भगवान् सूर्यदेव की महिमा : ‘मनुष्य की व्यवस्था सूर्य की दिनचर्या पर टिकी है’

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Sun God in Vedas

विज्ञान की भाषा में हमारा सूर्य भले ही ब्रह्माण्ड के अरबों तारों के बीच एक तारा ही है, लेकिन यह तारा हमारे लिए, पृथ्वी पर रहने वाले समस्त सजीव व निर्जीव प्राणियों के लिए सबसे विशेष और महत्वपूर्ण है. अब तक ज्ञात ब्रह्माण्ड में पृथ्वी जैसा कोई ग्रह नहीं, जहाँ केवल जल और ऑक्सीजन ही नहीं, बल्कि जीवन की सभी संभावनाएं विद्यमान हैं. पृथ्वी पर जीवन एवं ऊर्जा का स्रोत सूर्य ही है. सूर्य के बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना भी नहीं की सकती. अतः अरबों तारों के बीच सूर्य का विशेष स्थान है. यह वंदनीय है.

वैदिक विज्ञान में भगवान् सूर्य को पूर्व दिशा में उदित होते हुए और घोड़ों से जुते हुए रथ पर सवार दिखाया जाता है, जिनकी संख्या सात होती है, जो दृश्य प्रकाश के सात रंगों और सप्ताह के सात दिनों का प्रतिनिधित्व करते हैं. उनका वर्णन एक तेजस्वी देवता के रूप में किया जाता है, जो अपने दोनों हाथों में कमल पुष्प लिए हुए हैं एवं सारथी अरुण द्वारा संचालित रथ पर सवार हैं.

भगवान सूर्य देव की ऐसी किसी तस्वीर को घर में लगाना बहुत शुभ माना जाता है. सूर्य की पूजा दिन में श्री ब्रह्मा, दोपहर में भगवान् शिव और शाम को भगवान् विष्णु के साथ मिलकर की जाती है. प्राचीन भारतीय साहित्य में सूर्य के अन्य नाम हैं- आदित्य, अर्क, भानु, सवित्र, पूषन, रवि, मार्तंड, मित्र, भास्कर, प्रभाकर, कथिरावन और विवस्वान.

ऋग्वेद कहता है कि “सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च” (१.११५.१), अर्थात् सूर्य इस चराचर (सभी जड़-चेतन पदार्थों की) जगत् की आत्मा है. गायत्री मंत्र द्वारा जिन भूर्भुव:स्व: की स्तुति की जाती है, वे तेजोमय भगवान् सविता अर्थात् सूर्य ही हैं. ऋषि-महर्षियों ने सूर्य को ‘आदिदेव’ कहकर भी संबोधित किया गया है- ‘आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसाद मे भास्कर.’ प्रतिदिन सूर्योदय से पहले उठने वाले, उदित हो रहे सूर्य को प्रणाम करने एवं उसकी स्तुति करने वाले व्यक्ति के जीवन में उन्नति, यश, धन, संपत्ति एवं आरोग्य की वृद्धि होती है.

वैदिक ऋषियों ने सूर्य के निम्नलिखित प्रमुख गुण बताये हैं-

अंधकार का नाश करने वाले,
राक्षसों का नाश करने वाले,
दुःखों और रोगों का नाश करने वाले,
नेत्र ज्योति की वृद्धि करने वाले,
चराचर की आत्मा,
आयु की वृद्धि करने वाले,
लोकों को धारण करने वाले.

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अथर्वा ऋषि की भगवान् सूर्य से प्रार्थना है कि-

सूर्यश्चक्षुषामधिपति: स मावतु॥ (अथर्ववेद ५.२४.९)

अर्थात् “जिस प्रकार अग्नि वनस्पतियों के, सोम लताओं के, वायु आकाश के तथा वरुण जल के अधिपति हैं, उसी प्रकार सूर्यदेव नेत्रों के अधिपति हैं. वे मेरी रक्षा करें”. यहाँ नेत्र से अर्थ प्राणियों के नेत्रों तक ही सीमित नहीं है.

