Devotion and Superstition (Bhakti aur Vishwas)
साल 2014 में आई PK फिल्म समेत कई फिल्मों या कार्यक्रमों में किसी भी पत्थर की पूजा करने को अंधविश्वास दिखा दिया जाता है. आजकल सोशल मीडिया (Social Media) पर भी कई तरह की नसीहतें दी जाती हैं कि “शिवलिंग पर दूध मत चढ़ाओ, होलिका दहन मत मनाओ, मृत्यु भोज बंद करो, पूर्वजों के आत्मा की शांति के लिए कौओं को भोजन मत खिलाओ क्योंकि ये सब अंधविश्वास हैं, भगवान तो भक्त के भाव से प्रसन्न होते हैं…” आदि. क्या आप भी इन सबको अंधविश्वास ही मानते हैं?
भारतीय संस्कृति के पास दुनिया की हर समस्या का समाधान है. हमारे देश की प्राचीन सभ्यताओं, कथाओं और ऋषि मुनियों ने जो कुछ भी इस धरती को दिया, उसने समय समय पर पूरी दुनिया का मार्गदर्शन किया. क्षेत्र कोई भी हो, चाहे शिक्षा का हो, या चिकित्सा का, धर्म हो या कर्म, सभी में पूरी मानव जाति का कल्याण ही छिपा है, और यही कारण है कि आज पूरा विश्व प्राचीन भारतीय संस्कृति का लोहा मानता है.
जब हम किसी भी पौराणिक कथा को सुनते हैं तो उन सभी कहानियों में यही बताया जाता है कि हर उस जगह या हर उस पत्थर में भगवान का वास है, जहां भक्त उन्हें महसूस करता है या जहां किसी व्यक्ति को किसी शक्ति का एहसास होता है, और इसीलिए भगवान की पूजा निराकार रूप में भी की जाती है, क्योंकि भगवान का कोई एक स्वरूप नहीं है. एक भक्त अपने भगवान को जिस भाव से देखता है, भगवान उसके सामने उसी रूप में सामने आ जाते हैं.
हिरण्यकश्यप और प्रहलाद की कहानी भी देती है यही सीख
हिरण्यकश्यप और भक्त प्रहलाद की कहानी तो सभी ने पढ़ी-सुनी होगी, जिसमें हिरण्यकश्यप गुस्से में प्रह्लाद से पूछता है कि ‘तुम्हारा भगवान कहां-कहां है और कहां-कहां दिखता है तुम्हें अपना भगवान?’ तब प्रहलाद बताते हैं कि वह मुझे हर जगह दिखते हैं. मैं जहां देखता हूं, मुझे वहीं दिखते हैं और भगवान उस हर जगह पर रहते हैं, जहां भक्त को उनका एहसास होता है.
तब हिरण्यकश्यप एक खंभे की तरफ इशारा करके पूछता है कि ‘क्या इस खंभे में भी है तुम्हारा भगवान?’ तब भक्त प्रह्लाद बताते हैं कि “हां! इस खंभे में भी हैं मेरे भगवान.” और तब हिरण्यकश्यप गुस्से में उस खंभे को तोड़ देता है और देखता है कि भगवान नरसिंह उसी खंभे से प्रकट हो रहे हैं. यानी आपको जिस जगह पर भी किसी शक्ति का एहसास होता है, या जिस स्थान पर भी आप भगवान को मन से पुकारने लगते हैं, भगवान वहीं वास करने लगते हैं, और यही सब पौराणिक कथाओं में भी बताया जाता है.
सभी ज्योतिर्लिंग भी हैं इसी भक्ति भावना का प्रतीक
इसी तरह, वह जगह सिद्ध हो जाती है, जहां किसी भक्त ने भगवान के लिए कड़ी तपस्या की हो या उस जगह पर किसी भक्त ने भगवान को बड़े मन से पुकारा हो. सभी ज्योतिर्लिंग भी इसी भक्ति भावना का प्रतीक हैं. जहां-जहां किसी शिवभक्त ने शिवलिंग की स्थापना करके बड़े मन से पूजा-आराधना की है, वहीं भगवान शिव के सबसे बड़े और सिद्ध मंदिर स्थापित हैं. क्या पता किस भक्त ने छोटे से आकार के शिवलिंग की स्थापना कर वहां बड़े मन से प्रार्थना की हो, पूजा की हो और उसकी प्रार्थना पूरी भी हो गई हो, इसलिए जहां भी कोई भी शिवलिंग या ऐसा ही कोई पवित्र स्थान दिखाई दे, वहां सिर जरूर झुकाना चाहिए, अपने लिए कुछ मांगना चाहिए. ये अंधविश्वास नहीं, आपकी भक्ति ही है.
