Number of Vedas : आरम्भ में वेदों की संख्या कितनी थी? वेदों के 4 भाग कब और क्यों हुये?

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वेद क्या हैं, वेदों में क्या है? वेदों को 'त्रयी' क्यों कहा गया है?

Number of Vedas Vyas

वेदों को भारतीय संस्कृति के प्राणतत्त्व कहा गया है. जीवन और साहित्य की कोई विधा ऐसी नहीं है जिसका बीज वैदिक वाङ्गमय में न मिले. भारतीय धर्म, दर्शन, अध्यात्म, रीति-नीति, आचार-विचार, विज्ञान-कला- ये सभी वेद से अनुप्राणित हैं. वेद ब्रह्मवाणी हैं. वेदों को अपौरुषेय (जो मनुष्य द्वारा न रचे गए हों) कहा जाता है. वैदिक ऋषियों को वेदमंत्रों का ‘रचियता’ नहीं, ‘दृष्टा’ कहा गया है. जड़ से चेतन तथा स्थूल से सूक्ष्म की खोज करते हुए जिन प्राचीन ऋषियों ने अपने भीतर मंत्रों के दर्शन किये हैं, उन्हें ‘मंत्रदृष्टा ऋषि’ कहा गया है.

वेद कितने हैं? अपने-अपने दृष्टिकोण से इस सम्बन्ध में मंथन कर कुछ ने वेदों की संख्या तीन और कुछ ने चार प्रतिपादित की है. वेदों की संख्या तीन बताने वालों का तर्क यह है कि प्राचीन ग्रंथों में कई स्थानों पर वेदों को ‘त्रयी’ कहा गया है, तथा त्रयी शब्द के अंतर्गत ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद का ही उल्लेख किया गया है.

जैसे वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के सर्ग ३ के श्लोक २८ में भगवान् श्रीराम हनुमान जी की प्रशंसा में कहते हैं-

नानृग्वेदविनी तस्य नायजुर्वेदधारिणः।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम्‌॥

“जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता.”

इसी भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-

पिताऽहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च॥
(गीता ९.१७)

“मैं ही इस जगत् का पिता, माता, धाता (धारण करने वाला) और पितामह हूँ. मैं ही वेद्य (जानने योग्य) हूँ, पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ.”


वेदों को ‘त्रयी’ क्यों कहा गया?

आरम्भ से ही वेदों को ‘त्रयी’ क्यों कहा गया है, इस विषय पर विद्वान लेखक श्री सुदर्शन सिंह ‘चक्र’ लिखते हैं- ‘वेदत्रयी’ शब्द ने बड़े-बड़े वैदिक अन्वेषकों को भ्रम में डाला है. वे यह सोच बैठे कि तीन वेद ही मुख्य हैं और चौथा (अथर्ववेद) पीछे का है, पर ऐसा मानना सर्वथा भ्रम है. ‘वेदत्रयी’ का अर्थ ‘तीन वेद’ नहीं है. इसका अर्थ है त्रिकाण्डात्मक वेद. वेदों में ज्ञान, कर्म और उपासना- इन्हीं तीन विषयों का वर्णन है. पूरे वेदों के सभी मंत्र इन्हीं में से किसी न किसी विषय का प्रतिपादन करते हैं, इसी कारण से वेद को ‘त्रयी’ कहा गया है. शैली के दृष्टि से वेद 3 हैं, और विषय के दृष्टि से वेद 4 हैं.

विनियोक्तव्यरूपश्च त्रिविधः सम्त्रदर्श्यते।
ऋग् यजु: सामरूपेण मन्त्रोवेदचतुष्टये॥
(सर्वानुक्रमणी)

“यज्ञों में तीन प्रकार के रूप वाले मंत्र विनियुक्त हुआ करते हैं. चारों वेदों में वे ऋग, यजु और साम रूप में हैं.”

तेपां ऋग् यत्रार्थ वशेन पाद व्यवस्था।
गीतिषु सामाख्या शेषे यजु शब्द॥
(पूर्वमीमांसा २.१.३५.३७)

“जिनमें अर्थवश पद व्यवस्था है वे ऋग् कहे जाते हैं. जो मंत्र गायन किये जाते हैं वे साम और शेष मंत्र यजु शब्द के अंतर्गत होते हैं.”

