Pushyamitra Shunga : पुष्यमित्र शुंग — नायक या खलनायक?

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पुष्यमित्र शुंग

Pushyamitra Shunga History

पुष्यमित्र शुंग (185 – 149 ई.पू.) शुंग साम्राज्य (Shunga Empire) के संस्थापक और प्रथम राजा थे. इससे पहले वे मौर्य साम्राज्य में सेनापति थे. पुष्यमित्र शुंग के शासन की सबसे महत्वपूर्ण घटना देश पर यवनों का आक्रमण था. यवन आक्रमणकारियों से देश की रक्षा पुष्यमित्र शुंग द्वारा इस राष्ट्र की बहुत बड़ी सेवा कही जाती है. पुष्यमित्र शुंग मौर्यों द्वारा स्थापित भारत के साम्राज्य के एक बड़े भाग को बचाने में सफल हुए.

पुष्यमित्र शुंग ने भारतवर्ष में वैदिक धर्म का पुनरुत्थान किया, जिस कारण बौद्ध ग्रंथों में उन्हें ‘बौद्धों का शत्रु’ कहा गया है. पुष्यमित्र शुंग ने हिन्दू धर्म की ध्वजा को अपने हाथ में लिया और सनातन धर्म की रक्षा और उसकी पुनर्स्थापना के लिए दो अश्वमेध यज्ञ भी किये और उत्तर भारत का ज्यादातर हिस्सा अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया. पुष्यमित्र ने 36 वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन किया और भारतीय साम्राज्य को सुदृढ़ और सुरक्षित कर दिया. उनके बाद उनका पुत्र अग्निमित्र सिंहासन पर बैठा.

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पुष्यमित्र शुंग को भारत में बौद्ध धर्म के विलुप्त हो जाने का दोषी माना जाता है. उन्हें बौद्धों का संहारक और बौद्ध स्तूपों का विध्वंसक भी बताया जाता है. ये दोनों ही बातें ‘दिव्यावदान’ और ‘अशोकावदान’ में ही मिलती हैं. इसमें संदेह नहीं कि ये दोनों ही बौद्ध ग्रंथ हैं और इनमें की गई पुष्यमित्र शुंग की विवेचना एकपक्षीय है, फिर भी मात्र इन्हीं दोनों ग्रंथों के आधार पर आज एक ही धुन पर खूब नगाड़ा बजाया जाता है. सेलेक्टिव नैरेटिव ऐसे ही गढ़े जाते हैं.

‘दिव्यावदान’ और ‘अशोकावदान’ के अतिरिक्त पुष्यमित्र शुंग का विस्तृत विवरण इतिहास की और भी पुस्तकों में मिलता है, जैसे कालिदास कृत ‘मालविकाग्निमित्रम्’, बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’, ‘वायु पुराण’ (ज्ञातव्य है कि कई पुराणों की रचना या टीकाएँ बौद्धकाल में भी लिखी गई हैं), ‘द ग्रीक्स इन बैक्ट्रिया एंड इंडिया’, पतंजलि का ‘महाभाष्य’ आदि. आज इन सभी पुस्तकों के आधार पर हम कुछ तथ्यों को जानने का प्रयास करते हैं-

कौन थे पुष्यमित्र- पुष्यमित्र शुंग (Pushyamitra Shunga) जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय थे. कालिदास ने अपने ‘मालविकाग्निमित्रम’ में पुष्यमित्र शुंग को कश्यप गोत्र का बैम्बिक ब्राह्मण माना है. यह भी बताया जाता है कि पुष्यमित्र और उनका वंश भारद्वाज वंशीय ब्राह्मणों से सम्बंधित था. राजा बनने से पहले पुष्यमित्र शुंग मौर्य सेना में लोकप्रिय सेनापति थे. इस प्रकार पुष्यमित्र से यह भी पता चलता है कि उस समय का काल भी कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था थी.

क्या पुष्यमित्र शुंग बौद्धों के शत्रु थे?

यदि ऐसा ही था तो बौद्ध विरासत की कुछ श्रेष्ठतम निर्मितियाँ शुंग काल की क्यों हैं? दरअसल, असत्य हम पर इतना हावी हो चुका है कि हम तथ्यों की विवेचना करने की जहमत ही नहीं उठाना चाहते. यदि पुष्यमित्र और उनके बाद के शासक बौद्ध मतावलम्बियों के सचमुच शत्रु होते, तो भरहुत के प्रसिद्ध स्तूप के सर्वाधिक रमणीय हिस्सों के निर्माण को शुंग शासनकाल की उपलब्धियों में क्यों गिना जाता है?

