Ganga in Indian Culture
गंगा (Ganga) भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदी है. यह नदी देश की प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है, पवित्रता और आध्यात्मिकता का प्रतीक है. लगभग २५०० किलोमीटर लम्बाई तथा १०० फीट की अधिकतम गहराई वाली यह राष्ट्र नदी जल ही नहीं, अपितु भारत और हिन्दी साहित्य की मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है. ऋग्वेद, रामायण, महाभारत एवं अनेक पुराणों में गंगा को पापनाशिनी, पुण्यसलिला, मोक्ष प्रदायिनी, सुरसरिता, सरित्श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है.
पुण्यतोया गंगा नदी को पुराणों में ‘ब्रह्मद्नव’ कहा गया है. यह द्रव, यह प्राणधारा अंतरिक्ष में विद्यमान रहती है. ब्रह्मांड की अलौकिक पवित्रता तथा गंधवती धरा की पार्थिवता की मिलन-लीला को लपेटती-लहराती गंगा का एक नाम गगनसिंधु भी है. वाराहपुराण में गंगा शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में कहा गया है कि “गाम् गता” अर्थात् पृथ्वी की ओर गई है जो.
पुराणों में गंगा-अवतरण की कथा वर्णित है, जिसके अनुसार इक्ष्वाकु वंश के राजा सगर के कुल में जन्मे राजा अंशुमान के पौत्र तथा राजा दिलीप के पुत्र राजा भागीरथ, जो राजर्षि कहलाए, के अथक प्रयासों से देवापगा अथवा देवनदी भूलोक पर पधारी थीं. भागीरथ की कठिन तपस्या तथा प्रबल उद्योग के फलस्वरूप सुरसरिता ने पृथ्वीलोक पर आना स्वीकार किया एवं देवनदी के प्रचण्ड वेग को धारण करने के लिये भागीरथ ने महादेव को प्रसन्न किया.
ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को जब पुण्यसलिला मकरवाहिनी विबुधनदी अपने प्रचण्ड वेग के साथ धरा पर उतरने लगीं, तब भगवान शिव ने उन्हें धारण करने के लिये अपनी जटाओं को उन्मुक्त कर प्रचण्ड वेगवती देवनदी को अपने जटामण्डल में बद्ध कर लिया. शिवताण्डवस्तोत्र में इसका बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया गया है-
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्द्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम:॥
‘निलिम्पनिर्झरी’ अर्थात् देवसरिता. ‘विलोलवीचिवल्लरी’ कहते हुए लहराती गंगा की उपमा लता अथवा बेल से की गई है. भगवान धूर्जटि जब अपनी जटाजूट की एक लट खोलते हैं तो उससे कल-कल करता वारि प्रवाह पृथ्वी पर प्रबल वेग से बहने लगता है. शिवमस्तक से निर्झरित होने के कारण तरंगलोला गंगा को ‘विराजमानमूर्द्धनि’ कहा गया है. शिव की जटाओं से निकलकर लोक में प्रवहमान होने के कारण गंगा को ‘जटाशंकरी’ कहते हैं. इसी से गंगाजी का एक नाम ‘शिवमौलिमालती’ भी है.
श्री गंगाधर की महिमा
‘शिवमहिम्नःस्तोत्रम्’ में गन्धर्वराज पुष्पदंत अपने परम आराध्य भगवान शिव की स्तुति करते हुए उनके श्रीविग्रह की भव्य महिमा का गायन करते हुए कहते हैं-
वियद्व्यापी तारागणगुणितफेनोद्गमरुचि:
प्रवाहो वारां य: पृषतलघुदृष्ट: शिरसि ते।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि-
त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपु:॥
अर्थात् आकाशजल के इस पारदर्शी प्रवाह पर तारकमाला की स्फुटोज्ज्वल आभा जब झिलमिल करती है, उस समय आकाशगंगा राशि-राशि किरणों से कान्तिमय हो उठती है. यह आकाशगंगा ही भूलोक पर गंगा बनकर लहराती है. जिनके सिर पर यह ब्रह्मांडव्यापिनी गंगा जलकण सी (नन्ही बूंद सी) दीख पड़ती है, उन विराट (शिव) का विभूतिवान स्वरूप कितना अलौकिक है. कैसी महिमा है उन गंगाधर और उनकी जटाओं की!
