What is Shivling Means : शिवलिंग क्या है? शिवलिंग का इतिहास क्या है?

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ॐ नमः शिवाय

What is Shivling Means

किसी ने हमसे पूछा है कि ‘शिवलिंग का वास्तविक अर्थ क्या है? इसका इतिहास क्या है? क्या सच में शिवलिंग का सम्बन्ध पुरुष के लिंग से है?’

दरअसल, कुछ लोगों द्वारा आज इस प्रकार की बातें फैलाना इसलिए आसान हो गया है, क्योंकि हमारा स्वयं का कोई अध्ययन नहीं रह गया है, और यदि हम अध्ययन करते भी हैं तो केवल आज के लिखे अनुवादों या शब्दार्थों में उलझकर रह जाते हैं. ग्रंथों-शास्त्रों में मिलने वाले विरोधाभासों या उनके वास्तविक अर्थ या भावार्थ की तरफ ध्यान ही नहीं देना चाहते.

अब यदि बात करें उन लोगों की जो शिवलिंग में पुरुष का लिंग (शिश्न) देखते हैं, तो ऐसे लोगों को तो हर बेलनाकार वस्तु में शिश्न ही दिखाई देता होगा? जैसे स्तम्भ (खम्भा), बेलन, सरिया, खीरा, अपनी हाथ-पैरों की उंगलियों तक में? यह एक मानसिक विकार ही है.

खैर! आज हम कुछ बेसिक चीजों को जानते हैं और फिर उसके बाद हम शिव तत्व, शिवलिंग के अर्थ और इतिहास आदि पर भी चर्चा करते हैं-

ब्रह्म-
हम ब्रह्म या ईश्वर को त्रिमूर्ति के रूप में देखते हैं- ब्रह्मा, विष्णु और महेश. इन्हें क्रमशः सृजनकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता कहा जाता है. श्री ब्रह्मा जी की जोड़ी मां सरस्वती जी के साथ, विष्णु जी की जोड़ी मां लक्ष्मी जी के साथ और भगवान् शंकर की जोड़ी मां पार्वती जी के साथ क्यों है?

श्री ब्रह्मा जी सृजनकर्ता हैं और किसी भी व्यवस्थित चीज का सृजन करने के लिए या रचनात्मकता के लिए ज्ञान और कला की आवश्यकता होती है, अतः ब्रह्मा जी के साथ ज्ञान और कला के रूप में देवी सरस्वती हैं. भगवान् विष्णु जी को पालनकर्ता कहा जाता है, और किसी का भी पालन-पोषण या भरण-पोषण करने के लिए धन की आवश्यकता होती है, अतः विष्णु जी के साथ देवी लक्ष्मी जी हैं. इसी प्रकार, भगवान् शंकर को संहारकर्ता कहते हैं जो प्रलय में सबको एक साथ समेट लेते हैं, जिसके लिए शक्ति की आवश्यकता होती है, अतः भगवान् शंकर जी के साथ शक्ति स्वरूपा देवी पार्वती जी हैं.

‘ब्रह्म’ को परम सत्य कहा गया है, जिसमें ‘ब्रह’ का अर्थ है अनंत यानी जिसका अनंत विस्तार हो (जिसका आदि और अंत न हो), और ‘मन’ का अर्थ है चेतना. चेतना के अनंत विस्तार को ब्रह्म कहते हैं. यह न तो पुरुषवाचक है और न ही स्त्रीवाचक. ईश्वर को पूर्ण रूप से निर्गुण और निराकार या पूर्ण रूप से सगुण और साकार नहीं कहा जा सकता है, अर्थात वह निर्गुण और सगुण दोनों हो सकता है. दोनों में कोई भेद नहीं है.

जब हमें बताया गया कि ईश्वर निर्गुण और निराकार है, तो हमने उस निराकार की उपासना और पूजन के लिए उसे भी आकार दे दिया, जिसे हम ‘शिवलिंग’ कहते हैं. जो निराकार को पूजना चाहें, उनके लिए शिवलिंग निराकार ब्रह्म का प्रतीक है. इस शिवलिंग पर उपासक सदा से अपना ध्यान टिकाकर उस परम चेतना यानी निर्गुण और निराकार ब्रह्म और प्रकृति का पूजन करते हुए आये हैं, और यही बात अथर्ववेद में कही गई है.

