History of Sengol or Rajdand : क्या है सेंगोल या राजदण्ड का इतिहास

history of sengol rajdand parliament house of india
सेंगोल या राजदण्ड का इतिहास

History of Sengol Rajdand

28 मई, 2023 को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने भारत के नये संसद भवन का उद्घाटन किया, जो सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना का हिस्सा है. इस आयोजन का एक मुख्य आकर्षण रहा- लोकसभा अध्यक्ष की सीट के समीप ऐतिहासिक स्वर्ण राजदण्ड ‘सेंगोल’ (Sengol) की स्थापना. सेंगोल भारत की स्वतंत्रता और संप्रभुता के साथ-साथ इसकी सांस्कृतिक विरासत और विविधता का प्रतीक है.

‘सेंगोल’ की स्थापना से भारतीयों को अपने इतिहास का एक मुख्य भाग जानने को मिला है. हर एक स्थान पर प्राचीन भारत की इस परम्परा का उल्लेख किया गया है. सेन्गोल, तमिल शब्द ‘सेम्मई’ से लिया गया है, इसका अर्थ है ‘नीतिपरायणता’, अर्थात सेंगोल को धारण करने वाले व्यक्ति पर यह विश्वास किया जाता है कि वह न्यायप्रिय होगा. सेंगोल को अनायास ही संसद में स्थापित नहीं किया गया है, बल्कि इसके ऐतिहासिक कारण सामने आये हैं.

सेंगोल का इतिहास-

प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. आर सी मजूमदार ने अपनी पुस्तक “गुप्त-वाकाटक युग की भूमिका” में लिखा है कि-

“उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में भारत के लगभग सभी भाग एक राजदण्ड की छत्रछाया में एकता के सूत्र में बंध गए.”

“राजदण्ड की छत्रछाया में एकता” शब्द से स्पष्ट है कि यहां बात किसी साम्राज्य विशेष की हो रही है, जिसमें ‘राजदण्ड’ को प्रतीक या सांकेतक रूप से अभिव्यक्त किया गया है, जो अपने प्राधिकार में आने वाले समस्त परिक्षेत्र की एकता, सुशासन और न्याय को सुनिश्चित करता है. आज हमारा भारतवर्ष एक गणतंत्र है.

यदि आपने गुजरात में श्री द्वारकाधीश मंदिर के दर्शन किये हों, तो आपने वहां ‘राजदण्ड’ को भी जरूर देखा होगा. प्राचीन भारत में गणराज्यों की उपस्थिति से सम्बंधित जानकारियां वैदिक समयों से ही प्राप्त होने लगती हैं. वैदिक समय के महाकाव्यों में गणराज्यों के कार्यशैली की जानकारी तो मिलती ही है, साथ ही उसके गुण-दोष पर भी पर्याप्त विवेचनाएं प्राप्त होती हैं.

श्रीकृष्ण को सर्वसम्मति से गणाध्यक्षता प्राप्त थी, जिसका आधार उनकी लोकप्रियता था, जो कि किसी भी जनतंत्र का एक सिद्धांत है. और आज भी यही परम्परा सांकेतिक रूप से विद्यमान है. वर्तमान द्वारका नगरी के अधिपति या गणाध्यक्ष भी भगवान श्रीकृष्ण को ही कहा जाता है, और इसीलिए उनके मंदिर या दरबार में उपस्थित राजदण्ड एक प्राचीन परम्परा है.

यह सन्दर्भ यह भी स्पष्ट करता है कि राजदण्ड का राजतंत्र या गणतंत्र से कोई संबंध नहीं है. राजदण्ड सत्ता-परिवर्तन के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया जाता होगा, लेकिन एक तथ्य स्पष्ट है कि यह राजदण्ड सुशासन प्रदान करने के लिए राजा या गणाध्यक्ष को उसके कर्तव्यों का बोध कराने के लिए प्रदान किया जाता था.

राजमुकुट और सिंहासन राजा होने के परिचायक हैं, तो वहीं राजदण्ड को धारण करने वाला व्यक्ति ही राज्य का मुख्य न्यायाधीश माना जाता था. राजदण्ड धारण करवाते समय राजाओं को यह संकल्प दिलाया जाता था कि उसके द्वारा किये जा रहे न्याय की प्रक्रिया में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा.

महाभारत में राजदण्ड का विशेष रूप से उल्लेख अर्जुन द्वारा किया गया है, जब वे युधिष्ठिर की राज्यसभा में उनसे चर्चा कर रहे हैं. महाभारत के शांतिपर्व में अर्जुन कहते हैं-

“राजन! दण्ड समस्त प्रजा को शासित करता है. दण्ड ही सबकी रक्षा करता है. सबके सो जाने पर भी जागता रहता है, इसीलिए विद्वानों ने दण्ड को राजा का धर्म माना है. हे नरेश्वर! दंड ही धर्म, अर्थ और काम की रक्षा करता है, और इसीलिए दण्ड को त्रिवर्गरूप कहा जाता है. दंड से धन और धान्य की रक्षा होती है. ऐसा जानकर हे राजन! आप भी दंड धारण कीजिये और जगत के व्यवहार पर दृष्टि डालिये. यह उद्दंड मनुष्यों और दुष्टों को दंड देता है, और इस कारण ही विद्वान पुरुष इसे दंड कहते हैं.”

क्रमशः



Copyrighted Material © 2019 - 2024 Prinsli.com - All rights reserved

All content on this website is copyrighted. It is prohibited to copy, publish or distribute the content and images of this website through any website, book, newspaper, software, videos, YouTube Channel or any other medium without written permission. You are not authorized to alter, obscure or remove any proprietary information, copyright or logo from this Website in any way. If any of these rules are violated, it will be strongly protested and legal action will be taken.



About Niharika 268 Articles
Interested in Research, Reading & Writing... Contact me at niharika.agarwal77771@gmail.com

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*