Radha Krishna Marriage : राधा जी का विवाह किसके साथ हुआ था?

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Shri Radha ji ke Janm Ki Katha

Radha ji ka Vivah Kiske Sath Hua Tha (Radha Krishna Marriage)

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अध्याय 49 में भगवान् शिव माता पार्वती जी को बताते हैं-

“पार्वती! एक समय की बात है, श्रीकृष्ण विरजा नाम वाली सखी के यहाँ थे. इससे श्रीराधाजी को क्षोभ हुआ. इस कारण विरजा वहां नदीरूप होकर प्रवाहित हो गई. विरजा की सखियाँ भी छोटी-छोटी नदियां बन गईं. पृथ्वी की बहुत-सी नदियों ओर सातों समुद्र विरजा से ही उत्पन्न हैं. राधा ने श्रीकृष्ण के पास जाकर लीलावश उनसे कुछ कठोर शब्द कहे. श्रीदामा ने इसका विरोध किया. इस पर लीलामयी श्रीराधा ने उसे असुर होने का शाप दे दिया. श्रीदामा ने भी लीलाक्रम से ही श्रीराधा को मानवीरूप में प्रकट होने की बात कह दी.

श्रीदामा माता राधा तथा पिता श्रीहरि को प्रणाम करके जब जाने को उद्यत हुआ, तब श्रीराधा पुत्रविरह से कातर हो आंसू बहाने लगीं. श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाकर शान्त किया और शीघ्र उसके लौट आने का विश्वास दिलाया. श्रीदामा ही तुलसी का स्वामी शंखचूड़ नामक असुर हुआ था, जो मेरे शूल से विदीर्ण एवं शापमुक्त हो पुनः गोलोक चला गया.

सती राधा इसी वाराहकल्प में गोकुल में अवतीर्णं हुई थीं. वे ब्रज में वृषभानु वैश्य की कन्या हुईं. वे देवी अयोनिजा थीं, माता के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुई थीं. उनकी माता कलावती ने अपने गर्भ में “वायु” को धारण कर रखा था. उसने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया; परंतु स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गईं.

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जगत्पति श्रीकृष्ण कंस के भय से रक्षा के बहाने शैशवावस्था में ही गोकुल पहुंचा दिये गये थे. वहाँ श्रीकृष्ण की माता जो यशोदा थीं, उनका सहोदर भाई वैश्य “रायाण’ था. गोलोक में तो वह श्रीकृष्ण का अंशभूत गोप था, पर इस अवतार के समय भूतल पर वह श्रीकृष्ण का मामा लगता था.

श्रीराधा को नूतन यौवन में प्रवेश करती देख उनके माता-पिता ने ‘रायाण’ के साथ राधा का संबंध निश्चित कर दिया. उस समय श्रीराधा घर में अपनी छाया को स्थापित करके स्वयं अंतर्धान हो गईं. श्रीराधा की उस छाया के साथ ही उक्त रायाण का विवाह हुआ. उधर, जगत्स्रष्टा विधाता (ब्रह्माजी) ने पुण्यमय वृन्दावन में श्रीकृष्ण के साथ साक्षात्‌ (वास्तविक) श्रीराधा का विधिपूर्वक विवाहकर्म सम्पन्न कराया. साक्षात्‌ राधा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में वास करती थीं और छाया राधा रायाण के घर में.

गोकुलनाथ श्रीकृष्ण कुछ काल तक वृन्दावन में श्रीराधा के साथ आमोद-प्रमोद करते रहे. तदनन्तर श्रीदामा के शाप से उनका श्रीराधा के साथ वियोग हो गया. इसी बीच में श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का भार उतारा. सौ वर्ष पूर्ण हो जाने पर तीर्थयात्रा के प्रसङ्ग से श्रीराधा ने श्रीकृष्ण का और श्रीकृष्ण ने श्रीराधा का दर्शन प्राप्त किया. तदनन्तर तत्त्वज्ञ श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ गोलोकधाम पधारे. कलावती और यशोदा भी श्रीराधा के साथ ही गोलोक चली गईं.”

