Vedas : वेद क्या हैं और वेदों में क्या है? वेदों को ‘त्रयी’ क्यों कहा गया है?

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वेद क्या हैं, वेदों में क्या है? वेदों को 'त्रयी' क्यों कहा गया है?

What is Vedas

वेद (Vedas) विश्व-वाङ्गमय की अमूल्य निधि हैं, भारतीय संस्कृति के मूल स्रोत हैं. भारतीय संस्कृति की गौरव-गाथा वेदों से प्रारम्भ होती है. वस्तुत: वेदों में सब कुछ प्रतिष्ठित है. धर्म-दर्शन, अध्यात्म, आचार-विचार, रीति-नीति, ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, योग, संगीत, शिल्प, मर्यादा, लोक-आचरण आदि मानव-जीवन के लौकिक एवं पारलौकिक उत्थान के लिए उपयोगी सभी सिद्धांतों एवं उपदेशों का अद्भुत वर्णन वेदों में है. इसीलिये मनीषियों ने वेदों को अक्षय ज्ञान का सिंधु तथा समस्त धर्मों का मूल बताया है. भगवान्‌ मनु ने वेदों को ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’ कहा है.

शास्त्र, उपनिषद्‌, दर्शन, पुराण आदि सभी धर्मग्रंथों का मूल आधार वेद ही हैं. वास्तव में जीव, जगत्‌, प्रकृति, आत्मा एवं परमात्मा के स्वरूप का वास्तविक ज्ञान ही वेदों का स्वरूप है. जो जानने योग्य अर्थ अन्यत्र है अथवा नहीं है, उस साध्य-साधन आदि समस्त वर्णनीय अर्थों की निष्ठा वेदों में है. अत: वेदवाणी दिव्य है, नित्य है एवं आदि-अंतरहित है. वेदों को जान करके संपूर्ण ब्रह्मांड और ईश्वर को जाना जा सकता है.

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कोई व्यक्ति विश्व के किसी भी हिस्से में हो, युग चाहे कोई भी हो, पर वेदमंत्रों के भीतर उस व्यक्ति के प्रश्नों और समस्याओं के उत्तर एवं समाधान मिलते हैं. फिर चाहे प्रश्न या समस्याएं व्यक्तिगत हों या पारिवारिक, सामाजिक हों या वैश्विक, भौतिक हों या आध्यात्मिक… इन सभी के समाधान और उसके लिए उपयोगी साधन वेदों में मिलते हैं, क्योंकि वेदों में दिया गया ज्ञान किसी देश-काल की सीमा में बंधा हुआ नहीं है.

वेदों में प्रदत्त ज्ञान प्रत्येक युग की कसौटी पर खरा उतरता है, प्रासंगिक है और मानव-सभ्यता की आधारशिला है. वैदिक विज्ञान एवं वैदिक गणित का ज्ञान आज के युग में भी प्रासंगिक है तथा प्रत्येक युग की चुनौती व कसौटी पर खरा उतरा है. चाहे चिकित्सा के क्षेत्र हो या मनोविज्ञान, यान बनाने की कला हो या वास्तुकला, साहित्य, कला, दर्शन, ज्योतिष, गणित आदि सभी क्षेत्रों को हमारे मनीषियों ने समृद्ध किया है.

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वेद वाणी के क्षीर सागर हैं. वस्तुतः वाणी की मधुमयता और मृदुलता का चरम उत्कर्ष वेदों में मिलता है. समस्त संस्कृति व वाङ्गमय का कारण यही वाणी है. वाणी की दिव्यता तभी सिद्ध होती है, जब वाणी सुमधुरभाषिणी होने के साथ-साथ कल्याणकारी व भवतारिणी भी हो, अन्यथा वह मात्र बोली बनकर ही रह जाती है. वेदों के पारगामी ऋषि-मुनियों की वाणी बुद्धि के नेत्रों को खोलती है एवं मुक्ति का भी मार्ग दिखाती है.

वेदों का प्रादुर्भाव कब और किसके द्वारा हुआ? इस संबंध में स्मृति-वचन कहता है-
‘अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा’

अर्थात्‌ वेदवाणी अनादि, अनंत और सनातन है एवं सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी द्वारा उसे लोकहितार्थ प्रकट किया गया है.

