क्या शैवों को मांस खाना वर्जित है? मांस-मदिरा के सेवन को लेकर भगवान शिव ने क्या कहा है?

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भगवान शिव

Bhagwan Shiv Non veg?

महाभारत में ‘अनुशासन पर्व’ का 140 से 146 तक का भाग बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी देता है. इसमें भगवान् शिव ने माता पार्वती जी के अनेक प्रश्नों के उत्तर दिए हैं. मनुष्य के शुभ-अशुभ कर्मों का, धर्म-अधर्म और उनके प्रभावों का, पुण्य-पाप और उनके प्रभावों का, परिस्थिति अनुसार किये गए विभिन्न कर्मों और उनके प्रभावों का, कर्तव्यों आदि का बड़ा ही विस्तार से वर्णन महाभारत के इस भाग में किया गया है. इसी भाग में आहार की शुद्धि के विषय पर भी प्रकाश डाला गया है.

माता पार्वती भगवान् शिव से पूछती हैं- “हे देव! हे महेश्वर! आहार की शुद्धि कैसे होती है?”

श्रीमहेश्वर ने कहा-
“देवि! जिसमें मांस और मद्य न हो, जो सड़ा हुआ या पसीजा न हो, बासी न हो, अधिक कड़वा, अधिक खट्टा और अधिक नमकीन न हो, जिससे उत्तम गंध आती हो, जिसमें कीड़े या केश न पड़े हों, जो निर्मल हो, ढका हुआ हो और देखने में भी शुद्ध हो, जिसका देवताओं और ब्राह्मणों द्वारा सत्कार किया गया हो, सदा ऐसे ही अन्न का भोजन करना चाहिये. इसके विपरीत जो अन्न है, उसे अशुभ माना गया है. ग्राम्य अन्न की अपेक्षा वन में उत्पन्न होने वाले पदार्थों से बना हुआ अन्न श्रेष्ठ होता है.”

पार्वती जी ने पूछा- “प्रभो! कुछ लोग तो मांस खाते हैं और दूसरे लोग उसका त्याग कर देते हैं. महादेव! ऐसी दशा में मुझे भक्ष्य-अभक्ष्य का निर्णय करके बताइये.”

श्रीमहेश्वर ने कहा- “देवि! मांस खाने में जो दोष है और उसे न खाने में जो गुण है, उसका मैं यथार्थ रूप से वर्णन करता हूँ, उसे सुनो. यज्ञ, दान, वेदाध्ययन तथा दक्षिणा सहित अनेकानेक क्रतु (योग्यता)- ये सब मिलकर मांस-भक्षण के परित्याग की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं होते. जो मनुष्य स्वाद की इच्छा से अपने लिये दूसरे के प्राणों की हिंसा करता है, वह बाघ, गीध, सियार और राक्षसों के समान है.

जो मनुष्य पराये मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ-कहीं भी जन्म लेता है, वहीं उद्वेग में पड़ा रहता है. जैसे अपने मांस को काटना अपने लिये पीड़ाजनक होता है, उसी तरह दूसरे प्राणियों का मांस काटने पर उन्हें भी पीड़ा होती है, यह प्रत्येक विज्ञ पुरुष को समझना चाहिये. जो मनुष्य जीवनभर सब प्रकार के मांस को त्याग देता है, कभी मांस नहीं खाता है, वह स्वर्ग में विशाल स्थान पाता है, इसमें संशय नहीं है.

जो मनुष्य जो पूरे सौ वर्षों तक उत्कृष्ट तपस्या करता है और जो यदि वह सदा के लिये मांस का परित्याग कर देता है, उसके ये दोनों कर्म समान हैं. संसार में प्राणों के समान प्रियतम दूसरी कोई वस्तु नहीं है. अतः समस्त प्राणियों पर दया करनी चाहिये. जैसे अपने ऊपर दया अभीष्ट होती है, वैसे ही दूसरों पर भी होनी चाहिये. इस प्रकार मुनियों ने मांस न खाने में गुण बताये हैं.”

