भगवान विष्णु का मोहिनी अवतार और भगवान शिव?

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Bhagwan Shiv aur Mohini Katha

एक बार एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि भगवान् शिव, जिन्होंने कामदेव को भी भस्म कर दिया था, तो वे मोहिनी के पीछे क्यों भागे, और उनके वीर्य का स्खलन क्यों हुआ…?

इसका क्या उत्तर होना चाहिए, क्योंकि जिन पुराणों में हमें यह कथा पढ़ने को मिलती है, उन्हीं पुराणों में यह बात भी बार-बार लिखी है कि हर और हरि में कोई भेद नहीं है. अपनी लीलाओं में कभी शिवजी केंद्र में बैठ जाते हैं तो कभी विष्णुजी. दरअसल, हम सब अपनी ही भाषा और प्रकृति के अनुसार इन कथाओं को समझते हैं, उससे अधिक या आगे समझने का सामर्थ्य हम सबमें नहीं है. हम इन्द्रियों की भाषा समझते हैं, संकल्पों की नहीं.

भगवान शिव जो अपनी जटाओं में गंगा, तीसरे नेत्र में अग्नि, मस्तक पर चन्द्रमा, कंठ में कालकूट विष, गले में सर्पों की माला आदि धारण करते हैं… क्या उनका शरीर हमारी-आपकी तरह भौतिक पंचतत्वों से मिलकर बना है? यह वीर्य-शुक्र जैसे शब्द हम साधारण मनुष्यों को समझाने के लिए लिखे गए, पर ईश्वर और देवताओं का वीर्य या शुक्र भौतिक नहीं होता, दिव्य होता है और इसीलिए उसे “तेजस्” भी कहा गया है, अर्थात उनका तेजांश.

जैसे सूर्य अस्त नहीं होता, वैसे ही शिवतेज स्खलित नहीं होता. जिन मोहिनी की हम बात करते हैं, वह विष्णुजी का एक अवतार हैं. और हम यह भी जानते हैं कि हरि और हर में कोई अंतर नहीं है, केवल सृष्टि कार्य-संचालन के लिए ये अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं, तो फिर किसका दर्शन और किसका स्खलन?

शिव-मोहिनी कथा –

ऐसी किसी कथा का उल्लेख प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथों जैसे वाल्मीकि रामायण, महाभारत और रामचरितमानस आदि में नहीं मिलता है. पुराणों में मिलता है. और पुराणों में भी यह कथा अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग प्रकार से देखने को मिलती है. लेकिन जो लोग पुराणों की इन कथाओं को आधे-अधूरे ढंग से दिखा-दिखाकर भगवान् का अपमान करते फिरते हैं, तो उन्हें पुराणों में ही लिखी यह बात भी तो माननी चाहिए कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों एक ही रूप हैं और ये केवल पृथक होकर लीलाएं करते रहते हैं.

खैर, चर्चा करते हैं शिव-मोहिनी की कथा पर-

(1) यह कथा हनुमान जी के अवतरण से भी जुड़ती है, जिसे संक्षेप में कहा जाये तो एक बार भगवान् विष्णु के मोहिनी रूप को देखकर रोमांचित हुए भगवान शिव के वीर्य का स्खलन हो गया और उसका प्रयोग उन्होंने रामकार्य के लिये किया. सप्तर्षियों ने शिवशुक्र को पत्रपुटक में (दोने में) रख लिया तथा उन्हीं में से एक महर्षि वशिष्ठ ने अंजनीदेवी को दीक्षा देने के लिए शिव के उस तेजांश को उनके कान में प्रवाहित कर दिया, जैसे गुरु दीक्षा देते समय शिष्य के कान में गुरु-मंत्र डाल देते हैं.