गाय को रोटी खिलाना
किसी भी भूखे-प्यासे प्राणी को खाना-पानी देना बहुत पुण्य का काम है. लेकिन गाय को भोजन कराने से पुण्य की ही नहीं, कई और बड़े फायदे भी मिलते हैं. कहते हैं कि जिस व्यक्ति से गाय प्रसन्न हो जाए, दुनिया की कोई भी ताकत उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती. अगर किसी व्यक्ति के लिए उसकी खरीदी हुई कोई जमीन उसे फल न रही हो, या उसके काम लगातार बिगड़ते ही चले जा रहे हों, तो अगर वह गाय को पालकर उसकी सेवा करके उसे प्रसन्न कर लेता है, तो किसी भी तरह की निगेटिव एनर्जी उसके आसपास भी नहीं फटक पाती, साथ ही उसके सभी काम भी बनना शुरू हो जाते हैं.
गाय की सेवा करने और उसे भोजन कराने का मतलब है, सभी देवी-देवताओं को भी भोजन कराना. मनुष्य के लिए गाय जितना उपयोगी जानवर है, उसी से गाय को पूजनीय माता का दर्जा दिया गया है. इसीलिए उसका ध्यान अपने घर के सदस्य की तरह ही रखना चाहिए, यानी चाहे वह दूध दे या न दे, उसकी सेवा केवल अपने मतलब पूरे हो जाने तक ही नहीं, उसके रहने तक की जानी चाहिए. गाय को हरी-हरी घास बहुत पसंद आती है. गाय को रोटी में गुड़ मिलाकर खिलाने से भी अच्छे लाभ मिलते हैं. बस ध्यान इस बात का रखना चाहिए कि गाय को कोई भी खराब हो चुकी या तली-भुनी या फास्ट-फूड जैसी चीज न खिलाएं.
हर परंपरा का है कोई न कोई वैज्ञानिक आधार
आज के इस वैज्ञानिक युग में हम सबको किसी भी बात या परंपरा पर विश्वास तभी होता है, जब उसके वैज्ञानिक सबूत हमारे सामने रख दिए जाते हैं. लेकिन भारतवर्ष के एक से बढ़कर एक बड़े विद्वानों ने भी पुरानी परंपराओं के महत्व को अगर समझा है, उनकी प्रथा बनाई है तो वे सभी ऐसे ही नहीं बनाई हैं, अब उन सभी के कोई न कोई वैज्ञानिक आधार भी निकलकर सामने आ रहे हैं. यही वैज्ञानिक आधार पहले के विद्वानों ने भी समझाने की कोशिश कीं, लेकिन उनकी कठिन संस्कृत के सही अर्थ को आजकल के लोग जान ही नहीं पाए.
उस पर, शास्त्रों और पुराणों में लगातार हुई छेड़छाड़ से भी कई अर्थ अनर्थ में बदल गए, जिससे सही जानकारियां हम सब तक पहुंच ही नहीं पाईं. लेकिन आज सभी वैज्ञानिक रिसर्च में यही सब बातों का महत्व निकलकर सामने आ रहा है. अगर आप विज्ञान की जितनी भी नई-नई रिसर्च को देखेंगे, तो आपको पता चलेगा कि सदियों से चली आ रहीं कुछ परंपराएं यूं ही नहीं बनाई गई हैं, इनके वैज्ञानिक कारण भी हैं.
दूसरी बात, कोई परंपरा तब गलत कही जा सकती है जब उसे निभाने के लिए मजबूर किया जाए, तो ऐसा भी कुछ नहीं है. ये सभी बातें लोगों के कल्याण से ही जुड़ी होती हैं, इसलिए सभी से इन परंपराओं को निभाने की सलाह जरूर दी जाती है, लेकिन मजबूर नहीं किया जाता, इसलिए इन पर सवाल उठाना पूरी तरह व्यर्थ है.