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अध्याय 47 के अनुसार-

एक बार गोलोक में श्रीकृष्ण विरजा देवी के यहाँ थे. श्रीराधा सखियों सहित वहां जाने लगीं. तब श्रीदामा ने उन्हें रोका. इस पर श्रीराधा ने श्रीदामा को शाप दे दिया कि “तुम असुरयोनि को प्राप्त हो जाओ.”
तब श्रीदामा ने भी श्रीराधा को यह शाप दे दिया कि “आप भी मानवीयोनि में जाएँ! वहां गोकुल में श्रीहरि के ही अंश महायोगी रायाण नामक एक वैश्य होंगे. आपका छायारूप उनके साथ रहेगा. अतएव भूतल पर मूढ़ लोग आपको रायाण की पत्नी समझेंगे. श्रीहरि के साथ कुछ समय आपका विछोह रहेगा.”

इस कलह से श्रीदामा और श्रीराधा दोनों को ही क्षोभ हुआ. तब श्रीकृष्ण ने श्रीदामा को सान्त्वना देकर कहा कि “तुम त्रिभुवन विजेता सर्वश्रेष्ठ शंखचूड़ नामक असुर होओगे और अन्त में श्रीशंकर के त्रिशूल से भिन्न-देह होकर यहाँ मेरे पास लौट आओगे.”

अध्याय 85 के अनुसार-

श्रीभगवान् ने वृंदा से कहा-
“तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्माजी की आयु के समान आयु प्राप्त कर ली है. तुम अपनी आयु धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ. वहां तुम तपस्या के द्वारा इसी शरीर से मुझे प्राप्त करोगी. गोलोक आने के पश्चात्‌ वाराहकल्प में तुम वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता होओगी. उस समय मेरे कलांश से उत्पन्न हुए रायाण गोप तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे. फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे प्राप्त करोगी.

जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी. तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी. विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायेंगी और रायाण गोप तुम छाया को ही ग्रहण करेंगे, किन्तु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें “यह राधा ही है”- ऐसा समझेंगे. उन गोपों को तो स्वप्रन में भी वास्तविक राधा के चरणकमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरे वक्षःस्थल में रहती हैं और उनकी छाया रायाण की भार्या होती है.”

भगवान् शिव माता पार्वती जी को बताते हैं-
“गोपगण स्वप्र में भी श्रीराधा के चरणारविन्द का दर्शन नहीं कर पाते थे. ब्रह्माजी ने पूर्वकाल में श्रीराधा के चरणारविन्द का दर्शन पाने के लिये पुष्कर में साठ हजार वर्षों तक तपस्या की थी; उसी तपस्या के फलस्वरूप उन्हें श्रीराधा-चरणों का दर्शन प्राप्त हुआ था.”

अध्याय 15 के अनुसार-

तुलसी ने ब्रह्माजी से कहा- “पितामह! भगवन्‌! आप ऐसी कृपा करें कि मैं गोविन्द को निश्चय ही प्राप्त कर सकूं.”
तब ब्रह्माजी बोले- “देवी. मैं तुम्हारे लिए भगवती राधा के षोडशाक्षर-मन्त्र का उपदेश करता हूँ. तुम इसे हदय में धारण कर लो. मेरे वर के प्रभाव से अब तुम राधा को प्राण के समान प्रिय बन जाओगी. सुभगे! भगवान्‌ गोविन्द की तुम वैसी ही प्रेयसी बन जाओगी जैसी राधा हैं.”

इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी ने तुलसी को भगवती राधा का षोडशाक्षर-मन्त्र बता दिया. साथ ही स्तोत्र, कवच, पूजा की सम्पूर्ण विधियां तथा किस क्रम से अनुष्ठान करना चाहिये, ये सभी बातें बतला दीं. तब तुलसी ने भगवती राधा की उपासना की और उनके कृपाप्रसाद से वह देवी राधा के समान ही सिद्ध हो गईं. ब्रह्माजी ने जैसा कहा था, ठीक वैसा ही फल तुलसी को प्राप्त हो गया. तपस्या संबंधी जो भी क्लेश थे, वे मन में प्रसन्नता उत्पन्न होने के कारण दूर हो गये; क्योंकि फल सिद्ध हो जाने पर मनुष्यों का दुःख ही उत्तम सुख के रूप में परिणत हो जाता है.

