Tirth Yatra : तीर्थ यात्रा क्यों जरूरी है? किसे मिलता है तीर्थों का फल?

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Importance of Pilgrimage

‘यात्रा’ शब्द इतना आकर्षक है कि ऐसा कौन है जिसका हृदय इसे सुनकर रोमांचित न हो उठे. सच बात तो यह है कि इंसान रोजी-रोटी के जुगाड़ में अपना दैनिक जीवन एक ही बंधे-बंधाए ढर्रे पर बिताते-बिताते इतना ऊब जाता है कि वह अपने जीवन चक्र में कुछ बदलाव चाहता है. यात्रा इसी इच्छित परिवर्तन का सुखद अवसर पेश करती है. और यदि यात्रा तीर्थों की हो तो और भी सुन्दर, क्योंकि तीर्थ यात्रा मनुष्य को मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति करने व स्वयं को जानने का अवसर प्रदान करती है.

पवित्र स्थानों को तीर्थ कहा जाता है. तीर्थों में किसी कार्य को एवं विशेष कार्यों को करने से उन कार्यों का महत्व अधिक हो जाता है. सामान्य स्थान में मन को एकाग्र करने के लिए बहुत प्रयास करने पड़ते हैं. तीर्थस्थलों में समाई हुई सात्विकता तथा वहाँ का सुरम्य वातावरण मन में धार्मिक भावों को प्रगाढ़ता देता है. श्रद्धालु जन तीर्थाटन करने के लिये कठिन यात्रा भी करते हैं एवं स्नान-दर्शन के अतिरिक्त कथा-श्रवण, दान, जप, व्रत, होम एवं धार्मिक अनुष्ठानों जैसे अनेक शुभ कर्म करके तीर्थसेवनजनित पुण्य फलों की प्राप्ति करते हैं.

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भारतीय संस्कृति में तीर्थ परंपरा अति प्राचीन एवं महत्वपूर्ण है. ‘तीर्थ’ शब्द श्रेष्ठ और पवित्रता का द्योतक है, जिससे मनुष्य की व्यक्तिगत एवं सामूहिक उन्नति हो सकती है. तीर्थों का प्रयोजन सात्विक, संयमित और पवित्र जीवन को प्रोत्साहित करना है. प्रत्येक तीर्थ से उच्च आध्यात्मिकता, सात्विकता और पवित्रता का विकास होता है. अर्थात जिसके द्वारा मनुष्य पाप आदि से मुक्त हो जाए, उसे तीर्थ कहते हैं.

वेदों में तीर्थों का वर्णन स्तुतियों के रूप में किया गया है. तीर्थों की महिमा इसलिए है कि वहां महापुरुषों और संतों ने निवास किया है, या भगवान ने किसी भी रूप में प्रकट होकर उस स्थल को अपना लीला-क्षेत्र बनाकर उस क्षेत्र के महत्व को बढ़ा दिया है.

जिस प्रकार शरीर में मस्तक आदि कुछ अंग पवित्र माने जाते हैं, उसी प्रकार पृथ्वी पर भी कुछ स्थान विशेष पवित्र माने गए हैं. कहीं गंगा आदि नदियों के सान्निध्य से, तो कहीं ऋषि मुनियों तथा संत-महात्माओं की तपोभूमि अथवा भगवत अवतारों की लीला-भूमि होने से तीर्थ पुण्यप्रद माने गए हैं.

इनमें चार धाम की यात्रा, द्वादश ज्योतिर्लिंग की यात्रा का बहुत अधिक महत्व बताया गया है. अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, उज्जैन और द्वारिका– ये साथ प्रधान तीर्थ हैं. नदी के किनारे, नदियों के संगम-स्थल या नदी का समुद्र से संगम, पर्वतीय प्रदेशों में देवालय आदि तीर्थस्थलों में आते हैं. नदियों में गंगा प्रधान है, क्योंकि यह सर्वतीर्थमयी और समस्त तीर्थों की मूर्धन्या है.

ganga river

तीर्थों की महिमा

महाभारत के वनपर्व के तीर्थयात्रापर्व में तीर्थों के महत्त्व पर व्यापक प्रकाश डाला गया है. जब पितामह भीष्म पुलस्त्य ऋषि से पूछते हैं कि- “ब्रह्मर्षि! जो तीर्थ के उद्देश्य से सारी पृथ्वी की परिक्रमा करता है, उसे क्या फल मिलता है?”

