Pashubali in Yagya : जब युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में दी गई पशुबलि, तब सबके सामने घटी यह घटना

animal sacrifice in hinduism, ashwamedha pashu bali pratha, mahabharat vedas, animal sacrifice

Pashu Bali Pratha in Vedas and Mahabharat

आज पशुबलि की परम्परा पर एक बहस छिड़ी हुई है. पशुबलि के समर्थकों का तर्क है कि यह हमारे पूर्वजों की परम्परा है इसलिए इसे बने रहने देना चाहिए. इसके लिए वे तरह-तरह के तर्क खोजकर ला रहे हैं. कोई भगवान् श्रीराम को जबरन मांसाहारी सिद्ध करने में लग गया है, तो कोई शैव और शाक्तों की सदैव की परंपरा बताकर अपने मत का समर्थन करवाने में जुटा हुआ है. इस बीच एक व्यक्ति ने हमें महाभारत में वर्णित युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का एक स्क्रीनशॉट दिखाया और कहा कि “देखो, अश्वमेध यज्ञ में अश्व की बलि दी जाती थी.”

लेकिन महाभारत की इसी कथा में आगे क्या हुआ था, यह बात उस व्यक्ति ने किसी को नहीं बताई, क्योंकि वह जानता था कि अधिकतर लोग अपने मूल को कभी पूरा पढ़ते ही नहीं हैं, इसलिए आधा सच दिखाकर झूठ फैलाना बहुत ही आसान है. इसलिए जब भी कोई आपको कोई फैक्ट दिखाए तो एक बार आपको खुद से मूल में जाकर चेक कर लेना चाहिए कि वह कितना सच बोल रहा है, क्योंकि आधा सच अधिक खतरनाक होता है.

महाभारत मनुष्य को धर्म-अधर्म की व्याख्या बताती है. यह महत्वपूर्ण विषयों पर कई प्रश्नों का समाधान करती है. तो आइये अब बात करते हैं युधिष्ठिर द्वारा किये गए अश्वमेध यज्ञ और उसमें हुई एक विशेष घटना की-

वेदव्यासकृत महाभारत के ‘आश्वमेधिक पर्व’ के अध्याय ८८ में युधिष्ठिर द्वारा किये गए अश्वमेध यज्ञ का विस्तार से वर्णन किया गया है, जिसमें अश्व की बलि का भी वर्णन है. इसी के साथ यह भी बताया गया है कि इस यज्ञ में युधिष्ठिर ने अत्यधिक दान दिया था. उन्होंने अपने दान से एक-एक को पूर्णतः तृप्त (संतुष्ट, प्रसन्न) कर दिया था. कई-कई दिनों तक एक-एक को भरपूर स्वादिष्ट भोजन कराया था. सब युधिष्ठिर को खूब आशीर्वाद दे रहे थे. उस समय जैसा महान त्याग युधिष्ठिर ने किया था, वैसा इस संसार में कोई दूसरा राजा नहीं कर सकेगा. मानो राजा युधिष्ठिर ने उस यज्ञ में धन की मूसलाधार वर्षा कर दी थी. (आश्वमेधिक पर्व का अध्याय ८८, ८९)

(अध्याय ९० में) जैसे ही युधिष्ठिर का अश्वमेध यज्ञ पूर्ण हुआ, उसी समय वहां महान आश्चर्य में डालने वाली घटना हुई. जब सबके तृप्त हो जाने पर युधिष्ठिर के महान दान का चारों ओर शोर हो गया और युधिष्ठिर के मस्तक पर फूलों की वर्षा की जाने लगी, उसी समय वहां एक नेवला आया. उस नेवले के शरीर का आधा भाग सोने का था. उसने आते ही वज्र के समान भयंकर गर्जना की और फिर मनुष्य की भाषा में ही कहा-

“अरे राजाओं! तुम्‍हारा यह यज्ञ कुरुक्षेत्र निवासी एक उञ्छवृत्तिधारी उदार ब्राह्मण के सेरभर सत्तू दान करने के बराबर भी नहीं हुआ है.”

