World Saree Day (विश्व साड़ी दिवस)
एक फेसबुक पोस्ट (Facebook Post) से मुझे पता चला कि आज विश्व साड़ी दिवस (World Saree Day) है. उस पोस्ट में लेखिका ने बड़ी ही खूबसूरती से अपने फेयरवेल की यादों को पाठकों के सामने रखा था. उसी को पढ़कर मुझे भी 12वीं के अपने स्कूल फेयरवेल की याद आ गई, जब मैं भी पहली बार साड़ी पहनकर घर से बाहर निकली थीं. उस पोस्ट को पढ़कर मुझे ये भी पता चला कि कोई भी लड़की जब पहली बार साड़ी पहनकर घर से बाहर निकलती है, तो उसका एहसास मुझसे कुछ अलग नहीं होता.
फेयरवेल की तैयारियां उसी दिन से शुरू हो जाती हैं, जब स्कूल में ये अनाउंस होता है कि फेयरवेल में सब लड़कियों को साड़ी ही पहनकर आनी है. मम्मी की अलमारी उसी दिन खंगाल ली जाती है कि मैं कौन सी साड़ी पहन सकती हूं, जिसके लिए मम्मी मना भी न करें और मैं सब लड़कियों में सबसे अलग भी दिखूं.
स्कूल में सहेलियों से भी इस बारे में खूब सलाह-मशविरा चलता है कि तुम किस तरह की साड़ी पहनोगी. कैसा वाला पल्लू डालोगी? स्कूल किसके साथ आओगी. इस बीच कुछ जरूरी निर्णय भी लिए जाते हैं कि कौन-कौन किसके घर तैयार होगी और किसके साथ आएगी और जाएगी.
वैसे जिंदगी में पहली बार साड़ी पहनने का दिन फेयरवेल का दिन ही नहीं होता, उससे पहले स्कूल के कई प्रोग्राम्स में भी साड़ी पहनने का अनुभव हो चुका होता है, लेकिन फेयरवेल में क्लास की सब लड़कियों में सबसे अलग दिखने की प्रतियोगिता होती है, और इसी बात का होता है ये रोमांच…
सच में स्कूल के आखिरी दिन साड़ी पहनने का रोमांच इतना ज्यादा होता है कि उसमें सिर पर बैठे बोर्ड एग्जाम्स भी याद नहीं रहते. आखिर ब्लाउज की फिटिंग, मैचिंग चूड़ियां, सैंडिल, बिंदी…सबकी तैयारी करनी पड़ती है. फिर फेयरवेल वाले दिन, शायद ही कोई ऐसी लड़की होगी जो ब्रह्ममुहूर्त में न उठे….
मुझे तो ठीक से साड़ी पहननी आती नहीं थी, लेकिन जब दीदी और मम्मी पहनाने लगीं, तो एक एक्सपर्ट की ही तरह पूरी सलाह देने लगीं, कि कितनी चुन्नट बनानी हैं, कितनी नीचे-ऊपर करनी है, पल्लू कैसे डालना है, कितना लंबा निकालना है… अनगिनत पिन लगाकर पहनाई गई साड़ी शर्म और रोमांच का अनोखा मिश्रण पेश करती है.
साड़ी पहनने के दौरान शीशे के सामने मैं अपनी धुरी पर कितनी बार घूम गई थीं, मुझे नहीं याद है. पल्लू को हर तरह से पकड़कर देख लिया था कि स्कूल में किस तरह पकड़कर चलना-बैठना है. कैसे खाना खाना है कि साड़ी खराब न हो. बाल भी कई बार आगे-पीछे करके देख लिए थे. मम्मी-पापा और सबसे न जाने कितनी बार पूछ लिया था कि ‘ठीक तो लग रही हूं न?’ उस दिन “मेरी रानी बेटी, मिस वर्ल्ड, सबसे प्यारी…” जैसे संबोधनों से तारीफों की भी झड़ी लग गई थी.
फिर मैं तो अपने चाचा के साथ बाइक पर बैठकर स्कूल गई थीं. लग रहा था कि पूरा शहर मुझे ही देख रहा हो…. मानो सबको पता जो था कि आज मैं पहली बार साड़ी पहनकर निकलने वाली हूं. फिर जब स्कूल पहुंचीं, तो सारी लड़कियां सारी लड़कियों को ध्यान से देख रही थीं कि किसने कैसी साड़ी पहनी है, कैसा पल्लू डाला है, साथ में और क्या-क्या पहना है.
सब जगह ‘वाओ-वाओ’ की आवाज आ रही थी, जो कि कुछ शिष्टाचार में भी आता है. इन सबके साथ, जिस लड़की से सालभर लड़ाई चलती रही थी, अपने-अपने ग्रुप में खड़े होकर कानाफूसी करके उसकी साड़ी और मेकअप में जबरन कोई न कोई कमी निकालना भी किसी ने नहीं छोड़ा.
कल तक स्कर्ट में खेलती-कूदती लड़कियां फेयरवेल में साड़ी पहनीं बड़े अदब से पेश आ रही थीं. फिर अपने-अपने ग्रुप में फोटो सेशन के लिए कुछ लड़कियां अचानक कहां गायब हो जातीं, टीचर्स को तो पता ही नहीं चल रहा था. फिर घर में आकर एक-एक लड़की की साड़ी, मेकअप और एक्टिंग का बखान करने में पूरा दिन निकल गया था.
कभी नहीं जाएगा साड़ी का फैशन
हर तरह के कपड़ों का फैशन आता है और चला जाता है, लेकिन भारत में साड़ी ही एक ऐसा सदाबहार परिधान है, जो आदिकाल से पहना जा रहा है और जिसका फैशन कभी नहीं जा सकता. शादी-ब्याह, तीज, करवाचौथ, दीपावली जैसे त्योहार तो साड़ी के बिना अधूरे हैं. कोई लड़की किसी कार्यक्रम या ओकेशन को कितना सीरियसली ले रही है, ये इस बात से ही पता चलता है कि उसने उस कार्यक्रम में साड़ी पहनी है.
साड़ी किसी भी कार्यक्रम को भव्य स्वरूप दे देती है. सहेली की शादी में दूसरी सहेली का साड़ी पहनना ही दोनों सहेलियों की पक्की यारी को दर्शाता है. युवापन में सबसे अलग साड़ी को चुनने और उसमें सबसे अलग दिखने का शौक खत्म नहीं होता… जितना समय साड़ी को पहनने में लगता है, उससे कहीं ज्यादा समय साड़ी को पसंद करने में लग जाता है….और इस बात का अनुभव साड़ी बेचने वालों से ज्यादा और किसे होगा??
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