Shivling ki Utpatti Kaise Hui
ब्रह्म या मूल शक्ति तो एक ही है, हम उसके अलग-अलग रूपों की पूजा करते हैं. एक ही निर्गुण और निराकार ब्रह्म के अलग-अलग सगुण और साकार रूप हैं. कोई किसी से बड़ा या छोटा नहीं है. कई देवी-देवताओं की पूजा विग्रह रूप या प्रतीक रूप में भी होती है. जैसे भगवान् शिव और भगवान् विष्णु जी. वेदों-पुराणों में इन दोनों को ‘परमब्रह्म’ कहा गया है. ये दोनों ही अजन्मा, अजर, अमर, अविनाशी, सगुण तथा निर्गुण हैं. दोनों ही एक-दूसरे के ईश्वर तथा भक्त हैं. दोनों ही एक-दूसरे की महिमा गाते रहते हैं.
जिस प्रकार शिवलिंग भगवान् शिव का विग्रह या प्रतीक या निराकार स्वरूप है, उसी प्रकार शालिग्राम भगवान् विष्णु जी का विग्रह रूप या प्रतीक है. शनि देव की पूजा भी एक शिला के रूप में भी होती है, वहीं वैष्णो देवी मंदिर में महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी पिण्डी के रूप में विराजमान हैं. यदि मूर्ति नहीं उपलब्ध हो तो सुपारी को गणेश जी और हल्दी की गांठ को मां लक्ष्मी का प्रतीक मानकर पूजा की जा सकती है.
लेकिन भगवान शिव की लिंगपूजा या प्रतीक स्वरूप पूजा आदिकाल से ही क्यों की जा रही है, इसके पीछे की कथा और कारण शिवपुराण, लिंगपुराण, महाभारत एवं शिवमहिम्नःस्तोत्रम् आदि में विस्तार से मिलता है. इन सभी में शिवलिंग को एक ‘निराकार स्तम्भ या स्कम्भ’ कहा गया है, जिससे सब कुछ टिका हुआ है, और जिस पर ध्यान टिकाकर आदिकाल से ही लोग परब्रह्म की उपासना करते हुए आ रहे हैं. अतः शिवलिंग इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि हमारे यहाँ मूर्तिपूजा सदा से ही होती आ रही है. हम शिवलिंग के रूप में निराकार ईश्वर को भी आकार देकर उसकी उपासना करते हैं. इस निराकार स्तम्भ का उल्लेख वेदों में भी किया गया है-
स्कम्भो दाधार द्यावापृथिवी उभे इमे स्कम्भो दाधारोर्वन्तरिक्षम्। स्कम्भो दाधार प्रदिशः षडुर्वीः स्कम्भ इदं विश्वं भुवनमा विवेश॥
(अथर्ववेद कांड १०|७|३५)
• महाभारत के अनुशासनपर्व के अध्याय १६१ में भगवान् श्रीकृष्ण भगवान् शिव के माहात्म्य का वर्णन करते हुए बताते हैं कि-
स्थिरलिंगश्च यन्नित्यं तस्मात् स्थाणु रिति स्मृतः।
लिङ्गं पूजयिता नित्यं महतीं श्रियमश्नुते।
अर्थात् “शिव सदा स्थिर रहते हैं, इसलिए उनका लिंग-विग्रह भी सदा स्थिर रहता है, और इसीलिए शिव ‘स्थाणु’ (स्तम्भ) भी कहलाते हैं. जो भगवान् शंकर के श्रीविग्रह अथवा लिंग की पूजा करता है, वह सदा बहुत बड़ी संपत्ति का भागी होता है.”
शिवलिंग की उत्पत्ति की कथा
शिवपुराण के विद्येश्वरसंहिता और लिंगपुराण के सत्रहवें अध्याय के अनुसार-
एक बार महर्षिगण परस्पर वाद-विवाद में फंस गये. तब वे सब अपनी शंकाओं के समाधान के लिये सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के पास गये. ऋषिगणों ने ब्रह्मा जी से पूछा कि “सभी देवताओं का पूजन तो मूर्तिरूप में होता है, परन्तु शिव का पूजन मूर्ति और लिंग दोनों ही रूपों में क्यों किया जाता है? लिङ्ग क्या है तथा लिङ्गी कौन है? यह लिङ्ग कैसे उत्पन्न हुआ?”
तब सूतजी कहते हैं- “भगवान् शिव ही ब्रह्मरूप होने के कारण निराकार कहे गये हैं. रूपवान् होने के कारण वे साकार भी हैं. निराकार होने के कारण ही उनकी पूजा का आधारभूत प्रतीक भी निराकार ही प्राप्त हुआ है, अर्थात् शिवलिंग शिव के निराकार स्वरूप का प्रतीक है.”