नेवले की वह बात सुनकर समस्‍त ब्राह्मणों को बड़ा आश्‍चर्य हुआ. वे सब ब्राह्मण उस नेवले के पास जाकर उसे चारों ओर से घेरकर पूछने लगे- “तुम कौन हो, जो हमारे इस यज्ञ की निंदा करते हो? तुम दिव्‍य रूप धारण किये हुए हो और बुद्धिमान भी दिखाई देते हो. हमने तो शास्‍त्रीय विधि की अवहेनला न करते हुए इस यज्ञ को पूर्ण किया है. इसमें शास्‍त्र संगत प्रत्‍येक कर्तव्‍य-कर्म का यथोचित पालन किया गया है. देने योग्‍य समस्त वस्‍तुओं का ईर्ष्‍या रहित होकर दान किया गया है. यहाँ नाना प्रकार के दानों से प्रत्येक को संतुष्ट किया गया है. पवित्र हविष्‍य के द्वारा देवताओं और शरणागतों को प्रसन्‍न किया गया है. यह सब होने पर भी तुमने क्‍या देखा या सुना, जो इस यज्ञ पर आक्षेप करते हो? सच-सच बताओ कि तुममें कौन-सा बल है और तुम्हें कितना शास्त्र ज्ञान है?”

bali pratha in vedas, pashubali in yagya, animal sacrifice in bhagavad gita, pashubali in hinduism

उन ब्राह्मणों के इस प्रकार पूछने पर नेवले ने हंसकर कहा- “विप्रवृन्‍द! मैंने आप लोगों से मिथ्‍या अथवा घमंड में आकर कोई बात नहीं कही है. मैंने जो कहा है, वह आपने ठीक-ठीक सुना है, और इसका कारण अवश्‍य आप लोगों को बताता हूँ.”

इसके बाद वह नेवला वहां सबको एक ऐसे ब्राह्मण परिवार की कहानी सुनाता है, जो भयंकर अकाल पड़ने पर कई दिनों से भूख से तड़प रहा था. इस बीच जब उन्हें जौ का थोड़ा सा सत्तू खाने को मिला, तो वे उसे थोड़ा-थोड़ा बांटकर जैसे ही खाने के लिए बैठे, कि एक भूखा ब्राह्मण अतिथि वहां आ पहुंचा. उसे भूखा देखकर उस ब्राह्मण परिवार को बड़ी दया आयी और प्रसन्न मन से एक-एक करके अपना सारा भोजन उस भूखे अतिथि को खिला दिया. दरअसल, वह अतिथि कोई और नहीं, स्वयं धर्मराज थे जो उस ब्राह्मण परिवार की परीक्षा लेने के लिए आये थे. धर्मराज ने उस परिवार के त्याग की बहुत प्रशंसा की और उन्हें अपने साथ ले जाकर उत्तम लोक प्रदान कर दिया.

वह नेवला आगे बताता है कि ‘जब वह पूरा ब्राह्मण परिवार स्‍वर्गलोक को चला गया, तब मैं अपनी बिल से बाहर निकला और उन महात्‍मा ब्राह्मण के दान करते समय गिरे हुए अन्‍न के कणों में मन लगाने से मेरा मस्‍तक सोने का हो गया.’

नेवले ने कहा, “विप्रवरों! उस ब्राह्मण की तपस्‍या से मुझे जो यह महान फल प्राप्‍त हुआ है, उसे आप लोग अपनी आंखों से देख लीजिये. ब्राह्मणों! अब मैं इस चिंता में पड़ा कि मेरे शरीर का शेष आधा भाग भी कैसे ऐसा ही हो सकता है? इसी उद्देश्‍य से मैं बड़े हर्ष और उत्‍साह के साथ बारंबार अनेकानेक तपोवनों और यज्ञ स्‍थलों में जाया-आया करता हूँ. कुरुराज युधिष्‍ठिर के इस यज्ञ का बड़ा भारी शोर सुनकर मैं बड़ी आशा लगाये यहाँ आया था, किन्‍तु मेरा शरीर यहाँ सोने का न हो सका. उस समय सेरभर सत्‍तू में से गिरे हुए कुछ ही कणों के प्रभाव से मेरा आधा शरीर सुवर्णमय हो गया था, परन्‍तु यह महान यज्ञ भी मुझे वैसा न बना सका, अत: मेरे अनुसार आपका यह यज्ञ उन सेर भर सत्‍तू के कणों के समान भी नहीं हैं.’