अभितपा सौर्य ऋषि की प्रार्थना है कि-

येन सूर्य ज्योतिषा बाधसे तमो जगच्च विश्वमुदियर्षि भानुना।
तेनास्मद्विश्वामनिरामनाहुतिमपामीवामप दुष्ष्वप्न्यं सुव॥
(ऋग्वेद १०.३७.४)

अर्थात् “हे सूर्य! आप अपनी जिस ज्योति से अंधकार का नाश करते हैं तथा अपने प्रकाश से समस्त संसार में स्फूर्ति उत्पन्न कर देते हैं, उसी से हमारे समग्र अन्नों का अभाव, यज्ञ का अभाव, रोग तथा कुस्वप्रों के कुप्रभाव को दूर कीजिये.”

प्रस्कण्व ऋषि की सूर्य देव से प्रार्थना है कि-

उद्यान्नद्य मित्रमह आरोहनुत्तरां दिवम्‌।
हद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय॥
(ऋग्वेद १.५०.११)

अर्थात् “हे हितकारी तेजवाले सूर्य! आप उदित होते तथा ऊँचे आकाश में जाते समय मेरे हृदय के रोग और पाण्डुरोग को नष्ट कीजिये.” (दोपहर से पूर्व के सूर्य का प्रकाश उक्त रोगों का नाश करता है. सूर्य का प्रकाश हृदय के रोगों में लाभप्रद माना जाता है).

महर्षि अगस्त्य ने सूर्य को राक्षसों अथवा शत्रुओं का नाश करने वाला बताया है-

उत् पुरस्तात् सूर्य एति विश्वदृष्टो अदृष्टहा।
अदृष्टान्त्सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्य:॥
(ऋग्वेद १.१९१.८)

अर्थात् “सबको दिखाई देने वाले अथवा न दिखाई देने वाले (राक्षसों) को नष्ट करने वाले, सब रजनीचरों तथा असुरों को मारते हुए वे सूर्यदेव सामने उदित हो रहे हैं.”

महर्षि अगस्त्य ने राम-रावण युद्ध के दौरान भगवान् श्रीराम को आदित्यहृदय स्तोत्र का पाठ दिया था. यह भगवान सूर्य की सबसे शक्तिशाली स्तुति मानी जाती है. इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने के अनगिनत लाभ मिलते हैं. आदित्यहृदय स्तोत्र कष्टों और शत्रुओं से मुक्ति दिलाने वाला, सर्व कल्याणकारी, आयु, ऊर्जा व प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला अति मंगलकारी विजय स्तोत्र है.

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महर्षि वसिष्ठ भगवान्‌ सूर्यनारायण से प्रार्थना करते हुए कहते हैं-

स सूर्य प्रति पुरो न उद्‌ गा एभिः स्तोमेभिरेतशेभिरेवै:।
प्र नो मित्राय वरुणाय वोचो ऽनागसो अर्यम्णे अग्नये च॥
(ऋग्वेद ७.६२.२)

अर्थात् “हे सूर्य! आप इन स्तोत्रों के द्वारा तीव्रगामी अश्वों के साथ हमारे सामने उदित हो गये हैं. आप हमारी निष्पापता की बात मित्र, वरुण, अर्यमा तथा अग्निदेव से भी कह दीजिये.”

‘मनुष्य की व्यवस्था सूर्य की दिनचर्या पर टिकी है’

ऋग्वेदीय ‘सूर्य-सूक्त’ के अनुसार, ‘सूर्य संपूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं, जगत की आत्मा हैं और प्राणिमात्र को सत्कर्मों में प्रेरित करने वाले देव हैं. देवमण्डल में इनका अन्यतम एवं विशिष्ट स्थान इसलिये भी है, क्योंकि ये जीवमात्र के लिये प्रत्यक्षयोचर हैं. इनका दर्शन सबको निरन्तर प्रतिदिन होता है. ये सभी के लिये आरोग्य प्रदान करने वाले एवं सर्वविध कल्याण करने वाले हैं, अतः समस्त प्राणधारियों के लिये स्तवनीय हैं, वन्दनीय हैं.’