पुरातात्विक साक्ष्य भी यही बताते हैं कि पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में बौद्ध स्तूपों की साज-संभाल के लिए अनेक कार्य किए गए थे, जैसे भरहुत और साँची के स्तूपों के वे हिस्से जो लकड़ी के बने हुए थे, उन्हें चिरजीवी बनाए रखने के लिए उनका निर्माण पत्थरों से किया गया. साँची के स्तूप का सौंदर्यीकरण करवाने का श्रेय पुष्यमित्र शुंग को ही दिया जाता है.

भरहुत, साँची, बोधगया आदि स्तूपों का निर्माण भले ही मौर्य शासनकाल में हुआ हो, लेकिन इन्हें बड़ा और भव्य स्वरूप शुंगकाल में ही मिला. इन्द्राग्नि की पत्नी कुरंगि के मिले अभिलेख (ब्राह्मी लिपि में) सहित कई अभिलेखों द्वारा यह सिद्ध हुआ है कि शुंग शासनकाल में बौद्ध धर्म की विरासत को नष्ट करने की बजाय उनका पुनुरुद्धार और सौंदर्यीकरण किया गया था.

सच्चिदानंद त्रिपाठी अपनी पुस्तक ‘शुंगकालीन भारत’ में लिखते हैं-

“वैदिक धर्म का प्रसार फिर से बढ़ रहा था. उस समय में ब्राह्मण, बौद्ध और जैन तीनों ही समान रूप से उन्नति कर रहे थे. कोई भी धर्म न तो किसी को दबाकर उन्नति कर रहा था और न ही किसी के द्वारा अवनति की ओर धकेला जा रहा था. यद्यपि पुष्यमित्र वैदिक-सनातन धर्म और संस्कृति को बचाना चाहते थे, लेकिन उन्होंने अन्य धर्मों पर कोई अन्याय नहीं किया था.”

‘दिव्यावदान’ में उल्लेख मिलता है कि, “पुष्यमित्र यह घोषणा करते हैं कि जो व्यक्ति एक श्रमण का सिर काटकर लाएगा, उसे मैं सौ दीनार दूंगा.” लेकिन पहली बात कि उस काल में भारत में ‘दीनार’ का प्रचलन नहीं था.

और दूसरी बात कि इसी बौद्ध ग्रंथ के ‘अशोकवदान’ खंड में यही बात सम्राट अशोक के लिए भी कही गई है, जिसके अनुसार सम्राट अशोक, जो अहिंसा के पुजारी बन चुके थे, ने यह घोषणा करवाई थी कि “जो कोई भी एक निर्ग्रन्थ का सिर काटकर लाएगा, उसे एक स्वर्ण मुद्रा दी जाएगी.”

भारत पर यवनों के आक्रमण और षड्यंत्र

शुंग काल में हुए आक्रमणों के वर्णन यवन स्त्रोतों सहित पतंजलि के ‘महाभाष्य’, कालिदास के ‘मालविकाग्निमित्रम्’, वराहमिहिर की ‘बृहत संहिता’, गार्गी संहिता, ‘द ग्रीक्स इन बैक्ट्रिया एंड इंडिया’, ‘आर्यन रूल इन इंडिया’ आदि में प्राप्त होते हैं.

‘मालविकाग्निमित्रम्’ के अनुसार पुष्यमित्र शुंग के पौत्र वसुमित्र ने यवन सेना को सिंधु नदी के किनारे हुए एक बड़े युद्ध में करके परास्त किया, जिससे यवन सियालकोट (शाकल) तक ही सीमित रह गए. कुछ इतिहासकारों के अनुसार यवनों ने तीन आक्रमण किए थे, पर इतना निश्चित है कि वे सब पराजित किए गए.

यह भी सर्वविदित है कि शुंग शासन के प्रभाव में आने के बाद अनेक बौद्ध भिक्षु यवनों से सहायता प्राप्त करना चाहते थे, साथ ही वे उन्हें पाटलिपुत्र पर आक्रमण का उकसावा दे रहे थे, राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहे थे, जिसकी जानकारी प्राप्त होते ही प्रशासन द्वारा केवल उन्हीं बौद्ध भिक्षुओं और मठों का दमन किया गया. और यही कारण है कि पुरातात्विक साक्ष्य ‘दिव्यावदान’ में लिखी बातों से बिल्कुल उलट हैं.

