Bharat in Mahabharat
धृतराष्ट्र ने संजय से कहा, “संजय! यह जो भारतवर्ष है जिसमें यह राजाओं की विशाल वाहिनी युद्ध के लिए एकत्र हुई है, जहां का साम्राज्य प्राप्त करने के लिए मेरा पुत्र दुर्योधन ललचाया हुआ है, जिसे पाने के लिए पांडवों के मन में भी बड़ी इच्छा है तथा जिसके प्रति मेरा मन भी बहुत आसक्त है, उस भारतवर्ष का तुम यथार्थ रूप से वर्णन करो.”
संजय ने कहा-
“राजन्! पांडवों को इस भारतवर्ष के साम्राज्य का लोभ नहीं है. दुर्योधन तथा सुबलपुत्र शकुनि ही इसके लिए बहुत ललचाये हुए हैं. विभिन्न जनपदों के स्वामी भी इस भारतवर्ष के प्रति गृध्र-दृष्टि लगाए हुए एक-दूसरे के उत्कर्ष को सहन नहीं कर पाते हैं. भारत! अब मैं आपसे इस भारतवर्ष का वर्णन करूंगा जो इंद्रदेव और वैवस्वत मनु का प्रिय देश है. राजन्! वेननंदन पृथु, महात्मा इक्ष्वाकु, ययाति, अंबरीष, मांधाता, नहुष, मुचुकुन्द, उशीनरपुत्र शिबि, ऋषभ, इलानंदन पुरुरवा, राजा नृग, कुशिक, महात्मा गाधि, सोमक, दिलीप तथा अन्य जो महाबली नरेश हुए हैं, उन सभी को भारतवर्ष बहुत प्रिय रहा है. मैं इस भारतवर्ष का यथावत् वर्णन करता हूं.
इस भारतवर्ष में महेंद्र, मलय, सह्र, शुक्तिमान, ऋक्षवान, विंध्य और पारियात्र- ये सात कुलपर्वत कहे गए हैं. इनके आसपास और भी हजारों अविज्ञात पर्वत हैं जो रत्न आदि सार वस्तुओं से युक्त, विस्तृत और विचित्र शिखरों से सुशोभित हैं. इनसे भिन्न और भी छोटे-छोटे अपरिचित पर्वत हैं जो छोटे-छोटे प्राणियों के जीवन निर्वाह का आश्रय बने हुए हैं.
राजन्! इस भारतवर्ष में आर्य, मलेच्छ तथा संकर जाति के मनुष्य निवास करते हैं. वे लोग यहां की जिन बड़ी नदियों का जल पीते हैं, उनके नाम सुनिए-
गंगा, सिंधु, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा, बाहुदा, महानदी, शतद्रु, चंद्रभागा, यमुना, दृषद्वती, बिपाशा, विपापा, स्थूलबालुका, वेत्रवती, कृष्णावेणा, इरावती, वितस्ता, पयोष्पी, देविका, वेदस्मृता, वेदवती, त्रिदिवा, इक्षुला, कृमि, करीषिणी, चित्रवाहा, चित्रसेना, गोमती, धूतपापा, वंदना, कौशिकी, कृत्या, निचिता, लोहितारिणी, रहस्या, शतकुंभा, सरयू, चर्मण्वती, हस्तिसोमा, दिक्, शरावती, पयोष्णी, वेणा, भीमरथी, कावेरी, चुलुका, वाणी, शतबला, नीवारा, अहिता, सुप्रयोगा, पवित्रा, कुंडली, सिंधु, राजनी, पुरमालिनी, पूर्वाभिरामा, वीरा (नीरा), भीमा, ओघवती, पाशाशिनी, पापहरा, महेंद्रा, पाटलावती, करीषिणी, असिक्नी, कुशचीरा, मकरी, प्रवरा, मेना, हेमा, घृतवती, पुरावती, अनुष्णा, शैब्या, कापी, सदानीरा, अध्रष्या, कुशधारा, सदाकान्ता, शिवा, वीरमती, वस्त्रा, सुवस्त्रा, गौरी, कम्पना, हिरण्वती, वरा, वीरकरा, पंचमी, रथचित्रा, ज्योतिरथा, विश्वामित्रा, कपिंजला, उपेन्द्रा, बहुला, कुवीरा, अम्बुवाहिनी, विनदी, पिंजला, तुंगवेणा, कृष्णवेणा, विदिशा, ताम्रा, कपिला, खलु, सुवामा, विदाश्वा, हरिश्रावा, महापगा, शीघ्रा, पिच्छिला, भारद्वाजी, शोणा, चन्द्रमा, दुर्गा, चित्रशिला, ब्रह्मवेध्या, ब्रह्ममेध्या, बृहद्वती, यवक्षा, रोही, जाम्बूनदी, सुनसा, तमसा, दासी, वसा, वराणसी, नीला, पर्णाशा, मानवी, वृषभा, बृहद्वनि, सदा निरामया, कृष्णा, मंदगा, मंदवाहिनी, ब्राह्मणी, महागौरी, चित्रोत्तपला, चित्ररथा, मंजुला, वाहिनी, मंदाकिनी, वैतरणी, कोषा, शुक्तिमती, अनंगा, वृषा, लोहित्या, करतोया, वृषका, कुमारी, ऋषिकुल्या, मारिषा, सुपुन्या, सर्वा तथा और भी बहुत सी नदियां हैं.