शिवलिंग पर जल, दूध चढ़ाना
शिवलिंग को जल, दूध, बेलपत्र, धतूरा आदि चढ़ाने का महत्व केवल धर्म में ही नहीं, विज्ञान में भी है. धर्म के अनुसार, शिवलिंग पर जल, दूध आदि चढ़ाने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं, चंद्रमा मजबूत होता है और स्वास्थ्य का वरदान मिलता है. शिव ही ऐसे देव हैं जो विश्व कल्याण के लिए हलाहल भी पी जाते हैं. शिव संसार की सभी निगेटिव एनर्जी को खींचकर अपने में समाहित कर लेते हैं और दुनिया की रक्षा करते हैं. वहीं, अब तमाम वैज्ञानिक स्टडी में भी ये स्पष्ट हो चुका है कि शिवलिंग का जो आकार होता है, वह आसपास की ऊर्जा को अपने अंदर खींचकर उसे नियंत्रित करने में मदद करता है. विज्ञान भी शिवलिंग को ऊर्जा का स्रोत मानता है.
ये बात इससे भी साबित होती है कि भाभा एटॉमिक रिएक्टर (BARC) की डिजाइन भी शिवलिंग की तरह है, वहीं स्विट्जरलैंड में मौजूद दुनिया की सबसे बड़ी फिजिक्स लैब ‘यूरोपियन ऑर्गनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च’ (सर्न) के बाहर भगवान शिव की मूर्ति लगी है. हालांकि, हम इन सभी बातों को संयोग मात्र कह सकते हैं, लेकिन एक ही बात की तरफ बार-बार हो रहे इशारों को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है.
शिवलिंग पर जल, दूध चढ़ाने का महत्व
विज्ञान के अनुसार, सूर्य पर जल चढ़ाते समय जल की धारा से होकर शरीर पर पड़ने वाली सूर्य की किरणें कई तरह की शारीरिक बीमारियों को खत्म करती हैं, उसी तरह शिवलिंग पर जल और दूध चढ़ाते समय शिवलिंग से निकलती आणविक विकरण ऊर्जा शारीरिक ताप को नष्ट कर देती है. वहीं, शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ जल नदी के बहते हुए पानी के साथ मिलकर औषधि का रूप ले लेता है.
इसी के साथ आयुर्वेद के अनुसार, सावन के महीने में दूध का सेवन नहीं करना चाहिए नहीं तो वात-पित्त-कफ का संतुलन बिगड़ जाता है और सावन के महीने में वात से जुड़ी बीमारियां सबसे ज्यादा होती हैं. सावन के महीने में गाय-भैंस घास के साथ कई ऐसे कीड़े-मकोड़ों को भी खा जाती हैं, जो दूध को स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद की बजाय हानिकारक बना देती है.
इसीलिए सावन के महीने में दूध पीना स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है और इसीलिए सावन में दूध का सेवन करने की बजाय उसे शिवजी को अर्पित करने की प्रथा बनाई गई है. इस तरह, केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि दूसरों के लिए भी कितना महत्वपूर्ण है शिवलिंग पर जल, दूध आदि चढ़ाना. इसे अंधविश्वास से जोड़कर बिल्कुल नहीं देखा जा सकता है.
यज्ञ-हवन का महत्व
प्राचीन समय में बीमारियों का प्रकोप बहुत कम होता था. ऋषि-मुनि जो यज्ञ-हवन आदि किया करते थे, उससे वायु प्रदूषण की समस्या नहीं रहती थी, साथ ही मौसम भी अपने समय पर आते-जाते थे. अब एक रिसर्च में भी ये सामने आया है कि हवन से वनस्पतियों, फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले बैक्टीरिया खत्म हो जाते हैं, जिससे फसलों में रासायनिक खाद का इस्तेमाल कम किया जा सकता है. वहीं, गाय के घी से हवन करने से ऑक्सीजन बढ़ती है और स्वास्थ्य अच्छा होता है, इसीलिए हवन के लिए गाय का घी सबसे अच्छा माना जाता है.