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वेदों में शिवलिंग का क्या अर्थ है?

पहली बात कि संस्कृत में कहीं भी ‘लिंग’ शब्द का अर्थ पुरुष के जननांग या शिश्न के अर्थ में नहीं है, बल्कि प्रतीक या चिन्ह से है. और दूसरी बात कि वेदों-पुराणों आदि में शिवलिंग को एक ज्योति स्तम्भ के रूप में दर्शाया गया है. “लिंगम” शब्द अनेक संस्कृत ग्रंथों जैसे श्वेताश्वतर उपनिषद, सांख्य, वैशेषिक और अन्य ग्रंथों में पाया गया है, जिनमें इस शब्द का अर्थ निराकार ब्रह्म के अस्तित्व से है. स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, ‘शिवलिंग की उत्पत्ति वैदिक अनुष्ठानों के यूप-स्तम्भ (कीर्तिस्तम्भ) या स्कम्भ (विश्व को धारण करने वाले) के विचार से हुई थी. यूप-स्कम्भ ही आगे चलकर शिवलिंग कहलाया.’

अथर्ववेद संहिता में एक स्तम्भ का उल्लेख आता है. स्तम्भ यानी खम्भा. स्तम्भ का उल्लेख किस अर्थ में आता है? संभालने वाले के अर्थ में. जैसे एक खम्भा होता है, जिस पर आप काफी कुछ टिका सकते हैं. एक खम्भा होता है, जो सहारा बनता है, अवलंब बनता है. हम उस पर टिककर खड़े हो सकते हैं, या उससे कुछ बाँध सकते हैं.

यस्य त्रयसि्ंत्रशद् देवा अग्डे। सर्वे समाहिताः।
स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः सि्वदेव सः॥
(अथर्ववेद कांड १०|७|१३)

अर्थात “कौन मुझे उस स्तम्भ के बारे में बता सकता है, जिसमें सभी तैंतीस ईश्वर विराजमान हैं?”

स्कम्भो दाधार द्यावापृथिवी उभे इमे स्कम्भो दाधारोर्वन्तरिक्षम्। स्कम्भो दाधार प्रदिशः षडुर्वीः स्कम्भ इदं विश्वं भुवनमा विवेश॥
(अथर्ववेद कांड १०|७|35)

अर्थात “स्तंभ ने स्वर्ग, धरती और धरती के वातावरण को थाम रखा है. स्तंभ ने 6 दिशाओं को थाम रखा है और यह स्तंभ सम्पूर्ण ब्रह्मांड में फैला हुआ है.

तो कहा गया है कि ब्रह्म या सत्य एक स्तम्भ की भाँति है जिसने सब देवताओं को “तैंतीसों देवताओं को अपने में बिठा रखा है या अपने में सहारा दे रखा है, पूरा संसार ही उस पर आश्रित है.” वही प्रतीक भर है ‘स्तम्भ’, जिसके सहारे पूरी दुनिया चल रही है, यानी निराकार के सहारे सब साकार चल रहा है. वही स्तम्भ आगे चलकर शिवलिंग हो गया, निराकार ब्रह्म का प्रतीक. लेकिन शिवलिंग ही क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि वेदों में ‘शिव’ और ‘रुद्र’ को ‘ब्रह्म’ के पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया गया है.

वेदों में शिव तत्व का अर्थ –

एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थु-
र्य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभिः।
प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले
संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः॥
(श्वेताश्वरोपनिषद् ३ | २)

अर्थात “जो अपनी शासन-शक्तियों के द्वारा लोकों पर शासन करते हैं, वे रुद्र वास्तव में एक ही हैं. इसलिए विद्वानों ने जगत के कारण के रूप में किसी अन्य का आश्रयण नहीं किया है. वे प्रत्येक जीव के भीतर स्थित हैं, समस्त जीवों का निर्माण कर पालन करते हैं, तथा अन्त में सबको अपने आप में निवर्तित कर लेते हैं (सबको समेट भी लेते हैं).”