शिवैको ब्रह्मरूपत्वान्निष्कलः परिकीर्तितः॥
रूपित्वात् सकलस्तद्वत्तस्मात् सकलनिष्कलः।
निष्कलत्वान्निराकारं लिङ्गं तस्य समागतम्॥
सकलत्वात् तथा वेरं साकारं तस्य सङ्गतम्।
सकलाकलरूपत्वाद ब्रह्मशब्दाभिधः परः॥
अपि लिङ्गे च वेरे च नित्यमभ्य्च्यते जने:।
अर्थात- ‘भगवान् शिव ब्रह्मस्वरूप और निष्कल (निराकार) हैं, इसलिए उनकी पूजा में निराकार लिंग (प्रतीक) का प्रयोग होता है. सम्पूर्ण वेदों का यही मत है. वे सकल भी हैं. इस प्रकार वे निराकार तथा साकार दोनों हैं. भगवान् शंकर निराकार होते हुए भी कलाओं से युक्त हैं, इसलिए उनकी साकार रूप में मूर्तिपूजा भी लोकसम्मत है. भगवान् सदाशिव के दर्शन में साकार और निराकार (ज्योतिरूप) दोनों की ही प्राप्ति होती है.’
शिवस्य ब्रह्मरूपत्वानिष्कलत्वाच्च निष्कलम्॥
लिङ्गं तस्यैव पूजायां सर्ववेदेषु सम्मतम्।
तस्यैव सकलत्वाच्च तथा सकलनिष्कलम्॥
सकलं च तथा वेरं पूजायां लोकसम्मतम्।
शिवस्य लिङ्गं वेरं च दर्शने दृश्यते खलु।
तयोर्मानं निराकर्तु तन्मध्ये परमेश्वर:।
निष्कलस्तम्भरूपेण स्वरूपं समदर्शयत्॥
• वेदों में ‘शिव’ और ‘रुद्र’ को ‘ब्रह्म’ के पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया गया है-
एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थु-
र्य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभिः।
प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले
संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः॥
(श्वेताश्वरोपनिषद् ३|२)
अर्थात “जो अपनी शक्तियों के द्वारा लोकों पर शासन करते हैं, वे रुद्र वास्तव में एक ही हैं. इसलिए विद्वानों ने जगत के कारण के रूप में किसी अन्य का आश्रयण नहीं किया है. वे प्रत्येक जीव के भीतर स्थित हैं, समस्त जीवों का निर्माण कर पालन करते हैं, तथा अन्त में सबको अपने आप में निवर्तित कर लेते हैं (सबको समेट लेते हैं).”
शिव का अर्थ ब्रह्म, त्रिदेव, शुभ, श्रेष्ठ और कल्याणकारी से भी है, जैसे शुक्ल यजुर्वेद का अंश ‘शिवसंकल्पसूक्त’ मन को शुभ और कल्याणकारी संकल्पों से युक्त बनाने के उद्देश्य से ईश्वर से की गई प्रार्थना है. शिव तत्व के ही प्रतीक को शिवलिंग कहा जाता है. श्वेत ज्योति स्वरूप होने के कारण शिव को ‘कर्पूरगौरं’ कहते हैं. गोस्वामी तुलसीदास जी ने उन्हें ‘निराकारमोंकारमूलं’ बताया है, अर्थात वे निराकार, ओंकार व विश्व के मूल हैं, जन्मरहित हैं, नित्य हैं, कारण के भी कारण हैं, कल्याणकारी हैं, एक हैं, प्रकाशदायी को भी प्रकाश प्रदान करने वाले हैं.
शिवलिंग के पूजन का आरम्भ होने की कथा
शिवलिंग के उत्पन्न होने एवं सब जगह उसका पूजन आरम्भ होने का कारण बताते हुए ब्रह्माजी कहते हैं-
एक बार जब प्रलय उपस्थित हुआ तब मैं (ब्रह्माजी) साम्य अवस्था को प्राप्त था तथा नारायण (श्रीविष्णुजी) प्रलयार्णव में शयन कर रहे थे. उस समय हम दोनों ही सदाशिव की माया से मोहित थे. श्रीहरि को इस प्रकार जल-स्थित कमल पर सोते हुए देखकर मैं रजोगुण के उद्रेक से पद्मयोनि ब्रह्मा उस क्षण उनकी भी माया से मोहित हो गया और उन सनातन को हाथ से पकड़कर उठाते हुए क्रोधपूर्वक मैंने उनसे कहा- ‘तुम कौन हो, मुझे बताओ?’