Read Also : महाभारत में मांसाहार

इस प्रकार वह नेवला सबके सामने युधिष्ठिर के उस महान अश्वमेध यज्ञ की निंदा करते हुए बता देता है कि इतना बड़ा यज्ञ कराने और इतना भारी-भरकम दान देने और प्रत्येक मनुष्य को पूर्णतः संतुष्ट करने के बाद भी उन्हें कुछ कणों के बराबर भी धर्म और पुण्य की प्राप्ति नहीं हुई. ऐसा कहकर वह नेवला वहाँ से गायब हो गया और तब वे ब्राह्मण भी अपने-अपने घर चले गये.

तब (अगले अध्याय में) जनमेजय वैशम्पायन जी से कई सवाल पूछते हैं और वैशम्पायन जी सबका विस्तार से उत्तर देते हैं. जनमेजय यज्ञ की महिमा का वर्णन करते हुए पूछते हैं कि “सोने के मस्‍तक से युक्‍त वह नेवला कौन था, जो मनुष्‍यों की-सी बोली बोल लेता था, और उस नेवले ने महात्‍मा राजा युधिष्‍ठिर के उस महान अश्‍वमेध यज्ञ की निन्‍दा क्‍यों की?”

तब वैशम्पायन जी कहते हैं- ‘मैं तुम्हें यज्ञ की श्रेष्‍ठ विधि और फल का यहाँ यथावत वर्णन करता हूँ. प्राचीन काल की बात है, जब इन्‍द्र का यज्ञ हो रहा था और सब महर्षि मन्‍त्रोचारण करते हुए अपने-अपने कर्मों में लगे थे, यज्ञ का काम बड़े समारोह और विस्‍तार के साथ चल रहा था, बड़े-बड़े महर्षि खड़े थे, ब्राह्मण लोग बड़ी प्रसन्नता के साथ वेदोक्‍त मंत्रों का पाठ करते थे और उत्तम अध्‍वर्युगण बिना किसी थकावट के अपने कर्तव्‍य का पालन कर रहे थे.’

‘उस यज्ञ में पशुओं को बलि के लिए लाया गया. यह देखकर महर्षियों को उन पर बड़ी दया आई. उन पशुओं की दयनीय अवस्‍था देखकर वे ऋषि इन्‍द्र के पास जाकर बोले- “पुरंदर! आप महान धर्म की इच्‍छा करते हैं तो भी यह जो पशुवध के लिए उद्यत हो गये हैं, यह आपका अज्ञान ही है; क्‍योंकि यज्ञ में पशुओं के वध का विधान शास्‍त्र में नहीं है. यह शुभकारक नहीं है. आपने जैसे यज्ञ का आरम्भ किया है, यह धर्म को हानि पहुँचाने वाला है. यह यज्ञ धर्म के अनुकूल नहीं है, क्‍योंकि हिंसा को कहीं भी धर्म नहीं कहा गया है. ब्राह्मण लोग शास्‍त्र के अनुसार ही इस यज्ञ का अनुष्‍ठान करें. शास्‍त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ करने से आपको महान धर्म की प्राप्‍ति होगी. आप तीन वर्ष के पुराने अनाजों से यज्ञ करें. यही महान धर्म है और महान गुणकारक फल की प्राप्‍ति कराने वाला है.”

‘तत्त्वदर्शी (वेदों के तत्वों को जानने वाले) ऋषियों के कहे हुए इस वचन को इन्‍द्र ने अभिमान वश नहीं स्‍वीकार किया, क्योंकि वे मोह के वशीभूत हो गये थे. इन्‍द्र के उस यज्ञ में जुटे हुए तपस्‍वी लोगों में उसी समय इस प्रश्न को लेकर महान विवाद खड़ा हो गया. एक पक्ष कहता था कि जंगम पदार्थ (पशु आदि) के द्वारा यज्ञ करना चाहिये और दूसरा पक्ष कहता था कि स्‍थावर वस्‍तुओं (अन्‍न-फल आदि) के द्वारा यजन करना चाहिये.’