इस तथ्य का उल्लेख भी मिलता है कि कुछ यवन सैनिक बौद्ध भिक्षुओं के भेष में मठों में छिपे हुए थे. यह सूचना जब पुष्यमित्र को मिली, तब उन्होंने मगध के सभी मठों पर सैनिक जांच शुरू करवा दी थी, और बहुतायत मात्रा में यवन सैनिक पकड़े गए थे.

‘द ग्रीक्स इन बैक्ट्रिया एंड इंडिया’ के लेखक W.W. टॉर्न लिखते हैं कि-

“पुष्यमित्र के शासन समय में देश की पश्चिमोत्तर सीमा में स्थित बौद्ध मठ उन यूनानियों की सहायता कर रहे थे, जो भारत पर आक्रमण की योजना बना रहे थे.”

‘आर्यन रूल इन इंडिया’ में ई.बी. हवल ने लिखा है कि-

“पुष्यमित्र शुंग ने केवल उन बौद्धों का ही दमन किया था, जिनके साथ राज्य विरोधी, राजनैतिक गतिविधि का केंद्र बन गए थे.”

डेमेट्रियस (Demetrius)

कई इतिहासकारों ने ‘हाथीगुम्फा अभिलेख’ (Hathigumpha Inscription) के आधार पर डेमेट्रियस को वह यवन आक्रांता माना है, जिसने शुंग शासन समय में आक्रमण किया था. उपलब्ध यूनानी संदर्भ और समग्र रूप से विचार करने पर पता चलता है कि उस दौर में उत्तरी भारत में हुए आक्रमण और बड़े परिक्षेत्र पर अधिकार मुख्य रूप से तीन लोगों ने किया- डेमेट्रियस, अपोलोडोटस और मिनांडर.

अनेक उल्लेखों में आक्रांता द्वारा आगे बढ़ने के दो मुख्य मार्ग प्राप्त होते हैं- भारतीय भूभाग पर एक तरफ से मिनांडर ने आक्रमण किया जबकि दूसरी ओर से अपोलोडोटस ने. डेमेट्रियस को भारतवर्ष के पश्चिमी मुख्य द्वार को पार करके भारत में आक्रमण करने वाला चौथा विदेशी कहा जा सकता है. उसके पहले दारा प्रथम, सिकंदर और सेल्यूकस आक्रांता हुए, लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी.

सम्राट अशोक और उनके बाद के मौर्य साम्राज्य के शासक धर्म को राजनीति का ही हिस्सा बनाने लगे थे. इसी कारण अशोक के बाद के भारत में यवनों के आक्रमण सफल हो रहे थे. ‘द ग्रीक से इन बैक्टीरिया एंड इंडिया’ के अनुसार, डेमेट्रियस ने जब भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रस्थान किया, तब उसे ‘बर्ब’ का भी शासन संभालना था, जिसके लिए उसने अपने बड़े पुत्र को नियुक्त किया और दूसरे पुत्र जिसे ‘डेमेट्रियस द्वितीय’ कहा जाता है, और सेनापति मिनांडर को साथ लेकर भारत पर आक्रमण कर दिया.

डेमेट्रियस ने सबसे पहले विशाल सेना की सहायता से गांधार पर अधिकार कर लिया. सिंधु नदी को पार कर यवनों ने तक्षशिला (Takshashila) को अपने अधीन किया, जो पहले से ही बौद्धों का राजनीतिक अखाड़ा बन चुका था. यह वही विश्व प्रसिद्ध तक्षशिला था, जहां कुछ दशक पहले तक पूरे विश्व से लोग शिक्षा ग्रहण करने आते थे.

जिस तक्षशिला की सहायता से चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने यवनों को न केवल भारत से बाहर खदेड़ दिया था बल्कि सम्पूर्ण भारत को एकसूत्र में बांधकर महान मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी. वही तक्षशिला अब भारत विरोधी षड्यंत्र और राजनीती का अड्डा बन गया था. यहां उत्तरवर्ती मौर्यों के मगध सम्राज्य के विरुद्ध यवनों के भारत विजय के लिए योजनायें बनती थीं.

मिनांडर ने तक्षशिला पहुंचकर राजनीतिक बौद्धों के सामने यह प्रस्ताव रखा कि यदि वे भारत विजय में यवनों की सहायता करेंगे तो वह खुद बौद्ध धर्म अपना लेगा. इसी के साथ, उसने उन्हें बहुत धन और सुविधाओं का भी लालच दिया. राजनीतिक बौद्धों ने यवनों के इस प्रस्ताव का समर्थन किया और कुछ ही दिनों में इस प्रस्ताव की गूंज पाटलिपुत्र तक के बौद्ध मठों में सुनाई देने लगी.

