Satv Raj Tam Meaning : सत्व, रज, तम के गुण और प्रभाव (सात्विक, राजसिक, तामसिक)

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महाभारत की ऐतिहासिकता

Satvik Rajsik Tamasik Personality

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥१७॥
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥१८॥
(भगवद्गीता अध्याय १४)

“सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से निःसन्देह लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है॥ सत्त्वगुण में स्थित मनुष्य स्वर्ग आदि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस मनुष्य मध्य में अर्थात मनुष्यलोक में ही रहते हैं तथा तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्य आदि में स्थित तामस मनुष्य अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं॥”

गुण तीन हैं- सत्त्व, रज और तम.
तीनों परस्पर भिन्न हैं. ये तीनों गुण प्रकृति के कार्य हैं व समस्त जड़ पदार्थ इन्ही तीनों का विस्तार हैं.

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि “हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं.”
(इन तीनों गुणों द्वारा अपने अनुरूप भागों में और शरीर में इसका ममत्व, आसक्ति और अभिमान उत्पन्न कर देना है- यही उन तीनों गुणों का उसको शरीर में बांध देना है).

सत्त्व, रज और तम के गुण

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सत्त्वगुण स्वरूप सर्वथा निर्मल है, उसमें किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है, इसी कारण वह प्रकाशक और अनामय (रोगरहित, विकाररहित, स्वस्थ) है. उससे अन्तःकरण और इन्द्रियों में प्रकाश की वृद्धि होती है एवं दुःख, विक्षेप, दुर्गुण और दुराचारों का नाश होकर शांति की प्राप्ति होती है.

कामना और आसक्ति से रजोगुण बढ़ता है तथा रजोगुण से कामना और आसक्ति बढ़ती है. इसका परस्पर बीज और वृक्ष की तरह अन्योन्याश्रय (एक-दूसरे पर आश्रित) संबंध है. बीज वृक्ष से ही उत्पन्न होता है, फिर भी वृक्ष का कारण भी बीज ही है, इसी बात को स्पष्ट करने के लिये कहीं रजोगुण से काम आदि की उत्पत्ति और कहीं कामना आदि से रजोगुण की उत्पत्ति बतलाई गई है. नाना प्रकार के भोगों की इच्छा उत्पन्न करके उनकी प्राप्ति के लिये उन कर्मों में मनुष्य को प्रवृत कर देना ही रजोगुण का मनुष्य को उन कर्मों में लगाना है.

अन्तःकरण और इन्द्रियों में ज्ञानशक्ति का अभाव करके उनमें मोह उत्पन्न कर देना ही तमोगुण का सब देहाभिमानियों को मोहित करना है. भगवद्गीता के १४वें अध्याय में अज्ञान की उत्पत्ति तमोगुण से बतलाई गई है, और तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न बतलाया गया है- इसका अभिप्राय यह है कि तमोगुण से अज्ञान बढ़ता है और अज्ञान से तमोगुण बढ़ता है. इन दोनों में भी बीज और वृक्ष की भाँति अन्योन्याश्रय संबंध है.

जब तमोगुण बढ़ता है, तब वह कभी तो मनुष्य की कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करने वाली विवेकशक्ति को नष्ट कर देता है और कभी अन्तःकरण और इन्द्रियों की चेतना को नष्ट करके निद्रा की वृत्ति उत्पन्न कर देता है. इस प्रकार से वह मनुष्य के ज्ञान को आच्छादित (अपने प्रभाव से ढक देना) कर देता है और कर्तव्यपालन में अवहेलना कराके व्यर्थ चेष्टाओं में नियुक्त कर देता है अर्थात प्रमाद में लगा देता है.

इन्द्रियों और अन्तःकरण में दीप्ति का अभाव कर ‘अप्रकाश’ को उत्पन्न कर देता है. ऐसे मनुष्य को कोई भी कर्म अच्छा नहीं लगता, केवल पड़े रहकर ही समय बिताने की इच्छा होती है, जिसे ‘अप्रवृति’ का उत्पन्न होना कहते हैं. मन का मोहित हो जाना किसी बात की स्मृति न रहना, तन्द्रा, स्वप्र या सुषुप्ति-अवस्था का प्राप्त हो जाना, विवेक शक्ति का अभाव हो जाना, किसी विषय को समझने की शक्ति का न रहना- यही सब ‘मोह’ का उत्पन्न होना है. ये सब लक्षण तमोगुण की वृद्धि के समय उत्पन्न होते है.