वानरराज केसरी की पत्नी अंजनीदेवी को पवनदेव ने अपने ही समान वेगवान और बलशाली पुत्र की माता बनने का वरदान दिया था. अतः शिव-तेजस् के साथ बहते हुए पवन के झोंके का अंजनी देवी से संपर्क हुआ. इस प्रकार वायु के माध्यम से भगवान रुद्र ही अपने एक अंश से अंजनी देवी के गर्भ में आ गये. भगवान् शिव के तेज से उत्पन्न होने के कारण दिव्य वानर शरीर वाले हनुमानजी भी परम तेजस्वी व महाशक्तिमान हुए.

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(2) यह कथा महिषी नामक दैत्य के वध के लिए भी जानी जाती है. ‘ललितोपाख्यान’ के अध्याय २ के अनुसार-

त्रिदेवियों ने अर्थात दुर्गाजी ने दुष्ट दानव महिषासुर का वध कर दिया था. महिषासुर की मृत्यु के बाद उसकी बहन महिषी प्रतिशोध की अग्नि में जल रही थी. उसने अपने भाई की ही तरह ब्रह्माजी की आराधना शुरू कर दी. जब ब्रह्माजी ने उससे वरदान मांगने को कहा, तो उसने अमरता का वरदान मांगा. ब्रह्माजी ने यह वरदान देने से मना कर दिया और कहा कि ‘इसके बदले कोई भी वरदान मांग लो’.

तब महिषी को एक युक्ति सूझी. उसने कहा- “हे ब्रह्मदेव! आप मुझे ऐसा वरदान दीजिए कि मेरा वध भगवान शिव और भगवान विष्णु के ही पुत्र द्वारा हो सके.” ब्रह्माजी उसे यह वरदान देकर वहाँ से चले गए. यह वरदान पाकर महिषी के अहंकार और अत्याचारों की कोई सीमा न रही, क्योंकि वह सोचने लगी कि भगवान शिव और विष्णु, दोनों तो पुरुष रूपी परमात्मा हैं, भला दोनों से किसी पुत्र का जन्म कैसे हो सकता है… अतः वह तो अमर हो गई.

दरअसल, महिषी बिल्कुल आज के तथाकथित विज्ञानियों की तरह ही सोच रही थी, जो भगवान् की लीलाओं को भी बिल्कुल मनुष्यों की तरह ही समझकर उनमें विज्ञान खोज रही थी. दैवीय शक्तियों का प्राकट्य किस प्रकार होता है, यह बात महिषी नहीं जानती थी. यह सोचना कि ईश्वर भी हम मनुष्यों की तरह मैथुन-क्रिया द्वारा संतानों को जन्म देते या प्राणियों की उत्पत्ति करते हैं, तो यह बात बड़ी हास्यास्पद होगी.

भगवान् शिव अपनी पत्नी पार्वतीजी के साथ श्रीविष्णु के निवास-स्थान बैकुंठ गए और उनसे अपने मोहिनी रूप का रूप दर्शन कराने का आग्रह किया. वे बोले- “प्रभो! मैं आपके उस अवतार का दर्शन करना चाहता हूं, जिससे दैत्यों को मोहित करके अपने देवताओं को अमृत पिलाया था. स्वामी! उसी को देखने के लिए हम सब आपके पास आए हैं. हमारे मन में आपके उस अवतार के दर्शन का बड़ा कौतूहल है कि आपका वह अवतार कैसे सबको मोहित कर भ्रम में डाल देता है?”

तब श्रीविष्णुजी ने श्री ललिता देवी (पार्वती जी का एक रूप) का ध्यान करना शुरू किया जो उनके भीतर शक्ति के रूप में निवास करती हैं. इस ध्यान के फलस्वरूप वे ललिता देवी के एक रूप मोहिनी के रूप में प्रकट हुए, जिसे देखकर भगवान शिव मोहित हो गए.