राजन्! पूर्वोक्त सभी नदियाँ सम्पूर्ण विश्व की माताएं हैं. ये सब महान पुण्यफल देने वाली हैं. राजन्! जहाँ तक मेरी स्मरणशक्ति काम दे सकती है, उसके अनुसार मैंने इन नदियों के नाम बताये हैं. इसके बाद अब मैं आपके सामने भारत के जनपदों का वर्णन करता हूँ, सुनिये-
भारत में कुरु-पांचाल, शाल्व, माद्रेय-जांगल, शूरसेन, पुलिन्द, बोध, माल, मत्स्य, कुशल्य, सौशल्य, कुंति, कांति, कोसल, चेदि, करुष, भोज, सिंधु-पुलिंद, उत्तमाश्च, दशार्ण, मेकल, उत्कल, पांचाल, नैकप्रष्ठ, धुरंधर, गोधा, मद्रकलिंग, काशि, अपरकाशि, जठर, कुक्कुर, अवन्ति, अपरकुन्ति, गोमंत, मंदक, सण्ड, विदर्भ, रूपवाहिक, अश्मक, पाण्डुराष्ट्र, गोपराष्ट्र, करीति, अधिराज्य, कुशाद्य, मल्लराष्ट्र, वारवास्य, अयवाह, चक्र, चक्राति, शक, विदेह, मगध, स्वक्ष, मलज, विजय, अंग, वंग, कलिंग, यकृल्लोमा, मल्ल, सुदेष्ण, प्रह्लाद, माहिक, शशिक, बाह्लिक, वाटधान, आभीर, कालतोयक, अपरान्त, परान्त, चर्ममण्डल, अटवीशिखर, मेरुभूत, उपावृत्त, अनुपावृत्त, स्वराष्ट्र, केकय, कुन्दापरान्त, माहेय, कक्ष, सामुद्रनिष्कुट, बहुसंख्यक अन्ध्र, अन्तर्गिरि, बहिर्गिरि, अंगमलज, मगध, मानवर्जक, समन्तर, प्रावृषेय, भार्गव, पुण्ड्र, भर्ग, किरात, सुद्रष्ट, यामुन, निषाद, निषध, आनर्त, नैर्ऋत, दुर्गाल, प्रतिमत्स्य, कुन्तल, तीरग्रह, ईजिक, कन्यकागुण, तिलभार, मसीर, मधुमान, सुकन्दक, काश्मीर, सिन्धुसौवीर, गांधार, दर्शक, अभीसार, उलूक, शैवाल, बाह्लिक, दार्वी, वानव, दर्व, वातज, आमरथ, उरग, बहुवाद्य, सुदाम, सुमल्लिक, वध्र, करीषक, कुलिन्द, उपत्यक, वनायु, दश, पार्श्वरोम, कुशबिन्दु, कच्छ, गोपालकक्ष, जांगल, कुरुवर्णक, किरात, बर्बर, सिद्ध, वैदेह, ताम्रलिप्तक, ओण्ड्र, मलेच्छ, सैसिरिध्र, पार्वतीय इत्यादि.
राजन्! इस दक्षिणदिशा के अन्यान्य जनपद हैं- द्रविड, केरल, प्राच्य, भूषिक, वनवासिक, कर्णाटक, महिषक, विकल्प, मूषक, झिल्लिक, कुन्तल, सौर्हृद, नभकानन, कौकुट्टक, चोल, कोंकण, मालव, नर, समंग, करक, कुकुर, अंगार, मारिष, ध्वजिनी, उत्सव-संकेत, त्रिगर्त, शाल्वसेनि, व्यूक, कोकबक, प्रोष्ठ, संवेगवश, विंध्यचुलिक, पुलिन्द, वल्कल, मालव, बल्लव, अपरबल्लव, कुलिन्द, कालद, कुण्डल, करट, मूषक, सनीप, घृट, सृंजय, अठिद, पाशिवाट, तनय, सुनय, ऋषिक, विदभ, काक, तंगण, परतंगण, उत्तर और क्रूर अपरमलेच्छ, यवन, चीन, काम्बोज जहाँ भयानक मलेच्छ जाति के लोग निवास करते हैं, सकृद्गृह, कुलत्थ, हूण, पारसिक, रमणचीन, दशमालिक, शूद्र, आभीर, दरद, पशु, खाशीर, अन्तचार, पह्लव, गिरिगह्रर, आत्रेय, भरद्वाज, प्रोषक, कलिंग, तोमर, हन्यमान, करभञ्जक इत्यादि. राजन्! ये तथा और भी पूर्व व उत्तर दिशा के जनपद एवं देश मैंने संक्षेप से बताये हैं.”
