हैं, लेकिन देवताओं की दृष्टि में हम ब्राह्मण ही हैं और अगला जन्म हमें ब्राह्मण कुल में ही मिल सकता है. और मान लीजिये कि हम किसी भले व्यक्ति या प्राणी को बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं, तो भले ही हममें लड़ने की ताकत न हो, लेकिन हमें अगला जन्म वीर क्षत्रिय के रूप में मिल सकता है. तो जैसा मन, भाव और आचरण होगा, वैसा ही जन्म मिलेगा.
और इसीलिए युधिष्ठिर ने कहा है कि “मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक अपने सदाचार की ही रक्षा करनी चाहिये. ब्राह्मण को तो उस पर विशेष रूप से दृष्टि रखनी जरूरी है; क्योंकि जिसका सदाचार अक्षुण्ण है, उसका ब्राह्मणत्व भी बना हुआ है.”
और ऐसा ही ब्राह्मण दूसरों को ज्ञान देने योग्य समझा गया है, ऐसा ही ब्राह्मण यज्ञ-कर्मकाण्ड आदि कराने का अधिकारी कहा गया है, ऐसा ही ब्राह्मण वेदाध्ययन का अधिकारी कहा गया है. जो ब्राह्मण सदाचारी होगा, अर्थात् जो मनुष्य ब्राह्मण धर्म का पालन करेगा, वह जो भी बोलेगा या लिखेगा, वह सबके हित में ही होगा, वह समाज के कल्याण में होगा. ऐसा ब्राह्मण यदि कोई वैज्ञानिक आविष्कार करेगा तो वह विश्व के हित में ही होगा, क्योंकि ऐसा व्यक्ति कभी ऐसा कोई कार्य करेगा ही नहीं, जिससे आगे चलकर समाज का अहित हो. ऐसा ब्राह्मण जब शास्त्रों को पढ़ेगा, तो वह उनके सही अर्थ को ग्रहण कर पायेगा, उनका मनमाना अर्थ लगाकर अर्थ का अनर्थ नहीं करेगा.
और बस यही कारण है कि शूद्रों को वेदाध्ययन की मनाही है, क्योंकि मन को तमस से भरकर वेदों का-शास्त्रों का सही अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता है, और ऐसे में समाज में झूठ ही फैलता है, अर्थ का अनर्थ ही होता रहता है.
(व्याध गीता में) जहाँ एक शूद्र व्याध ने जीवनभर ब्राह्मण धर्म का ही पालन करने का प्रयास किया, तो उसके उपदेशों को वेदव्यास जी ने महाभारत में ‘गीता’ के नाम से स्थान दिया. तो इस प्रकार हमारे यहाँ सदाचारी और सात्विक व्यक्ति को ‘ब्राह्मण’ कहा गया है, और सदाचारी या अच्छे व्यक्ति का विशेष सम्मान तो प्रत्येक व्यक्ति को करना ही चाहिए.
♦ ब्राह्मण सर्वोच्च नहीं हैं, ब्राह्मणत्व सर्वोच्च है. इसी प्रकार सभी शूद्र नीच नहीं हैं, शूद्रता नीच है. यदि सभी ब्राह्मण सर्वोच्च होते तो भगवान श्रीकृष्ण द्रोणाचार्य का वध न करवाते. और यदि सभी शूद्र नीच होते तो वेदव्यास जी धर्मव्याध के उपदेशों को ‘गीता’ के नाम से महाभारत में स्थान न देते.
महाभारत वनपर्व के अध्याय 185 में बताया गया है कि-
“ब्राह्मण क्षत्रिय से और क्षत्रिय ब्राह्मण से संयुक्त हो जाएँ, तो वे दोनों मिलकर शत्रुओं को उसी प्रकार दग्ध कर डालते हैं, जैसे अग्नि और वायु परस्पर सहयोगी होकर कितने ही वनों को भस्म कर डालते हैं. (उदाहरण- श्रीराम और उनके सभी गुरु व महर्षि, आचार्य चाणक्य और चन्द्रगुप्त)
और यही कारण है कि हिन्दू विरोधियों द्वारा ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच फूट डालने का बहुत प्रयास किया जाता है.