इन दोनों परम शक्तियों के संयोजन से उसी समय एक दिव्य शिशु का प्राकट्य हुआ. उसका नाम महाशास्त (शासन करने वाला) रखा गया (जिन्हें हरिहरपुत्र या अयप्पा भी कहा जाता है). महाशास्त ने दैत्यों का वध किया. इस प्रकार से भगवान् शिव और भगवान विष्णु जी ने दैत्य का वध भी कर दिया और ब्रह्माजी के वरदान का मान भी रख लिया. तो यह सब लीलाधर भगवान का एक लीलानाटक है, जिसमें आगे की घटनाओं के बीज रहते हैं.

जैसे हनुमान जी अपने श्रीराम पर, उनकी प्रत्येक लीला पर मोहित हैं, भगवान शिव अपने आराध्य भगवान विष्णुजी के हर रूप और लीला पर मोहित हैं. कामनाओं का जन्म यदि कल्याणकारी शिव के अंदर हुआ है, तो उससे भी विश्व का कल्याण ही हुआ. ‘शिव’ का तो अर्थ ही होता है ‘शुभ’ और ‘कल्याणकारी’. शिव ने अपने मन में जगीं कामनाओं का प्रयोग भी ‘रामकार्य’ अर्थात जगत के कल्याण में ही किया.

(3) श्रीमद्भागवत के अनुसार, जब भगवान् शिव ने भगवान विष्णु जी से उनके मोहिनी अवतार का दर्शन कराने का आग्रह किया, और कहा कि मैं देखना चाहता हूँ कि ‘आपका वह अवतार कैसे सबको मोहित कर लेता है’, तब भगवान् विष्णु जी अत्यंत गंभीर हो गए (८|१२|१४). वे विचार करने लगे कि शिवजी को तो दुर्गा जी का मायावी रूप भी न हिला सका था, भला मेरा मोहिनी अवतार इन्हें कैसे मोहित कर सकेगा.

अतः विष्णुजी ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी, क्योंकि यदि शिव मोहित न होते, तो मायापति की माया हार जाती. इस बात को भगवान् शिव भी समझ गए थे, इसीलिए वे यहाँ अपनी लीला पर लज्जा रहित रहे (८|१२|३७). इस कथा के माध्यम से भगवान् शिव और विष्णु जी ने यह भी बताने का प्रयास किया है कि मायापति की माया कितनी प्रबल है, जिसने एक पल के लिए भगवान् शिव तक को भ्रमित कर दिया, और शिव इतने संतुलित/योगीश्वर हैं कि वे तुरंत ही उस माया को समझ जाते हैं और उससे बाहर आ जाते हैं.

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इस ब्रह्माण्ड में पृथ्वी का अस्तित्व धूल के एक कण के समान भी नहीं है. क्या इस ब्रह्माण्ड के रचियता पृथ्वी पर उत्पन्न हुए किसी राक्षस का वध करने के लिए अवतार लेते हैं? नहीं, उनका उद्देश्य ऐसी लीलाएं करना होता है, जिससे मानव समाज शिक्षा और मार्गदर्शन पा सके. भगवान सभी के भावों को सार्थक कर देते हैं. उनके श्रीचरणों से लगकर समस्त कल्पनाएँ सत्य-सार्थक हो जाती हैं. उनके संबंध में कोई कुछ भी सोचे, कुछ भी असंबद्ध नहीं है. उनकी तो घोषणा ही है कि-

“ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्हम्।”


हरिहर रूप और त्रिदेवों की एकरूपता-

स्कन्द पुराण के ‘चतुर्यमास माहात्म्य’ में ‘हरिहर रूप’ के लिए कहा गया है कि-

“एक समय शिवभक्तों और विष्णुभक्तों में एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से बड़ा विवाद हुआ. तब भगवान्‌ शंकर और विष्णु जी ने अपने भक्तों के देखते-देखते एक परम अद्भुत रूप धारण किया. वह उनका हरिहरस्वरूप था. वे आधे शरीर से शिव और आधे शरीर से विष्णु हो गये. एक ओर भगवान्‌ विष्णु के चिह्न और दूसरी ओर भगवान्‌ शिव के चिह्न प्रकट हुए. एक ओर गरुड़ और दूसरी ओर नन्दी वृषभ उपस्थित थे. एक ओर मेघ के समान श्याम वर्ण था तो दूसरी ओर कर्पूर के समान गौर वर्ण. दोनों में एकता का स्पष्टीकरण हुआ. इसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व में एक ही ईश्वर व्याप्त हैं.”