शिव का अर्थ केवल भगवान् शंकर से ही नहीं बल्कि ब्रह्म, त्रिदेव, शुभ, श्रेष्ठ और कल्याणकारी से भी है (जैसे शुक्ल यजुर्वेद का अंश ‘शिवसंकल्पसूक्त’ मन को शुभ और कल्याणकारी संकल्पों से युक्त बनाने के उद्देश्य से ईश्वर से की गई प्रार्थना है). और शिव तत्व के ही प्रतीक को शिवलिंग कहते हैं. चूंकि ब्रह्म का कोई निश्चित आकार नहीं है, वह सब जगह व्याप्त है, अतः उस ब्रह्म की उपासना या पूजा हम शिवलिंग के रूप में करते हैं.

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शिव का अर्थ है परम शुद्ध चेतना और लिंग का अर्थ है प्रतीक. शिव में जो ‘इ’ है, वह शक्ति को दर्शाता है. शिव शक्ति को धारण करते हैं. शिव चेतना की परम अभिव्यक्ति है, जो नाम और रूप से भी परे है. इसी परम चेतना को शिवलिंग के माध्यम से दर्शाया जाता है. परम तत्व को दर्शाने के लिए ज्योति का सहारा लिया जाता है. और इसीलिए भगवान शिव के सभी स्वयंभू प्रतीक को ज्योतिर्लिंग ही कहा जाता है. श्वेत ज्योति स्वरूप होने के कारण शिव को ‘कर्पूरगौरं’ कहा जाता है.

आप गौर कीजिये कि हर देवी-देवता की आरती केवल उसी देवी-देवता की आरती है, पर भगवान् शिव की आरती त्रिदेवों की आरती है (ॐ जय शिव ओंकारा…). इस प्रकार सभी देवी-देवता आदि भी शिव-शक्ति में ही निहित हैं, और इसीलिए शिवलिंग का पूजन करने से सभी देवी-देवताओं का पूजन हो जाता है. तो जो साधक एक साथ तीनों देवों या सभी देवी-देवताओं का पूजन करना चाहें, वे शिवलिंग का पूजन करते हैं.

इस प्रकार, शिवलिंग निराकार ब्रह्म का प्रतीक है, जिसका कोई भी आकार हो सकता है. और इसीलिए आपको हर आकार के शिवलिंग देखने को मिल जाते हैं. जितने शिवलिंग, उतने आकार. जैसे केदारनाथ, त्रयंबकेश्वर, एकमुख लिंगम, चतुर्मुखी शिवलिंग, पंचमुखी लिंगम, अष्टभुजा शिवलिंग आदि. इसी के साथ, आपको अलग-अलग कालों, साम्राज्यों और क्षेत्रों में शिवलिंग के आकार भी अलग-अलग ही दिखाई देंगे. शिवलिंग निराकार ब्रह्म का प्रतीक है, इसी भावना के चलते शिवलिंग का खण्डित होना भी दोष नहीं माना जाता है.

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सोमनाथ ज्योतिर्लिंग जिसे पहला ज्योतिर्लिंग माना जाता है, की स्थापना सतयुग में स्वयं चन्द्रदेव ने की थी, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में भी है. मूल सोमनाथ मंदिर के निर्माण का समय आज तक अज्ञात है. वाराणसी में जगद्गुरु शंकराचार्य वैदिक शोध संस्थान के अध्यक्ष स्वामी गजानंद सरस्वती के अनुसार, पहले सोमनाथ मंदिर का निर्माण लगभग 8 करोड़ वर्ष पहले हुआ था. इसके बाद सोमनाथ मंदिर का निर्माण चार चरणों में चंद्र देवता ने स्वर्ण से, रावण ने चांदी से, भगवान श्रीकृष्ण ने चंदन की लकड़ी से और पाण्डव भाइयों में से एक भीम ने पत्थरों से करवाया था.

रामायण में शिवलिंग-

वहीं, वाल्मीकि रामायण में श्रीराम द्वारा शिवजी के प्रतीक के रूप में शिवलिंग की स्थापना कर भगवान् महादेव या शिव-शंकर की पूजा करने का स्पष्ट उल्लेख है, और वाल्मीकि रामायण में श्रीराम को समस्त वेदों-शास्त्रों का यथार्थ ज्ञाता बताया गया है-

“देखो सीते! यहां मैंने सेना का पड़ाव डाला था. यहीं भगवान् महादेव ने मुझ पर कृपा की थी. सेतु बांधने से पहले मेरे द्वारा स्थापित होकर वे यहां विराजमान हुए थे.” (वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 123 श्लोक 19 और 20)

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शिवलिंग हमें क्या सन्देश देता है?