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥

गीता के अध्याय १७ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिसकी अन्तःकरण के अनुरूप जैसी सात्त्विकी, राजसी या तामसी श्रद्धा होती है, वैसा ही उस मनुष्य की निष्ठा या स्थिति होती है. अर्थात जिसकी जैसी श्रद्धा है, वही उसका स्वरूप है.

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः॥

सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं.
(यहाँ देव पूजनरूप क्रिया सात्त्विक होने के कारण उसे करने वाले को सात्त्विक बतलाया गया है, किन्तु पूर्ण सात्त्विक उसे कहा गया है, जो सात्त्विक क्रियाओं को निष्काम भाव से करता है).

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु॥

श्रीकृष्ण कहते हैं कि भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है. और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं. जैसे-

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌॥

जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गंधयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र है, वह भोजन तामस मनुष्य को प्रिय होता है॥

“आहारशुदौ सत्त्वशुद्धिः” (छान्दोग्य 7/26/2)
मनुष्य जैसा आहार करता है, वैसा ही उसका अन्तःकरण बनता है और अन्तःकरण के अनुरूप ही उसकी श्रद्धा भी होती है. आहार शुद्ध होगा तो उसके परिणामस्वरूप अन्तःकरण भी शुद्ध होगा. अन्तःकरण की शुद्धि से ही विचार, भाव, श्रद्धा आदि गुण और क्रियाएं शुद्ध होंगी. सात्त्विक, राजस और तामस आहार में जो आहार जिसको प्रिय होता है, वह उसी गुणवाला होता है. अतः आहार की दृष्टि से भी किसी मनुष्य की पहचान हो सकती है कि वह मनुष्य किस प्रवृत्ति का होगा. और यही बात यज्ञ, दान और तप के विषय में भी है.

मांस, अण्डा आदि हिंसामय और शराब-ताड़ी आदि निषिद्ध मादक वस्तुएँ, जो स्वभाव से ही अपवित्र हैं अथवा जिनमें किसी प्रकार के संगदोष से, किसी अपवित्र वस्तु, स्थान, पात्र या व्यक्ति के संयोग से या अन्याय और अधर्म से उपार्जित या असत् धन के द्वारा प्राप्त होने के कारण अपवित्रता आ गई हो, उन सब वस्तुओं को ‘अमेध्य’ (यज्ञ के अयोग्य, अपवित्र) कहते हैं. ऐसे पदार्थ देव पूजन में भी निषिद्ध माने गये हैं. इनके अतिरिक्त गाँजा, भाँग, अफीम, तम्बाकू, सिगरेट-बीड़ी, अर्क, आसव और अपवित्र औषधियां आदि तमोगुण उत्पन्न करने वाली जितनी भी खानपान की वस्तुएँ हैं- सभी अपवित्र हैं.

जिस मनुष्य को दान देने की आवश्यकता नहीं है तथा जिनको दान देने का शास्त्र में निषेध है, वे धर्मध्वजी, पाखण्डी, कपट वेषधारी, हिंसा करने वाले, मद्य-मांस आदि अभक्ष्य वस्तुओं को भक्षण करने वाले, चोरी, व्यभिचार आदि नीच कर्म करने वाले, ठग, जुआरी और नास्तिक आदि सभी दान के लिये अपात्र है.

जो मनुष्य सात्त्विक क्रियाओं को निष्काम भाव से करता है, वह पूर्ण सात्विक है. जो यज्ञ किसी फल प्राप्ति के उद्देश्य से किया गया है, वह शास्त्रविहित और श्रद्धापूर्वक किया हुआ होने पर भी राजस है एवं जो दम्भपूर्वक किया जाता है, वह भी राजस है.