मनुस्मृति में ब्राह्मण (Manusmriti Brahmin)
मनुस्मृति (Manusmriti) में व्यक्तिगत मनशुद्धि से लेकर पूरी समाज व्यवस्था तक ऐसी कई अच्छी और सुंदर बातें हैं जो मानवजाति का मार्गदर्शन करती हैं. जन्म के आधार पर जाति और वर्ण व्यवस्था का स्पष्ट खण्डन सबसे पहले मनुस्मृति में ही मिलता है. (श्लोक-12/109, 12/114, 9/335, 10/65, 2/103, 2/155-58, 2/168, 2/148, 2/28).
मनुस्मृति नि:शुल्क शिक्षा की बात करती है (3/156) (ब्राह्मण दक्षिणा में मिले धन का संचय नहीं करते थे, बल्कि उससे निःशुल्क शिक्षा देते थे). मनुस्मृति में सबके लिए समान शिक्षा और सबको शिक्षा ग्रहण करने की बात भी है (2/198-215).
मनुस्मृति के अनुसार, कोई भी मनुष्य ब्राह्मण बन सकता है या किसी भी वर्ण को धारण कर सकता है. ज्ञानवान् ब्राह्मण पूज्य हैं और श्रद्धा का स्थान हैं, लेकिन यदि ब्राह्मण अधर्म करे, तो शूद्र की अपेक्षा उस पर दण्ड चतुर्गुण है (8/268), क्योंकि राजर्षि मनु का कहना है कि जिसका कार्य देश की नयी पीढ़ी को शिक्षा देना, सही मार्ग दिखाना और सुसंस्कारित करना है, यदि उसका ही आचरण गलत होगा, तो फिर वह नयी पीढ़ी को क्या सिखाएगा? इसलिए यदि ऐसा व्यक्ति अधर्म या अनैतिक कार्य करता है, तो उसका अपराध और भी बड़ा कहलाएगा. मनु ने दुष्ट, कठोर और छली ब्राह्मण की घोर निन्दा की है (4/195-197).
मनुस्मृति पर सबसे अधिक आरोप लगता है जातिवाद का कि यह ब्राह्मणवादी है और इसमें शूद्रों के अधिकारों के विपरीत बातें कही गई हैं. जबकि संस्कृत और भारतीय धर्मों के एक प्रोफेसर पैट्रिक ओलिवेल के अनुसार-
“हिंदू धर्म-शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था समाज को चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में विभाजित करती है. हमें कोई उदाहरण नहीं मिलता है कि व्यक्तियों के समूह या वर्ण या जाति के संदर्भ में ‘शुद्ध/अशुद्ध’ शब्द का प्रयोग किया गया हो. हिंदू धर्म-शास्त्र ग्रंथों में शुद्धता-अशुद्धता की चर्चा अवश्य की गई है, लेकिन केवल व्यक्ति के नैतिक, अनुष्ठान और जैविक दोषों (जैसे भोजन में मांस, पेशाब और स्वच्छता) के संदर्भ में. मूल ग्रंथों में अशुद्धता का एकमात्र उल्लेख उन लोगों के बारे में है, जो गंभीर पाप या अपराध करते हैं, जो बर्बर और अधार्मिक या अनैतिक हैं, उन्हें ही ‘गिरे हुए लोग’ और ‘अशुद्ध’ कहा गया है.”
क्या शूद्र अछूत हैं?
संस्कृत में “अछूत” को “अस्पृश्य” कहते हैं, और किसी भी वैदिक ग्रंथ में “अस्पृश्य” शब्द का उल्लेख तक नहीं है.
महाभारत आदि के अनुसार किसी किसान, सफाईकर्मी, मजदूर या शिल्पकार आदि को शूद्र वर्ग में नहीं रखा गया है. व्याध जैसे कर्मों को या चमड़ा बेचने या मांस बेचने और खाने वालों आदि को शूद्र वर्ग में रखा गया है. भला किसानी, शिल्पकारी या मजदूरी या साफ-सफाई करना शूद्रता की निशानी हो भी कैसे सकता है? ऐसे कार्यों को छोटा मानने की मानसिकता तो कलियुगी लोगों की है.