‘वे तत्‍वदर्शी ऋषि जब इस विवाद से बहुत खिन्‍न हो गये, तब उन्‍होंने इस विषय में राजा उपरिचर वसु से पूछा- “महामते! हम लोग धर्मविषयक संदेह में पड़े हुए हैं. आप हमें सच्‍ची बात बताइये. यज्ञों के विषय में शास्‍त्र का मत कैसा है? मुख्‍य-मुख्‍य पशुओं द्वारा यज्ञ करना चाहिये अथवा बीजों व रसों द्वारा?” यह सुनकर राजा वसु ने उन दोनों पक्षों के कथन में कितना सार या आसार है, इसका विचार न करके यों ही बोल दिया कि “जब जो वस्‍तु मिल जाय, उसी से यज्ञ कर लेना चाहिये”.

‘इस प्रकार असत्‍य निर्णय देने के कारण चेदिराज वसु को (दंड स्वरूप) रसातल में जाना पड़ा’ (क्योंकि यज्ञ का अर्थ ही ‘ईश्वर की पूजा’ व ‘अहिंसा’ होता है, अतः हर चीज से यज्ञ नहीं किया जा सकता है. इसी कथा का उल्लेख महाभारत के ‘अनुशासन पर्व’ के अध्याय ११५ में पितामह भीष्म ने भी किया है और कहा है कि “जैसे मनुष्य को अपने प्राण प्रिय होते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणियों को अपने प्राण प्रिय होते हैं. जो मूर्ख एवं अधम मनुष्य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गों के नाम पर प्राणियों की हिंसा करता है, वह नरकगामी होता है”).

Read Also : मांसाहार आवश्यक है या नहीं?

वैशम्पायन जी आगे कहते हैं कि “इसीलिए कोई संदेह उपस्‍थित हो जाने पर स्वयंभू भगवान प्रजापति को छोड़कर अन्‍य किसी बहुज्ञ पुरुष (अनेक विषयों का ज्ञाता) को भी अकेले कोई निर्णय नहीं देना चाहिये. उस अशुद्ध बुद्धि वाले पापी पुरुष के दिये दान कितने ही अधिक क्‍यों न हों, वे सब-के-सब अनाहत होकर नष्‍ट हो जाते है. अधर्म में प्रवृत्त हुए दुर्बुद्धि दुरात्‍मा हिंसक मनुष्‍य जो दान देते हैं, उससे इहलोक या परलोक में उनकी कीर्ति नहीं होती.”

और इसीलिए युधिष्ठिर को उस महान अश्वमेध यज्ञ और इतने महान दान व त्याग का भी कोई फल नहीं मिला, क्योंकि उनके यज्ञ में पशुबलि दी गई थी, जबकि वेदों में स्पष्ट तौर पर किसी भी यज्ञ-कर्मकांड आदि के नाम पर हिंसा को अधर्म बताया गया है.


यज्ञ का एक पर्यायवाची है- ‘अध्वर’ (अहिंसा). किसी निरपराध पशु के रक्त-मांस से ईश्वर को तृप्त करने की कल्पना अत्यंत वीभत्स है. यह ईश्वरद्रोह है और यह ईश्वरद्रोह ही जिनकी प्रकृति है, वे ही ऐसा कार्य कर सकते हैं, क्योंकि वेदों की स्पष्ट आज्ञा है कि-

मा नस्तनये मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः
पशून् पाहि, गां मा हिंसीः, अजां मा हिंसीः
अविं मा हिंसीः, इमं मा हिंसीर्द्विपादं पशुम्
मा हिंसीरेकशफं पशुम् मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि॥

अर्थात- “पशुओं की रक्षा करो, गाय को न मारो, बकरी को न मारो, भेड़ को न मारो, दो पैर वाले प्राणियों को न मारो, एक खुर वाले घोड़े-गधे आदि पशुओं को न मारो, किसी भी प्राणी की हिंसा न करो.”