स्वच्छ कमल के समान नेत्रों वाले प्रभायुक्त सतोगुणयुक्त भगवान् श्रीहरि ने अपने सम्मुख विराजमान मुझ ब्रह्मा को देखा और शय्या से उठकर थोड़ा हँसते हुए मधुर वाणी में मुझसे कहा, “हे महाद्युते! हे वत्स! हे पितामह! आपका स्वागत है, स्वागत है!”
इस पर माया से मोहभाव को प्राप्त हुए ब्रह्माजी भगवान् विष्णु जी से बोले, “मुझ विश्वात्मा, विधाता, जगत के रचियता, विश्व के उत्पत्तिकारक को तुम वत्स कहकर क्यों सम्बोधित कर रहे हो, जैसे कोई गुरु अपने शिष्य को करता है? तुम मोहयुक्त होकर मुझ पितामह से इस प्रकार क्यों बोल रहे हो?”
इस पर श्रीहरि ने मुस्कुराते हुए मधुर वाणी में मुझसे कहा, “हे ब्रह्मा! आपने मुझ सनातन परमेश्वर के अंग से ही अवतार ग्रहण किया है, तथा विश्व की उत्पत्ति के कारणस्वरूप मुझ ऐश्वर्यसंपन्न, अच्युत की माया को ही अब आप भूल रहे हैं. हे चतुर्मुख ब्रह्मा! आप सत्य को जानिए. सृष्टि का कर्त्ता, पालक, संहारक व देवताओं का स्वामी मैं ही हूं. मैं ही परमतत्व, परमज्योति, परम समर्थ परमात्मा हूं. आप ब्रह्मा सहित अनेक ब्रह्मांड मेरी माया के प्रभाव से ही विरचित हैं.”
यह सब कह-सुनकर मायावश हम दोनों में परस्पर विवाद बढ़ता गया तथा रजोगुण की वृद्धि से प्रलय-सागर में हम भीषण संग्राम करने लगे. उसी समय हमारे समक्ष एक महान् दीप्तिमान, अग्निस्तम्भ के समान तेजोराशिमय लिंग प्रकट हुआ. हम दोनों के अभिमान को मिटाने के लिये त्रिगुणातीत ने हमारे मध्य में निराकार स्तम्भ के रूप में अपना स्वरूप प्रकट किया.
अग्निस्तम्भ के समान अर्थात् सहस्रों अग्निज्वालाओं से व्याप्त उस तेजोमय लिंग को देखकर हम दोनों स्तब्ध रह गए. तब भगवान् विष्णुजी ने मुझसे कहा, “यह दिव्य अग्निस्तम्भ क्या है और यह कैसे प्रकट हो गया? हमें इसकी ऊँचाई और इसकी जड़ का पता लगाना चाहिए. अतः मैं इस अनुपम अग्नि-स्तम्भ के नीचे जाता हूँ और आप प्रयत्नपूर्वक शीघ्र इसके ऊपर जाइये.”
तब विष्णुजी अपराजेय वराह का रूप धारण करके उस अग्निस्तम्भ के समान उस लिंग के नितान्त नीचे की ओर गए और इस प्रकार एक हजार वर्ष तक वे वेगपूर्वक नीचे की ओर जाते रहे, किन्तु वे अग्नि के समान तेजस्वी उस स्तम्भ का आधार न देख न सके. दूसरी ओर ब्रह्माजी भी हंस का रूप धारण कर वायु के वेग से उड़कर पूरे प्रयास के साथ उस लिंग का अंत जानने के लिए ऊपर की ओर जाते रहे. इस प्रकार विष्णु जी तथा ब्रह्मा जी एक हजार वर्षों तक पूरे वेग से यत्नपूर्वक उस अग्नि स्तम्भ के नीचे तथा ऊपर की दिशा में गये, किन्तु वे दोनों उसका पार पाने में असमर्थ रहे. अनेक प्रयत्न के बाद भी उसके ओर-छोर का पता लगाने में सक्षम न हुए.
लिंगपुराण के अनुसार, तब दोनों देव श्रद्धा एवं भक्ति के अतिरेक से भर गये तथा भावाभिभूत होकर उन्होंने अभीष्ट स्तुतियों द्वारा उस अग्निस्तम्भ की स्तुति की एवं साक्षात् रूप में प्रकट होने की प्रार्थना की. तब सदाशिव उन दोनों के सम्मुख स्वयं आकर प्रकट हो गये और दोनों को इच्छित वरदान दिया. तब भगवान् विष्णुजी ने सदाशिव पर दृढ़ भक्ति का ही वरदान माँगा.