विष्णुपुराण में विष्णु को ही शिव कहा गया है, तो शिवपुराण शिव के ही हजार नामों में से एक है विष्णु. शिव विष्णु की लीलाओं से मुग्ध रहते हैं और हनुमानजी के रूप में उनकी आराधना करते हैं. विष्णुजी अपने अलग-अलग रूपों एवं अवतारों में शिवलिंग की स्थापना करके भगवान् शिव की पूजा करते रहते हैं. शिव ही विष्णु हैं और विष्णु ही शिव हैं.

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भगवान विष्णु दक्षप्रजापति से कहते हैं-

त्रयाणामेकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम।
सर्वभूतात्मनां ब्रह्मन स शान्तिमधिगच्छति॥
(श्रीमद्भागवत ४/७/५४)

“हम तीनों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) एकरूप हैं और समस्त जीवात्माओं की आत्मा हैं. जो मनुष्य हमारे अन्दर भेद-भावना नहीं करता, नि:संदेह वह शान्ति (मोक्ष) को प्राप्त होता है.”

ब्रह्मा, विष्णु और शिव द्वारा कहीं भी एक-दूसरे की न तो निंदा आदि की गई है और न ही निंदा आदि करने के किसी से कहा है. बल्कि हर जगह तीनों को एक मानने की प्रशंसा की है.

शिव पुराण में कहा गया है-

एसे परस्परोत्पन्ना धारयन्ति परस्परम।
परस्परेण वर्धन्ते परस्परमनुव्रता:॥
क्वचित द्ब्रह्मा क्वचितद्विष्णु:क्वाविद्रुद्र प्रशस्यते।
नानेव तेषा माधिक्य मैश्चर्यन्चातिरिच्यते॥

“ब्रह्मा, विष्णु और शिव एक-दूसरे से उत्पन्न हुए हैं, एक दूसरे को धारण करते हैं, एक दूसरे के द्वारा वृद्विन्गत होते हैं और एक-दूसरे के अनुकूल आचरण करते हैं.”

भगवान शिव विष्णुजी से कहते हैं-

मद्दर्शने फलं यद्वै तदेव तव दर्शने।
ममैव हृदये विष्णुर्विष्नोश्च हृदये ह्यहम॥
उभयोरन्तरं यो वै ण जानाति मतों मम।

“मेरे दर्शन का जो फल है वही आपके दर्शन का है. आप मेरे हृदय में निवास करते हैं और मैं आपके हृदय में रहता हूँ. जो हम दोनों में भेद नहीं समझता, वही मुझे मान्य है.”

भगवान श्रीराम भगवान शिवजी से कहते हैं-

ममास्ति हृदये शर्वो भवतो हृदये त्वहम।
आवयोरन्तरं नास्ति मूढ़ा: पश्यन्ति दुर्धिय:॥

“हे शिव! आप मेरे हृदय में रहते हैं और मैं आपके ह्रदय में रहता हूँ. हम दोनों में कोई भेद नहीं है. मूर्ख एवं दुर्बुद्धि मनुष्य ही हम में भेद समझते हैं. हम दोनों एकरूप हैं.”