· वेद का पद्य भाग – ऋग्वेद
· वेद का गद्य भाग – यजुर्वेद
· वेद गायन भाग – सामवेद

वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड में हनुमान जी श्रीराम के गुणों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि-
“श्रीराम चारों वेद, धनुर्वेद और छहों वेदाङ्गों के परिनिष्ठित विद्धान्‌ हैं.” (सुन्दरकाण्ड ३५|१४)

वेदों की संख्या सदा से चार ही रही है, इस बात के प्रमाण महाभारत में भी स्पष्ट रूप से मिलते हैं. महाभारत के ‘आदिपर्व’ के अध्याय ७० के अनुसार, जब राजा दुष्यंत कण्व ऋषि के आश्रम में प्रवेश करते हैं, तब वे देखते हैं कि-

“श्रेष्ठ ऋग्वेदी ब्राह्मण पद और क्रमपूर्वक ऋचाओं का पाठ कर रहे थे. यज्ञविद्या और उसके अंगों की जानकारी रखने वाले यजुर्वेदी विद्वान भी आश्रम की शोभा बढ़ा रहे थे. नियमपूर्वक ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने वाले सामवेदी महर्षियों द्वारा वहां मधुस्वर से सामवेद का गान किया जा रहा था. मन को संयम में रखकर नियमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले सामवेदी और अथर्ववेदी महर्षि भारुण्डसंज्ञक साममन्त्रों के गीत गाते और अथर्ववेद के मंत्रों का उच्चारण करते थे. श्रेष्ठ अथर्ववेदीय विद्वान तथा पूगयज्ञिय नामक साम के गायक सामवेदी महर्षि पद और क्रमसहित अपनी-अपनी संहिता का पाठ करते थे.”

और भी कई प्रमाण हैं-

अस्य महतो भूतस्य निश्चसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्वांगिरस:। (बृहदारण्यकोपनिषद् २.४.१०)

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्ववेद:०। (मुंडकोपनिषद १.१.५)

“चत्वारो वेदा: साङ्गः सरहस्या:।”

ब्रह्माजी को भी ‘चतुर्वेदविद्’ कहा गया है.


वेदों के चार भाग

अनेक स्थानों पर यह भी कहा गया है कि वेद पहले एक ही था, और महर्षि वेदव्यासजी ने उसके चार भाग किये थे. तथ्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि चारों भाग अथवा समस्त प्रकार का वैदिक ज्ञान पहले एक ही वेद में समाहित था और वेदव्यास जी द्वारा उन्हें स्पष्ट रूप से चार विभागों में बाँट दिया गया, ताकि कलियुग के अल्पबुद्धि वाले मनुष्य भी वेदों के चारों भागों को स्पष्ट रूप से जान सकें. लोगों को समझ आ सके कि कौन से मंत्र वेदों के कौन से भाग के अंतर्गत आते हैं. महाभारत तथा पुराणों में कई स्थानों पर इस ऐतिहासिक तथ्य का उद्घाटन किया गया है-

यो व्यस्य वेदांश्चवतुरस्तपसा भगवानृषि:।
लोके व्यासत्वमापेदे कार्ष्णर्यात्‌ कृष्णत्वमेव च॥
(महाभारत आदिपर्व अध्याय १०४ श्लोक १५)

अर्थात्‌ “जिन द्वैपायन मुनि ने अपने तपोबल से चारों वेदों का पृथक-पृथक विस्तार कर लोक में ‘व्यास’ पदवी को प्राप्त किया है, और शरीर के कृष्णवर्ण होने के कारण कृष्ण कहलाये.” उन्हीं वेदव्यास जी ने वेद को चार भागों में बांटकर अपने चार प्रमुख शिष्यों को वैदिक संहिताओं का अध्ययन कराया. उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य पैल को ऋग्वेद, वैशम्पायन को यजुर्वेद, जैमिनी को सामवेद तथा सुमन्तु को अथर्ववेद संहिता का सर्वप्रथम अध्ययन कराया.