फिर यवन प्रदेश से आने वाले बौद्ध भिक्षु जो अपने कपड़ों के भीतर अस्त्र-शस्त्र छिपाकर लाते थे, धीरे-धीरे भारत के अलग-अलग मठों में छिपकर रहने लगे. पूरी तैयारी के बाद डेमेट्रियस अपनी सेना को दो भागों में बांटकर भारत के भीतर घुस गया.

सभी देसी-विदेशी इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि यवन आक्रमण के समय बौद्ध संघों की भूमिका अपने राजा के प्रति शत्रुतापूर्ण थी.

मिनांडर पाटलिपुत्र तक तो पहुंचा लेकिन पुष्यमित्र शुंग के नेतृत्व में शुंग शासन की ताकत का आभास हुआ और वह बुरी तरह पराजित हुआ. उसे पीछे हटना पड़ा और इस प्रकार उसकी मगध विजय की कामना अधूरी रह गई. शुंग शासक जैसे-जैसे शक्तिशाली होते गए, वैसे-वैसे यवन भी एक छोटे से क्षेत्र में ही सिमट कर रह गए.

मौर्य साम्राज्य का पतन कैसे?

“कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपना लिया था..” लेकिन क्या यह सच है? सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद नहीं, बल्कि उससे 2 वर्ष पूर्व ही बौद्ध धर्म अपना लिया था. सम्राट अशोक के लिए यह तथ्य स्पष्ट रूप से मिलता है कि उन्होंने बौद्ध धर्म को बलपूर्वक पूरे भारत और श्रीलंका सहित थाईलैंड, कंबोडिया, इंडोनेशिया आदि जैसे कई देशों में फैलाया, तमाम हिंदू स्थलों, ब्राह्मणों और हिंदू बुद्धिजीवियों को नष्ट कर दिया था.

सम्राट अशोक से पहले के सभी मौर्य राजा बौद्ध नहीं थे. न चन्द्रगुप्त मौर्य, न सम्प्रति और न जालौक. मौर्य साम्राज्य का पतन शुंग के शासनकाल से नहीं, बल्कि उससे पहले से ही शुरू हो चुका था. इसके कई कारण बताए जाते हैं-

सम्राट अशोक ने खाली कर दिया था राजकोष- बौद्ध पंथ के इतिहास में गौतम बुद्ध के बाद सम्राट अशोक का ही स्थान आता है. बौद्ध ग्रन्थ ‘महावंश’ और ‘दीपवंश’ के अनुसार सम्राट अशोक ने अपने 99 भाईयों की हत्या के बाद मगध की सत्ता हासिल की थी. इस सत्ता संघर्ष में तिष्य ने अशोक का साथ दिया था. सम्राट अशोक के शासनकाल से ही भारत में वैदिक धर्म का पतन होने लगा था और बौद्ध धर्म का प्रचलन जोरों पर था. यहाँ तक की राजा भी बौद्ध धर्म के प्रचार में ही लगे रहते थे.

‘दिव्यावदान’ सहित कई अभिलेखों से यह स्पष्ट है कि सम्राट अशोक ने उस समय राजकोष की 96 करोड़ सोने की मुद्रायें केवल बौद्ध संघों को दान कर दी थीं. बौद्ध भिक्षु और बौद्ध मठ मालामाल हो गये थे. राजकोष में राज्य के लिए मात्र 4 करोड़ सोने की मुद्रायें शेष रह गई थीं. यानी राज्य की अर्थव्यवस्था का एकपक्षीय इस्तेमाल हो रहा था. इसके बाद बौद्ध संघों का राजनैतिक कार्यों में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप होने लगा था और आगे के मौर्य सम्राटों पर उनका दबाव रहता था.

यहाँ ये सवाल भी उठाये गए थे कि क्या राजा को इसका अधिकार होना चाहिए? क्या राज्य या राजकोष किसी राजा की निजी संपत्ति होती है? क्या 96 करोड़ सोने की मुद्रायें सम्राट अशोक ने अपनी निजी संपत्ति से दान की थीं? जबकि मौर्य शासन अपनी प्रजा से कोई कम कर (टैक्स) तो वसूल करता नहीं था. तब क्या प्रजा की राज्य से मात्र एक ही अपेक्षा थी कि राजा राजकोष का सारा खजाना केवल एक धर्म के लिए दान कर दे?

