Brahma Saraswati : जब अपनी ही पुत्री पर काममोहित हो गए ब्रह्मा जी…

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ब्रह्मा जी द्वारा अपनी ही पुत्री पर काममोहित होने की कथा अलग-अलग पुराणों में अलग-अलग प्रकार से देखने को मिलती है. किसी में लिखा है कि अपनी भूल का एहसास होते ही ब्रह्मा जी ने स्वयं को नष्ट कर लिया, तो किसी में लिखा है कि इस पाप के लिए भगवान शिव ने ब्रह्मा जी को दंड दिया. तो कुल मिलाकर पुत्री पर काममोहित होना एक महापाप और अक्षम्य अपराध बताया गया है.

श्रीमद्भागवतमहापुराण के तृतीय स्कंध के अध्याय 12 के एक छोटे से हिस्से में लिखा है-

“विदुरजी! भगवान ब्रह्मा की पुत्री सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहर थी. हमने सुना है कि एक बार उसे देखकर ब्रह्माजी काममोहित हो गए थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थी. ब्रह्माजी को ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया, “पिताजी! आप समर्थ हैं फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं. ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्मा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा. हे जगतगुरु! आप जैसे तेजस्वी पुरुषों को ऐसा कार्य शोभा नहीं देता, क्योंकि आप लोगों के आचरण का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है. जिस श्री भगवान ने अपने स्वरूप में स्थित इस जगत को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उन्हें नमस्कार है! इस समय वही धर्म की रक्षा कर सकते हैं.” अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों को इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पति ब्रह्माजी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने अपने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया. तब उस शरीर को दिशाओं ने ले लिया.”

तो इस कथा के माध्यम से एक तो समाज को यह बताया गया है कि पुत्रीगमन जैसा अपराध करना तो दूर, उसके बारे में सोचना भी महापाप, अधर्म और अक्षम्य अपराध है.

शिवमहिम्नस्तोत्रम् में इस घटना का उल्लेख करते हुए गंधर्वराज पुष्पदंत कहते हैं कि-

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुम्
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभस:॥

“अकरणीय कर्म (न करने योग्य कर्म) करने पर कुफल की प्राप्ति अनिवार्य है. काम में निविष्टचित्त प्राणी भगवान कामारि (भगवान शिव) के कोप का भाजन बनता ही है, फिर चाहे वह कोई भी हो. ब्रह्माजी अर्थात् सृष्टि के आरम्भ से ही यह होता आया है कि प्रलयंकर प्रभु के समक्ष कोई भी अपराधी अनुचित कर्म का दंड प्राप्त किये बिना नहीं रह सकता, और आज भी रुद्र का उग्र कोप दुष्कृत करने वाले को छोड़ता नहीं है.”

ब्रह्माजी सृष्टिकर्ता हैं. किसी सृजनधर्मी या रचनाकार की रचना उसकी अपनी मानसपुत्री है, जिस पर मुग्ध व मदान्ध होकर वह अपने मार्ग से भटक सकता है. आत्ममुग्धता और अहंकार रचनाकार को उन्मत्त कर देता है, तब वह अपने दोषों या त्रुटियों की ओर नहीं देख पाता, अतः सुधार भी नहीं कर पाता और न ही विकास कर पाता है, और इस प्रकार उसकी नवसृजन की क्षमता कुण्ठित हो जाती है.

भगवान सदाशिव ने ब्रह्मा जी को सृष्टि की रचना का कार्य सौंपा और इसी से ब्रह्माजी प्रजेश या प्रजानाथ या प्रजापति कहलाये, पर माया से वे भी अछूते न रह सके, लोकसृष्टा होने का दर्प उठा. जिस कल्याणकारी कार्य के लिए नियुक्त किया गया, उसे छोड़कर अपनी ही कामनाओं के पीछे भागने लगे. अब यदि प्रजानाथ ही अपने कर्तव्य को भूलकर अपनी ही कामनाओं के पीछे भागने लगे, तो प्रजा का क्या होगा? अतः उन्होंने उसका दण्ड भी पाया. कामनाओं के पीछे भागने से जीव का कल्याण नहीं होता. कहा भी गया है- ‘जहाँ काम तहँ राम नहीं’.