क्या ही दिव्य छटा है करुणावतार के कर्पूरगौर श्रीअंगों की, जिनकी तेजोमूर्त्ति का ओर-छोर स्वयं ब्रह्मा और विष्णु भी न ढूँढ सके. अत्यंत विराट है शिव का स्वरूप. उग्र है पर क्रूर नहीं, प्रलयंकर हैं पर पीड़क नहीं. सर्व-आश्चर्य हैं तो सर्व आश्रय भी. वे दृश्य नहीं, दृष्टा हैं. सकल विश्व जिसकी एक बूँद ही में डूब सकता है, उस सरितांवरा को वे अपने सिर पर धारण किये हुए हैं. ऐसी अद्भुत महिमा है महेश्वर महाकाल की.
जब भागीरथ ने अपना अभिप्राय प्रकट करते हुए मां गंगा से मृत्युलोक पर चलने की प्रार्थना की, तब गंगाजी ने उन्हें समझाते हुए कहा-
कोऽपि धारयिता वेगं पतन्त्या मे महीतले।
अन्यथा भूतलं भित्त्वा नृप यास्ये रसातलम्॥
अर्थात् “हे राजन, जिस समय मैं स्वर्ग से भूतल पर गिरूं, उस समय मेरे प्रचण्ड वेग को धारण करने वाला कोई होना चाहिये.” तब भागीरथ ने गंगा जी से निवेदन किया कि-
धारयिष्यति ते वेगं रुद्रस्त्वात्मा शरीरिणाम्।
यस्मिन्नोतमिदं प्रोतं विश्वं शाटीव तन्तुषु॥
अर्थात् समस्त प्राणियों के आत्मा रुद्रदेव आपका वेग धारण कर लेंगे, क्योंकि जिस प्रकार साड़ी सूत-धागों में ओतप्रोत होती है, वैसे ही समस्त विश्व रुद्र में ओतप्रोत है.
सगरसन्ततिसन्तरणेच्छया प्रचलिताऽतिजवेन हिमाचलात्।
(अर्थात् सगर की संतानों को तारने की इच्छा से गंगा अति वेग से हिमालय से निकल पड़ीं). भगवान शिव के उद्दाम तरंग केश से मुक्त होकर वेगवती देवनदी की एक वेणी अर्थात् जलधारा कल-कल करती बह चली. भगवान शंकर की जटाओं से निकलने के कारण गंगा को इस लोक में ‘जटाशंकरी’ कहकर पुकारा जाता है, और इसी कारण से गंगा का एक नाम अलकनन्दा भी है. शिव की अलक (बालों की लट) से निकली हुई नन्दा हैं वे और जगत में वह जलधारा अलकनन्दा के नाम से विख्यात हुई.
भाषाविज्ञान के विद्वानों का मानना है कि शिवालिक पर्वतश्रेणी का नाम भी शिव की अलक (शिवालक) शब्द से व्युत्पन्न है, जो कि बाद में उच्चारण की सरलता के कारण शिवालिक बोला जाता रहा. मानसरोवर से गंगा की सात धाराएँ निकलीं- ह्लादिनी, पावनी एवं नलिनी पूर्व की ओर एवं सुचक्षु, सीता तथा सिन्धु पश्चिम दिशा की ओर बह चलीं. सप्तम धारा भागीरथ के पीछे-पीछे बहती चली. स्वर्ग, पृथ्वी व पाताल के तीन पथों होकर बहने के कारण गंगा का एक नाम त्रिपथगा है.
गंगा नदी की प्रधान शाखा भागीरथी है जो गढ़वाल में हिमालय के गौमुख नामक स्थान पर गंगोत्री हिमनद से निकलती हैं. गंगा के इस उद्गम स्थल की ऊँचाई लगभग ३१४० मीटर है. यहाँ गंगा जी को समर्पित एक मंदिर भी है. बहुत से पवित्र तीर्थस्थल गंगा नदी के किनारे पर बसे हुए हैं. प्रयागराज में तीन वेणियों अर्थात् तीन जलधाराओं का संगम त्रिवेणी कहलाता है.
