Radha ji Ka Janm : श्री राधा जी के माता-पिता पूर्वजन्म में कौन थे?

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राधा जी का जन्म

Radha ji Ka Janm (Radha ji ke Mata Pita)

जब नारदजी ने श्रीहरि से पूछा कि “भगवन्‌! (श्रीराधा जी की माता) कलावती कौन थीं और किसकी पत्नी थीं?” तब भगवान्‌ श्रीहरि ने कहा, “कलावती कमला के अंश से प्रकट हुई पितरों की मानसी कन्या हैं और वृषभानु की पतिव्रता पत्नी हैं. उसी की पुत्री राधा हुईं. वे श्रीकृष्ण के आधे अंश से प्रकट हुई हैं, इसलिये उन्हीं के समान तेजस्विनी हैं.”

नारदजी ने पूछा- “भगवन्‌! ब्रज में रहने वाले एक मानव ने कैसे, किस पुण्य से और किस प्रकार पितरों की परम दुर्लभ मानसी कन्या को पत्नी रूपमें प्राप्त किया? ब्रज के महान्‌ अधिपति वृषभानु पूर्वजन्म में कौन थे, किसके पुत्र थे ओर किस तपस्या से राधाजी उनकी कन्या हुईं?”

भगवान्‌ नारायण बोले-
“नारद! पूर्वकाल में पितरों के मानस से तीन कन्याएं प्रकट हुईं- कलावती, रत्नमाला और मैना. ये तीनों ही अत्यंत दुर्लभ थीं. इनमें से रत्नमाला ने राजा जनक को पतिरूप में वरण किया और मैना ने श्रीहरि के अंशभूत गिरिराज हिमालय को अपना पति बनाया.

रत्नमाला और जनक की पुत्री अयोनिजा सती सत्यपरायणा सीता हुईं, जो साक्षात्‌ लक्ष्मी हैं तथा श्रीराम की पत्नी हैं. मैना और हिमालय की पुत्री पार्वती हुईं, जो पूर्वजन्म में सती नाम से प्रसिद्ध थीं. वे भी अयोनिजा ही हैं. उन्होंने तपस्या से महादेवजी को पतिरूप में प्राप्त किया है. कलावती ने मनुवंशी राजा सुचन्द्र का वरण किया. राजा सुचन्द्र साक्षात्‌ श्रीहरि के अंश थे.

अपनी परम सुन्दरी पत्नी कलावती के साथ सुदीर्घकाल तक विभिन्न रमणीय स्थानों में रहने के पश्चात्‌ राजा कलावती को साथ लेकर विन्ध्य पर्वत की तीर्थभूमि में तपस्या के लिये चले गये. भारत में अत्यंत प्रशंसा के योग्य वह उत्तम स्थान पुलहाश्रम के नाम से प्रसिद्ध है. वहां राजा ने मन में मोक्ष की इच्छा लेकर सहस्र दिव्य वर्षों तक तप किया.

राजा सुचन्द्र के मन में कोई लौकिक कामना नहीं थी. वे आहार छोड़ देने के कारण कृशोदर (कमजोर) हो गये. मुनिश्रेष्ठ सुचन्द्र को मूर्च्छा आ गयी. उनके शरीर पर जो बांबी छा गयी थी, उसे उनकी साध्वी पत्नी ने दूर किया. पति को निचेष्ट, प्राणशून्य, मांस और रक्त से रहित देख उस निर्जन वन में कलावती शोकातुर हो “हे नाथ! हा नाथ!’ का उच्चारण करती हुई उच्च स्वर से रोने लगीं.

कलावती का विलाप सुनकर कृपानिधान कमलजन्मा जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी कृपापूर्वक वहां प्रकट हो गये. उन्होंने तुरंत ही राजा के शरीर को अपनी गोद में लेकर कमण्डलु के जल से सींचा. फिर ब्रह्मज्ञ ब्रह्माजी ने ब्रह्यज्ञान के द्वारा राजा में जीवन का संचार किया. इससे चेतना को प्राप्त हो नृपवर सुचन्द्र ने अपने सामने प्रजापति को देखकर प्रणाम किया.

प्रजापति ने कान्तिमान्‌ नरेश से संतुष्ट होकर कहा- “राजन्‌! तुम इच्छानुसार वर माँगो.”
विधाता की यह बात सुनकर श्रीमान्‌ सुचनद्र के मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैल गयी. वे प्रसन्न मन से बोले- “दयानिधे! यदि आप वर देने को उद्यत हैं तो कृपापूर्वक मुझे मोक्ष प्रदान करें.”