श्रीलिंगमहापुराण में वर्णित कथा के अनुसार ‘ब्रह्माजी एवं विष्णुजी का यह विवाद अत्यंत मंगलकारी सिद्ध हुआ, क्योंकि इसे समाप्त करने के लिए शिव स्वयं वहां प्रकट हुए. उसी समय से लोकों में शिवलिंग के पूजन की प्रसिद्धि व्याप्त हो गई.’
प्रधानं लिङ्गमाख्यातं लिङ्गी च परमेश्वर:।
रक्षार्थमम्बुधौ मह्यं विष्णोस्त्वासीत्सुरोत्तमाः।
तदाप्रभृति लोकेषु लिङ्गार्चा सुप्रतिष्ठिता।
लयनाल्लिङ्गमित्युक्तं तत्रैव निखिलं सुराः।
“ब्रह्माजी ने कहा कि प्रधान को लिङ्ग तथा परमेश्वर को लिङ्गी कहा गया है. यह मेरी तथा विष्णुजी की रक्षा के लिये समुद्र में प्रकट हुआ था. उसी समय से लोकों में शिवलिङ्ग के पूजन की प्रसिद्धि व्याप्त हो गयी. समग्र जगत को अपने में लय करने के कारण यह लिङ्ग कहा गया है.”
वहीं, शिवपुराण के अनुसार आगे की कथा इस प्रकार है-
जब दोनों ही उस स्तम्भ का आदि-अंत देखने में असमर्थ रहे, तब थक-हारकर विष्णुजी रणभूमि में वापस आ गये. दूसरी ओर वापस आते हुए ब्रह्माजी ने मार्ग में अद्भुत केतकी (केवड़े) के पुष्प को गिरते हुए देखा. अनेक वर्षों से गिरते रहने पर भी वह ताजा और अति सुगन्धयुक्त था. उस पुष्प को देखकर ब्रह्माजी ने उससे पूछा! “हे पुष्पराज! तुम्हें किसने धारण कर रखा है और तुम क्यों गिर रहे हो?”
केवड़े ने उत्तर दिया, “मैं इस पुरातन ओर अप्रमेय स्तम्भ के बीच से बहुत समय से गिर रहा हूं, फिर भी इसके आदि को नहीं देख सका. अतः आप भी इस स्तम्भ का अंत देखने की आशा छोड़ दें.”
तब ब्रह्माजी ने कहा, “मैं तो हंस का रूप लेकर इसका अन्त देखने के लिये ही आया था. हे मित्र! मेरा एक अभिलषित कार्य करो. मेरे साथ भगवान् श्रीहरि के पास चलकर तुम्हें सिर्फ इतना कहना है कि “ब्रह्मा ने इस स्तम्भ का अन्त देख लिया है और मैं इस बात का साक्षी हूँ.” केतकी से ऐसा कहकर ब्रह्माजी ने उसे बार-बार प्रणाम किया और कहा कि, “आपातकाल में तो मिथ्या भाषण को भी उचित माना गया है.”
वहीं अति परिश्रम से थके और स्तम्भ का अन्त न मिलने से उदास विष्णुजी को देखकर ब्रह्मा जी प्रसन्नता से नाच उठे और मिथ्या बातें बनाते हुए अच्युत विष्णुजी से कहने लगे- “हे हरि! मैंने इस स्तम्भ का अग्रभाग देख लिया है. इसका साक्षी यह केतकी पुष्प है.” और तब उस केतकी ने भी विष्णुजी के समक्ष कह दिया कि ब्रह्माजी की बात सत्य है.
भगवान् विष्णुजी ने उस बात को सत्य मानकर ब्रह्माजी को प्रणाम किया और उनका षोडशोपचार पूजन भी किया.
उसी समय ब्रह्माजी को दण्डित करने के लिये उस प्रज्वलित स्तम्भ लिंग से सदाशिव प्रकट हो गये. सदाशिव को प्रकट हुआ देखकर विष्णुजी उठकर खड़े हो गए और उनके चरण पकड़कर कहने लगे- “हे करुणाकर! आदि और अन्त से रहित शरीर वाले आप परमेश्वर के विषय में मैंने मोहबुद्धि से अनेक प्रकार के विचार किये, किंतु कामनाओं से उत्पन्न वह विचार सफल न हुआ. अतः आप हम पर प्रसन्न हों, हमारे इस पाप को नष्ट कर हमें क्षमा करें. यह सब आपकी लीला से ही हुआ है.”