महाभारत के ‘आदिपर्व’ के अध्याय ६३ के अनुसार-

वेदानध्यापपामास महाभारतपशञ्ञमान्‌।
सुमन्तुं जैमिनिं पैलं शुक॑ चैव स्वमात्मजम्‌॥
प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशम्पायनममेव च।
संहितास्तेः पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकाशिता:॥
(महाभारत आदिपर्व अध्याय ६३ श्लोक ८७-९०)

अर्थात्‌ “विद्वान द्वैपायन जी ने देखा कि प्रत्येक युग में धर्म का एक-एक पाद लुप्त होता जा रहा है. मनुष्यों की आयु और शक्ति क्षीण हो चली है. यह सब देख-सुनकर उन्होंने वेद और ब्राह्मणों पर अनुग्रह करने की इच्छा से वेदों का व्यास किया. इसलिए वे ‘व्यास’ नाम से विख्यात हुए. व्यास मुनि ने चारों वेदों तथा पांचवे वेद महाभारत का अध्ययन सुमन्तु, जैमिनी, पैल, अपने पुत्र शुकदेव तथा मुझ वैशम्पायन को कराया.”

महाभारत के ‘वनपर्व’ के अध्याय १४९ में, हनुमान जी चारों युगों का वर्णन करते हुए भीम को बताते हैं कि-

“सतयुग और त्रेतायुग में ऋक्, यजु: और साम के मंत्रवर्णों का अलग-अलग विभाग नहीं था. द्वापरयुग में धर्म के दो ही चरण रह जाते हैं. उस समय भगवान् विष्णु का स्वरूप पीले वर्ण का हो जाता है और वेद चार भागों (ऋक, यजुः, साम तथा अथर्व) में बंट जाता है. उस समय कुछ द्विज चार वेदों के ज्ञाता, कुछ तीन वेदों के विद्वान, कुछ दो ही वेदों के जानकार, कुछ एक ही वेद के पंडित, और कुछ वेद की ऋचाओं के ज्ञान से सर्वथा शून्य होते हैं. इस प्रकार भिन्न-भिन्न शास्त्रों के होने से उनके बताये हुए कर्मों में भी अनेक भेद हो जाते हैं. द्वापर में मनुष्य सम्पूर्ण एक वेद का ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता है, इसलिए वेद के कई विभाग कर दिए जाते हैं (वेद को कई भागों में बाँट दिया जाता है).”

इस तथ्य का उल्लेख श्रीमद्भागवत में भी मिलता है-

ततः सप्तदशे जात: सत्यवत्यां पराशरात्‌।
चक्रे वेदतरो: शाखा दृष्टा पुंसोऽल्पमेधस:॥
(१.३.२१)

“समय के फेर से लोगों की समझ कम हो जाती है. आयु भी कम होने लगती है. उस समय जब भगवान् देखते हैं कि अब ये लोग मेरे तत्व को बतलाने वाली वेदवाणी को समझने में असमर्थ होते जा रहे हैं, तब प्रत्येक कल्प में वे वेदव्यास जी के समान प्रकट होकर वेदरूपी वृक्ष का विभिन्न शाखाओं के रूप में विभाजन कर देते हैं.”

श्रीमद्भागवत के अध्याय ४ के अनुसार-

“एक दिन पुराणमुनि व्यास सूर्योदय के समय सरस्वती नदी के पावन जलमें स्नान आदि करके एकांत पवित्र स्थान पर बैठे हुए थे. वे महर्षि भूत और भविष्य के ज्ञाता तथा दिव्य-दृष्टि-सम्पन्न थे. उस समय उन्होंने देखा कि जिसका परिज्ञान लोगों को नहीं होता, ऐसे समय के फेर से प्रत्येक युग में धर्मसंकट रहा और उसके प्रभाव से भौतिक पदार्थों की शक्ति का ह्रास होता रहता है. सांसारिक जन श्रद्धाविहीन और शक्तिहीन हो जाते हैं. उनकी बुद्धि कर्तव्य-निर्णय में असमर्थ एवं आयु अल्प हो जाती है.

युगों के अनुसार, लोगों की इस दुरवस्था को देखकर उन्होंने अपनी दिव्यदृष्टि से समस्त वर्णों और आश्रमों का हित कैसे हो, इस पर विचार किया. महर्षि व्यास जी ने विचार किया कि वेदोक् चातुहोत्र (होता, अध्वर्यु, उद्गाता, ब्रह्मादि द्वारा सम्पादित होने वाले अग्रिप्टोमादि यज्ञ)-कर्म लोगों का हृदय शुद्ध करने वाले हैं, अत: उन्होंने एक ही वेदके चार विभाग ऋक्‌, यजु:, साम तथा अथर्व के रूप में किये. इतिहास और पुराण को पाँचवाँ वेद कहा गया है.