भगवान श्रीकृष्ण भगवान् शिव से कहते हैं-

त्वत्परो नास्ति मे प्रेयांस्त्वं मदीयात्मन: पर:।
ये त्वां निदन्ति पापिष्ठा ज्ञानहीना विचेतस:॥
पच्यन्ते कालसूत्रेण यावच्चंद्रदिवाकरौ।
कोटिजन्मार्जितात पापान्मुक्तो मुक्तिं प्रयातिस:॥

“हे शिव! मुझे आपसे बढ़कर कोई प्यारा नहीं है. आप मुझे अपनी आत्मा से भी अधिक प्रिय हैं. जो पापी, अज्ञानी एवं बुद्धिहीन पुरुष आपकी निंदा करते हैं, वे जब तक चन्द्र और सूर्य का अस्तित्व रहेगा, तब तक कालसूत्र (नरक में) में ही रहेंगे. जो मनुष्य “शिव” शब्द का उच्चारण कर शरीर छोड़ता है, वह करोड़ों जन्मों के संचित पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होता है.”

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‘उपनिषद अंक’ में राक्षसी प्रकृति के लोगों के गुण बताते हुए लिखा है कि-

‘आसुरी प्रकृति के लोग दैवीय प्रकृति के लोगों से बिल्कुल भिन्न होते हैं. कौन सा कार्य करना चाहिए और कौन सा नहीं, ये तो वे बिल्कुल नहीं जानते. सत्य और सदाचार तो उनमें होता ही नहीं. वे इस संसार को बिना ईश्वर के ही उत्पन्न हुआ मानते हैं. उनकी समझ में केवल काम ही इस संसार का उद्देश्य है और स्त्री-पुरुष के संयोग से ही यह उत्पन्न होता है. ये लोग शरीर से आगे सोच ही नहीं सकते.

वे घमंड और स्वार्थ से भरे रहते हैं और गलत सिद्धांतों को पालते हुए भ्रष्टाचार के साथ केवल अपना ही हित सोचने वाला और दूसरों को कोसने वाला जीवन बिताते हैं. वे हर समय कामोपभोग में ही लगे रहते हैं और उनकी नजर में यही सबसे बड़ा सुख है. इस कामोपभोग के लिए वे गलत तरीके से धन कमाते हैं. अहंकार, स्वार्थ, काम और क्रोध के कारण वे अपना पूरा जीवन भगवान और महापुरुषों का अपमान करने में ही बिता देते हैं.’

कहने की आवश्यकता नहीं है कि ऐसे ही राक्षसी प्रकृति के लोग मांसाहार और अश्लीलता में बहुत रुचि रखते हैं और ऐसे ही लोगों ने अर्थ का अनर्थ करके हर जगह शराब, मांस और मैथुन की प्रवृत्तियों को फैलाने का प्रयास किया है. मांसाहार के शौकीन लोग देवताओं और ऋषि-मुनियों को माँसाहारी सिद्ध करने में जुट गए, कामी लोग इन सबको कामी साबित करने में जुट गए. शराबी लोगों ने भगवान को ही शराबी घोषित कर दिया.

इस तरह के लोग शास्त्र पढ़ते ही इसलिए हैं, ताकि उनमें अपना मनमाना अर्थ निकालकर अपने मत की पुष्टि कर सकें. वे शास्त्रों से यथार्थ ज्ञान को तो ग्रहण कर ही नहीं पाते, केवल शब्दों की व्युत्पत्ति और उनके खींचतान से जो चाहा अर्थ निकालना, स्वयं के साथ-साथ दूसरों को भी धोखा देना ही उनका मुख्य कार्य और उद्देश्य हो जाता है. स्वयं भटकते रहते हैं और दूसरों को भी भटकाते रहते हैं.

ब्रह्म क्या है?

क्या आप बता सकते हैं कि इस ब्रह्माण्ड की सबसे सूक्ष्म वस्तु क्या है और इस ब्रह्माण्ड का विस्तार कहाँ तक है? जिस बिंदु से इसकी उत्पत्ति का सिद्धांत बताया जाता है, वह बिंदु कहां से आया, क्यों आया, कब आया, उससे पहले कहां था, कैसे बना? आधुनिक वैज्ञानिक इन सब प्रश्नों के जवाब में केवल अनुमान, उदाहरण और सिद्धांत ही बता सकते हैं, लेकिन कोई भी प्रत्यक्ष प्रमाण कभी नहीं दे सकते.