शिव स्थिर हैं, केंद्र में हैं, और उनके होने से चारों तरफ शक्ति का विस्तार है, नृत्य है; यह शिवलिंग का सांकेतिक अर्थ है. शिव के होने से शक्ति मग्न होकर समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं, पसरी हुई हैं, नृत्य कर रही हैं, गतिशील हैं. जब आप शिवलिंग को नमन करते हैं, तो वास्तव में आप परम चेतना और प्रकृति को नमन कर रहे होते हैं.

शरीर के होते हुए भी हमारी-आपकी जो चेतना है, वह शिवलिंग की तरह ही अटल रहे, अचल रहे. हमें भी ऐसे ही अकंप, निश्चल, तनकर खड़े रहना है संसार के आवेगों के बीच, संसार के आकर्षण-विकर्षण के बीच, अनेक विषमताओं के बीच. दुनिया मुझे ऐसे ही चारों तरफ से घेरे रहेगी (जैसे शिवलिंग घिरा रहता है), और मैं यहाँ से छूट कर भाग नहीं सकता, घिरा हुआ हूँ घिरा ही रहूँगा लेकिन घिरे-घिरे भी अपनी शान में तना खड़ा रहूँगा, तुम मुझे घेर सकते हो, पर मुझे जीत नहीं सकते!

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अन्य ग्रंथों और पुराणों में शिवलिंग का अर्थ-

अन्य ग्रंथों एवं पुराणों में भी शिवलिंग को एक अग्नि स्तम्भ या ज्योति प्रकाशपुंज स्तम्भ के रूप में दर्शाया गया है. देखिये कुछ उदाहरण-

तवैश्वर्यं यत्नाद्युपरि विरंचिर्हरिरध:
परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुष:।
ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगॄणद्भ्यां गिरीश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति॥
(शिवमहिम्नःस्तोत्रम्)

अनलस्कन्धवपुष: = अग्निस्तम्भ के समान ज्योतिपुंजमय देहधारी

अर्थात “हे कैलाशपति! अग्निस्तम्भ के समान आपके जिस भव्य तेजोमय लिंग (प्रकाशपुंज सा देदीप्यमान स्तम्भ) को देखकर उसके अर्थात् आपकी भगवत्ता (परमैश्वर्य) के ओर-छोर का संधान प्राप्त करने के लिये (स्तब्ध) ब्रह्मा जी ऊपर एवं विष्णु जी नीचे की दिशा में प्रयत्नपूर्वक गये, और वे भी आपके ऐश्वर्य की थाह पाने में अक्षम रहे. तब श्रद्धा और भक्ति के अतिरेक से भरे हुए, आपकी स्तुति करने वाले उन दोनों के सम्मुख आप स्वयं आकर स्थिर हो गये. शरणागत होकर आपके अनुसरण करने का क्या फल नहीं मिलता (अर्थात् अवश्य ही मिलता है).”

शिवपुराण एवं लिंगपुराण के अनुसार, “ब्रह्मा जी एवं विष्णु जी का विवाद अत्यंत मंगलकारी सिद्ध हुआ, क्योंकि इसे समाप्त करने के लिए शिव स्वयं वहां प्रकट हुए और ज्योतिपुंज के रूप में विराजमान हुए. उसी समय से लोकों में शिवलिंग (भगवान् शिव का निराकार और निर्गुण स्वरूप, जिसका कोई आदि या अंत नहीं है) के पूजन की प्रसिद्धि व्याप्त हो गई.”

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लिंगपुराण में शिवलिंग की व्याख्या एक लौकिक स्तंभ के रूप में की गई है, जो शिव की अनंत प्रकृति का प्रतीक है. लिंगपुराण के अनुसार, लिंग निराकार ब्रह्मांड वाहक का एक पूर्ण प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व है. लिंगपुराण में कहा गया है, “शिव प्रतीकहीन, रंग, स्वाद, गंध से रहित, शब्द या स्पर्श से परे, गुणवत्ता से रहित, गतिहीन और परिवर्तनहीन हैं”.