जो शूद्र शूद्रत्व को त्यागकर अन्य वर्णों को प्राप्त करना चाहता था, वह व्याधों के समान निन्ध कर्म करके जीविका चलाने की बजाय किसानी, सफाईकर्मी, श्रमिक, शिल्पकार, चित्रकार, कारीगर आदि व्यवसायों को अपना लेता था. और इसे देखकर वामपंथी इतिहासकारों ने यह दुष्प्रचार कर दिया कि किसानी, सफाईकर्मी, मजदूर या शिल्पकार आदि व्यवसायों को करने वाले छोटी जाति में आते थे और इनके साथ भेदभाव होता था.
जबकि सत्य यह है कि उस समय अधिकतर लोग शाकाहारी ही होते थे. (आपत्तिकाल को छोड़कर) तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) को मांसाहार से दूर रहने के लिए ही कहा गया है. किसी को शूद्र नाम की किसी जाति से कोई समस्या नहीं थी, लेकिन तीनों वर्णों को कुछ मामलों में शूद्रों से दूर ही रहने के लिए इसलिए कहा जाता था, क्योंकि संगति का असर पड़ता है. संगति का असर होने से रोका जा सके, साथ ही समाज में शुद्धता बने रहे इसलिए. दूर रहने का कारण किसी की जाति या वर्ण नहीं, बल्कि आचरण था.
आज भारत में बड़ी संख्या में लोग मांसाहारी बन गए हैं, कारण क्या है?
कारण कहीं न कहीं संगति ही तो है. क्यों अपराध बढ़ते जा रहे हैं, सुविधाओं के नाम पर अशुद्धता बढ़ती जा रही है, इन सबका पहला कारण संगति ही है.
“काजल की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय,
एक लीक काजर की लागि है पे लागि है”
क्या आपने कभी किसी पौराणिक कथा में पढ़ा है कि शूद्रों ने या चांडालों ने अपने अधिकार के लिए आंदोलन किया हो, या आरक्षण वगैरह मांगा हो, या समाज पर या अन्य वर्णों पर भेदभाव का आरोप लगाया हो या उनसे मैला वगैरह उठवाने जैसा कोई काम कराया गया हो?
नहीं, कभी नहीं, ऐसी कहानियां केवल आधुनिक समय की ही मिलेंगी. पौराणिक कथाओं में कहीं ऐसा कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि उस समय के शूद्रों को भी मालूम था कि वे शूद्र क्यों कहलाते हैं और वे चाहें तो अपने आचरण और कर्मों में बदलाव लाकर अन्य वर्ण को धारण कर सकते थे.
चाहे विज्ञान हो या धर्म, दोनों का ही यह सिद्धांत है कि दुनिया की कोई भी वस्तु (या मनुष्य) अपने-अपने गुण और स्वभाव के अनुसार ही अलग-अलग वर्ण (व रंग) को धारण करता है.
हमारे यहाँ सेवा का अर्थ गुलामी से नहीं, बल्कि किसी के सानिध्य में बैठकर विनम्रतापूर्वक शिक्षा ग्रहण करने से है. स्वयं भगवान् श्रीराम ने भी यही आदर्श निभाया.
ऋषि लोग कठोर तप करके बड़ी शक्तियां अर्जित कर लेते थे और अपना ज्ञान व शक्तियां योग्य क्षत्रियों को दे देते थे. और क्षत्रिय लोग ऋषियों, सज्जनों और समाज की रक्षा करते रहते थे.
इसलिए असली ब्राह्मणों का अवश्य करें सम्मान
यदि ब्राह्मणत्व और शूद्रत्व में अंतर समझना हो तो सुदामा को देखिये जो गरीबी की चरम सीमा को देखकर भी कोई अनैतिक कार्य करके धन कमाने को तैयार नहीं हुए.