उनमें से ऋग्वेद के पैल, सामवेद के जैमिनि, यजुर्वेद के वैशम्पायन तथा अथर्ववेद के सुमन्तु प्रथम स्नातक हुए और सूतजी के पिता लोमहर्षण इतिहास-पुराणों के स्नातक हुए. इन सब महर्षियों ने अपनी-अपनी वैदिक शाखा को अनेक भागों में विभक्त कर दिया. इस प्रकार शिष्य, प्रशिष्य तथा उनके शिष्यों द्वारा वेदों की अनेक शाखाएँ बन गईं. अल्प बौद्धिक शक्ति वाले पुरुषों पर कृपा करके वेदव्यास जी ने वेदों का यह विभाग इसलिये किया, जिससे दुर्बल स्मरणशक्ति वाले तथा धारणाशक्तिहीन (व्यक्ति) भी वेदों को धारण कर सकें.”


महर्षि वेदव्यास तथा महाभारत की रचना

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महर्षि वेदव्यास जी अलौकिक प्रतिभा-संपन्न महापुरुष थे. व्यासजी का जन्म यमुना के ही किसी द्वीप में हुआ था, इसीलिये इन्हें द्वैपायन कहा जाता है. सांवला शरीर होने के कारण इन्हें कृष्णद्वैपायन कहा गया. बदरीवन में निवास करने के कारण बादरायण कहलाये तथा वेदों का व्यास करने के कारण ‘वेदव्यास’ के रूप मी विख्यात हुये. ये दिव्य तेज:सम्पन्न, तत्त्वज्ञ एवं प्रतिभाशाली थे.

अनन्त के उपासक महर्षि वेदव्यास भारतीय ज्ञान-गंगा के भगीरथ कहे जाते हैं, क्योंकि इन्होंने भागीरथ की ही तरह भारतीय लोक-साहित्य के आदियुग में हिमालय के बदरिकाश्रम में अखण्ड समाधि लगाकर अध्यात्म, धर्मगीति एवं पुराण की त्रिपथगा का पहले स्वयं साक्षात्कार किया, और फिर साहित्य-साधना द्वारा देश के आर्षवाङ्गमय को पावन बनाया व लोक-साहित्य को गति प्रदान की.

त्रिभिर्वर्ष: सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनो मुनिः।
महाभारतमाख्यानं कृतवानिदमद्भुतम्‌॥
(महाभारत आदिपर्व ६२.५२)

महाभारत युद्ध के बाद वेदव्यासजी ने प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर, तीन वर्ष के निरंतर परिश्रम के बाद श्रेष्ठ काव्यात्मक इतिहास ‘महाभारत’ की रचना की. महाभारत को पञ्ञम वेद भी कहा गया है (इतिहास और पुराण को पाँचवाँ वेद कहा जाता है) और इसे व्यास जी ने अपने पञ्ञम शिष्य लोमहर्षण को पढ़ाया था, जैसा कि महाभारत के ‘आदिपर्व’ के अध्याय ६३ (श्लोक ८७-९०) में बताया गया है.

इदं हि वेदैः समितं पवित्रमपि चोत्तमम्।
शृण्वञ्श्राद्धः पुण्यशीलः श्रावयंश्चेदमद्भुतम्।
नरः फलमवाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः॥

“यह महाभारत वेदों के समान पवित्र और उत्तम है. जो पुण्यात्मा मनुष्य श्रृद्धापूर्वक इस इतिहास को सुनता और सुनाता है, वह राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है.”

धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्‌ क्वचित्‌॥
(महाभारत आदिपर्व ६२.५३)

“जीवन के चारों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) से सम्बन्ध रखने वाला जो कुछ ज्ञान महाभारत में है, वही अन्यत्र है, जो इसमें नहीं है, वह कहीं भी नहीं है.”

महाभारत में 8800 गूढ़ दार्शनिक श्लोक भी हैं जिनमें गीता भी है (लेकिन कुछ लोगों ने इसका यह अर्थ लगा लिया कि महाभारत में पहले 8800 श्लोक ही थे, जबकि ग्रन्थ कुछ और ही कहता है)!


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