राजा को इस वरदान के मिल जाने पर मेरी क्या दशा होगी, इसका मन-ही-मन अनुमान करके कलावती के कण्ठ और होंठ सूख गये. वह सती संत्रस्त हो वर देने को उद्यत हुए विधाता से बोली-
“भगवन्‌! आप महाराज को मुक्ति दे रहे हैं तो मेरी क्या गति होगी, यह आप ही बताइये? प्रभु! आप तो विद्वानों योगियों, ज्ञानियों तथा गुरु के भी गुरु हैं. आप सर्वज्ञ हैं. भला मैं आपको क्या समझा सकूंगी? ब्रह्मन्‌! ये मेरे पति मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं. यदि इन्हें मुक्ति प्राप्त हो गयी तो मेरा रक्षक कौन होगा?”

कलावती की बात सुनकर विधाता ब्रह्मा जी विस्मित हो मधुर एवं हितकर वचन बोले-
“बेटी! मैं तुम्हारे स्वामी को तुम्हारे बिना ही मुक्ति नहीं दूंगा. तुम अपने पति के साथ कुछ वर्षों तक स्वर्ग में रहकर सुख भोगो. फिर तुम दोनों का भारतवर्ष में जन्म होगा. वहां जब साक्षात्‌ सती राधिका तुम्हारी पुत्री होंगी तब तुम दोनों जीवन्मुक्त हो जाओगे और श्रीराधा के साथ ही गोलोक पधारोगे. नृपश्रेष्ठ! तुम कुछ कालतक अपनी पत्नी के साथ स्वर्ग के सुखों का उपभोग करो.”

तब राजा सुचन्द्र और कलावती ब्राह्मण जी को प्रणाम करके स्वर्ग को ओर चल दिये. फिर ब्रह्माजी भी अपने धाम को चले गये. तदनन्तर वे दोनों दम्पति समयानुसार स्वर्गीय भोगों का उपभोग करके भारतवर्ष में आये, जो परम पुण्यदायक तथा दिव्य स्थान है. ब्रह्मा आदि देवता भी वहां जन्म लेने की इच्छा करते हैं. सुचन्द्र ने गोकुल में जन्म लिया और वहाँ उनका नाम वृषभानु हुआ. वे सुरभानु और पद्मावती के पुत्र हुए. वृषभानु ब्रज के अधिपति हुए. वे उदार, रूपवान्‌, गुणवान्‌ और श्रेष्ठ बुद्धि वाले थे.

वहीं, कलावती कान्यकुब्ज देश में उत्पन्न हुई. कान्यकुब्ज देश में महापराक्रमी नृपश्रेष्ठ भनन्दन राज्य करते थे. उनकी पत्नी का नाम मालावती था. उन्होंने कलावती को यज्ञकुण्ड से प्रकट हुई नन्ही बालिका के रूप में उसे पाया था. उन्होंने अपनी पुत्री का नाम कलावती ही रखा.

जब कलावती बड़ी हुईं और एक बार राजमार्ग से अपनी सहेली के घर जा रही थीं, तब नंदराय जी की दृष्टि उन पर पड़ी. नंदराय जी कलावती से बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने राजा भनन्दन के पास जाकर कहा कि वे अपनी पुत्री का विवाह वृषभानु से कर दें. राजा भनन्दन को भी यह संबंध उचित लगा. अतः वृषभानु और कलावती का विवाह हो गया. दोनों एक-दूसरे के साथ बड़ी प्रसन्नता से रहते थे. लीलावश पूर्वकाल में श्रीदामा के शाप और श्रीकृष्ण की आज्ञा से सती राधिका उन दोनों की अयोनिजा पुत्री हुईं.

श्रीराधा जी के सारभूत सोलह नाम-
राधा, रासेश्वरी, रासवासिनी, रसिकेश्वरी, कृष्णप्राणाधिका, कृष्णप्रिया, कृष्णस्वरूपिणी, कृष्णवामाङ्गसम्भूता, परमानन्दरूपिणी, कृष्णा, वृन्दावनी, वृन्दा, वृन्दावनविनोदिनी, चन्द्रावली, चन्द्रकान्ता और शरच्चन्द्रप्रभानना. राधा शब्दमें ‘धा’ का अर्थ है संसिद्धि (मोक्ष) तथा ‘रा’ दानवाचक है. जो स्वयं मोक्ष प्रदान करने वाली हैं, वे “राधा” कही गई हैं.

वृन्दावन-
वृन्दा (तुलसी) ने जहाँ तप किया था, उस स्थान का नाम ‘वृन्दावन’ हुआ, अथवा वृन्दा ने जहाँ क्रीड़ा की थी, इसलिये वह स्थान ‘वृन्दावन’ कहलाया (तुलसी ओर वृन्दा समानार्थक शब्द है) राधा के सोलह नामो में एक वृन्दा नाम भी है, जो श्रुति में सुना गया है.

श्रीकृष्ण और राधा जी से जुड़े कुछ रोचक और महत्वपूर्ण तथ्य



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