महर्षि वेदव्यास जी लिखते हैं कि- ‘नक्षत्र, ग्रह तथा चन्द्र का मूल सूर्य में है तथा इनकी उत्पत्ति सूर्य से ही हुई है.’ वेदों में भगवान्‌ सूर्य को भी ‘हिरण्यगर्भ’ कहा गया है. सर्वप्रथम (आदि में) प्रकट होने के कारण इन्हें ‘आदित्य’ तथा सृष्टि की उत्पत्ति करने के कारण इन्हें ‘सूर्य’ कहा गया है. सूर्यसिद्धांत के अनुसार, “भगवान्‌ सूर्य ने स्वयं ही अनेक रहस्यों का उद्घाटन करते हुये ज्योतिषशास्त्र सम्बन्धी अनेक शंकाओं का समाधान किया है तथा अत्यंत गूढ़ ज्ञान दिया है. सूर्यदेव और मय के संवाद से स्पष्ट होता है कि भगवान्‌ सूर्य द्वारा समय-समय पर ज्योतिषशास्त्र का उपदेश होता रहा है.”

सूर्य तथा चंद्र, दोनों ही आलोकमयी हैं और दोनों ही पृथ्वी पर समय अथवा काल का बोध कराते हैं. पृथ्वी पर सूर्य और चन्द्रमा की प्रधानता उनके ‘प्रकाश’ के आधार पर स्थापित हुई. श्रीसायणाचार्य ने एक स्थल पर ऋग्वेद की व्याख्या में लिखा है- चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है.’ सायणाचार्य लिखते हैं- ‘चन्द्रबिम्बे सूर्यकिरणा: प्रतिफलन्ति.’ अर्थात्‌ चन्द्रबिम्ब में सूर्य की किरणें ही प्रतिभासित होती हैं.

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विद्वान लेखिका डॉ. किरण भाटिया जी लिखती हैं- ‘सूर्य को जगत् की आत्मा कहा गया है और चन्द्रमा को मन. चन्द्रमा के जिस भाग पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है, वह भाग आलोकित हो जाता है और शेष भाग प्रकाशरहित रहता है. ठीक इसी प्रकार मन भी आत्मा के प्रकाश से प्रकाशित होता है. आत्मा के बिना मन का कोई अस्तित्व नहीं है.’

वे आगे लिखती हैं, ‘पृथ्वी पर काल अथवा समय का ज्ञान सूर्य तथा चन्द्रमा से होता है. रात और दिन का निर्णय सूर्य से होता है एवं तिथियों का विधान चन्द्र से होता है. सूर्योदय से सूर्योदय तक एक अहोरात्र अर्थात् एक दिन-रात कहलाता है. आकाश में सूर्य का गमन निश्चित गति से होता है. उन्हीं से वर्ष अथवा संवत्सर का निर्णय होता है. सूर्य के उत्तरायण-दक्षिणायन होने पर ऋतु-परिवर्तन लक्षित होता है. सूर्य के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की सकती.’

सूर्य के विषय पर विद्वान लेखक श्री सर्वेश कुमार तिवारी जी लिखते हैं- ‘पूजा वस्तुतः शक्ति की ही होती है. संसार में जन्मी हर सभ्यता ने सूर्य को देवता के रूप में पूजा है! कहीं आदित्य, कहीं एटन, कहीं रे, तो कहीं सूर्यस… भारत में, मिस्र में, यूनान में, मेसोपोटामिया में… इसलिए क्योंकि सूर्य की शक्ति प्रत्यक्ष दिखाई देती है. शक्ति का सूर्य से बड़ा साक्षात प्रतीक और कौन होगा? गर्मी में जब वे प्रचंड रूप में दिखाई देते हैं तब मनुष्य त्राहि-त्राहि कर उठता है, और शीत में जब वे नहीं दिखाई देते, तब भी मनुष्य त्राहि-त्राहि करता है. मनुष्य की सारी व्यवस्था उनकी दिनचर्या पर टिकी है.’

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