अध्याय 111 के अनुसार-

जब यशोदा जी श्रीकृष्ण के विरह में श्रीराधा जी की दशा को देखती हैं, तब वे राधा जी की चिंता में अत्यंत व्याकुल हो जाती हैं. वे राधा जी को समझाते हुए कहती हैं-

“राधे! चेत करो; तुम यत्नपूर्वक अपनी रक्षा करो; क्योंकि मङ्गल दिन आने पर तुम अपने प्राणनाथ के दर्शन करोगी. सुव्रते! मेरी बात सुनो, मैं द्वारका नगर से श्रीकृष्ण के पास से तुम्हारे निकट आयी हूँ. सती! अब तुम उन गदाधर का मङ्गलसमाचार एवं मङ्गल-संदेश सुनो. तुम्हें शीघ्र ही उन श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे. हे देवि! होश में आ जाओ और इस समय मुझे भक्त्यात्मक ज्ञान का उपदेश दो. इसके बाद श्रीहरि तुम्हारे पास आएंगे तुम शीघ्र ही श्रीदामा के शाप से मुक्त हो जाओगी.”

तब श्रीराधा जी ने अपने वास्तविक स्वरूप में आकर यशोदा जी को भक्त्यात्मक ज्ञान दिया, साथ ही यह भी बताया कि-
“मैं ही स्वयं राधा हूँ और रायाण गोपक भार्या मेरी छायामात्र है. रायाण श्रीहरि के अंश, श्रेष्ठ पार्षद और महान्‌ हैं.”

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार-

श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हैं- द्विभुज और चतुर्भुज. चतुर्भुज रूप से वे वैकुण्ठधाम में निवास करते हैं और स्वयं द्विभुज श्रीकृष्ण गोलोकधाम में. श्रीकृष्ण की पत्नी श्रीराधा हैं, जो उनके अर्धांग से प्रकट हुई हैं. भगवान्‌ श्रीकृष्ण के वामभाग से प्रकट हुईं श्रीराधा जी तेज, अवस्था, रूप तथा गुण सभी दृष्टियों से उनके समान हैं. श्रीराधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है तथा श्रीकृष्ण के रोमकूपों से सम्पूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है.

जैसे दूध और उसकी धवलता में, गन्ध और भूमि में, जल और शीतलता में, शब्द और आकाश में तथा सूर्य और प्रकाश में कभी भेद नहीं है, वैसे ही लोक वेद और पुराण में कहीं भी राधा और माधव में भेद नहीं हैं. राधा श्रीकृष्ण की आराधना करती हैं और श्रीकृष्ण श्रीराधा की. वे दोनों परस्पर आराध्य और आराधक हैं. राधा श्रीकृष्ण की पूजनीया हैं और भगवान्‌ श्रीकृष्ण राधा के पूजनीय हैं. वे दोनों एक-दूसरे के इष्ट हैं.

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कृष्ण के पहले राधा का उच्चारण

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, राधा श्रीकृष्ण के अर्धाङ्ग से प्रकट हुई हैं और वे अपने स्वामी श्रीकृष्ण के अनुरूप ही परम सुन्दरी सती हैं. ये राधा गोलोकवासिनी हैं, किन्तु श्रीकृष्ण की आज्ञा से पृथ्वी पर अयोनिसम्भवा होकर प्रकट हुई हैं. ये ही देवी मूल-प्रकृति ईश्वरी हैं.