वैशम्पायन जी आगे बताते हैं कि “तपस्‍या के धनी धर्मात्‍मा पुरुष अपनी शक्‍ति के अनुसार उंछ (बीने हुए अन्‍न), फल, मूल, शाक और जलपात्र का ही दान करके स्‍वर्गलोक में चले जाते हैं. यही धर्म है, यही महान योग है. दान, प्राणियों पर दया, ब्रह्मचर्य, सत्‍य, करुणा, धृति और क्षमा- ये सनातन धर्म के सनातन मूल हैं. विश्‍वामित्र, असित, राजा जनक, कक्षसेन, आर्ष्‍टिषेण और भूपाल सिन्‍धुद्वीप तथा अन्‍य बहुत से राजा व तपस्‍वी न्‍यायोपार्जित धन के दान और सत्‍य भाषण द्वारा परम सिद्धि को प्राप्‍त हुए हैं.”


गीताप्रेस की ‘कल्याण’ के ‘उपनिषद अंक’ में यही कथा कुछ इस प्रकार दी गई है-

“एक समय ऋषियों तथा अन्य लोगों में, यज्ञ में प्रयोग होने वाले “अज” शब्द पर विवाद हुआ. ऋषियों का पक्ष ‘अज’ का अर्थ ‘अन्न’ अर्थात् ‘जो उत्पत्तिरहित है’ से करता ही था, जबकि दूसरा पक्ष ‘अज’ का अर्थ ‘बकरा’ करना चाहता था. दोनों पक्षों ने चेदिराज वसु से अपना संदेह पूछा. वसु भी अनेक यज्ञ करा चुके थे और वे जानते थे कि यज्ञादि अन्न से ही होते हैं, किन्तु मलेच्छों के संसर्ग से वे ऋषियों के द्वेषी बन गए थे. ऋषि उनकी बदली हुई मनोवृत्ति से परिचित न थे. चेदिराज वसु ने ऋषियों के विरोधी पक्ष का ही समर्थन करते हुए कहा- “छागेनाजेन यष्टव्यम”. असुर तो ऐसा ही चाहते थे, अतः वे उसके प्रचारक बन गए. परन्तु ऋषियों ने उस मत को ग्रहण नहीं किया; क्योंकि वसु का यह अर्थ, वेदों का अर्थ निकालने के लिए बनाये गए नियमों का पालन नहीं करता था.”

असुरों द्वारा प्रचारित किये जाने के बाद कुछ स्थानों पर यह परंपरा बन गई. बस, कुछ उल्टी-सीधी परम्पराएं इसी प्रकार चल पड़ती हैं. इन परम्पराओं से किसी का कोई लाभ तो नहीं होता, उल्टे पीड़ा ही पहुँचती है, लेकिन कुछ लोग बिना विचार किये केवल अंधानुकरण में विश्वास करते हैं. वे केवल यही तर्क देते रहते हैं कि ‘यह तो हमारे पूर्वजों की परंपरा है, हमारी आस्था है और हम अपनी इस परंपरा और आस्था के खिलाफ कुछ नहीं सुनेंगे’. और इस प्रकार मनुष्य अधर्म की शृंखला को आगे बढ़ाता रहता है. ऐसे मनुष्य के सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं.

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

“निषाद! तुमने बिना किसी अपराध के ही प्रेम में मग्न पक्षी की हत्या की है. तुम्हें नित्य-निरंतर कभी शान्ति न मिले.” (वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड २|१५)

सती प्रथा, बाल विवाह इसी प्रकार की बीच में चल पड़ीं परम्पराएं थीं, लेकिन चूंकि इन प्रथाओं से मनुष्य को पीड़ा पहुँच रही थी, अतः बंद करवा दी गई, लेकिन पशुबलि से मनुष्य को पीड़ा नहीं पहुँच रही तो इसके समर्थन में तरह-तरह के तर्क दिए जा रहे हैं. यहाँ तक कि अपने मत के समर्थन में भगवान् तक को मांसाहारी और पशुबलि-प्रेमी सिद्ध करने में जुट गए हैं.

एक व्यक्ति का तर्क है कि “युद्ध से पहले पशुबलि दी जाती थी, यह प्राचीन परंपरा है”. जबकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार न तो भगवान् श्रीराम और उनकी सेना ने युद्ध से पहले किसी प्रकार की बलि दी थी और न ही महाभारत के युद्ध से पहले श्रीकृष्ण और पांडवों या कौरवों ने.