सदाशिव भगवान विष्णु जी की सत्यनिष्ठा एवं सरलता से अत्यंत प्रसन्न हुए. वहीं वे ब्रह्मा जी के मिथ्या भाषण पर बहुत क्रोधित हुए. तब ब्रह्माजी की रक्षा करने के लिए कृपालु विष्णुजी ने सदाशिव के चरणकमलों को अपने अश्रुजल से भिगोते हुए हाथ जोड़कर प्रार्थना की और कहा, “हे ईश! इनका अपराध क्षमा करें और इन पर प्रसन्न हों.”
भगवान् अच्युत (विष्णुजी) के द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जाने पर शिवजी ने ब्रह्माजी से कहा- “हे ब्रह्मा! श्रेष्ठता पाने के चक्कर में आप शठेशत्व को प्राप्त हो गये हैं. इसलिये संसार में आपका सत्कार नहीं होगा और आपके मन्दिर तथा पूजनोत्सव आदि नहीं होंगे. हे वत्स! अनुशासन का भय नहीं रहने से यह सारा संसार नष्ट हो जायेगा. अतः आप दण्डनीय को दण्ड दो और इस संसार की व्यवस्था चलाओ. मैं आपको एक परम दुर्लभ वरदान भी देता हूँ. अग्निहोत्र आदि वैतानिक एवं गृह्य यज्ञों में आप ही श्रेष्ठ रहेंगे. सर्वाङ्गपूर्ण और पुष्कल दक्षिणा वाला यज्ञ भी आपके बिना निष्फल होगा.”
इसी के साथ सदाशिव ने कहा, “हे पुत्रों! आज का दिन महान् है. इसमें तुम सब द्वारा जो आज मेरा पूजन हुआ है, मैं तुम सब पर बहुत प्रसन्न हूँ. यह दिन परम पवित्र और महान् होगा. आज की यह तिथि शिवरात्रि के नाम से विख्यात होगी, और अनंत ज्योतिस्तम्भ यह लिंग सब प्रकार के भोगों को सुलभ करने वाला ओर भोग तथा मोक्ष का साधन होगा. इसका दर्शन, स्पर्श तथा ध्यान प्राणियों को जन्म और मृत्यु से मुक्ति दिलाने वाला होगा.”
तदाप्रभृति लोकेषु निष्कलं लिङ्गमैश्चरम्।
सकलं च तथा वेरं शिवस्यैव प्रकल्पितम्॥
“उसी समय से लोक में परमेश्वर शंकर के निर्गुण लिंग और सगुण मूर्ति की पूजा प्रचलित हुई.”
• इस घटना का उल्लेख करते हुए गंधर्वराज पुष्पदंत शिवमहिम्नःस्तोत्रम् में कहते हैं-
तवैश्वर्यं यत्नाद्युपरि विरंचिर्हरिरध:
परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुष:.
ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगॄणद्भ्यां गिरीश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥
“हे कैलाशपति! अग्निस्तम्भ के समान आपके जिस भव्य तेजोमय लिंग (प्रकाशपुंज सा देदीप्यमान लिंग) को देखकर उसके अर्थात् आपकी भगवत्ता (परमैश्वर्य) के ओर-छोर का सन्धान पाने के लिये (स्तब्ध) ब्रह्माजी व विष्णुजी प्रयत्नपूर्वक क्रमशः ऊपर व नीचे की दिशा में गये, पर वे भी उसकी (आपके ऐश्वर्य की) थाह पाने में अक्षम रहे. तब श्रद्धा और भक्ति के अतिरेक से भरे हुए, आपकी प्रशस्त स्तुति करने वाले उन दोनों के सम्मुख आप स्वयं आकर स्थिर हो गये (प्रकट हो गये). (शरणागत होकर) आपका अनुसरण करने का फल अवश्य मिलता ही है.”
ब्रह्मा, विष्णु और महेश एक ही हैं. बस सृष्टिकार्य के संचालन के लिए ये हमें अलग-अलग रूपों में जान पड़ते हैं. उनका उद्देश्य ऐसी लीलाएं करना भी होता है, जिससे मानव समाज शिक्षा और मार्गदर्शन पा सके. कभी शिवजी केंद्र में बैठ जाते हैं तो कभी विष्णुजी. नहीं तो सभी पुराण तो हजारों बार यह बात कह चुके हैं कि हर और हरि में कोई भेद नहीं है. वे स्वयं ही चिंता करते हैं और स्वयं ही समाधान निकालते हैं, स्वयं ही गलतियां करते हैं और स्वयं ही सुधार करने का मार्ग बताते हैं. शिवपुराण में पार्वती जी ने स्वयं ही कहा है कि सदाशिव निर्गुण ब्रह्म हैं और कारणवश सगुण हो जाते हैं.
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