इसी तरह की व्याख्या स्कंद पुराण में भी मिलती है- अंतहीन आकाश (वह महान शून्य जिसमें संपूर्ण ब्रह्मांड शामिल है) लिंग है. शिवपुराण में लिंगम की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है, जिसे ‘शिवलिंग’ के रूप में जाना जाता है, जो सभी कारणों का कारण, अग्नि का आरंभ-रहित और अंतहीन ब्रह्मांडीय स्तंभ है. इसके 11वें अध्याय में शिवलिंग की पूजा करने के सही तरीके का भी विस्तार से वर्णन किया गया है.

लिंगपुराण और महाभारत (10.17) में जगदाधार शिव को स्थाणु (स्तंभ) भी कहा गया है, जो शिव के स्थिर और तपस्वी रूप को दर्शाता है. स्थाणु अर्थात जो इस विश्व को व्याप्त करके स्थित है, वह स्थाणु कहा जाता है. “व्याप्य तिष्ठत्यतो विश्वं स्थाणुरित्याभिधीयते” पंच महाभूत, तन्मात्रा, इन्द्रियां, अहंकार, जीव, प्रकृति आदि का कार्य सब कुछ शिव-आज्ञा का ही विस्तार है, सब उन्हीं से व्याप्त है, अतः वे स्थाणु हैं, जगत के स्थितिसाधन हैं, जगत के स्तम्भ हैं, जिनसे सब कुछ टिका हुआ है.

शिवलिङ्ग शिव की निराकार पूजा है॥२७॥
(महाभारत अनु. पर्व अ. १४)

“महाभारत में द्वापर युग के अंत में भगवान शिव ने अपने भक्तों से कहा कि आने वाले कलियुग में वह किसी विशेष रूप में प्रकट नहीं होगें, इसके बजाय वे निराकार और सर्वव्यापी रहेंगे.”

अथर्ववेद संहिता में अनादि और अनंत स्तम्भ या स्कम्भ का वर्णन मिलता है और यह दर्शाया गया है कि उक्त स्तम्भ को ही सनातन ब्रह्म के स्थान पर रखा गया है. पुराणों में उसी स्तोत्र को कथाओं के आकार में विस्तारित किया गया है.

मोनियर मोनियर विलियम्स (Monier Monier Williams) कहते हैं कि “‘लिंगम’ शब्द जो उपनिषदों और महाकाव्य साहित्यों में दिखाई देता है, वहां इसका अर्थ है- चिह्न या प्रतीक. यह एक धार्मिक प्रतीक है जो शिव के संपूर्ण अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है. ‘लिंगम’ भगवान शिव के निराकार अस्तित्व का प्रतीक है. उन्होंने आगे कहा कि यह चेतना का प्रकाश या शक्ति है, जो सदाशिव से प्रकट हुई है.”

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तो शिवलिंग और कुछ नहीं, बल्कि ऐसा लौकिक स्तम्भ है जिस पर हम (अग्नि की लौ की तरह) ध्यान केंद्रित कर सकते हैं और हमारी कल्याणकारी भावनाओं को उससे जोड़ सकते हैं. यही कारण है कि शिवलिंग को ‘ज्योतिर्लिंग’ भी कहा जाता है. ज्योति वह आत्मज्ञान है जो आपके-हमारे अंदर के अंधकार को दूर करके प्रकाश फैला दे.

वेदों में अनेक जगह परमपिता परमात्मा को एक ऐसे स्तम्भ के रूप में देखा गया है जो समस्त सात्विक गुणों, शुभ वृत्तियों का आधार है. वही मृत्यु और अमरता, साधारण और महानता के बीच की कड़ी है. यही कारण है कि हिंदू मंदिरों और हिन्दू स्थापत्य कला में स्तम्भ या खंभे बहुत मात्रा में देखने को मिलते हैं. इसके अतिरिक्त, योग साधना भी अग्नि की लौ पर ध्यान केंद्रित करने का अभ्यास करने को कहती है, जो स्वयं शिवलिंगाकार है. इसका भी स्पष्ट आधार वेदों में मिलता है.