उस समय राज्य के मंत्रियों और अमात्यों ने सूझबूझ से काम लिया. उन्होंने इसके लिए युवराज सम्प्रति से संपर्क किया और उनसे इस सन्दर्भ में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया. तब स्थिति की गंभीरता को समझते हुए युवराज ने यह निर्णय लिया कि किसी सम्राट की मूल शक्ति उसका राजकोष होता है, अतः बचा-खुचा धन बचाना आवश्यक है. आखिर देश की रक्षा में लगे सैनिकों को वेतन भी तो देना था.

सम्प्रति के बाद शालिशूक ने अपने बड़े भाई की हत्या कर शासन प्राप्त किया था. शालिशूक के समय हिन्दुओं और विशेष रूप से ब्राह्मणों पर बहुत ज्यादा अत्याचार हुए. अनेकों हिन्दू मंदिर तोड़ दिए गए और अनेकों मंदिरों को बौद्ध मंदिरों में बदल दिया गया. यज्ञ अनुष्ठान रोकने के प्रयास किए गए. सारी हदें पार कर दी गई थीं. ‘गार्गी संहिता’ में शालिशूक को दुष्टात्मा, धार्मिक के रूप में अधार्मिक, धूर्त और झगड़ालू कहा गया है.

अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ और उसका वध

बृहद्रथ के अंतिम मौर्य शासक बनने तक मौर्य साम्राज्य (Maurya Empire) बेहद कमजोर हो गया था. सम्राट बृहद्रथ एक कमजोर और विलासी शासक कहे जाते हैं. इस कारण उनके राज्य की सीमाएं सिकुड़ने लगी थीं. इस समय तक पूरा मगध साम्राज्य बौद्ध धर्म में परिवर्तित हो गया था.

यूनानी फिर से सिर उठाने लगे थे. बृहद्रथ को यवनों के खतरों से कई बार अवगत कराया गया, पर उसने इस ओर ध्यान देना आवश्यक ही नहीं समझा. भारत के कई स्थानों पर यवन सैनिकों ने मगध के सैनिकों की संख्या कम देखकर आक्रमण किया था.

इन समयों में जहां एक तरफ मौर्य साम्राज्य से दक्षिणी और पूर्वी हिस्से छिनते जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ यवन शासक डेमेट्रियस की महत्वाकांक्षा सिर उठाई खड़ी थी. उस समय राजनीतिक रूप से भी प्रभावशाली रहे बौद्ध संघों की आसक्ति यवन आक्रमणकारियों के पक्ष में हो गई थी. यवनों ने भी, विशेष रूप से डेमेट्रियस ने इस स्थिति का भरपूर लाभ उठाया.

यकीन करना मुश्किल था कि जिस धरती ने सिकंदर और सेल्यूकस जैसे योद्धाओं को पराजित किया था, वह अब अपनी वीर वृत्ति खो चुकी थी. अब विदेशी आक्रमणकारी भारत पर हावी होते जा रहे थे. ऐसे ही प्रतिज्ञादुर्बल शासन का अंत पुष्यमित्र शुंग द्वारा किया गया था.

प्रतिज्ञादुर्बल सम्राट बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ सहित कई लेखों में ब्रहद्रथ को एक ‘प्रतिज्ञादुर्बल सम्राट’ कहा गया है-

“प्रतिज्ञादुर्बलं च बलदर्शनव्यपदेश दर्शिताशेषसैन्य: सेनानीअनार्यो मौर्य ब्रहद्रथं पिपेश पुष्यमित्रः स्वामिनः”

दरअसल, उस दौर में सिंहासन प्राप्त करने के लिए राजा अपनी प्रजा के समक्ष प्रतिज्ञा लेता था कि-

“जिस समय मेरा जन्म हुआ और जिस समय मेरी मृत्यु हो जाएगी, उसके मध्य जो भी शुभ कर्म मैंने किए हैं, वे सभी नष्ट हो जाएँ, यदि मैं किसी भी प्रकार से प्रजा के विरुद्ध कार्य करता हुआ पाया जाता हूँ.”

बृहद्रथ के शासनकाल में यवन भारत पर आक्रमण करने वाले थे, पर बृहद्रथ इस बात से एकदम बेफिक्र थे. सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने जब बृहद्रथ को उनकी सेना परेड में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया, तब वह यवन नर्तकियों का नृत्य देख रहे थे. पुष्यमित्र शुंग के कई बार संदेश भेजने पर भी वह नहीं गए और सेना धूप में अपने राजा की प्रतीक्षा करती रह गई. तब किसी तरह से अग्निमित्र बृहद्रथ को परेड में ले आते हैं.