ये साक्षात्‌ कृष्ण-माया हैं और श्रीकृष्ण के आदेश से पृथ्वी पर प्रकट हुई हैं. श्रीकृष्ण के तेज के आधे भाग से वे मूर्तिमती हुई हैं. एक ही मूर्ति दो रूपों मे विभक्त हो गयी है. इस भेद का निरूपण वेद में किया गया है. यही स्त्री हैं और यही पुरुष हैं. दो रूप हैं ओर दोनों ही स्वरूप, गुण एवं तेज की दृष्टि से समान हैं. पराक्रम, बुद्धि, ज्ञान और सम्पत्ति की दृष्टि से भी उनमें न्यूनता अथवा अधिकता नहीं है, किंतु वे गोलोक से यहाँ पहले आयी हैं, इसलिये (भूतल पर) अवस्था में श्रीकृष्ण से कुछ अधिक हैं. श्रीकृष्ण सदा राधा का ध्यान करते हैं और राधा भी अपने प्रियतम का निरन्तर स्मरण करती रहती हैं. राधा श्रीकृष्ण के प्राणों से निर्मित हुई हैं और ये श्रीकृष्ण राधा के प्राणों से मूर्तिमान्‌ हुए हैं.

गणेशजननी दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री और राधा- ये पांच देवियां प्रकृति कहलाती हैं. इन्हीं पर सृष्टि निर्भर है. भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वेच्छामय, सर्वतंत्र-स्वतंत्र परम पुरुष हैं. उनके मन में सृष्टि की इच्छा उत्पन्न होते ही सहसा “मूल प्रकृति” परमेश्वरी प्रकट हो गयीं. तदनन्तर सृष्टि-रचना के लिये इनके पांच रूप हो गये. प्रकृति विविध रूप धारण करती हैं.

प्रकृति जगत्‌ की माता हैं और पुरुष जगत्‌ के पिता. त्रिभुवनजननी प्रकृति का गौरव पितृस्वरूप पुरुष की अपेक्षा सौगुना अधिक है. जो पहले पुरुषवाची शब्द का उच्चारण करके पीछे प्रकृति का उच्चारण करता है, वह वेद की मर्यादा का उल्लंघन करने के कारण पाप का भागी होता है. अतः विद्वान्‌ पुरुषों को पहले ‘राधा’ नाम का उच्चारण करके ‘कृष्ण’ नाम का उच्चारण करना चाहिये.

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राधा जी का स्पष्ट वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण, देवी भागवत पुराण, शिव पुराण, स्कंद पुराण, वाराह पुराण, पद्म पुराण और गर्ग संहिता में मिलता है. वहीं, श्रीमद् भागवत पुराण और विष्णु पुराण में उनका सांकेतिक उल्लेख है.

देवीभागवत पुराण के अध्याय 8 के अनुसार-
“श्रीराधा भगवान्‌ श्रीकृष्ण के वामभाग में शोभा पाती हैं तथा उन सर्वज्ञान सम्पन्ना देवी में सबके कष्ट शान्त करने की योग्यता है. उन्हें भगवान्‌ श्रीकृष्ण के प्राण की अधिष्ठात्री माना जाता है. राधा श्रीकृष्णस्वरूपा ही हैं, इसी से राधा श्रीकृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्यारी हैं. इसी से श्रीराधा को श्रीकृष्ण की पत्नी बनकर उनके वक्षःस्थल पर रहने का सौभाग्य प्राप्त है.”

पद्म पुराण के अध्याय 81 के अनुसार –
“जड़-चेतनमय सारा संसार श्रीराधा-कृष्ण का ही स्वरूप है. उन दोनों के बिना किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं है. श्रीकृष्णप्रिया राधा अपनी चैतन्य आदि अन्तरङ्ग विभूतियों से इस लीला प्रपञ्च का गोपन (संरक्षण) करती हैं, इसलिये उन्हें ‘गोपी’ कहते हैं. वे श्रीकृष्ण की आराधना में तन्मय होने के कारण ‘राधिका’ कहलाती हैं. श्रीकृष्णमयी होने से ही वे परादेवता हैं.”

श्रीराधा-कृष्ण के बारे में कुछ रोचक और महत्वपूर्ण तथ्य

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