ब्रह्मांड का अर्थ ही होता है- ब्रह्म का बीज. मनुष्य इस विश्व की जितना कल्पना कर सकता है वह ब्रह्म है. ब्रह्म के लिए विज्ञान, आनंद, सत्य और अनंत आदि विशेषणों का प्रयोग किया जाता है. रामचरितमानस में तुलसीदास जी लिखते हैं कि रावण के अत्याचारों से त्रस्त होकर जब सभी देवी-देवता भगवान विष्णु के लिए पूछते हैं कि उन्हें कहां ढूंढें, वे कहां रहते हैं, कैसे दिखते हैं, क्या करने पर प्रकट होते हैं? तब ब्रह्मा जी बताते हैं कि- “वे सब जगह होते हुए भी सबसे रहित हैं.”

ब्रह्म का न आदि है और न अंत. शिवलिंग इसी बात का प्रतीक होता है. शिवलिंग में ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों का वास होता है. अब जब ब्रह्म निराकार और निर्गुण है, तो वह मनुष्यों की तरह शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाता. ब्रह्म वास्तव में मात्र एक सत्ता है. उसका सारा कार्य योगमाया करती है.

मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥

अर्थात- मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी ने (अपने विवाह में) भगवान गणेशजी का पूजन किया. देवता अनादि हैं, अतः कोई इस बात को सुनकर शंका न करे (कि गणेशजी तो शिव-पार्वती जी की संतान हैं, तो अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?).

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श्री गणेश जी भगवान महागणपति के अवतार हैं. भगवान महागणपति किसी के पुत्र नहीं हैं, वे अनादि और अनंत हैं. भगवान शिव-पार्वती जी की योग शक्ति से श्री गणेश जी का प्राकट्य हुआ है. भगवान शिव एक शाश्वत योगी हैं, और पार्वती योगमाया हैं. उनकी योगशक्ति से कार्तिकेय और गणेश जी का जन्म हुआ है न कि किसी साधारण मनुष्य की तरह. चूंकि ये शक्तियां शिव-पार्वती की सम्मिलित शक्तियों का एक नई शक्ति में प्राकट्य है, इसलिए इन्हें उनका पुत्र कहा जाता है. अकेले शिव के तेज से भी कई शक्तियों का प्राकट्य हुआ है.

शिव सत्य हैं, शाश्वत हैं, इसलिए वे संसार की बुराइयों को गुनते नहीं, सिर्फ कंठ में धारण कर लेते हैं. वे आशुतोष हैं, धैर्य अपार है उनमें, वे जीवों के क्रियाकलापों से जल्दी व्यथित नहीं होते. उन पर संसार के किसी जहर का कोई असर नहीं होता, यानी वे किसी की बुराइयों की तरफ ध्यान नहीं देते, इसलिए वे राक्षसों और देवों में सम भाव रखते हैं, और इसीलिए वे ‘अजातशत्रु’ कहे जाते हैं.

उनका शरीर हमारी-आपकी तरह पंचमहाभूतों से मिलकर नहीं बना हुआ है, ये अपनी मर्जी से देह धारण करते हैं, ताकि हम सब उनके स्वरूप का आनंद ले सकें. आवश्यकता पड़ने पर ब्रह्म सगुण और साकार रूप लेता है, जैसे- श्रीराम, श्रीकृष्ण, हनुमान जी आदि, चाहे हलाहल विष हो या कुछ और, शिव पर बेअसर हैं. भगवान शिव के ही अंशावतार हनुमान जी भी हर प्रकार की माया-बंधन से मुक्त हैं.

Written By – Aditi Singhal (Working in the Media)


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