फ्रांस के ट्रेले नाम के वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च के दौरान पाया कि जब आम की लकड़ी जलने से फार्मिक एल्डिहाइड गैस उत्पन्न होती है, जिससे खतरनाक बैक्टीरिया और जीवाणु खत्म हो जाते हैं और वातावरण शुद्ध होता है. इसीलिए आम की लकड़ी का इस्तेमाल हवन में किया जाता है. वैज्ञानिकों ने ये भी पाया कि गुड़ को जलाने पर भी ये गैस उत्पन्न होती है. वहीं, टौटीक नाम के वैज्ञानिक ने अपनी रिसर्च में पाया कि हवन में आधे घंटे तक बैठने से या शरीर का संपर्क हवन के धुएं से होने पर टाइफाइड जैसी खतरनाक बीमारी फैलाने वाले बैक्टीरिया भी मर जाते हैं.
होलिका दहन मनाना
मार्च का महीना सर्दी के मौसम के जाने और बसंत के आने का समय होता है, जो वातावरण और शरीर में कई हानिकारक बैक्टीरिया को बढ़ा देता है. जब होलिका जलाई जाती है, तो उससे आसपास का तापमान 145 डिग्री फॉरेनहाइट या लगभग 60 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है, जिसमें वे सभी हानिकारक बैक्टीरिया जलकर खत्म हो जाते हैं. दहन से निकली गर्मी शरीर में भी मौजूद बैक्टीरिया को भी मार देती है.
इसी तरह, आरती के समय घंटों को बजाने के भी वैज्ञानिक कारण सामने आए हैं. यह एक प्रमाणित सत्य है कि जब घंटे बजाए जाते हैं तो इससे वातावरण में कंपन पैदा होता है जो वायुमंडल की वजह से काफी दूर तक जाता है. इस कंपन से उस क्षेत्र के वातावरण में मौजूद जीवाणु, बैक्टीरिया, वायरस आदि खत्म हो जाते हैं, साथ ही हमारे इम्यून सिस्टम को भी मजबूत बनाता है. इस तरह घंटों की ध्वनि हमारे आसपास एक सुरक्षा कवच बनाती है.
कौओं को भोजन कराना (श्राद्ध करना)
आप जानते ही होंगे कि पीपल और बरगद सबसे ज्यादा ऑक्सीजन देने वाले पेड़ों में से एक हैं. पीपल तो रात में भी ऑक्सीजन देता है. अगर पीपल-बरगद की की पूजा करने, उन्हें जल चढ़ाने की सलाह दी जाती है, तो इससे कहीं न कहीं ऐसे महत्वपूर्ण वृक्षों की उत्पत्ति को बढ़ावा ही दिया जा रहा होता है. इन्हीं जरूरी पेड़ों की संख्या बढ़ाने का काम कौवे भी करते हैं.
जब इन दोनों वृक्षों के फल कौवे खाते हैं और उनके पेट में बीज की प्रोसेसिंग होती है, तब ये बीज अच्छी तरह उगने लायक बन जाते हैं. इसके बाद कौवे जहां-जहां बीट करते हैं, वहां-वहां ये पौधे उग आते हैं. मादा कौवा भादो महीने में अंडे देती है और बच्चे पैदा होते हैं, इस नई पीढ़ी के पक्षी को पौष्टिक और भरपूर आहार मिलना जरूरी है. श्राद्ध के रूप में हर छत पर इन नवजात बच्चों के लिए पौष्टिक आहार की व्यवस्था हो जाती है.
प्रकृति में हर चीज का संतुलन रहे तो अच्छा है. अभी जो महत्वपूर्ण कार्य प्रकृति स्वयं ही करती रहती है, संतुलन न रहने पर वे कार्य बाद में मनुष्यों को ही समय निकालकर करने पड़ेंगे. इसलिए जीवों और प्रकृति के प्रति दयाभाव रखने वाले रीति-रिवाजों को आधुनिक विज्ञान के नाम पर बकवास न कहें, बल्कि उनका आदर करें.
इसी तरह मूर्तिपूजा करने, आरती करने, धूपबत्ती जलाने, हाथ जोड़कर प्रणाम करने, माथे पर तिलक लगाने, कलावा बांधने आदि सभी धार्मिक कार्यों के कोई न कोई वैज्ञानिक आधार हैं और इसीलिए इन परंपराओं को महत्व देना और उन्हें निभाना सभी के हित में है.
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