तब पुलस्त्य जी कहते हैं-
“वत्स! तीर्थयात्रा बड़ा पवित्र सत्कर्म है. यह ऋषियों के लिए बहुत बड़ा आश्रय है. ऋषियों ने देवताओं के उद्देश्य से यथायोग्य यज्ञ बताए हैं और उनका फल भी बताया है. परंतु जो मनुष्य दरिद्रता या सहायकों की कमी आदि कारणों से यज्ञादि का अनुष्ठान नहीं कर पाते हैं, ऐसे मनुष्य नियम-संयम से तीर्थयात्रा करके समस्त यज्ञों का फल प्राप्त कर सकते हैं.”

हमारा भारतवर्ष तो तीर्थों का देश है. यह तो स्वयं में ही एक तीर्थ है. दुनिया का हर व्यक्ति तीर्थयात्रा के लिए भारत ही आना चाहता है. महाभारत के ‘वनपर्व’ के अंतर्गत ‘तीर्थयात्रापर्व’ में न केवल तीर्थों का महत्त्व बताया गया है, बल्कि विश्व के प्रमुख तीर्थ स्थानों और उनकी महिमा के बारे में भी विस्तृत जानकारी दी गई है. इसमें सर्वप्रथम पुष्कर तीर्थ (Pushkar) का वर्णन किया गया है-

“मनुष्यलोक में देवाधिदेव ब्रह्माजी का त्रिलोक विख्यात तीर्थ है जो ‘पुष्कर’ नाम से प्रसिद्ध है. बड़े भाग्यवान मनुष्य ही उसमें प्रवेश कर पाते हैं. जैसे भगवान विष्णु सब देवताओं के आदि हैं, वैसे ही पुष्कर सब तीर्थों का आदि कहा जाता है. पुष्कर में तीनों समय 10 सहस्त्र कोटि तीर्थों का वास रहता है. वहां तप करके देवता, दैत्य और ब्रह्मर्षि महान पुण्य से संपन्न दिव्य योग से युक्त होते हैं. जो मनस्वी पुरुष मन से भी पुष्कर तीर्थ में जाने की इच्छा करता है, वह स्वर्गलोक में पूजित होता है. पुष्कर में पहले देवता तथा ऋषि महान पुण्य से संपन्न होकर सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं. जो पुष्कर में जाकर स्नान करता तथा देवताओं और पितरों की पूजा में संलग्न रहता है, उसे अश्वमेध यज्ञ से भी 10 गुना फल प्राप्त होता है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र जो कोई भी ब्रह्माजी के तीर्थ में स्नान कर लेते हैं, उन्हें फिर किसी योनि में जन्म नहीं लेना पड़ता है. पुष्कर जाना कठिन है, पुष्कर में तप करना अत्यंत कठिन है, और पुष्कर में दान देने का सुयोग तो और भी कठिन है, और उसमें निवास का सौभाग्य तो अत्यंत ही कठिन है.”

Shri Brahma ji ki puja

पुष्कर भारत के राजस्थान राज्य के अजमेर जिले में स्थित एक नगर व प्रमुख तीर्थस्थल है. पुष्कर तीर्थ की महिमा सदा से ही रही है, और इस पवित्र स्थान का वर्णन पुराणों सहित कई जगहों पर मिलता है. वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 62 श्लोक 28 में विश्वामित्र जी के यहाँ तप करने की बात कही गई है. जब भगवान् श्रीराम-सीताजी और लक्ष्मण जी वनवासकाल के दौरान पंचवटी में प्रवेश करते हैं, तो वहां की सुंदरता को देखकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण जी से कहते हैं-

“देखो वीर! यह स्थान समतल और सुंदर है और बड़े-बड़े वृक्षों से घिरा हुआ है. सुंदर कमलों के कारण यह स्थान पुष्करिणी तीर्थ के समान ही दिखाई दे रहा है.”

तीर्थ यात्रा का फल किसे मिलता है?