माध्वाचार्य शास्त्री जी ने इसी कथा के आध्यात्मिक सन्देश को समझाते हुए लिखा है-

“वाणी का अनुगमन करते हुए विवेक मन को बार-बार सावधान करता है.”

श्रीमद्भागवतमहापुराण की इस कथा में ब्रह्माजी का सरस्वती जी से विवाह नहीं हुआ है, लेकिन ब्रह्मवैवर्त पुराण में ब्रह्मा जी का विवाह सरस्वती जी के साथ हुआ है. लेकिन वहां सरस्वती जी ब्रह्माजी की कोई रचना या पुत्री नहीं बताई गई हैं, बल्कि वहां सरस्वती जी की उत्पत्ति श्रीविष्णु जी से बताई गई है.

अन्य स्थानों पर मां सरस्वती जी को मूलप्रकृति आदिशक्ति का एक अंश बताया गया है, और दार्शनिक रूप से यह समझाने का प्रयास किया गया है कि जिस प्रकार सृजन या रचना करने के लिए ज्ञान की, पालन करने के लिए धन की और संहार करने अर्थात् अंत में सब कुछ समेट लेने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार ब्रह्मा जी के साथ ज्ञान और कला के रूप में देवी सरस्वती हैं, विष्णु जी के साथ देवी लक्ष्मी जी हैं, और भगवान् शंकर जी के साथ शक्तिस्वरूपा देवी पार्वती जी हैं.

वेदों में सरस्वती जी अजन्मा हैं और सदा से सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी की पत्नी ही हैं-

‘श्रीं’ पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती।
यज्ञं वष्टु धिया वसुः॥
या श्रद्धा धारणा मेधा वाग्देवी विधिवल्लभा।
भक्तजिह्वाग्रसदना शमादिगुणदायिनी॥

अर्थात् “जो वस्तुत: वर्ण, पद, वाक्य तथा इनके अर्थों के रूप में सर्वत्र व्याप्त हैं, जिनका आदि और अन्त नहीं है, जो अनंत स्वरूप वाली हैं, वे सरस्वती देवी मेरी रक्षा करें. जो ब्रह्माजी की प्रियतमा सरस्वती देवी श्रद्धा, धारणा और मेधास्वरूपा हैं, वे भक्तों के जिह्वाग्र में निवास कर शम-दमादि गुणों को प्रदान करती हैं.”

पुराणों की कथाएं

बचपन में हमें स्कूल में हर बात कहानियों के माध्यम से समझाई जाती है, और जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, चीजों को हमें मूल रूप में ही पढ़ाया जाता है. इसी प्रकार हमें पहले पुराण, फिर रामायण-महाभारत जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थ पढ़ने के लिए कहा जाता है, और फिर अंत में ही वेदों को पढ़ने की सलाह दी जाती है. पुराणों की कुछ कथायें वैदिक ज्ञान को लोगों तक पहुंचाने का सरल माध्यम हैं.

जब हम अपनी मूल धारा से जुड़े रहते हैं, तब जाकर हमें पुराणों की कथाओं की अनेक बातें समझ में आती हैं, लेकिन जड़ से कटकर इन्हीं कथाओं को पढ़ने से ये कथाएं बड़ी अटपटी और अजीब लगती हैं. ब्रिटिश काल के बाद हम वैचारिक और मानसिक रूप से पंगु हो गए हैं, अपनी जड़ों से कटकर अपने शास्त्रों और ग्रंथों को पढ़ रहे हैं, जिस वजह से कुछ समझ नहीं पा रहे हैं.

अब जैसे कि पुराणों में हमें लिखा मिलता है कि “ब्रह्मा जी के पैरों से शूद्र का जन्म हुआ, जांघों से वैश्य का, भुजाओं से क्षत्रिय का और मुख से ब्राह्मण का…”

अब यह तो हमें भी पता है कि किसी भी व्यक्ति के पैरों, मुख आदि से किसी का जन्म नहीं होता. लेकिन यह कहने का एक तरीका है ताकि कार्य-कारण में एकरूपता के सिद्धांत को समझाया जा सके. जिस चीज से जो चीज पैदा होती है, उसके गुण-विशेषताएं वैसे ही होते हैं. इन बातों को आप इस लेख से समझ सकते हैं-