विष्णुपुराण के तृतीय अंश व दूसरे अध्याय में लिखा है कि प्रत्येक चतुर्युग के अंत में वेदों का लोप हो जाता है, तथा उस समय सप्तर्षिगण स्वर्गलोक से पृथ्वी पर आकर उनका प्रचार करते हैं. वेदों का ज्ञान यज्ञ-संस्कृति का पोषक है. वेद ने इस सृष्टि को यज्ञमय कहा है. इस प्रकार वे सप्तऋषि यज्ञकर्मों का विस्तार करते हैं. यज्ञों का विस्तार, शुभ कर्मों का प्रसार, शुद्ध तथा पापरहित मन वाले व्यक्तियों द्वारा ही किया जाता है. ऐसे सत्पुरुष न केवल शुभ एवं कल्याणकारी संकल्प ही करते हैं, वरन् उन्हें शीघ्र से शीघ्र पूर्ण करने के साधन भी करते हैं. शुद्ध अंतःकरण में ही ज्ञान अथवा ईश्वर का प्रवेश होता है.

वेद क्या हैं और वेदों में क्या है?

वेद ब्रह्मवाणी हैं. वेदों को अपौरुषेय (जो मनुष्य द्वारा न रचे गए हों) कहा जाता है. वैदिक ऋषि मंत्रों के द्रष्टा होते थे. ईश्वर द्वारा प्रकट किए जाने तथा उन्हीं से ऋषियों द्वारा सुने जाने के कारण वेदों को ‘श्रुति’ भी कहा जाता है. इसीलिए वेदों के सूक्तों से संबद्ध अनेक ऋषि ‘दृष्टा’ अर्थात् ‘देखने वाले’ कहलाते हैं. जड़ से चेतन तथा स्थूल से सूक्ष्म की खोज करते हुए प्राचीन ऋषियों ने अपने भीतर मंत्रों के दर्शन किये हैं, अतः उन्हें ‘मंत्रदृष्टा ऋषि’ कहते हैं.

पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य कहते हैं कि प्रत्येक पदार्थ और विधान के दो भाग होते हैं- जड़ और चेतन. आत्मज्ञानी पुरुष प्रत्येक पदार्थ में मुख्य रूप से चेतन शक्ति को ही देखता है, क्योंकि वास्तविक कार्य और प्रभाव उसी का होता है. वैदिक ऋषियों ने अपने उग्र तपोबल से, योगबल से ब्रह्मज्ञान को, दृश्य-जगत तथा जड़ प्रकृति के भीतर महान अदृश्य चेतना के सत्य को व उसके संचालन की क्रमबद्ध व्यवस्था के ज्ञान को प्राप्त किया.

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यह उनका अंधविश्वास नहीं, बल्कि उनका उत्कृष्ट कोटि का ज्ञान था, जो जड़ में स्थित चेतन को देख लेता था. उन्होंने स्तुति प्राकृतिक शक्तियों के स्थूल रूप की नहीं, बल्कि उनकी शासक अथवा अधिष्ठात्री चेतन शक्ति की की है. प्रत्येक पदार्थ की मूलभूत शक्ति व उनके कार्यों के वैज्ञानिक रहस्य इन ऋषियों के प्रज्ञा-चक्षुओं के सम्मुख प्रकट होते थे.

ज्ञान प्राप्त करने की लालसा, उसके प्रति समर्पण और दिव्य प्रेरणा से ज्ञान अपने शुद्ध स्वरूप में प्रकट होता ही है. वेदों में वैदिक ऋषियों का अनुभूतिजन्य तत्व-दर्शन समाहित है, जो छल-कपट रहित, निष्पाप, संयत आत्मा वाले ऋषिगणों ने अपनी दिव्य-दृष्टि व कठोर तपस्या के फलस्वरूप पाया था. वेदों के मंत्र गूढ़ार्थ लिए हुए होते हैं. बिना आत्मज्ञान के इनके मर्म को नहीं समझा जा सकता है.

वेदों की संख्या व क्रम

वेद चार हैं-
ऋग्वेद,
यजुर्वेद,
सामवेद
अथर्ववेद.
इन चारों वेदों का अध्ययन क्रम में ही किया जाता है.

ऋग्वेद- स्थिति और ज्ञान. ऋग्वेद १० मंडलों में विभाजित है और इसमें १०२८ सूक्त हैं. वेदमंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है. इन सूक्तों के क्रमबद्ध संग्रह को ऋग्वेद संहिता भी कहते हैं. इन सूक्तों में मंत्र हैं, जिन्हें ऋचाएं कहते हैं. ऋग्वेद पदार्थ के गुण, कर्म और स्वभाव को बताता है, इसीलिए इसे ज्ञानकाण्ड भी कहा गया है. अर्थात्‌ सबसे पहले हमें प्रकृति और उसके गुणों का अध्ययन करना चाहिए. ऋग्वेद में भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है. इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है.

यजुर्वेद- गतिशील आकाश एवं कर्म. यजुर्वेद में हम पदार्थों के गुण और स्वभाव के अनुसार उन्हें कार्य रूप में परिवर्तित करते हैं, यानी प्रैक्टिकल करते हैं, इसीलिए यजुर्वेद में कर्मकांड प्रधान विषय हैं. अर्थात्‌ यह कर्मयोग है. यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं. यज्ञ के अतिरिक्त तत्वज्ञान (रहस्यज्ञान) का वर्णन है- ब्रह्मांड, आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान. यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं- शुक्ल और कृष्ण.