परेड में पहुंचकर बृहद्रथ इस बात को लेकर पुष्यमित्र शुंग पर क्रोधित हुए कि उन्होंने इतने छोटे से कार्य के लिए उन्हें परेशान क्यों किया. बृहद्रथ का यह कार्य सेना का मनोबल गिराने वाली घटना थी. तब बृहद्रथ और पुष्यमित्र के बीच वाद-विवाद और फिर झगड़ा शुरू हो गया. इस झगड़े में शस्त्र से पहला प्रहार बृहद्रथ ने ही किया था. पुष्यमित्र वृहद्रथ की तलवार का प्रहार रोक लेते हैं और उनकी तलवार को झटक देते हैं और अपने एक ही वार से बृहद्रथ का वध कर देते हैं.

मौर्यों की राजधानी पाटलिपुत्र में सेनानायक पुष्यमित्र शुंग का विवाद अपने राजा से इस इस बात को लेकर था कि ‘धम्म विजय’ शांति काल का अस्त्र है, पर जब युद्ध की आहट हो, तो सेना संगठित की जानी चाहिए और राज्य के धन को अस्त्र-शस्त्रों के क्रय में व्यय करना चाहिए.

यवन इतिहासकारों के दृष्टांत और भारतीय वांग्मय भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि, “जिस दौर में भारत की पश्चिमी सीमा यवनों के आक्रमण की संभावना से सहमी हुई थी, उस समय अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ चैन की बांसुरी बजा रहे थे.” और इसीलिए मौर्य सेना से पूरी तरह से पुष्यमित्र शुंग का ही साथ दिया और उसे ही अपना राजा घोषित कर दिया.

राजा का पद संभालते ही पुष्यमित्र ने सबसे पहले राज्य प्रबंधन में सुधार किया. पुष्यमित्र शुंग अपंग हो चुके साम्राज्य को दोबारा से खड़ा करना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने एक सुगठित सेना का निर्माण शुरू किया. पुष्यमित्र ने धीरे-धीरे उन सभी राज्यों को दोबारा से अपने साम्राज्य का हिस्सा बनाया, जो मौर्य वंश की कमजोरी के चलते इस साम्राज्य से अलग हो गए थे. ऐसे सभी राज्यों को फिर से मगध के अधीन किया गया और मगध साम्राज्य का विस्तार किया.

इसके बाद पुष्यमित्र ने भारत में पैर पसार रहे ग्रीक शासकों को भारत से खदेड़ा. उन्होंने ग्रीक सेना को सिंधु पार तक धकेल दिया, जिसके बाद वह दोबारा कभी भारत पर आक्रमण करने नहीं आए. इस तरह राजा पुष्यमित्र ने भारत से ग्रीक सेना का पूरी तरह से सफाया कर दिया था. पुष्यमित्र शुंग पूरे उत्तर, उत्तर-पश्चिम और पूर्वी भारत को पुनः एकसूत्र में बांध दिया था. इसके बाद पूरे भारत में वैदिक धर्म फिर से स्थापित हो चुका था.

मालविकाग्निमित्रम् में पुष्यमित्र के अश्वमेध यज्ञ का विवरण भी मिलता है जिसमें पुष्यमित्र शुंग ने अपने पुत्र अग्निमित्र को एक पत्र लिखा था और यज्ञ में शामिल होने का निमंत्रण दिया था. अग्निमित्र ने बताया था कि एक वर्ष के लिए छोड़े गए अश्व को सिंधु नदी के तट पर घूमते हुए यवन शासक ने पकड़ लिया था और उस घोड़े को उसके पुत्र (अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र) ने भीषण युद्ध करके यवनों से छुड़ा लिया था.

कुछ लोग मनुस्मृति (Manusmriti) की रचना का काल आज से लगभग 2000 साल पहले पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल का बताते हैं. हालांकि बहुत सारे इतिहासकार इस दावे को प्रमाणों के साथ खारिज कर चुके हैं. रोमिला थापर इन दावों को अतिशयोक्तिपूर्ण मानती हैं. इसी के साथ वह यह भी कहती हैं कि पुरातात्विक साक्ष्य पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में बौद्धों के उत्पीड़न के दावे को भी झूठा साबित करते हैं.

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