कुछ लोगों का तर्क है कि ‘तंत्र पूजा अलग होती है और सात्विक पूजा अलग’. ऐसा कहकर ये लोग रावण, अहिरावण आदि का उदाहरण देकर यह भी मनवाने का प्रयास करते हैं कि वैष्णव धर्म ही पशुबलि का विरोध करता है, और शैव और शाक्त धर्म में पशुबलि सदा से रही है. जबकि वैष्णव, शैव, शाक्त आदि कोई अलग-अलग धर्म या सम्प्रदाय नहीं, सब एक ही हैं. सबके शिव एक ही हैं, सबकी देवी मां एक ही हैं.

और फिर यह भी तो देखना चाहिए कि तांत्रिक पूजा असुरों में थी, मनुष्यों में नहीं. रावण, मेघनाद, अहिरावण आदि तांत्रिक पूजा करते थे और मारे गए. देवी मां ने विजय का आशीर्वाद सात्विक विधि से पूजा करने वाले श्रीराम को दिया, रावण को नहीं. यानि देवी मां को भी ऐसी कोई बलि पसंद नहीं.

यः स्वार्थं मांसपचनं कुरुते पापमोहितः।
यावन्त्यस्य तु रोमाणि तावत्स नरके वसेत्‌॥

“जो मनुष्य पाप से मोहित होकर मांस पकाता है, वह उस पशु के शरीर में जितने रोयें होते हैं, उतने वर्षों तक नरक में निवास करता है. जो मनुष्य मद्य और मांस में आसक्त हैं, उनसे भगवान् शिव बहुत दूर रहते हैं.” (स्कन्द पुराण काशीखण्ड पूर्वार्ध ३।५९-५३)

Read Also : वेदों में मांसाहार, पशुबलि और अश्लीलता


यह कथा यह भी स्पष्ट करती है कि अपने स्वार्थ के लिए व अपने मत के समर्थन के लिए शास्त्रों के अर्थ का अनर्थ करने की परम्परा भी प्राचीनकाल से ही रही है. प्राचीनकाल से ही स्वार्थी बुद्धि या आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग वेदों, शास्त्रों का अपने-अपने अनुसार अर्थ का अनर्थ करते रहे हैं. अपने-अपने अनुसार धर्म-अधर्म की व्याख्या करते रहे हैं.

जैसे वाल्मीकि रामायण में रावण सीताजी से कहता है कि “देवी! अपने पति के त्याग और परपुरुष के अंगीकार से धर्मलोप की आशंका व्यर्थ है. तुम्हारे साथ मेरा जो स्नेह सम्बन्ध होगा, वह आर्ष धर्मशास्त्रों द्वारा समर्थित है.” (अरण्यकाण्ड सर्ग ५५)

जबकि किसी भी धर्मशास्त्र में ऐसे कृत्य को समर्थन प्राप्त नहीं है, लेकिन रावण अपने स्वार्थ के लिए सीताजी से इस प्रकार का झूठ कह रहा था. महाभारत में शकुनि आदि भी अपने-अपने स्वार्थ के अनुसार धर्म-अधर्म की व्याख्या करते रहे. और जब सब लोग इसी प्रकार अपने-अपने अनुसार धर्म-अधर्म की व्याख्या करना शुरू कर देते हैं, तब भगवान् श्रीकृष्ण किसी न किसी रूप में ‘महाभारत’ का युद्ध करवाके एक बड़ी साफ-सफाई कर जाते हैं.

वेदों-शास्त्रों आदि का जो व्यक्ति जिस प्रकार की व्याख्या करता है, वह अपना ही चरित्र, प्रकृति और झुकाव को दर्शाता है. जैसे गन्दी बुद्धि वालों को शास्त्रों में अश्लीलता दिखाई देती है. नीच बुद्धि वालों को शास्त्रों में मांसाहार और पशुबलि का समर्थन दिखाई देता है. दर्शनकार को दर्शन और वैज्ञानिक को विज्ञान दिखाई देता है. अच्छी बुद्धि वाले लोग शास्त्रों का अर्थ सदा लोक कल्याण में ही निकालते हैं.