गंगा नदी के पांच संगमों को पवित्र माना जाता है. इन्हें पञ्चप्रयाग भी कहा जाता है-
विष्णुप्रयाग- जहां अलकनंदा नदी धौली गंगा से मिलती है.
नंदप्रयाग- जहां अलकनंदा नदी नंदाकिनी से मिलती है.
कर्णप्रयाग- जहां अलकनंदा नदी पिंडर से मिलती है.
रुद्रप्रयाग- जहां अलकनंदा नदी मंदाकिनी से मिलती है.
देवप्रयाग- जहां अलकनंदा नदी भागीरथी से मिलती है.
भारतीय ग्रंथों एवं साहित्यों में गंगा की महिमा
भारतीय पुराणों और साहित्यों में अपने सौंदर्य और महत्त्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्यों में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किया गया है. गोस्वामी तुलसीदास जी ने कवितावली के उत्तरकाण्ड में ‘श्री गंगा महात्म्य’ का वर्णन तीन छंदों में किया है- इन छंदों में उन्होंने गंगा दर्शन, गंगा स्नान, गंगा जल सेवन, गंगा तट पर बसने वालों का महत्त्व उल्लेखित किया है.
गंगा की महिमा वर्णनातीत है. उसे प्रणाम कर अपना जीवन सार्थक करने की परम्परा अति प्राचीन है. सहस्र नामों से पवित्र गंगा के स्तवन गाये जाते हैं, तथा अपने कल्याण की प्रार्थना की जाती है. दीप, धूप, गंध, पुष्प, माल्य आदि से पूजा-अर्चना की जाती है. गंगा के पृथ्वी पर अवतरण की तिथि पर गंगा दशहरा मनाया जाता है. ऋषिकेश में त्रिवेणी घाट एक ऐसा स्थान है जो गंगा आरती, जिसे ‘महाआरती’ कहा जाता है, के लिए प्रसिद्ध है. हर शाम आरती के समय घाट को जगमगाया जाता है.
नमामि गंगे! तव पादपंकजं
सुरसुरैर्वन्दितदिव्यरूपम्।
भुक्तिं च मुक्तिं च ददासि नित्यम्
भावानुसारेण सदा नराणाम्॥
अर्थात् ‘हे मां गंगा! मैं देव एवं दैत्यों द्वारा पूजित आपके दिव्य पादपद्मों को प्रणाम करता हूँ. आप मनुष्यों को सदा उनके भावानुसार भोग एवं मोक्ष प्रदान करती हैं.’
स्नान के समय गंगाजी के १२ नामों वाला यह श्लोक भी बोला जाता है-
नंदिनी नलिनी सीता मालती च महापगा।
विष्णुपादाब्जसम्भूता गंगा त्रिपथगामिनी॥
भागीरथी भोगवती जाह्नवी त्रिदशेश्वरी।
द्वादशैतानि नामानि यत्र यत्र जलाशये॥
स्नानोद्यतः स्मरेन्नित्यं तत्र तत्र वसाम्यहम्॥
महर्षि वाल्मीकि जी ने ‘श्रीगङ्गाष्टकम्’ में अपनी यह अभिलाषा प्रकट की है कि किसी भी प्रकार पुण्यसलिला भागीरथी के तट पर रहने का अवसर मिले-
त्वत्तीरे तरुकोटारान्तर्गतो गंगे विहंगो वरं
त्वन्नीरे नरकान्तकारिणि वरं मत्स्योऽथवा कच्छपः।
अर्थात् ‘हे माँ गंगे! तुम्हारे तट पर स्थित वृक्ष के कोटर में रहने वाला पक्षी बनना भी वरदान के समान है. हे नरक का अंत करने वाली! तुम्हारे जल में मछली अथवा कछुआ बनकर रहना भी वरदायी है.’
“श्रीराम ने सीताजी को कलियुग के पापों का हरण करने वाली सुहावनी यमुनाजी के दर्शन कराए. फिर पवित्र गंगाजी के दर्शन करवाए. श्रीराम ने कहा- ‘सीते! इन्हें प्रणाम करो.’ सीताजी ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा- ‘हे मां! मेरा मनोरथ पूरा कीजिए, जिससे मैं मेरे पति और देवर के साथ (वनवास से) कुशलतापूर्वक लौटकर तुम्हारी पूजा करूँ.” (श्रीरामचरितमानस)
‘शिवताण्डवस्तोत्रम्’ में भक्त हृदय भाव-भीने मन से अपने आराध्य भगवान् शिव के प्रति अपनी भक्ति को प्रकट करते हुए कहता है कि “मैं कब देवनदी गंगाजी के तट के निकट किसी कुंजकुटीर में वास करता हुआ दुर्बुद्धि से मुक्त होऊंगा!”