♦ इन जनपदों में से बहुतों का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में भी मिलता है. उस समय की स्थिति और महाभारतकाल की स्थिति में कुछ भिन्नता भी देखने को मिलती है. जैसे बालकाण्ड ६|२२ में काम्बोज का उल्लेख बालीक व वनायु जनपदों के साथ किया गया है. इन क्षेत्रों में उत्पन्न श्रेष्ठ काले घोड़ों से अयोध्या नगरी भरी रहती थी.
संजय आगे कहते हैं- “राजन्! अपने गुण और बल के अनुसार यदि अच्छी तरह इस भूमि (भारतवर्ष) का पालन किया जाए तो यह कामनाओं की पूर्ति करने वाली कामधेनु बनाकर धर्म, अर्थ और काम तीनों के महान फल की प्राप्ति कराती है. इसीलिए धर्म और अर्थ के काम में निपुण शूरवीर नरेश इसे पाने की अभिलाषा रखते हैं और धन के लोभ में आसक्त होकर वेगपूर्वक युद्ध में जाकर अपने प्राणों का परित्याग कर देते हैं. देवशरीरधारी प्राणियों के लिए और मानवशरीरधारी जीवों के लिए यथेष्ट फल देने वाली यह भूमि उनका परम आश्रय होती है.
राजन्! जैसे कुत्ते मांस के टुकड़े के लिए आपस में लड़ते और एक-दूसरे को नोंचते हैं, उसी प्रकार राजा लोग इस भूमि को भोगने की इच्छा रखकर आपस में लड़ते और लूटपात करते रहते हैं, किंतु आज तक किसी को अपनी कामनाओं से तृप्ति नहीं हुई. यदि भूमि के यथार्थ स्वरूप का संपूर्ण रूप से ज्ञान हो जाए तो यह भूमि परमात्मा से अभिन्न होने के कारण प्राणियों के लिए स्वयं ही पिता, भ्राता, पुत्र, आकाशवर्ती पुण्यलोक तथा स्वर्ग भी बन जाती है.
राजन्! भारतवर्ष में चार युग होते हैं- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग. पहले सतयुग आता है, फिर त्रेतायुग आता है, उसके बाद द्वापर युग बीतने पर कलयुग की प्रवृत्ति होती है. सतयुग के लोगों की आयु का मान चार हजार वर्ष है. त्रेता के मनुष्यों की आयु तीन हजार वर्षों की बताई गई है, द्वापर के लोगों की आयु दो हजार वर्षों की है, जो इस समय भूतल पर विद्यमान हैं. कलियुग में आयु प्रमाण की कोई मर्यादा नहीं है. यहां गर्भ के बच्चे भी मरते हैं और नवजात शिशु भी मृत्यु को प्राप्त होते हैं.”
♦ महाभारत में ‘वनपर्व’ के अध्याय 188 (श्लोक 22 से 28 तक) में भी चारों युगों का मान बताया गया है. ‘वनपर्व’ के अध्याय 188 के अनुसार-
• चार हजार दिव्यवर्षों का एक सतयुग बताया गया है. उतने ही सौ वर्ष उसकी संध्या और संध्यांश के होते हैं. इस प्रकार कुल 4800 दिव्यवर्ष सतयुग के हैं.
• तीन हजार दिव्यवर्षों का त्रेतायुग बताया जाता है. उसकी संध्या और संध्यांश के भी उतने ही (तीन-तीन) सौ दिव्य वर्ष होते हैं. इस प्रकार यह युग 3600 दिव्यवर्षों का होता है.
• द्वापर का मान दो हजार दिव्यवर्ष है, तथा उतने ही सौ वर्ष उसकी संध्या व संध्यांश के हैं. अतः सब मिलकर 2400 दिव्यवर्ष द्वापर के हैं.
• तदनन्तर एक हजार दिव्यवर्ष कलियुग का मान कहा गया है. सौ वर्ष उसकी संध्या के और सौ वर्ष उसके संध्यांश के हैं. इस प्रकार कलियुग 1200 दिव्यवर्षों का होता है. संध्या और संध्यांश का मान बराबर-बराबर ही समझो.