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दूसरी बात यहाँ यह बताई जा रही है कि मनुष्य की यात्रा पैरों से शुरू होकर मस्तिष्क यानी ज्ञान तक जाती है. और इसीलिए जन्म से प्रत्येक मनुष्य शूद्र है और उसे ब्राह्मणत्व तक की यात्रा करनी है. यह मानव जीवन का एक सीक्वेंस है. मनुष्य के पैर उसकी नींव होते हैं, जो उसकी स्थिरता के लिए आवश्यक हैं. किसी मनुष्य को आगे बढ़ाने में उसके पैरों का अमूल्य योगदान होता है. पैरों के बिना मनुष्य अपाहिज है, और इसीलिए समाज की तुलना एक शरीर से कर शूद्र को समाज का आधार कहा गया है.

दर्शन विज्ञान का पूरक है

किसी विद्वान ने एक अच्छी बात कही है (मैंने कहीं पर ऐसा पढ़ा था) कि दर्शन विज्ञान का पूरक है, या यूं कहिये कि व्यवस्थित दर्शन का भौतिक रूपांतरण कर देना ही विज्ञान है. अतः यदि कोई कहे कि वह विज्ञान का शोधार्थी है लेकिन उसका दर्शन ज्ञान जीरो है तो समझ लीजिये कि वह कोई नकलची है. वह कोई नई खोज नहीं कर सकता, बल्कि जो हो चुकी है उसी में जोड़-तोड़ करेगा. अतः विज्ञान के विद्यार्थियों को उन ऋषियों या विश्व के दार्शनिकों के विचार जरूर पढ़ने चाहिए, जो तत्व चर्चा पर आधारित हों. तत्व चर्चा से तर्क करने और चीजों को समझने की क्षमता बढ़ती है.

ब्रह्माजी और सृष्टि का विस्तार

श्रीमद्भागवतमहापुराण की इस कथा में एक नहीं, कई ब्रह्माजी की बात हो रही है. श्रीमद्भागवतमहापुराण का यह अध्याय ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि के विस्तार का वर्णन करता है. यदि हम इस सृष्टि या ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रहस्यों को समझने बैठें तो हमें कई सिद्धांत पढ़ने को मिलते हैं. कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह ब्रह्माण्ड हमेशा से ऐसे ही था और हमेशा ऐसे ही रहेगा.

वहीं, कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस प्रकार हम सब जन्म लेते, बड़े होते और अंत में मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार इस ब्रह्माण्ड की भी उत्पत्ति होती है, विस्तार होता है और धीरे-धीरे नष्ट भी हो जाता है और फिर एक नये ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है. यह क्रम चलता रहता है. हमारे भारतीय दर्शन के अनुसार जितने ब्रह्मा, उतनी सृष्टि. जब सृष्टि का विस्तार हो रहा होता है, तब कई शक्तियां आपस में टकराती, मिलती और दूर हटती हैं. और इसी क्रम में नई-नई शक्तियों का जन्म-मरण भी होता रहता है.

भगवद्गीता के अध्याय ८ में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं, “संपूर्ण चराचर भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेश काल में अव्यक्त से अर्थात् ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं, और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेश काल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ही लीन हो जाते हैं.”

तो आप देख सकते हैं कि यहाँ श्रीकृष्ण एक नहीं, कई ब्रह्मा की बात कर रहे हैं, जिससे यह सृष्टि उत्पन्न होती है, विस्तारित होती है और फिर उसी में समा जाती है.

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ब्रह्माजी वाली यह कथा किसी कल्प में सृष्टि निर्माण के पहले की कथा है, अर्थात् जब सृष्टि का निर्माण हो रहा था. यहाँ एक अव्यक्त शक्ति है, जिसे स्वयं को व्यक्त करना है. श्रीमद्भागवतमहापुराण के इस अध्याय में मैथुन-सृष्टि की उत्पत्ति आदि की बातें तो बहुत बाद में आई हैं. यानी अब तक इस प्रकार की किसी क्रिया की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी. तो इसका अर्थ है कि न तो सरस्वती जी का जन्म ब्रह्मा जी से हुआ है, और न ही ब्रह्मा जी ने उनके साथ कोई गलत कार्य किया है.