जो अशास्त्रीय, मनःकल्पित, घोर और स्वभाव से ही तामस हैं, जिसमें दम्भ की प्रेरणा से या अज्ञान से पैरों को पेड़ की डाली में बांधकर सिर नीचा करके लटकना (जैसे शम्बूक कर रहा था), लोहे के कांटों पर बैठना तथा इसी प्रकार की अन्यान्य घोर क्रियाएं करके बुरी भावना से अर्थात् दूसरों की सम्पत्ति का हरण करने, उसका नाश करने, उनके वंश का उच्छेद करने अथवा उसका किसी प्रकार कुछ भी अनिष्ट करने के लिये जो अपने मन, वाणी और शरीर को ताप पहुँचाना है- उसे “तामस तप” कहते हैं.

जो लोग अज्ञानता के कारण शास्त्रविधि का तो त्याग करते हैं, किन्तु जिनमें श्रद्धा है, ऐसे पुरुष श्रद्धा के भेद से सात्त्विक भी होते हैं और राजस तथा तामस भी. इनकी गति भी इनके स्वरूप के अनुसार ही होती है. जो लोग शास्त्रविधि का किसी अंश में पालन करते हुए यज्ञ, दान, तप आदि कर्म तो करते हैं, परन्तु जिनमें श्रद्धा नहीं होती, उन पुरुषों के कर्म असत (निष्फल) होते हैं; उन्हें इस लोक और परलोक में उन कर्मों से कोई भी लाभ नहीं होता. जो लोग न तो शास्त्र को मानते हैं और न जिनमें श्रद्धा ही है और इससे जो लोग काम, क्रोध और लोभ के वश होकर अपना पापमय जीवन बिताते हैं, वे आसुरी-सम्पदा वाले लोग नरकों मे गिरते हैं तथा नीच योनियों को प्राप्त होते हैं.

सत्त्व, रज और तम के फल

ज्ञान, प्रकाश, और सुख, शांति आदि सभी सात्त्विक भावों की उत्पत्ति सत्त्वगुण से होती है. लोभ, प्रवृति, आसक्ति, कामना, स्वार्थपूर्वक कर्मों का आरम्भ आदि सभी राजस भावों की उत्पत्ति रजोगुण से होती है. सदा तमोगुण के कार्यों में स्थित रहने वाले तामस मनुष्य को नरक आदि की प्राप्ति होने की बात भी कही गई है.

जो शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म निष्कामभाव से किये जाते हैं, उन सात्त्विक कर्मों के संस्कारों से अन्तःकरण में जो ज्ञान आदि निर्मल भावों का बार-बार प्रादुर्भाव होता रहता है और मरने के बाद जो दुःख और दोषों से रहित दिव्य प्रकाशमय लोकों की प्राप्ति होती है, वही उनका ‘सात्त्विक और निर्मल फल’ है.

जो कर्म भोगों की प्राप्ति के लिये अहंकारपूवर्क बहुत परिश्रम के साथ किये जाते हैं, वे राजस हैं. ऐसे कर्मों के करते समय तो परिश्रमरूप दुःख होता ही है, किन्तु उसके बाद भी वे दुःख ही देते रहते हैं. उसके संस्कारों के अन्तःकरण में बार-बार भोग, कामना, लोभ और प्रवृत्ति आदि राजस भाव स्फुरित होते हैं- जिनसे मन विक्षिप्त होकर अशांति और दुःखों से भर जाता है. उन कर्मों के फलस्वरूप जो भोग प्राप्त होते हैं, वे भी अज्ञान सुखरूप दिखने पर भी वस्तुतः दुःख रूप ही होते हैं और कर्मों के अनुसार फल भोगने के लिये जो बार-बार जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहना पड़ता है, वह तो महान दुःख है ही.

जो कर्म बिना सोचे-समझे मूर्खतावश किये जाते हैं और जिनमें हिंसा आदि दोष (अपने स्वार्थ के लिए की गई हिंसा) भरे रहते हैं, वे ‘तामस’ हैं. उनके संस्कारों से अन्तःकरण में मोह बढ़ता है और मरने के बाद जिन योनियों मे तमोगुण की अधिकता है- ऐसी जड़योनियों की प्राप्ति होती है, वही उसका फल ‘अज्ञान’ है.

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