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुंजकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्।
साधारण कूप, बांवड़ी एवं अन्य जलाशयों के अतिरिक्त अन्य पवित्र नदियों के जल में भी गंगा के आवाहन को आवश्यक माना गया है. स्कन्दपुराण के अनुसार, अन्य तीर्थों में स्नान करते समय भी गंगाजी के ही नाम का जप करते हैं-
स्नानकालेऽश्रन्यतीर्थेषु जप्यते जाह्नवी जनैः।
विना विष्णुपदीं कान्यत् समर्था ह्यघशोधने॥
गंगाजी के पिता हिमालय की महिमा
गंगाजी को हिमवान अर्थात् हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री कहा गया है. रामायण में श्री विश्वामित्र जी श्रीराम और लक्ष्मण जी को बताते हैं-
“हिमवान नामक एक पर्वत है जो समस्त पर्वतों का राजा तथा सब प्रकार के धातुओं का बहुत बड़ा खजाना है. हिमवान की दो कन्यायें हैं. सरिताओं में श्रेष्ठ गंगाजी हिमवान एवं मेना रानी की ज्येष्ठ पुत्री हैं और दूसरी पुत्री उमा नाम से प्रसिद्ध एवं पूजित हैं.”
महाकवि कालिदास ने अपने कुमारसम्भवम् महाकाव्य के प्रारंभ में हिमालय की दिव्यता और भव्यता का प्रभावोत्पादक वर्णन हुए कहा है कि हिमालय के एक और पश्चिम समुद्र और दूसरी ओर पूर्व समुद्र है. वह अपनी दोनों भुजाओं से दोनों की थाह लेने वाला केवल पृथ्वी का मानदंड ही नहीं है, अपितु उसकी आत्मा में देवताओं की आत्मा का वास है, अर्थात सभी देवी-देवता उस पर वास करते हैं. भारतवर्ष के सभी उत्तम कार्यों का स्रोत भी वही है. वहीं पर जगतजननी पार्वती जी का जन्म हुआ. इसकी हिमाच्छादित चोटियां सिद्धों और तापसों का आश्रयस्थान हैं. हमारे पूर्वजों ने वही साधनारत रहकर अपने तथा अपने वंशजों के जीवन को सफल बनाया. उससे ही गंगा आदि पवित्र नदियां निकलती हैं. इस पर्वत की गुहाएँ इतनी गहन और दीर्घ हैं कि दिन के समय सूर्य के पूर्ण प्रकाश में भी अंधकार में डूबी रहती हैं, पर रात्रि होते ही वनों की विशेष चमकती औषधियों से ऐसे जगमगा उठती हैं, जैसे बिना तेल के दीपक जल उठे हों. वह देवताओं की विहारस्थली भी है. वह महान और पवित्र है.
यज्ञांगयोनित्वमवेक्ष्य यस्य
सारं धरित्रिधरणक्षमं च
प्रजापतिः कल्पितयज्ञभागं
शैलाधिपत्यं स्वयमन्वतिष्ठत्।
(कुमारसम्भवम्, प्रथम सर्ग)
गंगा नदी का न केवल सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व है, बल्कि देश की ४० प्रतिशत आबादी गंगा नदी पर निर्भर है. वर्ष २०१४ में न्यूयॉर्क में मैडिसन स्क्वायर गार्डन में भारतीय समुदाय को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि यदि हम गंगा को साफ करने में सक्षम हो गए तो यह देश की ४० फीसदी आबादी के लिए एक बड़ी मदद साबित होगी. हमारी सभ्यता, संस्कृति और विरासत की प्रतीक हमारी राष्ट्रीय नदी गंगा को सुरक्षित करने के लिए हम सभी को एक साथ आगे आना चाहिए.
Credited With : Dr. Mrs. Kiran Bhatia
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