बस यही कारण है कि हमारी भारतीय सनातन परम्परा में ब्राह्मणों को विशेष सम्मान दिया गया है, ब्राह्मणों को पूजनीय बताया गया है, ब्राह्मणों को ही दान देने का महत्त्व बताया गया है, क्योंकि भगवद्गीता के अनुसार दान सुपात्र को ही दिया जाना चाहिए, जो आपके दिए दान का दुरुपयोग न करे या उससे कोई गलत कार्य न करे.
भगवद्गीता के अध्याय १७ के अनुसार- “जिस मनुष्य को दान देने की आवश्यकता नहीं है तथा जिनको दान देने का शास्त्रों में निषेध है, वे धर्मध्वजी, पाखण्डी, कपट वेषधारी, हिंसा करने वाले, मद्य-मांस आदि अभक्ष्य वस्तुओं का भक्षण करने वाले, चोरी, व्यभिचार आदि नीच कर्म करने वाले, ठग, जुआरी और नास्तिक आदि सभी दान के लिये अपात्र है.”
जो ब्राह्मण सदाचारी नहीं हैं, सात्विक नहीं हैं, किसी भी बहाने जीवहत्या करते और कराते हैं, मांसाहारी हैं, जिनके मन में झूठ अहंकार ईर्ष्या लोभ कपट आदि भरा हुआ है, वे केवल सरनेमधारी ब्राह्मण हैं. देवताओं की नजर में वे ब्राह्मण नहीं हैं. और ऐसे ‘ब्राह्मण’ समाज को पतन की ओर ले जाते हैं.
आज कितने ही धूर्त “पंडित” मांसाहार करते हैं, किसी न किसी बहाने मांसाहार व पशुबलि जैसे राक्षसी कर्मों का समर्थन करते रहते हैं और लोगों को ज्ञान व उपदेश भी दे रहे हैं, इतिहास लेखन कर रहे हैं, शास्त्रों पर ज्ञान दे रहे हैं, और आज ऐसे ही लोग संत व ज्ञानी भी कहला रहे हैं, क्योंकि यह कलयुग चल रहा है. और ऐसे लोग किस प्रकार के उपदेश और ज्ञान देते हैं, यह बताने की आवश्यकता तो है नहीं.
जैसे आज लगभग हर मांसलोभी व्यक्ति भगवान को, प्राचीन ऋषियों को या महान पूर्वजों को मांसाहारी साबित करने में जुटा हुआ है. आज लोग प्रवचन देते हैं तो अपने मतों और स्वार्थ के समर्थन हेतु, जिसके लिए वे शास्त्रों में अर्थ का अनर्थ करते रहते हैं. ऐसे लोग शास्त्र पढ़ते ही इसलिए हैं ताकि उनके शब्दों को खींचतान कर अपने मतलब का अर्थ निकाल सकें, और इसीलिए ऐसे लोगों को वेदों से दूर रखने को कहा गया है, क्योंकि ऐसे लोग अपने मनमाने अर्थ से शास्त्रों-ग्रंथों को दूषित कर देते हैं.
गौतम बुद्ध (Gautam Buddha) ने भी ऐसे ही ब्राह्मणों की निंदा की है.
सिर ठीक रहेगा तो बिगड़े हुए हाथ-पाँव-पेट आदि को अपने-आप ही ठीक कर लेगा, लेकिन हाथ-पाँव-पेट ठीक भी रहें और सिर गड़बड़ा जाये, तो पागलखाना ही जाना पड़ेगा. अतः ब्राह्मणों को अपना आचरण देखना और सुधारना चाहिए. ब्राह्मणों का आचरण ठीक होगा, तो बाकी वर्ण भी अपने-आप ही ठीक हो जायेंगे. छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार जो ऐन्द्रिक वासनाओं के पीछे भागे, वह शूद्र है. अतः आज लगभग हर कोई शूद्र ही है, लेकिन प्रयास करने पर ब्राह्मण बन सकता है क्योंकि चारों वर्ण विराट पुरुष के पवित्र शरीर से ही निकले हैं.
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