Bhagavad Geeta Adhyay 16 : भगवद्गीता – सोलहवाँ अध्याय (दैवासुर सम्पद्विभाग योग)

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महाभारत की ऐतिहासिकता

Geeta 16 Adhyay Shlok (Sanskrit Hindi)

भगवद्गीता के ७वें अध्याय के १५वें श्लोक में तथा ९वें अध्याय के ११वें और १२वें श्लोकों में भगवान ने अर्जुन से कहा था कि आसुरी और राक्षसी प्रकृति को धारण करने वाले मूढ़ मेरा भजन नहीं कर सकते, वरं मेरा तिरस्कार करते हैं. तथा ९वें अध्याय के १३वें और १४वें श्लोक में कहा कि “दैवी-प्रकृति से युक्त महात्माजन मुझे सब भूतों (समस्त प्राणियों) का आदि और अविनाशी समझकर अनन्य प्रेम के साथ सब प्रकार के निरंतर मेरा भजन करते हैं.” परन्तु दूसरा प्रसंग चलता रहने के कारण वहाँ दैवी प्रकृति और आसुरी प्रकृति के लक्षणों का वर्णन नहीं किया जा सका.

फिर १५वें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भगवान ने कहा कि “जो ज्ञानी महात्मा मुझे ‘पुरुषोत्तम’ जानते हैं, वे सब प्रकार से मेरा भजन करते हैं.” इस पर स्वाभाविक ही भगवान् को पुरुषोत्तम जानकर सर्वभाव से उनका भजन करने वाले दैवी-प्रकृति युक्त महात्मा पुरुषों के और उनका भजन न करने वाले आसुरी प्रकृति युक्त अज्ञानी मनुष्यों के क्या-क्या लक्षण हैं- यह जानने की इच्छा होती है.

अतएव अब भगवान दोनों के लक्षण और स्वभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के लिये १६वां अध्याय आरम्भ करते हैं. इसमें वे पहले तीन श्लोकों द्वारा दैवी-सम्पदा से युक्त सात्त्विक पुरुषों के स्वाभाविक लक्षणों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं-

भगवद्गीता – षोडश अध्याय (Gita Adhyay 16)

(Bhagwat Geeta Adhyay 16 Shlok in Sanskrit)

श्रीभगवानुवाच

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥१॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥२॥

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥३॥
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्॥४॥

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥५॥
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श‍ृणु॥६॥

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥७॥
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥८॥

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥९॥
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥१०॥

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥११॥
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥१२॥

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥१३॥
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥१४॥

आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥१५॥
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥१६॥

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥१७॥
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥१८॥

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥१९॥
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥२०॥

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥२१॥
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥२२॥

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥२३॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥२४॥


भावार्थ (सोलहवाँ अध्याय) (Gita Adhyay 16)

(Bhagwat Geeta Adhyay 16 in Hindi)

भगवान श्रीकृष्ण बोले- भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान योग में निरंतर दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान (गीता अध्याय 17 श्लोक 20 में देखें), इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता॥1॥

मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण (अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया हो, वैसे-का-वैसा ही प्रिय शब्दों में कहने का नाम ‘सत्यभाषण’ है), अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरति (अर्थात्‌ चित्त की चञ्चलता का अभाव), किसी की भी निन्दा आदि न करना, सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव॥2॥

तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्धि (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी देखें) एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव- ये सब तो हे अर्जुन! दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं॥3॥

“तेज” श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति का नाम है, जिसके प्रभाव से उनके सामने विषयासक्त और नीच प्रकृति वाले मनुष्य भी प्रायः अन्यायाचरण से रुककर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं. भारी से भारी आपत्ति, भय या दुःख उपस्थित होने पर भी विचलिन न होना काम, क्रोध, भय या लोभ में किसी प्रकार भी अपने धर्म और कर्तव्य विमुख न होना “धैर्य” है.

हे पार्थ! दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान (सत्य-असत्य और धर्म-अधर्म आदि का यथार्थ न समझना या उनके संबंध में विपरीत निश्चय कर लेना “अज्ञान” है)- ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं॥4॥ दैवी सम्पदा मुक्ति के लिए और आसुरी सम्पदा बाँधने के लिए मानी गई है. इसलिए हे अर्जुन! तुम शोक न करो, क्योंकि तुम दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए हो॥5॥

अर्जुन! इस लोक में भूतों (समस्त प्राणियों) की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला. उनमें से दैवी प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तुम आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुनो॥6॥

मनुष्यों के दो समुदाय में जो सात्त्विक है, वह दैवी प्रकृति वाला है और जो रजोमिश्रित तमःप्रधान है, वह आसुरी प्रकृति वाला है.

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अर्जुन! आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति- इन दोनों को ही नहीं जानते. इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है॥7॥ वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत्‌ आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है. इसके सिवा और क्या है? (ये आसुर प्रकृति वाले मनुष्य की मनगढ़ंत कल्पनाएं हैं)॥8॥

जिस कर्म के आचरण से इस लोक और परलोक में मनुष्य का यथार्थ कल्याण होता है, वही कर्तव्य है. चूंकि आसुर-स्वभाव वाले मनुष्य इस कर्तव्य-अकर्तव्य संबंधी प्रवृत्ति और निवृत्ति को बिल्कुल ही नहीं समझते, इसीलिये उनके मन में जो आता है, वही करने लगते हैं.

इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके (के सहारे) – जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे सब अपकार करने वाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत्‌ के नाश के लिए ही समर्थ होते हैं॥9॥ वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं॥10॥ तथा वे मृत्युपर्यन्त रहने वाली असंख्य चिंताओं का आश्रय लेने वाले, विषयभोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और “इतना ही सुख है” इस प्रकार मानने वाले होते हैं॥11॥

जिन मनुष्यों के खानपान, रहन-सहन, बोलचाल, व्यवसाय-वाणिज्य, देन-लेन और बर्ताव-व्यवहार आदि शास्त्र विरुद्ध और भ्रष्ट होते हैं, वे भ्रष्ट आचरणों वाले कहे जाते हैं.

नास्तिक सिद्धांत वाले मनुष्य आत्मा की सत्ता को नहीं मानते, वे केवल देहवादी या भौतिकवादी ही होते हैं. इससे उनका स्वभाव भ्रष्ट हो जाता है. उनकी किसी भी सत्कार्य के करने में प्रवृति नहीं होती. उनकी बुद्धि भी अत्यंत मंद होती है; वे जो कुछ भी निश्चय करते हैं, सब केवल भोग-सुख की दृष्टि से ही करते हैं, दूसरों के सुखों का ध्यान नहीं रखते वे. उनका मन लगातार सबका अहित करने की बात ही सोचा करता है, और इससे वे अपना भी अहित ही कर डालते हैं.

वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्यायपूर्वक धन आदि पदार्थों का संग्रह करने की चेष्टा करते हैं॥12॥ वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा. मेरे पास यह इतना धन है और फिर यह भी हो जाएगा॥13॥

वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा. मैं ईश्वर हूँ, ऐश्वर्य को भोगने वाला हूँ. मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ॥14॥ मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ. मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा. इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यंत आसक्त आसुरलोग महान्‌ अपवित्र नरक में गिरते हैं॥15-16॥ वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी मनुष्य धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं॥17॥

वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोध आदि के परायण और दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं॥18॥ उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ (सिंह, बाघ, सर्प, बिच्छु, सूअर, कुत्ते और कौवे आदि जितने भी पशु, पक्षी, कीट, पतंग हैं- ये सभी आसुरी योनियां हैं)॥19॥

हे अर्जुन! वे मूढ़ मनुष्य मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ घोर नरकों में पड़ते हैं॥20॥ काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार (सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को ‘नरक के द्वार’ कहा है) आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं. इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥21॥

अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है (अपने उद्धार के लिए भगवदाज्ञानुसार बरतना ही “अपने कल्याण का आचरण करना” है), इससे वह परमगति को जाता है अर्थात्‌ मुझको प्राप्त हो जाता है॥22॥ जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही॥23॥ इससे तुम्हारे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है. ऐसा जानकर तुम शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य हो॥24॥

आसुर स्वभाव वाले मनुष्य मन में उठने वाली कल्पनाओं की पूर्ति के लिये भाँति-भाँति की सैकड़ों आशाएं लगाये रहते हैं. उनका मन कभी किसी विषय की आशा में लटकता है, कभी किसी में खिचता है, और कभी किसी में अटकता है. इस प्रकार आशाओं के बंधन से वे कभी छूटते ही नहीं. इसी से उन्हें सैकड़ों आशाओं की फांसियों से बंधे हुए कहा गया है.

विषय भोगों के उद्देश्य से वे काम-क्रोध का आश्रय करके अन्यायपूर्वक अर्थात् चोरी, ठगी, डाका, झूठ, कपट, छल, दम्भ, मारपीट, कूटनीति, जुआ, धोखेबाजी, विष-प्रयोग, झूठे मुकदमे और भय-प्रदान आदि शास्त्र विरुद्ध उपायों के द्वारा दूसरों के धन आदि को हरण करने की चेष्टा करते हैं. अहंकार के साथ ही वे मान में भी चूर रहते हैं, इससे ऐसा समझते हैं कि “संसार में हमसे बड़ा और है ही कौन हम जिसे चाहें मार दें, बचा दें, जिसकी चाहें जड़ उखाड़ दें या रोप दें. हम सर्वथा स्वतंत्र हैं, सब कुछ हमारे ही हाथों में है.”

काम, क्रोध और लोभ आदि आसुरी सम्पदा का त्याग करके शास्त्र प्रतिपादित सद्गुण और सदाचार रूप दैवी-सम्पदा का निष्कामभाव से सेवन करना ही कल्याण के लिये आचरण करना है.

वेद और वेदों के आधार पर रचित स्मृति, पुराण, इतिहास आदि का नाम शास्त्र है. आसुरी सम्पदा के आचार व्यवहार आदि के त्याग का और दैवीसम्पदा रूप कल्याणकारी गुण-आचरणों के सेवन का ज्ञान शास्त्रों से ही होता है. कब क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये- इसकी व्यवस्था श्रुति, वेदमूलक स्मृति और पुराण-इतिहास आदि शास्त्रों से प्राप्त होती है. अर्थात इन शास्त्रों में जिन कर्मों के करने का विधान है, उन्हें करना चाहिये और जिनका निषेध है, उन्‍हें नहीं करना चाहिये.

कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान कराने वाले शास्त्रों के विधान की अवहेलना करके अपनी बुद्धि से अच्छा समझकर जो चाहे मनमाने अर्थ निकालकर मान, बड़ाई-प्रतिष्ठा आदि किसी की भी इच्छाविशेष को लेकर आचरण करना है, यही शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करना है. ऐसे कर्म करने वाले कर्ता को कोई भी फल नहीं मिलता.

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