सामवेद- रूपांतरण और संगीत, सौम्यता और उपासना. ऋग्वेद के ज्ञानयोग और यजुर्वेद के कर्मयोग से ईश्वर की रचना का बोध हो जाता है. इससे भक्तिभाव या समर्पण भाव उत्पन्न होता है, और इसीलिए सामवेद के मंत्र संगीत प्रधान हैं और उनका विषय भक्ति उपासना है, और इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है कि “मैं वेदों में सामवेद हूँ.” इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है. इसी में शास्त्रीय संगीत और नृत्य का उल्लेख भी मिलता है. इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है. इसमें संगीत के विज्ञान और मनोविज्ञान का वर्णन भी मिलता है.

अथर्ववेद- ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की विद्या से एक विशेष ज्ञान की उत्पत्ति होती है, जिसे विज्ञान कहते हैं, और इसीलिए अथर्ववेद का मुख्य विषय विज्ञान है. इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का उल्लेख है. इसमें भारतीय परम्पराओं और ज्योतिष का ज्ञान भी मिलता है. इसमें शत्रु के नाश के लिए, अपनी सुरक्षा के लिए तथा पाप, विपत्ति, दुर्भाग्य आदि से रक्षा के लिए भी प्रार्थनाएं उपलब्ध होती हैं.

वेदों को ‘त्रयी’ क्यों कहा गया है?

वेदों में चार संहिताएँ हैं- ऋक्, यजु:, साम और अथर्व. यही मूलत: वेद हैं. इन्हें क्रमश: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद कहते हैं. ‘त्रयी’ शब्द वेदत्रयी के अर्थ में प्रयुक्त होता है और इससे ऋक्, यजु: व साम का बोध होता है. विद्वान लेखक श्री सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ वेदत्रयी के विषय में लिखते हैं-

‘वेदत्रयी’ शब्द ने बड़े-बड़े वैदिक अन्वेषकों को भ्रम में डाला है. वे यह सोच बैठे कि तीन वेद ही मुख्य हैं और चौथा पीछे का है, किन्तु ऐसा मानना सर्वथा भ्रम है. ‘वेदत्रयी’ का अर्थ ‘तीन वेद’ नहीं है. इसका अर्थ है त्रिकाण्डात्मक वेद. वेदों में ज्ञान, कर्म और उपासना- इन्हीं तीन विषयों का वर्णन है. पूरे वेदों के सभी मंत्र इन्हीं में से किसी न किसी विषय का प्रतिपादन करते हैं, और इसी कारण से वेद को ‘त्रयी’ कहा गया है.

स्वामी काशिकानंद गिरिजी ने कहा है कि वस्तुत: ‘त्रयी’ शब्द का अर्थ ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद से मत लगाओ. ऋक् यजु और साम से लगाओ. नियतपादाक्षर ऋक् है, अनियत पादाक्षर यजु है एवं गीतियुक्त साम है. स्वामीजी कहते हैं कि ‘ऋगादिपरक: शब्दो न त्वृग्वेदादितत्पर:’; अर्थात्‌ त्रयीपद से ऋग्वेदादि न लेकर ऋगादि ही लेना चाहिये. आसान शब्दों में कहा जाए तो गद्य, पद्य और गीतियुक्त- इन तीन विधाओं में प्राप्त होने से वेदों को ‘वेदत्रयी’ कहा गया है.


“I go to the Upanishad to ask questions.”
(‘God Is Not One’ book)

– Niels Bohr (Nobel Prize winning physicist and a founder of Quantum Theory)

“Most of my ideas & theories are heavily influenced by Vedanta.”
(‘My View of the World’ book)

– Erwin Schrödinger (A Nobel prize winner in physics of 1933). The Austrian physicist who made significant contributions to the development of quantum mechanics, was deeply interested in Eastern philosophy and spirituality, including Hinduism.

“Whenever I give a lecture on Quantum Physics, I feel as if I am talking on Vedanta!”

– Prof. Dr. Hans Peter Dürr (A german physicist. He worked on nuclear and quantum physics, elementary particles and gravitation, epistemology, and philosophy, and he advocated responsible scientific and energy policies).

“Algebra, square roots, concepts of time, architecture, the structure of the universe, metallurgy, even aviation were first found in the Vedas, travelled to Europe through Arab countries, and were subsequently posited as discoveries of scientists of the western world.”

– S. Somanath (The chairman of the Indian Space Research Organisation-ISRO).


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