Read Also : मनुस्मृति में मांसाहार और पशु हत्या

जैसे महाराजा अग्रसेन भी द्वापरयुग में थे. महाराजा अग्रसेन अत्यधिक वीर थे और उन्होंने 18 यज्ञ करने का संकल्प किया, और जब परम्परानुसार उनके सामने भी पशुबलि दी जाने लगी, तब उन्होंने अपने राज्य में सख्ती से इस निर्दयी और झूठी परंपरा पर रोक लगा दी. इस प्रकार की खोखली परम्पराओं का विरोध करने की शक्ति केवल वीरों में ही होती है.

भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्ण ने ऐसी ही कुछ परम्पराओं को तोड़ दिया था. जैसे श्रीराम ने एकपत्नी व्रत रखा था, अपना प्रेम केवल सीताजी में रखा था. अन्य राजाओं की तरह अनेक विवाह नहीं किये थे. उनके सभी भाईयों ने भी एक ही विवाह किया था. इसी प्रकार, श्रीकृष्ण अवतार में उन्होंने इंद्र की पूजा बंद करवा के प्रकृति की पूजा का चलन बनाया. महाभारत में पांडवों के माध्यम से धर्म-अधर्म का सूक्ष्म ज्ञान विश्व को दिया.


शास्त्रों में बलि

शास्त्रों में नित्यप्रति पांच प्रकार की बलि का विधान है-
देव बलि, गो बलि, श्वान बलि, वायस बलि, पिपीलिकादि बलि.

तो यदि हम ‘बलि’ का अर्थ ‘वध’ से ही निकालेंगे, तो क्या देवों की बलि भी दी जा सकती है? और क्या प्रतिदिन गो बलि, श्वान बलि, वायस बलि दी जा सकती है?

इसका अर्थ है कि वह इन पांचों के लिए भाग निकालता है. यज्ञों में भी बलि का यही अर्थ है. नारायण बलि दी जाती है जिसमें कोई नारायण का वध नहीं किया जाता. गो बलि में गाय का वध नहीं किया जाता. देव बलि में देवताओं का वध नहीं दिया किया जाता, क्योंकि बलि से वध का कोई संबंध ही नहीं है.

खैर! इन सब तर्कों से भी कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि पशु अपनी पशुता नहीं छोड़ सकता. महाभारत में भीष्म पितामह स्वयं ही कहते हैं कि-

“जो लोग देवयज्ञ और स्वधा पितृयज्ञ का अनुष्ठान करके यज्ञशिष्ट अमृत का भोजन करने वाले तथा सत्य और सरलता के प्रेमी है, वे देवता हैं, किन्तु जो कुटिलता और असत्य भाषण में प्रवृत्त हैं एवं सदा मांसभक्षण करते हैं, उन्हें राक्षस ही समझो. लोभ से, बुद्धि के मोह से अथवा पापियों के संसर्ग में आने से मनुष्यों की अधर्म में रुचि हो जाती है. मांस के रस का आस्वादन एवं अनुभव कर लेने पर उसे त्यागना एवं समस्त प्राणियों को अभय देने वाले इस सर्वश्रेष्ठ अहिंसा व्रत का आचरण करना अत्यंत कठिन हो जाता है.”

Read Also :

रामायण में मांसाहार

प्राचीन भारत और मांसाहार


Tags : bali pratha in vedas, pashubali in yagya, animal sacrifice in bhagavad gita, pashubali in hinduism, why goat sacrifice for kali, ashwamedha yagna horse, pashu bali pratha in mahabharat valmiki ramayan, pashu bali pratha in vedas hinduism, bali dene ki pratha



Copyrighted Material © 2019 - 2024 Prinsli.com - All rights reserved

All content on this website is copyrighted. It is prohibited to copy, publish or distribute the content and images of this website through any website, book, newspaper, software, videos, YouTube Channel or any other medium without written permission. You are not authorized to alter, obscure or remove any proprietary information, copyright or logo from this Website in any way. If any of these rules are violated, it will be strongly protested and legal action will be taken.



About Guest Articles 94 Articles
Guest Articles में लेखकों ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। इन लेखों में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Prinsli World या Prinsli.com उत्तरदायी नहीं है।

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*