श्रीमद्भागवतमहापुराण के इसी अध्याय में आगे यह बताया भी गया है कि-

“ब्रह्मा जी शब्द ब्रह्मस्वरूप हैं. वे वैखरीरूप से व्यक्त और ओंकाररूप से अव्यक्त हैं, तथा उनसे परे जो सर्वत्र परिपूर्ण परब्रह्म है, वही अनेकों प्रकार की शक्तियों से विकसित होकर इन्द्रादि रूपों में भास (प्रकाशित हो) रहा है.”

ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी यह बताया गया है कि-

मनःस्वरूपो ब्रह्मा मे ज्ञानरूपो महेश्वरः
वागधिष्ठात्री देवी या सा स्वयं च सरस्वती।

अर्थात् “मन ही ब्रह्मा है, (विवेकपूर्ण) ज्ञान को महेश्वर समझो तथा वाणी की अधिष्ठात्री देवी ही सरस्वती हैं.”

कुमारिल भट्ट ने अपने ग्रन्थ ‘तन्त्रवार्तिकं’ में इस घटना को समझाते हुए लिखा है-

“संसार का रक्षक होने के कारण सूर्य ही प्रजापति हैं (क्योंकि पृथ्वी पर जीवन सूर्य की वजह से है), वह अरुणोदय के समय उषा अर्थात् प्रभातकालीन श्वेतिमा के पीछे-पीछे उदित हो रहा है. उषा सूर्य से ही उत्पन्न होती है, अतः उसका पुत्रीवत वर्णन किया गया है. वह सूर्य उषा में अपना लाल किरण रूपी बीज डालता है, जो उपचार (उपमा) से स्त्री-पुरुष के संयोग की तरह कहा गया है.”

तो ऐसा नहीं है कि पुराणों में केवल अलग-अलग प्रकार की कथाएं ही हैं, उनके पीछे का सन्देश और ज्ञान भी कथाओं के बीच-बीच में दिया गया है, बस आवश्यकता है ध्यान से पढ़ने की. इस कथा का उद्देश्य भी मानव समाज को एक महत्वपूर्ण शिक्षा देना मात्र है-

यहाँ ब्रह्माजी सृष्टिकर्ता हैं, और उनकी एक कृति हैं सरस्वती जो उनके मुख से उत्पन्न हुई हैं. अतः वह सरस्वती उनके ज्ञान और बुद्धिमता (Intelligence) को दर्शा रही हैं (और इसीलिए यहाँ भी नाम ‘सरस्वती’ ही रखा गया). ब्रह्मा जी अपने ही ज्ञान पर मोहित हो गए, जो कि उनके अहंकार को दर्शा रहा है. किसी सृजनकर्ता या रचनाकार की शक्ति उसका ज्ञान या बुद्धिमता ही होती है, जिसके बल पर वह सब कुछ हासिल कर सकता है.

जब किसी व्यक्ति को अपनी ही शक्ति पर अहंकार हो जाता है, तब उसी अहंकार के कारण उसकी कामनाएं भी बढ़ने लगती हैं, और वह उचित-अनुचित में भेद भूलकर केवल अपनी कामनाओं को प्राप्त करने के पीछे भागने लगता है, वह हर एक चीज पर जबरन अपना अधिकार करना चाहता है. जैसे रावण को देखिये, वेदों का ज्ञानी होने के बावजूद अपनी शक्ति पर अहंकार होने के चलते उसने हर चीज पर जबरन अपना अधिकार करना चाहा. अंततः उसका अहंकार ही उसके पतन का कारण बना.

और जैसा कि श्रीमद्भागवतमहापुराण के इस प्रसंग में लिखा हुआ है कि, “हे जगतगुरु! आप जैसे तेजस्वी पुरुषों को ऐसा कार्य शोभा नहीं देता, क्योंकि आप लोगों के आचरण का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है…”, तो इससे यह शिक्षा दी जा रही है कि जिन लोगों को महत्वपूर्ण पद या कार्य सौंपा जाता है, उनका आचरण सदैव सही और अच्छा होना चाहिए, क्योंकि वे जैसा आचरण करते हैं, समाज भी वैसा ही आचरण करने लगता है.

Written by : Aditi Singhal (working in the media)

Edited by : Niharika

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