इसी के साथ, भारतीय शास्त्रों के अंग्रेजी अनुवाद का एक उदाहरण देखिये-

एतस्मिन्नंतरे साक्षाच्छंकरो नीललोहितः।
विरूपं च समास्थाय परीक्षार्थं समागतः॥
दिगम्बरोऽतितेजस्वी भूतिभूषणभूषितः।
स चेष्टामकरोद्दुष्टां हस्ते लिंगं विधारयन्॥

शिवपुराण के इस श्लोक का अर्थ हिंदी में लिखा गया है कि-

“इसी बीच उन लोगों की परीक्षा लेने हेतु साक्षात् नीललोहित भगवान् शंकर विकट रूप धारण कर वहां आये. वे दिगंबर भस्मरूप भूषन से विभूषित तथा महातेजस्वी भगवान् शंकर अपने हाथ में तेजोमय लिंग को धारण कर विचित्र लीला करने लगे.”

लेकिन जेएल शास्त्री ने इसी श्लोक का अंग्रेजी अनुवाद कुछ इस प्रकार लिखा है-

“He was very brilliant but stark naked. he had smeared ashes all over his body as the soul ornament. Standing there and holding his penis he begin to show all sorts of vicious tricks.”

अब आप ही बताइये कि भगवान् शिव का इससे अधिक अपमान और क्या होगा? और आज ऐसे ही अंग्रेजी अनुवाद दिखाकर लोगों को भटकाने का प्रयास किया जाता है.

क्या महिलाएं शिवलिंग को छू सकती हैं?

गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार, ‘हरि-कृपा के लिए हर-कृपा आवश्यक है.’

लड़कियों या महिलाओं द्वारा शिवलिंग को छूने या उसकी पूजा करने में कहीं कोई निषेध नहीं है. यह तो आज कुछ लोग जबरदस्ती की बातें फैला देते हैं कि लड़कियों को शिवलिंग को नहीं छूना चाहिए, या शिवलिंग को घर में नहीं रखना चाहिए, या महाभारत को घर में नहीं रखना चाहिए… इस प्रकार की बातों का कोई मतलब ही नहीं है.

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फिर क्यों किया जाता है अर्थ का अनर्थ?

राजनीति शास्त्र का एक सिद्धांत है कि “आस्था हिला दो, व्यवस्था हिल जाएगी.”

19वीं सदी से, कुछ लोकप्रिय साहित्यों में ‘लिंगम’ को पुरुष यौन अंग के रूप में दर्शाया गया है. आधुनिक समय में कई “महान विद्वान” हुए, उन्हें अपने पाश्चात्य नजरिये से जो जैसा समझ आया तो उन्होंने कह दिया कि नहीं, ये शिवलिंग तो वास्तव में मानवीय लिंग का ही रूप है, और ये जिस पीठ पर स्थापित है वो मानवीय योनि मात्र है. उन्होंने संस्कृत के ‘लिंग’ शब्द का अर्थ अपनी आधुनिक भाषा में लगाया.

इस सम्बन्ध में कुछ “विद्वान” भारत के कुछ प्राचीन मंदिरों में स्थापित शिवलिंगों के आकार का उदाहरण सामने रखते हैं और यह कहते हैं कि दो-ढाई हजार साल पुराने कुछ मंदिरों में शिवलिंग का आकार लंबा मिलता है, अतः वह ‘लिंग’ ही हुआ. वहीं, कुछ भारतीयों ने भी शिवलिंग के वास्तविक अर्थ को जानने की आवश्यकता ही नहीं समझी. इसी में बहुत तरह की कहानियाँ भी बनाकर प्रचारित कर दी गईं. प्राचीनकाल में शिवलिंग का आकार लम्बा क्यों बनाया जाता था, इस प्रश्न का उत्तर शिवपुराण के विद्येश्वरसंहिता के ग्यारहवें अध्याय में स्पष्ट रूप से दिया गया है.

फिर भी अनेक भारतीयों में यह भावना डाल दी गई कि “देखो तुम्हारा तो पूरा अतीत ही अश्लीलता से भरा हुआ है.” और वो हास्यास्पद बात, वो झूठा सिद्धांत आजतक न सिर्फ चला आ रहा है बल्कि बहुत लोगों में और फैल भी गया. जिन लोगों को समझ नहीं आया कि शिवलिंग किस चीज का प्रतीक है, उन्होंने बहुत अपमान किया उसका. और इतना ही नहीं, आज के कुछ पढ़े-लिखे हिन्दुओं ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया. नतीजा ये निकलता है कि बहुत लोग होते हैं, जो अध्यात्म से अपनी निष्ठा और आस्था खोते चले जाते हैं.


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