• कलियुग के क्षीण हो जाने पर सतयुग का आरम्भ होता है. इस प्रकार 12,000 दिव्यवर्षों की एक चतुर्युगी बताई गई है. एक हजार चतुर्युग बीतने पर ब्रह्माजी का एक दिन होता है. यह सारा जगत ब्रह्माजी के दिनभर ही रहता है और वह दिन समाप्त होते ही नष्ट हो जाता है. इसी को विद्वान पुरुष ‘लोकों का प्रलय’ कहते हैं. भगवद्गीता के अध्याय 8 में भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को यही बताया है, और सूर्यसिद्धांत पुस्तक में भी युगों की यही कालगणना बताई गई है.
• ‘वनपर्व’ के अध्याय 188 के श्लोक 29 से 33 तक के अनुसार, सहस्त्र चतुर्युग के अंतिम भाग को ही कलियुग का अंतिम भाग कहा गया है, और इस कलियुग की समाप्ति को ही प्रलय कहा गया है. भगवान् कल्कि का जन्म इसी कलियुग के अंत में (सहस्त्र चतुर्युग के अंतिम भाग में) बताया जाता है.
संजय आगे कहते हैं- “राजन्! सतयुग में महाबली, महान सत्वगुणसंपन्न, बुद्धिमान, धनवान और प्रियदर्शन मनुष्य उत्पन्न होते हैं. उस समय प्रायः तपस्या की धनी महर्षिगढ़ भी जन्म लेते हैं. इसी प्रकार त्रेतायुग में समस्त भूमंडल के क्षत्रिय अत्यंत उत्साही, महान मनस्वी, धर्मात्मा, सत्यवादी, प्रियदर्शन, सुंदर शरीरधारी, महापराक्रमी, धनुर्धर, वर पाने योग्य, युद्ध में शूरशिरोमणि तथा मानवजाति की रक्षा करने वाले होते हैं. द्वापर में सभी वर्णों के लोग उत्पन्न होते हैं एवं वे सदा परम उत्साही, पराक्रमी तथा एक-दूसरे को जीतने के इच्छुक होते हैं. कलयुग में जन्म लेने वाले लोग प्रायः अल्प तेजस्वी, क्रोधी, लोभी तथा असत्यवादी होते हैं. कलयुग के प्राणियों में ईर्ष्या, मान (अहंकार), क्रोध, माया, दोषदृष्टि, राग तथा लोभ आदि दोष रहते हैं. इस द्वापर में भी गुणों की न्यूनता होती है. भारतवर्ष की अपेक्षा हैमवत तथा हरिवर्ष में उत्तरोत्तर अधिक गुण होते हैं.”
– महाभारत भीष्मपर्व जम्बूखण्डविनिर्माणपर्व अध्याय ९ (Mahabharat Bhishma Parva Jambukhand Vinirman Parva)
“काल ही सम्पूर्ण जगत् का संहार करता है. फिर वही सबकी सृष्टि करता है. यहाँ कुछ भी सदा स्थिर रहने वाला नहीं है. भगवान् नर और नारायण समस्त प्राणियों के सुहृद एवं सर्वज्ञ हैं.” (महाभारत भीष्मपर्व जम्बूखण्डविनिर्माणपर्व अध्याय ८)
विष्णु पुराण के अनुसार –
इस भारतवर्ष में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलि नामक चार युग हैं. इस देश में परलोक के लिए मुनिजन तपस्या करते हैं, याज्ञिक लोग यज्ञ-अनुष्ठान करते हैं और दानीजन आदरपूर्वक दान देते हैं. जम्बूद्वीप में यज्ञमय यज्ञपुरुष भगवान विष्णु का सदा यज्ञों द्वारा यजन किया जाता है. इसके अतिरिक्त अन्य द्वीपों में उनकी दूसरे प्रकार से उपासना होती है.
इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि यह कर्मभूमि है. इसके अतिरिक्त अन्यान्य देश भोग-भूमियां हैं. जीव को सहस्त्र जन्मों के अनन्तर महान पुण्यों का उदय होने पर ही इस देश में मनुष्य जन्म प्राप्त होता है. देवगण भी निरंतर यही गान करते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के मार्गभूत भारतवर्ष में जन्म लिया है, वे पुरुष हम देवताओं की अपेक्षा भी अधिक धन्य हैं.
क्योंकि यह स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त करने वालों की कर्मभूमि है. इस देश में मनुष्य शुभकर्मों द्वारा स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं और यहीं से पापकर्मों में प्रवृत्त होने पर वे नरक अथवा तिर्यग्योनि में पड़ते हैं. यहीं से कर्मानुसार स्वर्ग, मोक्ष, अंतरिक्ष अथवा पाताल आदि लोकों को प्राप्त किया जा सकता है. पृथ्वी में यहां के सिवा और कहीं भी मनुष्य के लिए कर्म की विधि नहीं है.
– विष्णुपुराण अध्याय ३ (Vishnu Puran Bharatvarsh)
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