तीर्थ यात्रा का फल किसे मिलता है? इसे लेकर महाभारत का ‘तीर्थयात्रापर्व’ कहता है-
“जिसके हाथ, पैर और मन अपने नियंत्रण में हों, वही मनुष्य तीर्थसेवन का फल पाता है. जो दम्भ आदि दोषों से दूर, कर्तव्य के अहंकार से शून्य और जितेन्द्रिय हो, वही मनुष्य तीर्थ के वास्तविक फल का भागी होता है.”

सबसे पहले तो यह ध्यान रखना चाहिए कि तीर्थयात्रा, मनोरंजन की यात्रा से अलग होती है, और तीर्थ स्थान बाकी स्थानों से अलग होते हैं. भले ही आप तीर्थ के उद्देश्य से आये हों या नहीं, लेकिन फिर भी तीर्थ स्थान रील्स बनाने, थके-हारे मजबूर बेजुबान पशुओं की सवारी कर उन्हें कष्ट पहुंचाने, चीजों का इस्तेमाल करके कचरा कहीं भी फेंक देने, धूम्रपान-शराब-मांसाहार का भी लुफ्त उठाने, पहाड़ों-नदियों में अपना करतब दिखाने, साबुन-शैम्पू लगाकर नदियों में नहाने और उन्हें गन्दा करने आदि के लिए नहीं होते.

ऐसे महान और पवित्र स्थानों पर हम जो दे आते हैं, वही बाद में हमारे पास किसी न किसी रूप में लौटकर आ जाता है. तीर्थ स्थानों पर सुविधाओं की खोज में यदि हम उन्हें गन्दा करके आ जाते हैं, या वहां के मजबूर जीव-जंतुओं को कष्ट पहुंचाते हैं, तो इसे तीर्थयात्रा बिल्कुल नहीं कहा जा सकता है. तीर्थयात्रा एक तपस्या है, और तपस्या स्वयं ही करनी पड़ती है.

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तीर्थ वे पवित्र स्थान होते हैं, जहाँ पहले कभी चरम शक्तियां और पवित्रता निवास कर चुकी है, और जिनकी पवित्रता के कारण ही उनका महत्त्व आजतक बना हुआ है और बना रहेगा. अतः तीर्थोंस्थानों की पवित्रता का ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है. हमारे पूर्वजों ने तीर्थ स्थानों को बचाने के लिए अनेक बलिदान दिए हैं. ऐसे में हमें भी अपनी जिम्मेदारियों को समझना और निभाना चाहिए. यदि हम ही ऐसे स्थानों की रक्षा नहीं करेंगे, तो और कौन करेगा?

तीर्थ करने का एक अलग महत्त्व है जो यात्रा से करने से बिल्कुल अलग है. मनुष्य तीर्थयात्रा पर जाता है तो अपने लिए कुछ खोजने, कुछ मांगने या कुछ प्राप्त करने के लिए. तीर्थयात्रा का अर्थ है सरलता से जीना, जो पवित्र है उसकी ओर जाना, मन के कुछ सवालों के पाना, और जीवन को बदलने वाले अनुभव के अवसर पर ध्यान केंद्रित करना.

मानस तीर्थ (Manas Tirtha)- मानस तीर्थ के बारे में कहा गया है कि सारे तीर्थों से भी मन की परम विशुद्धि ही सबसे बड़ा तीर्थ है. स्कंद पुराण में सात मानस तीर्थ बताये गए हैं- सत्य, क्षमा, इंद्रिय संयम, दया, प्रियवचन, ज्ञान और तप. आदि शंकराचार्य ने जी ने भी लिखा है कि अपने मन की शुद्धि ही परम तीर्थ है. इन तीर्थ में भली-भांति स्नान करने से परम गति की प्राप्ति होती है. तीर्थ यात्रा का उद्देश्य ही है अंतःकरण की शुद्धि और उसके फलस्वरुप मानव जीवन का चरम और परमधाम भगवतप्राप्ति.

तीर्थयात्रा का बहुत महत्त्व है. नियम-संयम के साथ की गई तीर्थयात्रा समस्त यज्ञों का फल देने वाली कही गई है. लेकिन यदि कोई व्यक्ति किसी कारण से जैसे रोग आदि के कारण अपने जीवन में तीर्थयात्रा नहीं कर पाता है, तो उसे निराश नहीं होना चाहिए. वह व्यक्ति अपनी साधना-तपस्या और सत्कर्मों आदि से निज स्थान को ही तीर्थ बना सकता है.

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