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महाभारत में भगवान शिव और भगवान श्रीकृष्ण द्वारा स्थान-स्थान पर मांस-भक्षण की निंदा की गई है. इसी के साथ कई और जगहों पर भी शिवभक्तों को मांसाहार से दूर रहने के लिए ही कहा गया है. जैसे कि स्कन्द पुराण कहता है कि–

“जो मनुष्य मद्य और मांस में आसक्त हैं, उनसे भगवान् शिव बहुत दूर रहते हैं.” (स्कन्द पुराण काशीखण्ड पूर्वार्ध ३.५९-५३)

मदिरा सेवन पर भगवान् शिव ने क्या कहा है–

भगवान शिव कहते हैं- “देवी! अब मैं मदिरा पीने के दोष बताता हूँ. मदिरा पीने वाले उसे पीकर नशे में अट्टहास करते हैं, अंट-संट बातें करते हैं, कितने ही प्रसन्न होकर नाचते हैं और भले-बुरे गीत गाते हैं. वे आपस में इच्छानुसार कलह करते और एक-दूसरे को मारते-पीटते हैं. कभी सहसा दौड़ पड़ते हैं, कभी लड़खड़ाते और गिरते हैं. शोभने! वे जहाँ कहीं भी अनुचित बातें करने लगते हैं और कभी नंग-धड़ंग हो हाथ-पैर पटकते हुए अचेत-से हो जाते हैं. इस प्रकार भ्रान्तचित्त होकर वे नाना प्रकार के भाव प्रकट करते हैं.

जो मनुष्य महामोह में डालने वाली मदिरा पीते हैं, वे मनुष्य पापी होते हैं. पी हुई मदिरा मनुष्य के धैर्य, लज्जा और बुद्धि को नष्ट कर देती है. इससे मनुष्य निर्लज्ज और बेहया हो जाते हैं. शराब पीने वाला मनुष्य उसे पीकर बुद्धि का नाश हो जाने से कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान न रह जाने से, इच्छानुसार कार्य करने से तथा विद्वानों की आज्ञा के अधीन न रहने से पाप को ही प्राप्त होता है.

मदिरा पीने वाला पुरुष जगत में अपमानित होता है. मित्रों में फूट डालता है, सब कुछ खाता और हर समय अशुद्ध रहता है. वह स्वयं हर प्रकार से नष्ट होकर विद्वान विवेकी पुरुषों से झगड़ा किया करता है. रूखा, कड़वा और भयंकर वचन बोलता रहता है. वह मतवाला होकर गुरुजनों से बहकी-बहकी बातें करता है, परायी स्त्रियों से बलात्कार करता है, धूर्तों और जुआरियों के साथ बैठकर सलाह करता है और कभी किसी की कही हुई हितकर बात भी नहीं सुनता है. शोभने! इस प्रकार मदिरा पीने वाले में बहुत-से दोष हैं.

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अपना हित चाहने वाले सत्पुरुषों ने मदिरा पान का सर्वथा त्याग किया है. यदि सदाचार की रक्षा के लिये सत्पुरुष मदिरा पीना न छोड़े तो यह सारा जगत मर्यादारहित और अकर्मण्य हो जाये. अतः श्रेष्ठ पुरुषों ने बुद्धि की रक्षा के लिये मद्यपान को त्याग दिया है. पहले सब दोषों को एक साथ या बारी-बारी से त्याग देना चाहिये. समस्त दोषों का त्याग कर देने से मनुष्य मुनि हो जाता है.”

“देवी! प्रातःकाल उठना, शौच, स्नान करके शुद्ध होना, देवताओं में भक्ति रखते हुए गुरुजनों की सेवा करना, बड़े-बूढ़ों के आने पर उठकर उनका स्वागत करना, देवस्थान में मस्तक झुकाना, अतिथियों के सम्मुख होकर उनका उचित आदर सत्कार करना, बड़े-बूढ़ों के उपदेश को मानना और आचरण में लाना उनके हितकर और लाभदायक वचनों को सुनना, भृत्यवर्ग को सांत्वना और अभीष्ट वस्तु का दान देकर अपनाते हुए उसका पालन-पोषण करना, न्याययुक्त कर्म करना, अन्याय और अहितकर कार्य को त्याग देना, अपनी स्त्री के साथ अच्छा बर्ताव करना, दोषों का निवारण करना, संतानों को विनय सिखाना, उन्हें भिन्न-भिन्न आवश्यक कार्यों में लगाना, अशुभ पदार्थों को त्याग देना, शुभ पदार्थों का सेवन करना, कुलोचित धर्मों का यथावत रूप से पालन करना और अपने पुरुषार्थ से सर्वथा अपने कुल की रक्षा करना इत्यादि सारे शुभ व्यवहार वृत्त कहे गये हैं.”

— Mahabharat Anushasan Parva 145


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